क्या गांधी ने सच में नहीं रोकी भगत सिंह की फांसी ?

आज पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन मना रहा है। गांधी से जुड़ा इतिहास इतना विस्तृत है की उसे समझ पाना तकरीबन असंभव सा लगता है लेकिन उनसे जुड़े कुछ सवाल ऐसे भी है जो आए दिन देश की जनता के सामने आते रहते है और हो भी क्यों न जिस शख्स को पुरे देश का राष्ट्रपिता माना जाता है, उनको लेकर उत्सुकता होना तो लाज़मी है। गांधी से जुड़ा एक सवाल एक असमंजस ये भी है की अगर गाँधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुकवा सकते थे। क्या गांधी ने जानबूझ कर भगत सिंह का कतल होने दिया?
आदर्श क्रांतिकारी के तौर पर चर्चित भगत सिंह हिंसा के रास्ते पर चलकर आज़ादी पाने के समर्थक थे। 1907 में उनका जन्म हुआ जब 38 साल के लोकसेवक मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ़्रीका में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने का प्रयोग कर रहे थे। वहीं, जवान हो रहे भगत सिंह ने हिंसक क्रांति का रास्ता अपनाया। एक देश की सम्प्रभुता का रखवाला था तो दूसरा अहिंसा का मतवाला। दोनों का मकसत सिर्फ एक ही था, देश की आज़ादी। दोनों कहते थे की देश की जनता शोषण की बेड़ियों से मुक्त हो।
कुछ देश भक्त गांधी के आदर्शों पर चलते तो कुछ भगत सिंह की जूनून भरी आक्रामक तकनीकों को अपनाते। देश में आज़ादी का आंदोलन दोनों ओर से प्रखर हो रहा था मगर 23 मार्च 1931 को लाहौर की सेंट्रल जेल में शाम के वक्त जब आम तौर पर फांसी नहीं दी जाती, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गए। गांधी के आलोचक आज भी इन तीनो की फांसी का इलज़ाम गांधी के माथे डालते है। तो क्या सच में यह गांधी की नाकामी थी?
इसलिए दी जनि थी फांसी
साल 1928 में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया। लाला जी के जीवन के अंतिम सालों की राजनीति से भगत सिंह सहमत नहीं थे लेकिन अंग्रेज़ पुलिस अधिकारियों की लाठियों से घायल हुए लाला जी की हालत देखकर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया। भगत सिंह ने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपिरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई, लेकिन एक साथी की ग़लती की वजह से स्कॉट की जगह 21 साल के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई। इस मामले में भगत सिंह पुलिस की गिरफ़्त में नहीं आ सके, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने असेंबली सभा में बम फेंका। भगत सिंह जनहानि नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की गूंज पहुंचाना चाहते थे।
बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दे दी। गिरफ़्तारी के वक़्त भगत सिंह के पास उस वक्त उनकी रिवॉल्वर भी थी। कुछ समय बाद ये सिद्ध हुआ कि पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या में यही रिवॉल्वर इस्तेमाल हुई थी। इसलिए, असेंबली सभा में बम फेंकने के मामले में पकड़े गए भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के गंभीर मामले में अभियुक्त बनाकर फांसी दी गई।
गांधी और सज़ा माफ़ी
17 फरवरी 1931 से गोलमेज़ सम्मलेन के तहत वायसराय इरविन और गांधी के बीच बातचीत की शुरुआत हुई। इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ। इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई। मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई क्यूंकि उन्होंने ने हिंसा का रास्ता अपनाया था।
गांधी का विरोध
इस दौरान ये सवाल उठाया जाने लगा कि जिस समय भगत सिंह और उनके दूसरे साथियों को सज़ा दी जा रही है तब ब्रितानी सरकार के साथ समझौता कैसे किया जा सकता है। इस मसले से जुड़े सवालों के साथ हिंदुस्तान में अलग-अलग जगहों पर पर्चे बांटे जाने लगे। साम्यवादी इस समझौते से नाराज़ थे और वे सार्वजनिक सभाओं में गांधी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने लगे।
गांधी का नज़रिया
गांधी ने इस मुद्दे पर प्रतिक्रियाएं दी हैं। गांधी का मानना था की वाइसराय के साथ बातचीत भारतीय लोगो के हितों के लिए थी, उसे शर्त रखकर जोखिम में नहीं डाला जा सकता था। हालाँकि गांधी ने वाइसराय के सामने फांसी रोकने का मुद्दा कई बार उठाया था जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी लेखनी में किया।
गांधी अपनी किताब 'स्वराज' में लिखते हैं, "मौत की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए।"
वह कहते हैं, "भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है।"
"मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने कोशिश की। मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थीवो मैंने इस्तेमाल की। 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी।"
"भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया थी। उनकी वीरता को नमन है, लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए। उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता। खून करके शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे।"
कानूनी रास्ते तलाशने की भी कोशिश हुई
29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा –
इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की, लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला।
इसका मतलब है कि गांधी और उनके साथियों ने भगत और उनके साथियों को बचाने के लिए कानूनी रास्ते तलाशे थे, मगर कामयाबी नहीं मिली। वो जानते थे कि ये सजा रद्द करवा पाना मुमकिन नहीं होगा, इसीलिए माहौल बेहतर करने के नाम पर वो सजा टालने की अपील कर रहे थे ताकि फिलहाल सजा रोकी जा सके। 20 मार्च को होम सेक्रटरी हबर्ट इमरसन से भी बात की गए मगर वहां भी बात नहीं बनी।
वायसराय ने गांधी को क्या मजबूरियां गिनाईं?
गांधी ने इरविन के सामने ये मुद्दा दूसरी बार 19 मार्च, 1931 को उठाया। मगर वायसराय ने जवाब दिया कि उनके पास ऐसी कोई वजह नहीं है, जिसे बताकर वो इस सजा को रोक सकें. वायसराय ने कुछ और भी कारण गिनाए। जैसे-
फांसी की तारीख आगे बढ़ाना, वो भी बस राजनैतिक वजहों से, वो भी तब जबकि तारीख का ऐलान हो चुका है, सही नहीं होगा।
सजा की तारीख आगे बढ़ाना अमानवीय होगा। इससे भगत, राजगुरु और सुखदेव के दोस्तों और रिश्तेदारों को लगेगा कि ब्रिटिश सरकार इन तीनों की सजा कम करने पर विचार कर रही है।
कहा जाता है की गांधी अंतिम समय तक संघर्ष कर रहे थे। शोध कर्ताओं को इसके पुख्ता सुबूत भी मिले है, लेकिन गांधी का विरोध होता रहा। साल 1931 की 26 मार्च के दिन कराची में कांग्रेस का अधिवेशन में जब गांधी पहुंचे तो उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया गया। उनका स्वागत काले कपड़े से बने फूल और गांधी मुर्दाबाद-गांधी गो बैक जैसे नारों के साथ किया गया। फांसी के दिन तड़के सुबह गांधी द्वारा जो भावपूर्ण चिट्ठी वायसराय को लिखी गई थी वो दबाव बनाने वाली थी, लेकिन तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। भगत सिंह को फांसी दे दी गई।