कर्नल 80 पार, डॉक्टर अपनों को ही नहीं स्वीकार | Himachal News

2022 विधानसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और दोनों राजनैतिक दलों के साथ -साथ टिकट के चाहवान भी मैदान में डटे है। यूं तो हर सीट पर रोचक घमासान तय है और अभी से खींचतान भी चरम पर है, पर सोलन निर्वाचन क्षेत्र की कहानी अलग भी है और अजब भी। यहां कांग्रेस के पास 80 पार कर चुके कर्नल का कोई विकल्प नहीं दिखता तो भाजपा के डॉक्टर अपनों के मर्ज का ही सबब बने हुए है। कर्नल के नेतृत्व में कांग्रेस लगातार अच्छा कर रही है, बावजूद इसके उनके विरोधियों की खासी तादाद है। पर वर्तमान में कोई ऐसा नहीं दिखता जो कर्नल के टिकट को चुनौती दे रहा हो। उधर भाजपा में डॉ राजेश कश्यप को अपने ही पूरी तरह नहीं स्वीकार रहे। विरोधी इसी ताक में है कि कोई मौका हाथ लगे और डॉक्टर को चित कर दे। पार्टी इसका खामियाजा भी उठा रही है।
सोलन की वर्तमान सियासत को समझने के लिए बीते दो दशक पर नज़र डालना जरूरी है। वर्ष 2000 में सोलन विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ था और उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी डॉ राजीव बिंदल ने जीत दर्ज की थी। ये पहली बार था जब बिंदल विधानसभा पहुंचे थे, यानी ये प्रदेश की सियासत में बिंदल की एंट्री थी। इसके बाद 2003 और 2007 में भी बिंदल जीते और सोलन निर्वाचन क्षेत्र भाजपा का मजबूत गढ़ बना गया। बिंदल ने आते ही तमाम विरोधी भी साइडलाइन कर दिए और इस दौरान सोलन में कांग्रेस भी कमजोर होती गई। फिर बदले परिसीमन के बाद सोलन निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित हो गया और 2012 के विधानसभा चुनाव में बिंदल चेहरा नहीं रहे। बिंदल ने नाहन को कर्मभूमि बनाया और पार्टी ने कुमारी शीला को चेहरा। वहीं कांग्रेस ने दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे कर्नल धनीराम शांडिल को मैदान में उतारा। नतीजे आये और शांडिल की जीत के साथ ही कांग्रेस ने जीत का सूखा खत्म किया। तब से अब तक सोलन निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा लगातार कमजोर होती दिखी है। बिंदल के बाद जिस एक अदद चेहरे की जरुरत पार्टी को है उसे लेकर अब भी संशय की स्थिति है।
2017 के विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस ने फिर कर्नल धनीराम शांडिल पर भरोसा जताया था तो भाजपा ने आईजीएमसी में बतौर चिकित्सक सेवाएं देते रहे डॉ राजेश कश्यप को मैदान में उतारा। तब कुमारी शीला और तरसेम भारती भी दावेदार थे लेकिन डॉ राजेश कश्यप की पैराशूट लैंडिंग ने सबके अरमानो पर पानी फेर दिया। माना जाता है कि टिकट के लिए उनकी राह प्रशस्त करने में तब डॉ राजीव बिंदल की भी अहम भूमिका रही थी। हालांकि बिंदल के करीबी ही टिकट आवंटन को लेकर नाराज़ थे। खेर नजदीकी मुकाबले में डॉ राजेश कश्यप हार गए और कर्नल धनीराम शांडिल लगातार दूसरी बार विधानसभा पहुंचे। इस चुनाव के बाद सोलन भाजपा में बहुत कुछ बदला और पार्टी दो धड़ों में बंटी दिखी है। चुनाव के बाद कश्यप आहिस्ता-आहिस्ता सोफट गुट के नजदीक हो गए। वहीं महेंद्र नाथ सोफत जिन्हे बिंदल का धुर विरोधी माना जाता है। इसी गुटबाजी का नतीजा है कि इसी वर्ष हुए जिला परिषद और सोलन नगर निगम चुनाव भी भाजपा के लिए प्रतिकूल रहे है और वर्तमान स्थिति में पार्टी के लिए 2022 की राह भी आसान होने वाली नहीं है।
शीला और तरसेम, सक्रियता और पकड़ दोनों बढ़ाने होंगे !
भले ही सोलन भाजपा में एक बड़ा तबका डॉ राजेश कश्यप के विरोध में दिख रहा हो लेकिन सवाल ये है कि 2022 में यदि डॉ राजेश कश्यप नहीं तो कौन ? जिला परिषद् चुनाव में सलोगड़ा वार्ड से कुमारी शीला भाजपा उम्मीदवार थी। लगातार तीन चुनाव जीत चुकी कुमारी शीला जीत का चौका लगाने का दावा कर रही थी लेकिन जनता का आशीर्वाद उन्हें नहीं मिला। ये हार कुमारी शीला के लिए बड़ा झटका है। शीला अगर जीत जाती तो 2022 के लिए उनका दावा भी मजबूत होता, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। शीला अधिक सक्रीय भी नहीं दिख रही है। ऐसी ही स्थिति 2017 तक पार्टी में प्रो एक्टिव दिखते रहे तरसेम भारती की है। पहले ख़राब स्वास्थ्य ने तरसेम को सक्रिय राजनीति से दूर रखा। अब भी वे अधिक सक्रिय नहीं दिखते और न ही पार्टी के जमीनी संगठन में उनकी स्वीकार्यता और पकड़ दिखती है। इन दोनों नेताओं को यदि 2022 के लिए अपना दावा मजबूत करना है तो सक्रियता भी बढ़ानी होगी और दमखम भी दिखाना होगा। वर्तमान स्थिति में तो ये डॉ राजेश कश्यप को ज्यादा टक्कर देते नहीं दिखते।
क्या दो भाइयों में होगा टिकट के लिए मुकाबला ?
भाजपा के सामने एक अन्य विकल्प पूर्व सांसद वीरेंद्र कश्यप भी हो सकते है। कश्यप दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे है। रोचक बात ये है कि डॉ राजेश कश्यप और वीरेंद्र कश्यप भाई है। पर वीरेंद्र कश्यप 2019 लोकसभा चुनाव में टिकट कटने के बाद से ही लगभग साइलेंट है। जानकार मानते है कि सियासत महाठगिनी है और 2022 में टिकट के लिए दो भाई भी अगर दौड़ में दिखे तो शायद किसी को हैरानी न हो।
कश्यप फेस, पर तालमेल बैठाने में फेल
सोलन की सियासत में फिलवक्त डॉ राजेश कश्यप ही भाजपा का प्राइम फेस है। सरकार में कामकाज करवाने का रसूख कश्यप का ही माना जाता है लेकिन जमीनी संगठन में ही उन्हें लेकर स्वीकार्यता नहीं दिखती। दरअसल भाजपा के संगठन में बिंदल के निष्ठावानों की भरमार है। ऐसे में डॉ कश्यप के साथ संगठन पूरी तरह कदमताल करता नहीं दिखता। वहीँ कश्यप भी अब तक संगठन में उस तरह की जमीनी पैठ नहीं बना पाए जैसी समर्थकों को उनसे उम्मीद थी। इसी तालमेल की कमी का खामियाजा पार्टी जिला परिषद और नगर निगम चुनाव में भुगत चुकी है। हालात नहीं बदले तो निजी तौर पर डॉ राजेश कश्यप के लिए भी आगे की राह बेहद मुश्किल होगी।
शांडिल का विकल्प नहीं
81 पार कर चुके डॉ कर्नल धनीराम शांडिल इस वक्त सोलन कांग्रेस का सबसे बड़ा और मजबूत चेहरा है। 2012 में शांडिल ने ही सोलन में कांग्रेस की वापसी करवाई थी और अब भी वे ही सोलन निर्वाचन क्षेत्र में एकछत्र नेता है। 2022 में भी संभवतः शांडिल ही कांग्रेस का चेहरा होंगे क्यों कि उनका विकल्प पार्टी के पास नहीं दिखता। वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे शांडिल को गांधी परिवार का करीबी माना जाता है और यदि पार्टी की सत्ता वापसी होती है तो उन्हें कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी भी दी जा सकती है। पर ये जहन में रखना भी जरूरी है कि 2022 विधानसभा चुनाव के वक्त शांडिल की उम्र 82 पार होगी और उनका विकल्प न होना पार्टी के अच्छी स्थिति नहीं है।
गिले शिकवे मिटाकर होगी राह आसान
वीरभद्र सरकार में मंत्री रहते हुए कर्नल धनीराम शांडिल ने साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक के काम करवाए थे, हालांकि इसके बावजूद शांडिल प्रभावशाली जीत दर्ज नहीं कर सके। कई मौकों पर शांडिल पार्टी के एक गुट पर 2017 में उनके विरोध में काम करने की बात कह चुके है। जिला परिषद् चुनाव में सिरिनगर वार्ड के टिकट के लिए वरिष्ठ नेता रमेश ठाकुर और कर्नल में खुलकर ठनी और उस दौरान शांडिल ने रमेश ठाकुर की पत्नी लीला देवी का टिकट कटवाया। बावजूद इसके लीला देवी जीत दर्ज करने में कामयाब रही। रमेश ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी मानते जाते है, पर अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद बदली स्तिथि में राजनैतिक समीकरण भी बदल सकते है। कंडाघाट ब्लॉक में ठाकुर का अच्छा प्रभाव है और 2022 में यदि पार्टी को बेहतर करना है तो कर्नल और ठाकुर को साथ आना होगा।
बेदाग़ भी और गुटबाजी से भी दूर है शांडिल
डॉ कर्नल धनीराम शांडिल, हिमाचल की सियासत का वो बेदाग़ नाम जिस पर विरोधी भी कभी कीचड़ नहीं उछाल पाएं। वीरभद्र सरकार के खिलाफ वर्ष 2016 में भाजपा एक चार्जशीट लाई जिसमे कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। तब भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह, बेटे विक्रमादित्य सिंह, प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू, 10 मंत्रियों, 6 सीपीएस और 10 बोर्ड-निगम-बैंकों के अध्यक्ष-उपाध्यक्षों समेत कुल 40 नेताओं और एक अफसर पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। पर उस चार्जशीट में भी कर्नल धनीराम शांडिल का नाम नहीं था। यानी विपक्ष भी कभी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा पाया। एक बात और कर्नल शांडिल की खूबी है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है, पर शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है। ऐसे में शांडिल से पार पाने को भाजपा को संगठित भी होना होगा और पूरी ताकत भी झोंकनी होगी।
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