नीम करोली बाबा के आश्रम में स्टीव जॉब्स और मार्क जुकरबर्ग को मिली आध्यात्मिक शान्ति भारत में कई ऐसे पावन तीर्थ हैं, जहां पर श्रद्धा एवं भक्ति के साथ जाने मात्र से व्यक्ति के समस्त मनोरथ पूरे हो जाते हैं। ऐसा ही एक पावन तीर्थ देवभूमि उत्तराखंड की वादियों में है, जिसे लोग 'कैंची धाम' के नाम से जानते हैं। कैंची धाम के नीब करौरी बाबा (नीम करौली) की ख्याति विश्वभर में है। नैनीताल से लगभग 65 किलोमीटर दूर कैंची धाम को लेकर मान्यता है कि यहां आने वाला व्यक्ति कभी भी खाली हाथ वापस नहीं लौटता। यहां पर हर मन्नत पूर्णतया फलदायी होती है। यही कारण है कि देश-विदेश से हज़ारों लोग यहां हनुमान जी का आशीर्वाद लेने आते हैं। बाबा के भक्तों में एक आम आदमी से लेकर अरबपति-खरबपति तक शामिल हैं। बाबा के इस पावन धाम में होने वाले नित-नये चमत्कारों को सुनकर दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के भक्त और जाने-माने लेखक रिचर्ड अल्बर्ट ने मिरेकल आफ लव नाम से बाबा पर पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बाबा नीब करौरी के चमत्कारों का विस्तार से वर्णन है। इनके अलावा हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया राबर्ट्स, एप्पल के फाउंडर स्टीव जाब्स और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग जैसी बड़ी विदेशी हस्तियां बाबा के भक्त हैं। कुछ माह पूर्व स्टार क्रिकेटर विराट कोहली और उनकी पत्नी और अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के यहां पहुंचते ही इस धाम को देखने और बाबा के दर्शन करने वालों की होड़ सी लग गई। 1964 में बाबा ने की थी आश्रम की स्थापना नीम करोली बाबा या नीब करोली बाबा की गणना बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संतों में की जाती है। इनका जन्म स्थान ग्राम अकबरपुर जिला फ़िरोज़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ था। कैंची, नैनीताल, भुवाली से 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बाबा नीब करौरी ने इस आश्रम की स्थापना 1964 में की थी। बाबा नीम करौरी 1961 में पहली बार यहां आए और उन्होंने अपने पुराने मित्र पूर्णानंद जी के साथ मिल कर यहां आश्रम बनाने का विचार किया। इस धाम को कैंची मंदिर, नीम करौली धाम और नीम करौली आश्रम के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड में हिमालय की तलहटी में बसा एक छोटा सा आश्रम है नीम करोली बाबा आश्रम। मंदिर के आंगन और चारों ओर से साफ सुथरे कमरों में रसीली हरियाली के साथ, आश्रम एक शांत और एकांत विश्राम के लिए एकदम सही जगह प्रस्तुत करता है। यहाँ कोई टेलीफोन लाइनें नहीं हैं, इसलिए किसी को बाहरी दुनिया से परेशान नहीं किया जा सकता है। श्री हनुमान जी के अवतार माने जाने वाले नीम करोरी बाबा के इस पावन धाम पर पूरे साल श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन हर साल 15 जून को यहां पर एक विशाल मेले व भंडारे का आयोजन होता है। यहां इस दिन इस पावन धाम में स्थापना दिवस मनाया जाता है। कई चमत्कारों के किस्से सुन खींचे आते है भक्त मान्यता है कि बाबा नीम करौरी को हनुमान जी की उपासना से अनेक चामत्कारिक सिद्धियां प्राप्त थीं। लोग उन्हें हनुमान जी का अवतार भी मानते हैं। हालांकि वह आडंबरों से दूर रहते थे। न तो उनके माथे पर तिलक होता था और न ही गले में कंठी माला। एक आम आदमी की तरह जीवन जीने वाले बाबा अपना पैर किसी को नहीं छूने देते थे। यदि कोई छूने की कोशिश करता तो वह उसे श्री हनुमान जी के पैर छूने को कहते थे। बाबा नीब करौरी के इस पावन धाम को लेकर तमाम तरह के चमत्कार जुड़े हैं। जनश्रुतियों के अनुसार, एक बार भंडारे के दौरान कैंची धाम में घी की कमी पड़ गई थी। बाबा जी के आदेश पर नीचे बहती नदी से कनस्तर में जल भरकर लाया गया। उसे प्रसाद बनाने हेतु जब उपयोग में लाया गया तो वह जल घी में बदल गया। ऐसे ही एक बार बाबा नीब करौरी महाराज ने अपने भक्त को गर्मी की तपती धूप में बचाने के लिए उसे बादल की छतरी बनाकर, उसे उसकी मंजिल तक पहुंचवाया। ऐसे न जाने कितने किस्से बाबा और उनके पावन धाम से जुड़े हुए हैं, जिन्हें सुनकर लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के दुनियाभर में 108 आश्रम बाबा नीब करौरी को कैंची धाम बहुत प्रिय था। अक्सर गर्मियों में वे यहीं आकर रहते थे। बाबा के भक्तों ने इस स्थान पर हनुमान का भव्य मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में हनुमान की मूर्ति के साथ-साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं। यहां बाबा नीब करौरी की भी एक भव्य मूर्ति स्थापित की गयी है। बाबा नीब करौरी महाराज के देश-दुनिया में 108 आश्रम हैं। इन आश्रमों में सबसे बड़ा कैंची धाम तथा अमेरिका के न्यू मैक्सिको सिटी स्थित टाउस आश्रम है। स्टीव जॉब्स को आश्रम से मिला एप्पल के लोगो का आईडिया ! भारत की धरती सदा से ही अध्यात्म के खोजियों को अपनी ओर खींचती रही है। दुनिया की कई बड़ी हस्तियों में भारत भूमि पर ही अपना सच्चा आध्यात्मिक गुरु पाया है। एप्पल कंपनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स 1974 से 1976 के बीच भारत भ्रमण पर निकले। वह पर्यटन के मकसद से भारत नहीं आए थे, बल्कि आध्यात्मिक खोज में यहां आए थे। उन्हें एक सच्चे गुरु की तलाश थी।स्टीव पहले हरिद्वार पहुंचे और इसके बाद वह कैंची धाम तक पहुंच गए। यहां पहुंचकर उन्हें पता लगा कि बाबा समाधि ले चुके हैं। कहते है कि स्टीव को एप्पल के लोगो का आइडिया बाबा के आश्रम से ही मिला था। नीम करौली बाबा को कथित तौर पर सेब बहुत पसंद थे और यही वजह थी कि स्टीव ने अपनी कंपनी के लोगों के लिए कटे हुए एप्पल को चुना। हालांकि इस कहानी की सत्यता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। जुकरबर्ग को मिली आध्यात्मिक शांति, शीर्ष पर पहुंचा फेसबुक बाबा से जुड़ा एक किस्सा फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने 27 सितंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बताया था, तब पीएम मोदी फेसबुक के मुख्यालय में गए थे। इस दौरान जुकरबर्ग ने पीएम को भारत भ्रमण की बात बताई। उन्होंने कहा कि जब वे इस संशय में थे कि फेसबुक को बेचा जाए या नहीं, तब एप्पल के फाउंडर स्टीव जॉब्स ने इन्हें भारत में नीम करोली बाबा के स्थान पर जाने की सलाह दी थी। जुकरबर्ग ने बताया था कि वे एक महीना भारत में रहे। इस दौरान वह नीम करोली बाबा के मंदिर में भी गए थे। जुकरबर्ग आए तो यहां एक दिन के लिए थे, लेकिन मौसम खराब हो जाने के कारण वह यहां दो दिन रुके थे। जुकरबर्ग मानते हैं कि भारत में मिली अध्यात्मिक शांति के बाद उन्हें फेसबुक को नए मुकाम पर ले जाने की ऊर्जा मिली। बाबा की तस्वीर को देख जूलिया ने अपनाया हिन्दू धर्म हॉलिवुड की मशहूर अदाकारा जूलिया रॉबर्ट्स ने 2009 में हिंदू धर्म अपना लिया था। वह फिल्म ‘ईट, प्रे, लव’ की शूटिंग के लिए भारत आईं थीं। जूलिया रॉबर्ट्स ने एक इंटरव्यू में यह खुलासा किया था कि वह नीम करौली बाबा की तस्वीर से इतना प्रभावित हुई थीं कि उन्होंने हिन्दू धर्म अपनाने का फैसला कर डाला। जूलिया इन दिनों हिन्दू धर्म का पालन कर रही हैं।
गुजरात के पोरबंदर में भगवान श्री कृष्ण के मित्र सुदामा को समर्पित दुनिया का एक मात्र मंदिर है। सुदामा ने आजीवन दरिद्रता में सात्विक जीवन जीया और ईश्वर से अखंड मित्रता भी निभाई। पोरबंदर सुदामा का जन्म स्थान है। वहां सोमाशर्मा नामक भृगुवंशी के घर सुदामा का जन्म हुआ था। कहते है सुदामा के पिता ने उन्हें बचपन में मध्य प्रदेश के उज्जैन में सांदीपनि ऋषि के आश्रम में पढ़ने के लिए भेज दिया था। भगवान कृष्ण और अपने बड़े भाई बलराम भी गोकुल से मध्य प्रदेश के उज्जैन में सांदीपनि आश्रम में पढ़ने के लिए आए थे। आश्रम में ही कृष्ण और सुदामा एक दूसरे से पहली बार मिले और दोनों में जल्द ही गहरी मित्रता हो गई। हालांकि, आश्रम की शिक्षा पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों अपने-अपने घर चले गए। शिक्षा पूरी होने के बाद सुदामा ने कई सालों के बाद शादी कर ली और अपना जीवनयापन करने लगे। उनका जीवन दरिद्रता में कट रहा था, जबकि श्रीकृष्ण द्वारका के राजा बन गए थे। तब सुदामा की पत्नी ने आग्रह किया कि आप अपने मित्र श्रीकृष्ण के पास जाएं और मदद मांगें, लेकिन सुदामा ने कहा कि, मैं कृष्ण के पास खाली हाथ नहीं जाना चाहता। तब उनकी पत्नी ने श्रीकृष्ण को भेंट देने के लिए चावल दिया। जब सुदामा द्वारका पहुंचे, तो उनका नाम सुनते ही श्रीकृष्ण उनका स्वागत करने के लिए महल के बाहर तक दौड़े चले आए और उन्हें गले से लगा लिया। सुदामा को शर्म आ रही थी कि एक राजा को चावल कैसे भेंट दूं। वह चावल को श्रीकृष्ण से छिपाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कृष्ण ने सुदामा से चावल छीनकर उसे खाने लगे. इसके साथ ही श्रीकृष्ण ने अपनी मित्रता निभाते हुए सुदामा की गरीबी को दूर किया और झोपड़ी को महल में बदल दिया। सुदामा मंदिर पोरबंदर शहर के केंद्र में 1902 से 1907 के बीच बनाया गया। कहा जाता है कि 13वीं शताब्दी में यहां सुदामा का एक छोटा मंदिर था। फिर वर्ष 1903 में पोरबंदर के महाराजा भावसिंहजी ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और छोटे मंदिर के स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के जीर्णोद्धार के दौरान सौराष्ट्र ड्रामा कंपनी ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। यहां आने वाले तीर्थयात्री सुदामा मंदिर जाने पर अपने कपड़ों पर ठप्पा लगाते है, क्योंकि यह कहा जाता है कि कोई भी तीर्थयात्रा सुदामापुरी जाने पर ही यात्रा पूरी होती है। सुदामा मंदिर के बीच में सुदामा की एक मनमोहक मूर्ति है, जिसके दाहिनी ओर उनकी धर्मपत्नी सुशीलाजी की मूर्ति है और बाईं ओर राधा-कृष्ण की मूर्ति है। परंपरा के अनुसार, हर वर्ष सुदामा अन्नकूट उत्सव को नए साल के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। साथ ही अखातीज के दिन सुदामा मंदिर में एक भव्य उत्सव मनाया जाता है जिसमें हजारों भक्त शामिल होते हैं। पोरबंदर का दूसरा नाम सुदामापुरी है सुदामा का द्वारका में आगमन और अस्मावती तट पर बसे इस छोटे से शहर में एक समृद्ध ‘सुदामापुरी’ बनी रही। हालांकि, इस जगह का पहला लिखित प्रमाण पोरबंदर के पास घुमली के एक दान पत्र में है, जो एक हजार साल पुराना है। पोरबंदर के मानसरोवर कुंड के शिलालेख में भी इसके बारे में साक्ष्य मिला है।
हर मजहब के लिए पूजनीय है बाबा मुराद शाह का सूफियाना दरबार मन्नत पूरी होने पर बैंड-बाजों के साथ आते हैं श्रद्धालु न-को-दर ..मतलब ऐसा दरबार कहीं नहीं है। नकोदर में एक ऐसा सूफियाना दरबार है, जहां पर हर मजहब के लोग भरपूर आस्था से सिर झुकाते है। डेरा बाबा मुराद शाह के दर पर दुनिया भर से लोग नतमस्तक होने के लिए आते है। हिंदू, मुस्लिम, सिख; तमाम धर्मों के लोग यहां बाबा के सामने नतमस्तक होते है। लोग मन्नतें मांगते है और पूरी होने पर बैंड-बाजों के साथ माथा टेकने के लिए आते है। हर साल यहाँ दो दिवसीय मेला सजाया जाता है। बाबा मुराद शाह को लेकर जो कथा प्रचलित है उसके मुताबिक आजादी से पहले फकीर बाबा शेरे शाह पाकिस्तान से पंजाब के नकोदर आकर रहने लगे। नकोदर की धरती पर ही उन्होंने इबादत करनी शुरू कर दी। बाबा शेरे शाह हमेशा एकान्त स्थान पर रहते थे और नहीं चाहते थे कि लोग उनके पास आये ताकि उनकी प्रार्थना में कोई विघ्न न पड़े। वह प्रार्थनाओं में रहते थे और वारिस शाह द्वारा लिखित पुस्तक "हीर" पढ़ते थे। नकोदर में ही जैलदारों का परिवार रहता था, जिन्होंने उनकी खूब सेवा की। प्रसन्न होकर उन्होंने अध्यात्मिकता को समर्पित बेटे के जन्म लेने का वरदान दिया। इसके बाद परिवार में एक बच्चे ने जन्म लिया, जिसका नाम विद्या सागर रखा गया जो आगे चलकर बाबा मुराद शाह जी के नाम से जाने गए। बाबा मुराद शाह बाबा शेरे शाह के शिष्य बने और उन्होंने 24 साल की उम्र में फकीरी को चुना । भारत के विभाजन के दौरान बाबा शेरे शाह पाकिस्तान चले गये और बाबा मुराद शाह को दरबार की देखभाल करने और सूफीवाद का संदेश फैलाते रहने का आशीर्वाद दिया। बाबा मुराद शाह के इस दुनिया से चले जाने के बाद साईं गुलाम शाह जिन्हें साईं लाडी शाह के नाम से भी जाना जाता है, दरबार के प्रमुख बने। साईं जी दरबार की देखभाल करते रहे और दरबार का निर्माण करते रहे। साईं जी बाबा मुराद शाह की याद में एक वार्षिक उर्स मेले का आयोजन करते थे, जिसमें वे कव्वाल और सूफी पंजाबी गायकों को प्रदर्शन के लिए आमंत्रित करते थे। क़रामत अली कव्वाल समूह ने अक्सर प्रदर्शन किया और आज भी करते हैं। साईं जी की पसंदीदा कव्वालियों में से एक थी 'मेरे लिखले गुलामा विच ना' जिसे साईं जी हर महफिल में जरूर सुनते थे। साई लाडी शाह भी पहली मई 2008 को गुरुवार को इस दुनिया से चले गए। प्रसिद्द गायक गुरदास मान साईं जी के शिष्य बन गए और साईं जी गुरदास मान से बहुत प्यार करते थे। 2006 में, साईं ने एक कव्वाली महफ़िल के दौरान अपनी पगड़ी उतार दी थी और गुरदास मान के सिर पर रख दी। साईं लाडी शाह के इस दुनिया से चले जाने के बाद, गुरदास मान अब साईं लाडी शाह और बाबा मुराद शाह की याद में मेलों का नेतृत्व करते हैं। बाबा मुराद शाह का दरबार सभी धर्मों के लिए पूजनीय है। यहां पर होने वाले दो दिवसीय मेले में देश भर से लोग शामिल होते है।
हिन्दुओं के लिए 'बाबा रामदेव', मुस्लिम समाज में 'रामसा पीर' कहलाएं हिंदुस्तान में अनेक ऐसे महापुरूष हुए, जिन्होंने मानव देह धारण कर अपने कर्म और तप से लोक जीवन को आलोकित किया, जन साधारण को धर्म का मार्ग दिखाया है। उनके चरित्र और कर्म के चलते उन्हें आम जनमानस में लोक देवता की पदवी मिली और वे जन−जन में पूजे जाने लगे। ऐसे ही लोकदेवताओं में शुमार है बाबा रामदेव, जिनका मंदिर राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामदेवरा में है। ये स्थान धार्मिक सद्भावना की जीती जागती मिसाल है। ये हिन्दू समाज में वे "बाबा रामदेव" एवं मुस्लिम समाज में "रामसा पीर" के नाम से पूजनीय हैं। रामदेव जी के जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, परन्तु इसमें सब एक मत है कि उनका समाधी स्थल रामदेवरा ही है। यहां वे मूर्ति स्वरूप में पूजे जाते हैं। कहते है रामदेवरा में उन्होंने जीवित समाधी ली थी और यहीं पर उनका भव्य मंदिर बना हुआ है। पूर्व में समाधी छोटे छतरीनुमा मंदिर में बनी थी। फिर वर्ष 1912 में बीकानेर के तत्कालीन शासक महाराजा गंगासिंह ने छतरी के चारों तरफ बड़े मंदिर का निर्माण कराया, जिसने शनः−शनः भव्य मंदिर का रूप ले लिया। बताया जाता है कि उस समय मंदिर के निर्माण में 57 हजार रूपये की लागत आई थी। बाबा की समाधि के सामने पूर्वी कोने में अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित रहती है। दर्शन द्वार पर लोहे का चैनल गेट लगाया गया है। दर्शनार्थी अपनी मनौती पूर्ण करने के लिए कपड़ा, मौली, नारियल आदि बांधते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर खोल देते हैं। यह मंदिर हिन्दुओं एवं मुसलमानों दोनों की आस्था का प्रबल केन्द्र है। मंदिर में बाबा रामदेव की मूर्ति के साथ−साथ एक मजार भी बनी है। समाधि स्थल के पास ही रामदेवजी की परम भक्त शिष्या डाली बाई की समाधि और कंगन हैं। डाली बाई का कंगन पत्थर से बना है और इसके प्रति धर्मालुओं में गहरी आस्था है। मान्यता के अनुसार इस कंगन के अन्दर से होकर निकलने पर सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। मंदिर आने वाले लोग इस कंगन के अन्दर से निकलने पर ही अपनी यात्रा पूर्ण मानते हैं। मंदिर के समीप ही स्वयं रामदेव जी द्वारा खुदवाई गई परचा बावड़ी अपनी स्थापत्य कला में बेजोड़ है। इस बावड़ी का निर्माण फाल्गुन सुदी तृतीया विक्रम संवत् 1897 को पूर्ण हुआ। बावड़ी का जल शुद्ध व मीठा है। बावड़ी का निर्माण रामदेव जी के कहने पर बणिया बोयता ने करवाया था। बावड़ी पर लगे चार शिलालेखों से पता चलता है कि घामट गांव के पालीवाल ब्राह्मणों ने इसका पुनर्निर्माण कराया था। इस बावड़ी का जल रामदेवजी का अभिषेक करने के काम में लाया जाता है। गांव के निवासियों को जल का अभाव न रहे इसलिए रामदेव जी ने मंदिर के पीछे विक्रम संवत् 1439 में रामसरोवर तालाब खुदवाया था। यह तालाब 150 एकड़ क्षेत्र में फैला है तथा इसकी गहराई 25 फीट है। तालाब के पश्चिमी छोर पर अद्भुत आश्रम तथा पाल के उत्तरी सिरे पर रामदेवजी की जीवित समाधी है। इसी क्षेत्र में डाली बाई की जीवित समाधी भी है। रामदेवरा मंदिर से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में निर्मित रूणीचा कुंआ (राणीसा का कुंआ) और एक छोटा रामदेव मंदिर भी दर्शनीय है। बताया जाता है कि रानी नेतलदे को प्यास लगने पर रामदेव जी ने भाले की नोक से इस जगह पाताल तोड़ कर पानी निकाला था और तब ही से यह स्थल "राणीसा का कुंआ" के नाम से जाना गया। बाबा रामदेव के पिता अजमल जी किसी समय दिल्ली के सम्राट रहे एवं अनंगपाल तंवर के वंशज थे। बाद में वे आकर पश्चिमी राजस्थान में निवास करने लगे। अजमल जी द्वारिकाधीश के अनन्य भक्त थे। मान्यता है कि भगवान कृष्ण की कृपा से बाबा रामदेव का जन्म हुआ। बाबा रामदेव के लोक गीतों और कथाओं में भैरव राक्षस का वध, घोड़े की सवारी, लक्खी बनजारे का परचा, पांचों पीर का परचा, नेतलदे की अपंगता दूर करने आदि के उल्लेख बखूबी पाये जाते हैं। उनके घोड़े की श्रद्धा से पूजा की जाती है। रामदेवजी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त छूआछूत, जात−पांत का भेदभाव दूर करने तथा नारी व दलित उत्थान के लिए प्रयास किये। अमर कोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नेतलदे को पत्नी स्वीकार कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया। दलितों को आत्मनिर्भर बनने और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया। साथ ही सगुन−निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की। आज भी बाबा की वाणी को "हरजस" के रूप में गाया जाता है। पीरो के पीर रामसा पीर बाबा रामदेव जी के 24 परचों में पंच पीपली भी प्रसिद्ध स्थल है। इस सम्बंध में प्रचलित कथानक के अनुसार, रामदेव जी की परीक्षा के लिए मक्का−मदीना से पांच पीर रामदेवरा आये और उनके अतिथि बने। भोजन के समय पीरों ने कहा कि वे स्वयं के कटोरे में ही भोजन करते हैं। रामदेव ने वहीं बैठे−बैठे अपनी दाई भुजा को इतना लम्बा फैलाया कि मदीना से उनके कटोरे वहीं मंगवा दिये। पीरों ने उनका चमत्कार देखकर उन्हें अपना गुरु (पीर) माना और यहीं से रामदेव जी का नाम रामसा पीर पड़ा और बाबा को "पीरो के पीर रामसा पीर" की उपाधी भी प्रदान की गई। इस घटना से मुसलमान इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी इनकी पूजा करनी शुरू कर दी। रामदेवरा से पूर्व की ओर 10 किलोमीटर एकां गांव के पास छोटी सी नाडी के पाल पर घटित इस घटना के दौरान पीरों ने भी परचे स्वरूप पांच पीपली लगाई थी, जो आज भी मौजूद हैं। दो बार होता है मेले का आयोजन "म्हारो हेलो सुनो जी रामा पीर".....जैसे भजनों पर झूमते-नाचते हुए श्रद्धालु रामदेवरा पहुचते हैं। जैसलमेर में पोकरण से क़रीब 12 किलोमीटर दूर रामदेवरा में बाबा रामदेव का स्थान है जिन्हें कृष्ण भगवान का अवतार माना जाता है। उनकी अवतरण तिथि भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष द्वितीया को है और तब रामदेवरा मेला शुरू होता है। यह मेला एक महीने से अधिक चलता है। साल में दो बार रामदेवरा में भव्य मेलों का आयोजन किया जाता है। शुक्ल पक्ष में तथा भादवा और माघ में दूज से लेकर दशमी तक मेला भरता है। भादवा के महिने में राजस्थान के किसी सड़क मार्ग पर निकल जाएं, सफेद रंग की या पचरंगी ध्वजा को हाथ में लेकर सैंकड़ों जत्थे रामदेवरा की ओर जाते नजर आते हैं। इन जत्थों में सभी आयु वर्ग के नौजवान, बुजुर्ग, स्त्री−पुरूष और बच्चे पूरे उत्साह से बिना थके अनवरत चलते रहते हैं। यह जत्थे मीलों लम्बी यात्रा कर बाबा के दरबार में हाजरी लगाते हैं। साथ लेकर गये ध्वजाओं को मुख्य मंदिर में चढ़ा देते हैं। भादवा के मेले में महाप्रसाद बनाया जाता है। यहां आने वालों के लिए बड़ी संख्या में धर्मशालाएं और विश्राम स्थल बनाये गये हैं। सरकार की ओर से मेले में व्यापक प्रबंध किये जाते है। रात्रि को जागरणों के दौरान रामदेवजी के भोपे रामदेवजी की थांवला एवं फड़ बांचते हैं।
हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य माना जाता है। श्री गणेश आदि सनातन धर्म के प्रमुख आदिपंच देवों में भी शामिल हैं। देश के प्रमुख गणेश मंदिरों में अष्ठविनायक का विशिष्ट स्थान है। दरअसल पुणे के विभिन्न इलाकों में श्री गणेश के आठ मंदिर हैं, इन्हें अष्टविनायक कहा जाता है। इन मंदिरों को स्वयंभू मंदिर भी कहा जाता है। स्वयंभू का अर्थ है कि यहां भगवान स्वयं प्रकट हुए थे यानि किसी ने उनकी प्रतिमा बना कर स्थापित नहीं की थी। इन मंदिरों का जिक्र विभिन्न पुराणों जैसे गणेश और मुद्गल पुराण में भी किया गया है। इन मंदिरों की दर्शन यात्रा को अष्टविनायक तीर्थ यात्रा भी कहा जाता है। अष्ठविनायक मंदिर के संबंध में मान्यता है कि तीर्थ गणेश के ये आठ पवित्र मंदिर स्वयं उत्पन्न और जागृत हैं। पुराणों व धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि भगवान ब्रह्माजी ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्रीगणेश विभिन्न रूपों मे अवतरित होंगे। सतयुग में विनायक, त्रेता युग में मयूरेश्वर, द्वापर युग में गजानन व धूम्रकेतु नाम से कलयुग के अवतार लेंगे। भगवान गणेश के आठों शक्तिपीठ महाराष्ट्र में ही हैं। इन आठ पवित्र तीर्थ में 6 पुणे में हैं और 2 रायगढ़ जिले में हैं। सबसे पहले मोरेगांव के मोरेश्वर की यात्रा करनी चाहिए और उसके बाद क्रम में सिद्धटेक, पाली, महाड, थियूर, लेनानडरी, ओजर, रांजणगांव और उसके बाद फिर से मोरेगांव अष्टविनायक मंदिर में यात्रा समाप्त करनी चाहिए। पूरी यात्रा 654 किलोमीटर की होती है। 1.मयूरेश्वर या मोरेश्वर मंदिर मयूरेश्वर विनायक का मंदिर पुणे के मोरगांव क्षेत्र में है। इस मंदिर में चार द्वार =हैं जिन्हें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग चारों युग का प्रतीक माना जाता हैं। यहां भगवान गणेश जी की मूर्ती बैठी मुद्रा में है और उसकी सूंड बाई है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। यहां नंदी की भी मूर्ती है। कहते हैं कि इसी स्थान पर गणेश जी ने सिंधुरासुर नाम के राक्षस का वध मोर पर सवार होकर उससे युद्ध करते हुए किया था। 2. सिद्धिविनायक मंदिर सिद्धिविनायक मंदिर करजत तहसील, अहमदनगर में है। ये मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूर भीम नदी पर स्थित है। यह मंदिर करीब 200 साल पुराना बताया जाता हैऔर एक पहाड़ की चोटी पर सिद्धिविनायक मंदिर बना हुआ है। इसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। इस मंदिर की परिक्रमा करने के लिए पहाड़ की यात्रा करनी होती है। सिद्धिविनायक मंदिर में गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। यहां गणेश जी की सूंड सीधे हाथ की ओर है। 3. बल्लालेश्वर मंदिर पाली गांव, रायगढ़ स्थित इस मंदिर का नाम गणेश जी के भक्त बल्लाल के नाम पर रखा गया है। बल्लाल की कथा के बारे में कहते हैं कि इस परम भक्त को उसके परिवार ने गणेश जी की भक्ति के चलते उनकी मूर्ती सहित जंगल में फेंक दिया था, पर उसने केवल गणपति का स्मरण करते हुए समय बिता दिया था। प्रसन्न होकर भगवान श्री गणेश जी ने उसे इस स्थान पर दर्शन दिया और कालानंतर में बललाल के नाम पर उनका ये मंदिर बना। 4.वरद विनायक मंदिर रायगढ़ के कोल्हापुर में वरदविनायक मंदिर। एक मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामनों को पूरा होने का वरदान देते हैं। एक कथा ये भी है कि इस मंदिर में नंददीप नाम का दीपक है जो कई वर्षों से लगातार जल रहा है। 5. चिंतामणी मंदिर भीम, मुला और मुथा नदियों के संगम पर स्थित थेऊर गांव में स्थित है चिंतामणी मंदिर। ऐसी मान्यता है कि विचलित मन के साथ इस मंदिर में जाने वालों की सारी परेशानियां दूर हो कर उन्हें शांति मिल जाती है। इस मंदिर से भी जुड़ी एक कथा है कि स्वयं भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को शांत करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी। 6. गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर लेण्याद्री गांव में गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर स्थित है, जिसका अर्थ है गिरिजा के आत्मज यानी माता पार्वती के पुत्र अर्थात गणेश। पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर स्थित ये मंदिर लेण्याद्री पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। इस पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं जिसमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। 7. विघ्नेश्वर अष्टविनायक मंदिर पुणे के ओझर जिले के जूनर क्षेत्र में यह मंदिर स्थित है।एक किंवदंती के अनुसार विघनासुर नाम का असुर जब संतों को प्रताणित कर रहा था, तब भगवान गणेश ने इसी स्थान पर उसका वध किया था। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है। 8. महागणपति मंदिर महागणपति मंदिर राजणगांव में स्थित है। इस मंदिर को 9-10वीं सदी के बीच का माना जाता है। पूर्व दिशा की ओर मंदिर का बहुत विशाल और सुन्दर प्रवेश द्वार है। यहां गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। एक मान्यता के अनुसार विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा करने के लिए इस मंदिर की मूल मूर्ति को तहखाने में छिपा दिया गया है।
गणपति बप्पा भगवान श्री गणेश के भारत में कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। ऐसा ही एक मंदिर है मुंबई का श्री सिद्धिविनायक मंदिर, जो विशेष स्थान रखता है। यहां देश विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करने के लिए आते हैं और विशेषकर गणेश उत्सव के दौरान यहां श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। गणेश उत्सव के दौरान बॉलीवुड और बिजनेस जगत की कई जानी-मानी हस्तियां भी इस मंदिर में गणेश जी के दर्शन करने के लिए पहुंचती हैं। भारत की आर्थिक राजधानी कहलाने वाली मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर में आने वाला चाहे अमीर हो या फिर गरीब, छोटा हो या बड़ा, वह कभी खाली हाथ नहीं जाता है। गणपति हर किसी की झोली खुशियों से भरते हैं। मुंबई के इस मंदिर में भगवान श्री गणेश सिद्धिविनायक के रूप में विराजमान हैं, जिसे स्थानीय लोग नवसाचा गणपति या नवसाला पावणारा गणपति के नाम से भी बुलाते हैं। इस मंदिर के द्वार हर धर्म जाति के लोगों के लिए खुले हैं। यहां किसी को आने की मनाई नहीं है। सिद्धी विनायक मंदिर अपनी मंगलवार की आरती के लिए बहुत प्रसिद्ध है जिसमें श्रद्धालुओं की कतार कभी-कभी 2 किलोमीटर तक पहुंच जाती है। ऋद्धि -सिद्धि के दाता श्री गणेश के इस पावन धाम से जुड़ी कई मान्यताएं और रोचक बातें है, जो इस स्थान को और अद्धभूत बनाती है। मान्यता है कि मुंबई स्थित सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 1801 में विट्ठु और देउबाई पाटिल ने किया था। इस मंदिर के निर्माण में लगने वाली धनराशि एक नि:संतान कृषक महिला ने दी थी, ताकि सिद्धिविनायक के आशीर्वाद से जीवन में कोई भी महिला बांझ न हो और सभी को संतानसुख की प्राप्ति हो। कहते है सिद्धिविनायक मंदिर की मूल संरचना पहले काफी छोटी थी, और इसका आकार 3.6 मीटर x 3.6 मीटर वर्ग का था। प्रारंभिक संरनचा मात्र ईंटों की बनी हुई थी, जिसका गुंबद आकार का शिखर भी था। बाद में इस मंदिर का पुननिर्माण कर आकार को बढ़ाया गया। सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणेश की प्रतिमा काले पत्थर से बनाई गई है, जहां पर वे अपनी दोनों पत्नी रिद्धि और सिद्धि के साथ विराजमान हैं। मंदिर के गर्भग्रह के चबूतरे पर स्वर्ण शिखर वाला चांदी का सुंदर मंडप है, जिसमें भगवान सिद्धिविनायक विराजते हैं। चतुर्भुजी विग्रह वाले सिद्धिविनायक के ऊपर वाले दाएं हाथ में कमल और बाएं हाथ में अंकुश है और नीचे के दाहिने हाथ में मोतियों की माला और बाएं हाथ में मोदक से भरा कटोरा है। मस्तक पर भगवान शिव के समान तीसरा नेत्र और गले में एक सर्प हार है। सिद्धिविनायक से जुड़ी एक और रोचक बात है। सिद्धि विनायक, भगवान गणेश जी का सबसे लोकप्रिय स्वरूप माना जाता है, जिसमें उनकी सूंड़ दाईं और मुड़ी होती है। जहां कहीं भी दायीं ओर सूंड़ वाली भगवान गणेश की मूर्ति होती है, वह सिद्धपीठ कहलाता है। मनमोहक है सिद्धिविनायक की मूर्ति : सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणेश जी की सूंड दाईं ओर है, जब हम अधिकांश गणपति जी की मूर्तियों में उनकी सूंड बाईं ओर नजर आती है। काले पत्थर से तराशी गई गणेश जी की 2.5 फीट ऊंची और 2 फीट चौड़ी मूर्ति मनमोहक है और यहां भगवान श्री गणेश ऋद्धि- सिद्धि के साथ विराजमान है। चांदी के चूहे पहुंचाते है सन्देश: मंदिर के अंदर चांदी से बनी चूहों की दो बड़ी मूर्तियां मौजूद हैं। माना जाता है कि अगर आप उनके कानों में अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं वे आपका संदेश भगवान गणेश तक पहुंचाते हैं। इसलिए यह धार्मिक क्रिया करते हुए आपको बहुत से श्रद्धालु मंदिर में दिख जाएंगे। सेलिब्रिटीज का लगा रहता है तांता : सिद्धिविनायक मंदिर में अक्सर बॉलीवुड सेलिब्रिटीज का तांता लगा रहता है। कई बड़े बॉलीवुड सितारे सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणपति के दर्शन करने नियमित आते रहते हैं। सिद्धिविनायक मंदिर के दर्शन मात्र से ही गणपति भक्त के बड़े से बड़े संकट पलक झपकते दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि बॉलीवुड के बड़े कलाकार भी अपनी सफलता की कामना लिए अक्सर यहां पर माथा टेकने पहुंचते हैं। गणेश उत्सव के दौरान भी सिद्धिविनायक मंदिर में गणपति बप्पा के दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है। इस दौरान देश ही नहीं विदेश से तीर्थयात्री यहां पर दर्शन के लिए पहुंचते हैं। देश के सबसे अमीर मंदिरों में गिनती : सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती देश के सबसे अमीर मंदिरों में की जाती है। सिद्धिविनायक मंदिर में देश-विदेश से गरीब, अमीर सभी प्रकार के श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। कहते है कि यहां साल भर में जितना चढ़ावा चढ़ता है, उतने में पूरी मुंबई के लोगों को भरपेट भोजन करवाया जा सकता है। जिन भक्तों की यहां मनोकामना पूरी होती है, वे यहां पर गुप्तदान करके जाते हैं। इस मंदिर में करोड़ों की दान-दक्षिणा आती है।मंदिर की भीतरी छत सोने से ढकी हुई है। जानकारी के अनुसार यह मंदिर हर साल 100 मिलियन से 150 मिलियन धनराशी दान के रूप में प्राप्त करता है। करीब तीन वर्ष पहले दिल्ली के एक श्रद्धालु ने मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर को 35 किलो सोना दान में दिया था, जिसकी कीमत 14 करोड़ रुपए थी। इस मंदिर की देखरेख करने वाली संस्था मुंबई की सबसे अमीर ट्रस्ट है।
आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी है। कहते है भीम ने एक मात्र इसी उपवास को रखा था और मूर्छित हो गए थे, इसलिए इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है। निर्जला एकादशी पर बिना जल ग्रहण किए उपवास रखने से साल की सारी एकादशियों का पुण्य फल प्राप्त हो जाता है। ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी तिथि 30 मई को दोपहर में 01 बजकर 07 मिनट से लेकर 31 मई को दोपहर को 01 बजकर 45 मिनट तक रहेगी। उदिया तिथि के चलते निर्जला एकादशी का व्रत 31 मई यानी आज रखा जाएगा। सवेरे-सवेरे स्नान करके सूर्य देवता को जल अर्पित करें। इसके बाद पीले वस्त्र धारण करके भगवान विष्णु की पूजा करें। उन्हें पीले फूल, पंचामृत और तुलसी दल अर्पित करें। इसके बाद श्री हरि और मां लक्ष्मी के मंत्रों का जाप करें। किसी निर्धन व्यक्ति को जल, अन्न या वस्त्र का दान करें। यह व्रत निर्जला ही रखना पड़ता है, इसलिए जल ग्रहण बिल्कुल न करें।
उज्जैन नगरी के रामघाट पर विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां पर यमराज के साथ धर्मराज और चित्रगुप्त भी विराजमान है। कहते है यहां पर दर्शन मात्र से कष्ट पाप और कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है। उज्जैन के रामघाट पर स्थित धर्मराज चित्रगुप्त मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण और अग्नि पुराण में भी है। इस मंदिर में यमराज, धर्मराज, चित्रगुप्त और यमराज की बहन यमुना विराजमान है और मान्यता है कि जो श्रद्धालु यहां पर दर्शन करता है उसके कष्ट, पाप और दोष मुक्त हो जाते हैं। साथ ही कालसर्प दोष से भी निवारण मिलता है। इस मंदिर का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। 1702 में भी यहां पर पूजा अर्चना किए जाने के प्रमाण मौजूद है। देशभर के श्रद्धालु यहां पर रोग दोष की मुक्ति के लिए आते हैं। मंदिर के ऊपर से कर्क रेखा गुजरती है इसलिए भी मंदिर का विशेष महत्व माना गया है। इस मंदिर में दीपक लगाने का भी विशेष महत्व है। राम घाट पर शिप्रा में स्नान करने के बाद श्रद्धालु मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। मान्यता है कि यहां दर्शन करने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है। जीव-जंतु अथवा मनुष्य शारीरिक कष्टों के चलते कई बार जीवन और मौत के बीच संघर्ष करते हैं। ऐसी स्थिति में श्रद्धालु उनकी रक्षा अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए पूजा करवाने भी यहाँ आते हैं।
मेष मेष राशि के जातकों को इस सप्ताह आलस्य और लापरवाही से बचना होगा। लापरवाही से बनी हुई बात बिगड़ सकती है और आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ सकता है। कार्यक्षेत्र में विरोधियों से सावधान रहें। लोगों से न उलझें और छोटी-मोटी बातों को इग्नोर करें। दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहेगी और जीवनसाथी का पूरा साथ मिलेगा। मौसमी बीमारियों को लेकर बेहद सतर्क रहें । वृष वृष राशि के जातकों के लिए किस्मत इस सप्ताह दरवाजे खटखटा रही है। आय के नये स्रोत बनेंगे और आशा के अनुकूल प्रगति होगी। नौकरीपेशा लोगों के लिए समय अनुकूल है। राजनीति से जुड़े लोगों को बहुप्रतीक्षित पद मिल सकता है। सेहत की दृष्टि से भी समय अनुकूल है। प्रेम संबंधों में प्रगाढ़ता आयेगी। दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहेगी। घर में किसी मांगलिक कार्यक्रम के चलते खुशियों का माहौल बना रहेगा। मिथुन मिथुन राशि के जातक यदि अपने कार्य की योजना बनाकर समय पर पूरा करते हैं तभी आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति हो पाएगी। घर हो या फिर कार्यक्षेत्र छोटी-मोटी बातों को तूल न दें। सप्ताह के उत्तरार्ध में वाहन चलाते समय सावधानी बरतें। प्रेम संबंधों में किसी बात को लेकर अनबन हो सकती है। जीवनसाथी की सेहत को लेकर मन चिंतित रहेगा। कर्क कर्क राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह अत्यंत शुभ साबित होने जा रहा है। बेरोजगार लोगों को रोजगार के नए अवसर मिल सकते हैं। कारोबार में अप्रत्याशित लाभ हो सकता है। बाजार में अटका धन भी निकल सकता है। कामकाजी महिलाओं के लिए समय अनुकूल है। जीवनसाथी के साथ प्रेम और सामंजस्य बना रहेगा। सिंह सिंह राशि के जातक जरूरी काम करते समय बहुत सावधानीपूर्वक कार्य करें, अन्यथा आर्थिक नुकसान के साथ-साथ शारीरिक कष्ट भी हो सकता है। यदि कामकाज के सिलसिले में यात्रा पर निकलना पड़े तो अपने सामान और सेहत का विशेष ख्याल रखें। प्रेम संबंधों में लव पार्टनर की भावनाओं की अनदेखी न करें। दांपत्य जीवन में खट्टी-मीठी नोक-झोंक के साथ जीवनसाथी का भरपूर साथ मिलता रहेगा। सप्ताह के उत्तरार्ध में किसी धार्मिक स्थान की यात्रा संभव है। कन्या कन्या राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह अत्यधिक व्यस्तता वाला रह सकता है। सप्ताह के मध्य में लंबी या छोटी दूरी की यात्रा पर निकलना पड़ सकता है। राजनीति से जुड़े लोगों के लिए समय थोड़ा चुनौतीपूर्ण है। सप्ताह के उत्तरार्ध में घर की मरम्मत और सुख-सुविधाओं से जुड़ी चीजों को खरीदने पर जेब से अधिक खर्च हो सकता है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ेगा। प्रेम संबंध में मधुरता बनी रहेगी। तुला तुला राशि के जातकों के लिए सप्ताह की शुरुआत में किसी प्रिय चीज का नुकसान होने के कारण मन थोड़ा खिन्न रहेगा। समय पर मित्रों के सहयोग न मिल पाने और किसी बात को लेकर स्वजनों का विरोध भी आपकी चिंता का बड़ा कारण बनेगा। छात्रों का मन पढ़ाई से उचट सकता है। सट्टे और शेयर के चक्कर में न पड़ें। सप्ताह के अंत तक भूमि-भवन को लेकर कोई बड़ा सौदा हो सकता है। प्रेम संबंध सामान्य बने रहेंगे। जीवनसाथी का सहयोग बना रहेगा। सेहत को लेकर सावधान रहें। वृश्चिक वृश्चिक राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह कभी खुशी कभी गम वाला साबित होगा। यह समय आपको आर्थिक दृष्टि से योजना बनाकर चलने का है। शेयर बाजार आदि में पैसा लगाने से भी बचें, अन्यथा नुकसान झेलना पड़ सकता है। किसी बड़े मामले को कोर्ट-कचहरी से बाहर सुलझा लेने में ही फायदा रहेगा। प्रेम संबंधों के प्रति ईमानदार रहें । सेहत सामान्य बनी रहेगी। धनु यह सप्ताह धनु राशि के लिए काफी शुभ हो सकता है। नौकरीपेशा लोगों को कार्यक्षेत्र में सीनियर और जूनियर दोनों का सहयोग मिलेगा। आय के नये स्रोत बनेंगे। परीक्षा-प्रतियोगिता की तैयारी में जुटे लोगों को इस सप्ताह कोई अच्छी खबर सुनने को मिल सकती है। इस दौरान कारोबारियों को छोटे निवेश से बड़ा लाभ मिल सकता है। कामकाजी महिलाओं के लिए समय अनुकूल है। जीवनसाथी का भरपूर सहयोग प्राप्त होगा। मकर मकर राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह मिला-जुला साबित होने जा रहा है। कोई पुराना रोग फिर से उभर सकता है। संतान पक्ष को लेकर कोई बड़ी चिंता सताती रहेगी। पैसों की आवक के साथ खर्चों की भी अधिकता बनी रहेगी। यदि किसी भूमि या भवन को खरीदने की योजना बना रहे हैं तो उसके लिए धन उधार लेने की नौबत आ सकती है। जीवनसाथी के साथ सामंजस्य बना रहेगा। कुंभ कुंभ राशि के जातकों के लिए सप्ताह की शुरुआत में ही किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की मदद से भूमि-भवन से जुड़े विवाद का हल निकल आने से मन को बड़ी राहत मिलेगी। सत्ता पक्ष से लाभ के पूरे योग हैं। यदि किसी सरकारी योजना या कार्यालय में पैसा अटका है तो थोड़ा प्रयास करने पर निकल सकता है। प्रेम संबंधों में प्रगाढ़ता आयेगी। वैवाहिक सुखों में वृद्धि होगी। सेहत संबंधी समस्याओं की अनदेखी करने की भूल बिल्कुल न करें। मीन कार्यक्षेत्र में किसी दूसरे के काम का जिम्मा आपके सिर पर आ सकता है। कार्यों में मिलने वाली सफलता से आपके मनोबल में वृद्धि होगी। सप्ताह के उत्तरार्ध में घर-परिवार के किसी धार्मिक आयोजन में शामिल होने का मौका मिलेगा। भाइयों और बहनों आदि के साथ सामंजस्य बना रहेगा। प्रेम संबंधों में आ रही बाधाएं दूर होंगी। मौसमी बीमारियों को लेकर सचेत रहें।
हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य माना जाता है। श्री गणेश आदि सनातन धर्म के प्रमुख आदिपंच देवों में भी शामिल हैं। देश के प्रमुख गणेश मंदिरों में अष्ठविनायक का विशिष्ट स्थान है। दरअसल पुणे के विभिन्न इलाकों में श्री गणेश के आठ मंदिर हैं, इन्हें अष्टविनायक कहा जाता है। इन मंदिरों को स्वयंभू मंदिर भी कहा जाता है। स्वयंभू का अर्थ है कि यहां भगवान स्वयं प्रकट हुए थे यानि किसी ने उनकी प्रतिमा बना कर स्थापित नहीं की थी। इन मंदिरों का जिक्र विभिन्न पुराणों जैसे गणेश और मुद्गल पुराण में भी किया गया है। इन मंदिरों की दर्शन यात्रा को अष्टविनायक तीर्थ यात्रा भी कहा जाता है। अष्ठविनायक मंदिर के संबंध में मान्यता है कि तीर्थ गणेश के ये आठ पवित्र मंदिर स्वयं उत्पन्न और जागृत हैं। पुराणों व धर्म ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि भगवान ब्रह्माजी ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्रीगणेश विभिन्न रूपों मे अवतरित होंगे। सतयुग में विनायक, त्रेता युग में मयूरेश्वर, द्वापर युग में गजानन व धूम्रकेतु नाम से कलयुग के अवतार लेंगे। भगवान गणेश के आठों शक्तिपीठ महाराष्ट्र में ही हैं। इन आठ पवित्र तीर्थ में 6 पुणे में हैं और 2 रायगढ़ जिले में हैं। सबसे पहले मोरेगांव के मोरेश्वर की यात्रा करनी चाहिए और उसके बाद क्रम में सिद्धटेक, पाली, महाड, थियूर, लेनानडरी, ओजर, रांजणगांव और उसके बाद फिर से मोरेगांव अष्टविनायक मंदिर में यात्रा समाप्त करनी चाहिए। पूरी यात्रा 654 किलोमीटर की होती है। 1.मयूरेश्वर या मोरेश्वर मंदिर मयूरेश्वर विनायक का मंदिर पुणे के मोरगांव क्षेत्र में है। इस मंदिर में चार द्वार =हैं जिन्हें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग चारों युग का प्रतीक माना जाता हैं। यहां भगवान गणेश जी की मूर्ती बैठी मुद्रा में है और उसकी सूंड बाई है तथा उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। यहां नंदी की भी मूर्ती है। कहते हैं कि इसी स्थान पर गणेश जी ने सिंधुरासुर नाम के राक्षस का वध मोर पर सवार होकर उससे युद्ध करते हुए किया था। 2. सिद्धिविनायक मंदिर सिद्धिविनायक मंदिर करजत तहसील, अहमदनगर में है। ये मंदिर पुणे से करीब 200 किमी दूर भीम नदी पर स्थित है। यह मंदिर करीब 200 साल पुराना बताया जाता हैऔर एक पहाड़ की चोटी पर सिद्धिविनायक मंदिर बना हुआ है। इसका मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर है। इस मंदिर की परिक्रमा करने के लिए पहाड़ की यात्रा करनी होती है। सिद्धिविनायक मंदिर में गणेशजी की मूर्ति 3 फीट ऊंची और ढाई फीट चौड़ी है। यहां गणेश जी की सूंड सीधे हाथ की ओर है। 3. बल्लालेश्वर मंदिर पाली गांव, रायगढ़ स्थित इस मंदिर का नाम गणेश जी के भक्त बल्लाल के नाम पर रखा गया है। बल्लाल की कथा के बारे में कहते हैं कि इस परम भक्त को उसके परिवार ने गणेश जी की भक्ति के चलते उनकी मूर्ती सहित जंगल में फेंक दिया था, पर उसने केवल गणपति का स्मरण करते हुए समय बिता दिया था। प्रसन्न होकर भगवान श्री गणेश जी ने उसे इस स्थान पर दर्शन दिया और कालानंतर में बललाल के नाम पर उनका ये मंदिर बना। 4.वरद विनायक मंदिर रायगढ़ के कोल्हापुर में वरदविनायक मंदिर। एक मान्यता के अनुसार वरदविनायक भक्तों की सभी कामनों को पूरा होने का वरदान देते हैं। एक कथा ये भी है कि इस मंदिर में नंददीप नाम का दीपक है जो कई वर्षों से लगातार जल रहा है। 5. चिंतामणी मंदिर भीम, मुला और मुथा नदियों के संगम पर स्थित थेऊर गांव में स्थित है चिंतामणी मंदिर। ऐसी मान्यता है कि विचलित मन के साथ इस मंदिर में जाने वालों की सारी परेशानियां दूर हो कर उन्हें शांति मिल जाती है। इस मंदिर से भी जुड़ी एक कथा है कि स्वयं भगवान ब्रह्मा ने अपने विचलित मन को शांत करने के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी। 6. गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर लेण्याद्री गांव में गिरिजात्मज अष्टविनायक मंदिर स्थित है, जिसका अर्थ है गिरिजा के आत्मज यानी माता पार्वती के पुत्र अर्थात गणेश। पुणे-नासिक राजमार्ग पर पुणे से करीब 90 किलोमीटर स्थित ये मंदिर लेण्याद्री पहाड़ पर बौद्ध गुफाओं के स्थान पर बनाया गया है। इस पहाड़ पर 18 बौद्ध गुफाएं हैं जिसमें से 8वीं गुफा में गिरजात्मज विनायक मंदिर है। इन गुफाओं को गणेश गुफा भी कहा जाता है। 7. विघ्नेश्वर अष्टविनायक मंदिर पुणे के ओझर जिले के जूनर क्षेत्र में यह मंदिर स्थित है।एक किंवदंती के अनुसार विघनासुर नाम का असुर जब संतों को प्रताणित कर रहा था, तब भगवान गणेश ने इसी स्थान पर उसका वध किया था। तभी से यह मंदिर विघ्नेश्वर, विघ्नहर्ता और विघ्नहार के रूप में जाना जाता है। 8. महागणपति मंदिर महागणपति मंदिर राजणगांव में स्थित है। इस मंदिर को 9-10वीं सदी के बीच का माना जाता है। पूर्व दिशा की ओर मंदिर का बहुत विशाल और सुन्दर प्रवेश द्वार है। यहां गणपति की मूर्ति को माहोतक नाम से भी जाना जाता है। एक मान्यता के अनुसार विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा करने के लिए इस मंदिर की मूल मूर्ति को तहखाने में छिपा दिया गया है।
गणपति बप्पा भगवान श्री गणेश के भारत में कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, जहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। ऐसा ही एक मंदिर है मुंबई का श्री सिद्धिविनायक मंदिर, जो विशेष स्थान रखता है। यहां देश विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान गणेश की पूजा-अर्चना करने के लिए आते हैं और विशेषकर गणेश उत्सव के दौरान यहां श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। गणेश उत्सव के दौरान बॉलीवुड और बिजनेस जगत की कई जानी-मानी हस्तियां भी इस मंदिर में गणेश जी के दर्शन करने के लिए पहुंचती हैं। भारत की आर्थिक राजधानी कहलाने वाली मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर में आने वाला चाहे अमीर हो या फिर गरीब, छोटा हो या बड़ा, वह कभी खाली हाथ नहीं जाता है। गणपति हर किसी की झोली खुशियों से भरते हैं। मुंबई के इस मंदिर में भगवान श्री गणेश सिद्धिविनायक के रूप में विराजमान हैं, जिसे स्थानीय लोग नवसाचा गणपति या नवसाला पावणारा गणपति के नाम से भी बुलाते हैं। इस मंदिर के द्वार हर धर्म जाति के लोगों के लिए खुले हैं। यहां किसी को आने की मनाई नहीं है। सिद्धी विनायक मंदिर अपनी मंगलवार की आरती के लिए बहुत प्रसिद्ध है जिसमें श्रद्धालुओं की कतार कभी-कभी 2 किलोमीटर तक पहुंच जाती है। ऋद्धि -सिद्धि के दाता श्री गणेश के इस पावन धाम से जुड़ी कई मान्यताएं और रोचक बातें है, जो इस स्थान को और अद्धभूत बनाती है। मान्यता है कि मुंबई स्थित सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 1801 में विट्ठु और देउबाई पाटिल ने किया था। इस मंदिर के निर्माण में लगने वाली धनराशि एक नि:संतान कृषक महिला ने दी थी, ताकि सिद्धिविनायक के आशीर्वाद से जीवन में कोई भी महिला बांझ न हो और सभी को संतानसुख की प्राप्ति हो। कहते है सिद्धिविनायक मंदिर की मूल संरचना पहले काफी छोटी थी, और इसका आकार 3.6 मीटर x 3.6 मीटर वर्ग का था। प्रारंभिक संरनचा मात्र ईंटों की बनी हुई थी, जिसका गुंबद आकार का शिखर भी था। बाद में इस मंदिर का पुननिर्माण कर आकार को बढ़ाया गया। सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणेश की प्रतिमा काले पत्थर से बनाई गई है, जहां पर वे अपनी दोनों पत्नी रिद्धि और सिद्धि के साथ विराजमान हैं। मंदिर के गर्भग्रह के चबूतरे पर स्वर्ण शिखर वाला चांदी का सुंदर मंडप है, जिसमें भगवान सिद्धिविनायक विराजते हैं। चतुर्भुजी विग्रह वाले सिद्धिविनायक के ऊपर वाले दाएं हाथ में कमल और बाएं हाथ में अंकुश है और नीचे के दाहिने हाथ में मोतियों की माला और बाएं हाथ में मोदक से भरा कटोरा है। मस्तक पर भगवान शिव के समान तीसरा नेत्र और गले में एक सर्प हार है। सिद्धिविनायक से जुड़ी एक और रोचक बात है। सिद्धि विनायक, भगवान गणेश जी का सबसे लोकप्रिय स्वरूप माना जाता है, जिसमें उनकी सूंड़ दाईं और मुड़ी होती है। जहां कहीं भी दायीं ओर सूंड़ वाली भगवान गणेश की मूर्ति होती है, वह सिद्धपीठ कहलाता है। मनमोहक है सिद्धिविनायक की मूर्ति : सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणेश जी की सूंड दाईं ओर है, जब हम अधिकांश गणपति जी की मूर्तियों में उनकी सूंड बाईं ओर नजर आती है। काले पत्थर से तराशी गई गणेश जी की 2.5 फीट ऊंची और 2 फीट चौड़ी मूर्ति मनमोहक है और यहां भगवान श्री गणेश ऋद्धि- सिद्धि के साथ विराजमान है।5 चांदी के चूहे पहुंचाते है सन्देश: मंदिर के अंदर चांदी से बनी चूहों की दो बड़ी मूर्तियां मौजूद हैं। माना जाता है कि अगर आप उनके कानों में अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं वे आपका संदेश भगवान गणेश तक पहुंचाते हैं। इसलिए यह धार्मिक क्रिया करते हुए आपको बहुत से श्रद्धालु मंदिर में दिख जाएंगे। सेलिब्रिटीज का लगा रहता है तांता : सिद्धिविनायक मंदिर में अक्सर बॉलीवुड सेलिब्रिटीज का तांता लगा रहता है। कई बड़े बॉलीवुड सितारे सिद्धिविनायक मंदिर में भगवान गणपति के दर्शन करने नियमित आते रहते हैं। सिद्धिविनायक मंदिर के दर्शन मात्र से ही गणपति भक्त के बड़े से बड़े संकट पलक झपकते दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि बॉलीवुड के बड़े कलाकार भी अपनी सफलता की कामना लिए अक्सर यहां पर माथा टेकने पहुंचते हैं। गणेश उत्सव के दौरान भी सिद्धिविनायक मंदिर में गणपति बप्पा के दर्शन करने वालों का तांता लगा रहता है। इस दौरान देश ही नहीं विदेश से तीर्थयात्री यहां पर दर्शन के लिए पहुंचते हैं। देश के सबसे अमीर मंदिरों में गिनती : सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती देश के सबसे अमीर मंदिरों में की जाती है। सिद्धिविनायक मंदिर में देश-विदेश से गरीब, अमीर सभी प्रकार के श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। कहते है कि यहां साल भर में जितना चढ़ावा चढ़ता है, उतने में पूरी मुंबई के लोगों को भरपेट भोजन करवाया जा सकता है। जिन भक्तों की यहां मनोकामना पूरी होती है, वे यहां पर गुप्तदान करके जाते हैं। इस मंदिर में करोड़ों की दान-दक्षिणा आती है।मंदिर की भीतरी छत सोने से ढकी हुई है। जानकारी के अनुसार यह मंदिर हर साल 100 मिलियन से 150 मिलियन धनराशी दान के रूप में प्राप्त करता है। करीब तीन वर्ष पहले दिल्ली के एक श्रद्धालु ने मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर को 35 किलो सोना दान में दिया था, जिसकी कीमत 14 करोड़ रुपए थी। इस मंदिर की देखरेख करने वाली संस्था मुंबई की सबसे अमीर ट्रस्ट है।
किसी भी शुभ काम को शुरू करने से पहले सर्वप्रथम श्री गणेश जी को याद किया जाता है। सभी देवी-देवताओं से पहले भी श्री गणेश की पूजा की जाती है। दरअसल, सर्वप्रथम गणेश-पूजा करने से श्री गणेश की कृपा प्राप्त होती है और इसके पीछे एक पौराणिक कथा भी है। एक बार समस्त देवताओं में इस बात पर विवाद उत्पन्न हुआ कि धरती पर किस देवता की पूजा समस्त देवगणों से पहले हो। सभी देवता स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताने लगे। इस बीच नारद जी ने सभी देवगणों को भगवान शिव की शरण में जाने व उनसे इस प्रश्न का उत्तर बताने की सलाह दी। भगवान शिव ने देवताओं में उपजे इस विवाद को सुलझाने की एक योजना सोची। उन्होंने भी देवगणों को कहा गया कि वे सभी अपने-अपने वाहनों पर बैठकर इस पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाकर आएं और जो भी सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड की परिक्रमा कर उनके पास पहुंचेगा, वही सर्वप्रथम पूजनीय माना जाएगा। सभी देवता अपने-अपने वाहनों को लेकर परिक्रमा के लिए निकल पड़े। श्री गणेश जी भी इसी प्रतियोगिता का हिस्सा थे, लेकिन, गणेश जी बाकी देवताओं की तरह ब्रह्माण्ड के चक्कर लगाने की जगह अपने माता-पिता शिव-पार्वती की सात परिक्रमा पूर्ण कर उनके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गए। जब देवता अपनी अपनी परिक्रमा करके लौटे तब भगवान शिव ने श्री गणेश को विजयी घोषित कर दिया। देवताओं ने भगवान शिव से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि माता-पिता को समस्त ब्रह्माण्ड एवं समस्त लोक में सर्वोच्च स्थान दिया गया है, जो देवताओं व समस्त सृष्टि से भी उच्च माने गए हैं। तब से गणेश जी को सर्वप्रथम पूज्य माना जाने लगा।
माना जाता है कि प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश का जन्म उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी स्थित डोडीताल में हुआ था। इस ताल के निकट माता अन्नपूर्णा का प्राचीन मंदिर है, जिसे भगवान श्री गणेश की जन्मस्थली माना जाता है। यहाँ गणेशजी अपनी माता के साथ विराजमान हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार डोडीताल में ही माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व द्वार की सुरक्षा के लिए अपने उबटन से गणेश भगवान को उत्पन्न किया था। डोडीताल में श्री गणेश के साथ उनकी माता पार्वती भी विराजमान हैं। यहां पार्वती माता की पूजा अन्नपूर्णा के रूप में होती हैं। श्रद्धालु यहां मां अन्नपूर्णा और भगवान गणेश की पूजा के लिए आते हैं और उनका विश्वास है कि भगवान गणपति डोडीताल के अन्नपूर्णा मंदिर मे अपनी माता के साथ आज भी निवास करते हैं। यह भी कहा जाता है कि केलसू, जो मूल रूप से एक पट्टी है,का मूल नाम कैलाशू है। इसे स्थानीय लोग शिव का कैलाश बताते हैं। केलसू क्षेत्र असी गंगा नदी घाटी के सात गांवों को मिलाकर बना है। गणेश भगवान को स्थानीय बोली में डोडी राजा कहा जाता हैं जो केदारखंड में गणेश जी के प्रचलित नाम डुंडीसर का अपभ्रंश है। मान्यता अनुसार डोडीताल क्षेत्र मध्य कैलाश में आता था और डोडीताल माता पार्वती का स्नान स्थल था। इस क्षेत्र में सदियों से एक गीत गाया जाता है। लोग ये मंगल गीत लगाकर पारंपरिक नृत्य करते हैं। इस गीत के बोल हैं ‘गणेश जन्मभूमि डोडीताल कैलासू, असी गंगा उद्गम अरू माता अन्नपूर्णा निवासू।।’ श्री गणेश भगवान को सदियों से स्थानीय बोली में डोडी राजा कहा जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड से पता चलता है कि गणेश जी का प्रचलित नाम डुंडीसर भी है, जिसे डोडीताल से ही लिया गया है। ये दिव्य स्थान उत्तरकाशी जिले में संगम चिट्टी से लगभग 23 किलोमीटर दूर स्थित है।
देवभूमि हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले का एक गांव ऐसा भी है, जहां किसी भी प्राकृतिक आपदा या संकट से पहले ही देवता नारद मुनि आगाह कर देते हैं। बारिश और मौसम करने की फरियाद लेकर नीणू गांव के देवता नारद मुनि की शरण में जाते हैं। इसीलिए पारली फाटी के नीणू गांव के देवता नारद मुनि को बारिश और मौसम साफ करने का देवता भी माना जाता है। कोटकंडी फाटी के देवता भी नारद मुनि के पास बारिश तथा मौसम साफ करने की फरियाद लेकर आते हैं। कुल्लू के दशहरा उत्सव में भी देवता नारद मुनि की विशेष भूमिका रहती है। दशहरा उत्सव में नारद मुनि, देवता दुर्वासा ऋषि पालकी के साथ मंदिर में विराजमान होते हैं। नारद मुनि ढालपुर मैदान के कोने में बने मंदिर में सात दिन तक विराजमान रहते हैं। देवता दशहरा के एक दिन पहले पहुंच जाते हैं, पर देवता जलेब में भी शामिल नहीं होते। उत्सव के प्रथम दिन जब तक देवता नारद मुनि रघुनाथपुर में भगवान राम के दरबार नहीं पहुंचते हैं, तब तक राजपरिवार के लोग अन्न-जल ग्रहण नहीं करते हैं।देवता के हारियानों की मानें तो दशहरा में देवता नारद मुनि तब से आ रहे हैं, जब केवल पांच ही देवता शामिल होते थे। नारद मुनि देवता का रथ पूरे विश्व में एक ही है। मकड़ी ने जाला बुनकर बनाया मंदिर का स्वरूप ! कहते है खणीकंडा में देवता का प्राचीन मंदिर था। तब शुक्रू नाम का पुजारी ठेला स्थित प्राकृतिक चश्मे से पानी लेकर पहले खणीकंडा और फिर कलाअ में पूजा करता था। पुजारी मंदिर तक सीधे पांव जाता था और उल्टे पैर लौटता था। फिर पुजारी वृद्ध हो गया तो उसने देवता से कहा कि अब मैं नहीं चल सकता। फिर चमत्कार हुआ और दैवीय शक्ति से मकड़ी ने रात में जाला बुनकर मंदिर का स्वरूप बना दिया। कहते है नीणू गांव में खणीकंडा मंदिर से फट्टा उड़कर आया और जब लोगों ने इसे हटाया तो इसके नीचे नारद मुनि की पिंडी मिली। इसके बाद नीणू में मंदिर की स्थापना हुई। रघुनाथ मंदिर में चोरी से पहले किया था आगाह : भगवान रघुनाथ की मूर्ति चोरी होने से करीब सात दिन पहले मंदिर निर्माण के दौरान देवता के गूर ने कारदार को चादर देकर सुल्तानपुर भेजकर कहा था कि राज परिवार को आगाह कर दें कि कहीं कुछ बुरी घटना होने वाली है। फिर इसके सात दिन बाद रघुनाथ मंदिर में चोरी हो गई। इसी तरह वर्ष 2015 में भूकंप होने के कुछ समय पहले देवता ने बुरा होने के संकेत दिए थे।
मेष : किसी नए व्यक्ति या विचार की ओर सहज आकर्षित होंगे। किसी अहम बैठक या संसथान का प्रतिनिधित्व करेंगे। प्रतिष्ठा व भौतिक लाभ की प्राप्ति होगी। ऊर्जावान महसूस करेंगे। अपनी वाणी पर नियंत्रण रखे। अपने परिवार के सदस्यों को नियंत्रण में रखने और उनकी बात न सुनने की प्रवृत्ति के कारण अनावश्यक बहस हो सकती है। वृष- इस सप्ताह आपकी सेहत अच्छी रहेगी। जिससे आप एक्टिव रहेंगे और कार्यक्षेत्र में आपको अच्छा लाभ मिलेगा.आपके काम में नए लोगों के साथ लेन देन की स्थिति भी मजबूत होगी। आपको अपने कर्ज चुकाने के मौके मिलेंगे। सरकारी पक्ष से आप थोड़ा लाभ अर्जित कर सके। महत्वपूर्ण लोगों से संपर्क बनेगा। मिथुन - चंद्रमा आपकी ही राशि में है। आपका राशिस्वामी नीच स्थिति में, लेकिन अपने ही नक्षत्र में है। आज आप मनोरंजक गतिविधियों में शामिल होकर अपने आप को व्यस्त और प्रसन्न बनाए रखें। मन में तरह-तरह के विचार चलते रहेंगे। सुस्ती और विश्राम इन सारे विचारों में शामिल रहेगी। आपका इरादा घर से बाहर नहीं निकलने का रहेगा। स्वयं के लिए सकारात्मक सोचें और हिम्मत करके दिन की शुरुआत थोड़ी सक्रियता से करें। आपको अपने किसी एक नजदीकी मित्र के बारे में बातें, संभवतः सोशल मीडिया या फोन के जरिए पता चलेंगी, और आप आश्चर्य में डूब जाएंगे। थोड़ी बहुत परेशानी आपके सामने आ सकती है। कर्क - इस सप्ताह आपकी सारी परेशानियों का हल मिलने वाला है। किसी विशेष सहयोगी की मदद से बड़े संकटों से मुक्ति पाने में सफल होंगे। क्रोध का परित्याग करें। कोर्ट-कचहरी के मामले उलझ सकते हैं। पारिवारिक जीवन में थोड़ी परेशानियां आ सकती हैं। पैसों की हानि हो सकती है। इस सप्ताह नया निवेश करने से बचें। अविवाहितों के विवाह की बात बन सकती है। सिंह- यह सप्ताह आपके लिए मध्यम रहेगा। प्रेम जीवन बिता रहे लोगों को कुछ तनाव का सामना करना पड़ सकता है। व्यापारियों के लिए यह सप्ताह शानदार रहेगा। आपको कुछ नया लाभ दिखाई देगा। इसके बार में सोच कर आप आगे बढ़ेंगे। नौकरीपेशा लोगों के काम में तरक्की होगी। सरकार की ओर से भी लाभ मिल सकता है। कोई उपलब्धि भी मिल सकती है। इसलिए आपको अपनी सेहत का ध्यान रखने की जरूरत है। हालांकि, पुरानी बीमारियों से मुक्ति मिलेगी। यात्रा करने के लिए सप्ताह के अंतिम दिन अच्छे रहेंग। कन्या - स्वभाव में चिड़चिड़ापन हो सकता है, परंतु आत्मवश्विास में वृद्धि होगी। कार्यों के प्रति जोश व उत्साह रहेगा। नौकरी व कार्यक्षेत्र में वस्तिार हो सकता है। स्थान परिवर्तन की भी संभावना बन रही है। अफसरों का सहयोग मिलेगा, कार्यक्षेत्र में परश्रिम की अधिकता रहेगी। मानसिक शांति तो रहेगी लेकिन पारिवारिक जम्मिेदारियां बढ़ सकती हैं। नौकरी में कार्यभार में वृद्धि संभव है, आय में भी वृद्धि होगी। स्थान परिवर्तन भी संभावित है। तुला - परिवार,संतान,मित्रो व किसी ख़ास व्यक्ति के साथ खूबसूरत समय बिताएँगे। सही फ़ैसले को लेते समय अपने दिमाग को शांत रखें, और जितना संभव हो खुद को शराब से दूर ही रखें क्योंकि चंद्रमा दूसरे, तीसरे चौथे और पांचवें भाव में गोचर करेगा। वहीं आठवें भाव में शुक्र का गोचर होने से, इस पूरे ही सप्ताह आपको अपने जीवन में अलग-अलग क्षेत्रों में धन ख़र्च करना होगा, जिसके चलते आप कुछ धन का अभाव महसूस कर सकते है। ऐसे में इस समय आपको शुरुआत में ही आर्थिक मामलों को लेकर, एक सही रणनीति बनाने की सबसे अधिक आवश्यकता होगी। वृश्चिक - ये सप्ताह आपके लिए आपके लिए आर्थिक दृष्टिकोण से उत्तम रहेगा। व्यापार में आपको मन मुताबिक लाभ मिलेगा जिससे आपके धन व कीर्ति में वृद्धि होगी लेकिन किसी विपरीत परिस्थिति में भी आपको अपनी वाणी पर नियंत्रण बनाए रखना बेहतर रहेगा,नहीं तो हो सकता है कि विवाद लंबा चल जाए। मित्रों के साथ किसी पार्टी को करने का आयोजन भी कर सकते हैं। आपको अपने लंबे समय से रुके हुए कार्यों की ओर भी ध्यान लगाना होगा,तभी वह सफल हो पाएंगे। धनु - मानसिक शांति तो रहेगी, फिर भी क्रोध के अतिरेक से बचें। धर-परिवार में धार्मिक कार्य होंगे, परिवार में सुख-शांति रहेगी। नौकरी में स्थान परिवर्तन के योग बन रहे हैं, इच्छाविरुद्ध कुछ नए कार्यों की जम्मिेदारी मिल सकती है। जिसके कारण आपको उन सभी योजनाओं में निवेश करने से पहले दो बार सोचने की ज़रूरत होगी, जो इस सप्ताह आपके सामने आयी हैं क्योंकि संभव है कि सामने से आने वाले अवसर के पीछे कोई गुप्त षडयंत्र हो, जिसका ख़ामियाज़ा आपको भविष्य में उठाना पड़ सकता है। मकर - समय अनुकूल है। घर के बड़े बुजुर्गों की सलाह व अनुभवों का अनुसरण करना आपके लिए लाभदायक रहेगा। तथा आपको जीवन के सकारात्मक पहलुओं से रूबरू होने का भी अवसर प्राप्त होगा। धार्मिक कार्यों के प्रति भी रुझान बढ़ेगा।दुसरो पर निर्भरता व जोखिम से बचे। जीवन के विभिन्न क्षेत्रो में सफलता व विफलता के मिश्रित अनुभव प्राप्त होंगे। कुंभ - हफ्ते के प्रारंभ में किसी अनचाहे स्थान पर आपका ट्रांसफर होने से व्यथित हो सकते हैं। कारोबार में कोई भी बड़ा फैसला लेने से पहले अपने शुभचिंतकों की सलाह लेंगे तो बेहतर होगा। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे लोगों को सफल होने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। सप्ताह के अंत तक व्यवसाय में कोई बड़ा लाभ प्राप्त हो सकता है। जीवनसाथी की सेहत का ख्याल रखें।चेतना के प्रत्येक स्तर पर संतुलन बिठाए। मीन - व्यावसायिक दिशा व निजी जीवन के निर्णयों को भावनाएं प्रभावित करेंगी। कोई अवसर व मुलाकात लक्ष्य के निकट ले जाएगी। निजी संबंधों में प्रेम रहेगा व प्रतिबद्धता प्रस्फुटित होगी। प्रकृति के मध्य सुकून के क्षण बिताएंगे। पेशेवर जीवन में उत्कृष्ट परिणाम व सराहना अर्जित करेंगे। रचनात्मकता को विस्तार देने का उचित समय है। अन्य लोग आपसे सहमत नहीं होंगे, पर अपनी सोच पर अडिग रहें। अंतर्मन की सुनें।
हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा अंद्रेटा गाँव को कलाकारों की बस्ती के रूप में जाना जाता है। यह वास्तव में कला प्रेमियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं हैं। इस गाँव ने कई प्रसिद्ध थिएटर चिकित्सकों, कुम्हारों, चित्रकारों को आकर्षित किया है। महान कलाकारों में शुमार सरदार सोभा सिंह भी देश के विभाजन के बाद अंद्रेटा गाँव में आ बसे थे और अपने अंतिम समय तक यहीं रहे। अपने जीवन के 38 साल के प्रवास के दौरान सरदार सोभा सिंह ने सैकड़ों चित्रों को चित्रित किया। सरदार सोभा सिंह का जन्म 29 नवंबर, 1901 को पंजाब के गुरदासपुर के श्री हरगोबिंदपुर कस्बे में हुआ था। उन्होंने स्व-अभ्यास से पेंटिंग सीखी और उसमें महारत हासिल की। 1919 में गोलीकांड के समय वे जलियांवाला बाग में मौजूद थे। बाद में, वह एक ड्राफ्ट्समैन के रूप में ब्रिटिश भारत की सेना में शामिल हो गए और इराक में विभिन्न स्थानों पर तैनात रहे। उन्होंने यूरोपीय चित्रों का अध्ययन किया और अंग्रेजी चित्रकारों के कार्यों से प्रेरणा प्राप्त की। सेना में कार्यकाल के दौरान उन्होंने यह तय किया कि अब वह बतौर स्वतंत्र चित्रकार जीवन-यापन करेंगे। लिहाजा वर्ष 1923 में उन्होंने सेना छोड़ दी और अमृतसर लौट आए जहाँ उन्होंने अपना आर्ट स्टूडियो खोला। सोभा सिंह नेताजी सुभाष चंद्र बोस से काफी प्रभावित थे और यही वजह रही कि उन्होंने अपने स्टूडियो का नाम सुभाष आर्ट स्टूडियो रखा और 1931 से वे दिल्ली में व्यावसायिक कलाकार के तौर पर काम करने लगे। यहां सोभा सिंह को कला प्रदर्शनियों में भाग लेने का मौका मिला। उन्होंने कई भारतीय राजाओं के चित्र बनाने के साथ ही भारतीय रेलवे, डाक और तार विभाग के लिए भी पोस्टर और चित्र बनाए। उनके चित्र लंदन इलस्टे्रटेड न्यूज में भी प्रकाशित हुए। 1946 में सरदार सोभा सिंह लाहौर वापस चले गए और फिर अनारकली में अपना स्टूडियो खोला। तब जब सोभा सिंह एक फिल्म के लिए एक कला निर्देशक के रूप काम कर रहे थे तो उन्हें देश के विभाजन के कारण शहर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। सोभा सिंह ने लाहौर से हिमाचल प्रदेश का रुख किया और जिला काँगड़ा के खूबसूरत गाँव अंद्रेटा में आ बसे। अंद्रेटा में अपने 38 साल के प्रवास के दौरान सोभा सिंह ने सैकड़ों चित्रों को चित्रित किया। बताया जाता है कि उनका मुख्य फोकस सिख गुरु, उनका जीवन और कार्य था। सोभा सिंह कहते थे कि "मैंने लोगों को प्रेरित करने के लिए गुरुओं को चित्रित किया है।" उन्होंने गुरु नानक को अपने ध्यान की अभिव्यक्ति के रूप में माना। उन्होंने शहीद भगत सिंह, करतार सिंह सराभा, महात्मा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री आदि जैसे राष्ट्रीय नायकों और नेताओं के प्रभावशाली चित्र भी चित्रित किए। - 'हर ग्रेस द गद्दन' सबसे लोकप्रिय पेंटिंग 1937 में सोभा सिंह ने पहली बार पंजाब की सबसे लोकप्रिय प्रेम कथाओं में से एक, सोहनी महिवाल को चित्रित किया था। तब इस अकेली पेंटिंग ने उन्हें बहुत प्रसिद्धि दिलाई। सोभा सिंह आर्ट गैलरी अंद्रेटा में आज भी इस पेंटिंग को देखा जा सकता है। इसके अलावा सोभा सिंह ने पंजाब की अन्य प्रेम कहानियों पर भी काम किया। हीर रांझा, सस्सी पुन्नू, शिरीन फरहाद और मिर्जान साहिबान जैसी कई खूबसूरत पेंटिंग बनाई। अंद्रेटा स्थित सोभा सिंह आर्ट गैलरी में एक और शानदार रचना प्रसिद्ध उमर खय्याम एस का चित्रण भी शामिल है। बताया जाता है कि सोभा सिंह के मन में नारीत्व की गरिमा के लिए गहरा सम्मान था। उन्होंने पंजाब और हिमाचल के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली दुल्हनों की एक श्रृंखला को चित्रित किया था। इन श्रृंखलाओं में सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली पेंटिंग में से एक है 'हर ग्रेस द गद्दन'। - पदमश्री से सम्मानित थे सरदार सोभा सिंह सोभा सिंह को अपनी कला के लिए व्यापक प्रशंसा मिली। उन्हें कई पुरस्कार मिले और कई संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया। सरदार सोभा सिंह को भारत के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कारों में से एक पदमश्री से सम्मानित किया गया था। बीबीसी, लंदन ने उन पर एक डॉक्यूमेंट्री भी तैयार की थी। उन्हें पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला द्वारा डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की उपाधि से भी सम्मानित किया गया है। 1986 में महान कलाकार सरदार सोभा सिंह इस दुनिया को अलविदा कह गए। चंडीगढ़ में उनका निधन हुआ और पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया था। - सोभा सिंह आर्ट गैलरी कांगड़ा घाटी में अंद्रेटा स्थित सोभा सिंह आर्ट गैलरी में सोभा सिंह की बनाई लगभग पांच दर्जन मूल कलाकृतियां प्रदर्शित हैं। बड़ी संख्या में कलाकार, कला प्रेमी, पारखी और आम लोग रोजाना इस गैलरी देखने आते हैं। गैलरी में मूल कार्यों के लगभग तीन दर्जन बहुरंगी प्रतिकृतियां उपलब्ध हैं। कलाकार पर कुछ पुस्तकें हैं: आर्ट ऑफ शोभा सिंह (डॉ. एमएस रंधावा द्वारा), पेंटर ऑफ डिवाइन (गुरु नानक देव विश्वविद्यालय), दिव्य पेंटर सोभा सिंह (डॉ. कुलवंत सिंह खोखर), आत्मा और सिद्धांत (डॉ. कुलवंत सिंह खोखर) ), सोभा सिंह कलाकार (पंजाबी यूनिवर्सिटी), कला वाहेगुरु दी (एस. शोभा सिंह), शोभा सिंह कला दीर्घा (एस.हृदय पॉल सिंह) भी उपलब्ध हैं। सोभा सिंह आर्ट गैलरी परिसर में कलाकार तपोवनी भी स्थापित की गई है। इसका मकसद स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्पित कलाकारों को प्राकृतिक माहौल प्राप्त करवाना है। ReplyForward
भारत देश की पावन भूमि पर कई ऐसे साधु-संत और सन्यासी हुए है जिन्होंने अपना पूरा जीवन जन कल्याण में लगा दिया। ऐसे ही एक महायोगी बाबा को दुनिया देवरहा बाबा के नाम से जानती है। देवरहा बाबा एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्त पुरुष थे। देवरहा बाबा का जन्म कब और कहाँ हुआ ये तो किसी को भी पता नहीं है ,पर बाबा का निवास ज्यादातर भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया में रहता था जिसके चलते ही उनका नाम देवरहा बाबा पड़ा। मंगलवार, संवत 2047 की योगिनी एकादशी तदनुसार, 19 जून सन 1990 के दिन अपना शरीर छोड़ने वाले देवरहा बाबा की चमत्कारी शक्ति को लेकर तरह-तरह की बातें कही-सुनी जाती हैं। उनकी सही उम्र के विषय में अलग-अलग राय है। आमतौर पर सुनने में आता हैं कि देवरहा बाबा 900 साल तक जिन्दा थे। वहीँ कुछ लोग उनका जीवन काल 250 साल तो कुछ 500 साल मानते हैं। उनका वास्तविक जीवनकाल कितना था इसे लेकर अलग -अलग बातें है। कहते है उनकी आयु को लेकर पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक बार कहा था कि अपने बचपन में उन्होंने बाब के दर्शन किये थे। इसके बाद जब वे राष्ट्रपति बनने के बाद दोबारा बाबा के दर्शन को गए तब भी बाबा वैसे ही दिखते थे, जैसा उन्होंने अपने बचपन में उनको देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी आपातकाल के बाद चुनाव में हार के बाद बाबा का आशीर्वाद लेने पहुंची थी। इंदिरा के अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी भी बाबा के दर्शन करने पहुंचते थे। देवरहा बाबा का पूरा जीवन मचान पर ही बीता। यमुना किनारे करीब 12 फ़ीट ऊँची मचान पर ही वे रहा करते थे। चार खंभों पर टिका मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। बाबा हमेशा निरवस्त्र रहते हुए मृग छाला ही पहनते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। कहते है श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था। वे साल में करीब आठ माह देवरिया के मइल गांव में ही बिताते थे। बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। अपरम्पार थी बाबा की साधना की शक्ति : देवरहा बाबा ने अपनी उम्र, तप और सिद्धियों के बारे में कभी कोई दावा नहीं किया। सहज, सरल और सादा जीवन जीने वाले बाबा देवरहा तो बिना पूछे ही सब कुछ जान लेते थे। यह उनकी साधना की शक्ति थी। कहा जाता है कि बाबा को प्लविनी सिद्धि प्राप्त थी और वे जल पर भी चलते थे। किसी भी गंतव्य पर पहुंचने के लिए उन्होंने कभी सवारी नहीं की। बाबा हर साल माघ मेले के समय प्रयाग आते थे। यमुना किनारे वृंदावन में वह आधा घंटा तक तक पानी में, बिना सांस लिए रह लेते थे। बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्टि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याद्दाश्त इतनी कि दशकों बाद मिले व्यक्ति को भी पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते। कहते है बाबा जानवरों की भाषा समझ जाते थे बाबा जानवरों की भाषा समझ जाते थे, पल भर में वे खतरनाक जंगली जानवरों को काबू कर लेते थे। बाबा ने दिया था कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ! देश में आपातकाल के बाद 1977 में चुनाव हुए, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हार गईं। हार के बाद इंदिरा गाँधी भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा का आशीर्वाद देने का तरीका निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो जाता था। पर बाबा ने इंदिरा को हाथ उठाकर पंजे से आशीर्वाद दिया। कहते है ये बाबा का इशारा था जिसे इंदिरा समझ गई और वहां से लौटने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा ही तय किया। इसी चिह्न पर 1980 में कांग्रेस ने इंदिरा के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और इंदिरा फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं। जार्ज पंचम भी दर्शन के लिए आये थे भारत : बाबा के दर्शन के लिए मईल आश्रम पर 1911 में जार्ज पंचम दर्शन करने के लिए भारत आए थे। देश के महान विभूति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मदनमोहन मालवीय, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी अटल बिहारी बाजपेयी, मुलायम सिंह यादव , वीरबहादुर सिंह, विंदेश्वरी दुबे, जग्रनाथ मिश्र आदि नेताओं सहित प्रशासनिक अधिकारी बाबा का आशीर्वाद लेते थे। बाबा अपने पास आने वाले भक्तों से बड़े प्रेम से मिलते थे और उनको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे। यह किसी चमत्कार जैसा ही लगता था।
चतुर्थ केदार माना जाने वाला रुद्रनाथ मंदिर देवों के देव महादेव को समर्पित है। इस मंदिर में भक्तों की अपार आस्था है और कपाट खुलने के साथ ही यहाँ दर्शन के लिए दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु पहुंचते हैं। भगवान भोलेनाथ का ये मंदिर अनोखा है और यह एकमात्र ऐसा शिव मंदिर है, जहां भगवान भोलेनाथ के मुख की पूजा होती है। रुद्रनाथ में जहाँ भगवान शिव के चेहरे की पूजा होती है, वहीं नेपाल के पशुपतिनाथ में भोलेनाथ के बाकी शरीर की पूजा होती है। यह मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के चमोली जिले में स्थित है और इसका इतिहास महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। सर्दियों में इस मंदिर के कपाट बंद हो जाते है और इस बार रुद्रनाथ मंदिर के कपाट 19 मई को खुलेंगे। पौराणिक मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण महाभारत के समय पांडवों ने किया था। पांडवों ने इस मंदिर में भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान शिव की पूजा की थी। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण लगभग 8वीं शताब्दी में किया गया था। महाभारत युद्ध के दौरान जब पांडवों ने कौरवों को मार कर इस युद्ध को जीत लिया था तो उनको गोत्र हत्या और ब्राह्मण हत्या का पाप लग गया था। वह इस पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे। उन्होंने अपने राज्य की बागडोर परिवार के अन्य सदस्यों को सौंप दी और धर्मगुरुओं की सलाह पर भगवान शिव की खोज में निकल गये। भगवान शिव की तलाश में वह सर्वप्रथम काशी में गए लेकिन उन्हे वहाँ भगवान शिव नहीं मिले तो उनकी खोज में वह हिमालय पर्वत की ओर निकल पड़े। प्राची कथाओं के अनुसार भगवान शिव महाभारत युद्ध के कारण पांडवों से नाराज थे और उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। उन्होंने एक बैल का रूप धारण कर हिमालय की पहाड़ियों पर चले गए। पर भीम ने भगवान शिव को बैल रूप में पहचान लिया और उनके पैर व पुंछ को पकड़ लिया, किन्तु भगवान शिव जमीन में समा गये थे। जिस स्थान पर भगवान शिव के शरीर के भाग गिरे उन्हे पंच केदार कहा जाता है। इन्हीं पंच केदारों में से एक रुद्रनाथ भी है। रुद्रनाथ में भगवान शिव का चेहरा प्रकट हुआ था। भगवान शिव से आशीर्वाद मिलने के बाद बाद जिस स्थान पर भी भगवान शिव के शरीर के भाग गिरे थे उस स्थान पर पांडवों में मंदिर का निर्माण किया था। पंच केदार में रूद्रनाथ है चौथा केदार रुद्रनाथ मंदिर में भगवान शिव के बैल रुपी अवतार का मुख प्रकट हुआ था। बैल का जो भाग भीम ने पकड़ लिया था, वहां केदारनाथ मंदिर स्थित हैं। अन्य तीन केदारों में मध्यमहेश्वर (नाभि), तुंगनाथ (भुजाएं) व कल्पेश्वर (जटाएं) आते हैं। रुद्रनाथ मंदिर को पंच केदार में से चतुर्थ केदार के रूप में जाना जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में है रुद्रनाथ मंदिर यह मंदिर उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यह चमोली जिले के सगर गाँव से 20 किलोमीटर दूर हैं जहाँ का रास्ता पैदल चलकर पार करना पड़ता हैं। समुंद्र तट से रुद्रनाथ मंदिर की ऊंचाई 3,600 मीटर (11,811 फीट) है। मंदिर का मार्ग अल्पाइन व बुरांस के जंगलों और पेड़ों से घिरा हुआ है जहाँ आपको असंख्य पेड़, पुष्प, पशु-पक्षी देखने को मिलेंगे। मंदिर की चढ़ाई में प्राकृतिक झरने व गुफाएं भी देखने को मिलेंगी। इसकी चढ़ाई के मार्ग को उत्तराखंड का बुग्याल क्षेत्र कहते है। मंदिर भी एक गुफा के अंदर ही स्थित हैं जो इसे सबसे अलग रूप प्रदान करती है शिवलिंग की गहराई किसी को नहीं पता रुद्रनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग सभी के लिए किसी रहस्य से कम नही है। प्राचीन कथा के अनुसार यहाँ शिव के बैल रुपी अवतार का मुख प्रकट हुआ था, इसलिए इसे स्वयंभू शिवलिंग के नाम से भी जाना जाता है। शिवलिंग एक मुख की आकृति लिए हुए है जिसकी गर्दन टेढ़ी है। यह शिवलिंग एक प्राकृतिक शिवलिंग है जिसकी गहराई का आज तक पता नही लगाया जा सका है। दूर-दूर से भक्तगण इसी के दर्शन करने और महादेव का आशीर्वाद पाने यहाँ आते हैं। रुद्रनाथ मंदिर की वास्तुकला : रुद्रनाथ मंदिर के निर्माण प्राचीन हिन्दू मंदिर शैली के अनुसार किया गया है। प्राचीन समय में भगवान शिव का यह मंदिर एक छोटी सी गुफा में बना हुआ था, फिर बाद में यहाँ पर भगवान शिव का एक मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर के गर्भ गृह में महादेव की पूजा की जाती है। जबकि मुख्य मंदिर के पास कई छोटे-छोटे मंदिर विराजमान हैं। इस मंदिर में भगवान शिव के नीलकंठ रूप की पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर के आस पास सुंदर घास के मैदान हैं। जो दिखने में बहुत आकर्षक लगते हैं। रुद्रनाथ के बाहर बाईं तरफ पांचों पांडवों यानी युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव व उनकी माता कुन्ती, पत्नी द्रौपदी, वन देवता और वन देवियों की मूर्तियां स्थापित हैं। जबकि मंदिर के दाईं ओर यक्ष देवता का मंदिर है, जिन्हें स्थानीय लोग जाख देवता कहते हैं। रुद्रनाथ मंदिर का महत्व रुद्रनाथ मंदिर का अपना अलग महत्व है। इस मंदिर के चारों ओर सूर्य कुंड, चंद्र कुंड, तारा कुंड और मानस कुंड विराजमान हैं वहीँ आसपास नंदा देवी, त्रिशूल और नंदा घुंटी जैसी चोटियां हैं, जो इसकी सुंदरता को और बढ़ा देते हैं। पंच केदार के अन्य मंदिरों की तुलना में यहाँ पर पहुंचना ज्यादा कठिन माना जाता है है। यहाँ पहुँचने के लिए पहाड़ियों पर पैदल चलना पड़ता है। इस मंदिर में दर्शन करने से पहले सभी भक्त नारद कुंड स्नान करते हैं। इस मंदिर के पास ही बैतरणी नदी बहती है। माना जाता है कि इस नदी में नहाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रुद्रनाथ मंदिर में मानव चेहरे के आकार वाला शिवलिंग विराजमान है। रुद्रनाथ मंदिर में स्थित पित्रधार सगर गाँव से रुद्रनाथ की यात्रा शुरू होती है जो कि 20 किलोमीटर लंबी है। इस मार्ग के अंत में पित्रधार नामक एक पवित्र स्थल आता है। इस पित्रधार को पितरों के पिंडदान के लिए पवित्र जगह माना गया है। मान्यता है कि लोग यहाँ अपने पितरों का पिंडदान कर सकते हैं। यहाँ आने वाले लोग पित्रधार में अपने पितरों के नाम के पत्थर रखा करते हैं और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। रुद्रनाथ मंदिर में वैतरणी नदी गरुड़ पुराण के अनुसार, आत्मा अपनी तेरहवीं के दिन वैतरणी नदी को पार करके ही यमलोक पहुँचती है। रुद्रनाथ मंदिर के पास भी जो नदी बहती हैं, उसे वैतरणी नदी कहा गया है। इसके अलावा इसे बैतरनी नदी या रुद्रगंगा नाम से भी जाना जाता है। स्थानीय लोग इसे मोक्ष प्राप्ति की नदी भी कहते हैं। वैतरणी नदी में भगवान शिव/ विष्णु की पत्थर से बनी मूर्ति स्थापित है। कई लोग यहाँ भी पिंडदान करते हैं। रुद्रनाथ मंदिर में मनाये जाने वाले त्योहार भगवान शिव के प्रसिद्ध मंदिर रुद्रनाथ में कुछ प्रमुख त्योहार मनाये जाते है। 1- महाशिवरात्रि महाशिवरात्रि का त्योहार शिव भक्तों द्वारा बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। इस दिन सभी शिव भक्त भगवान शिव के मंदिर में जाकर भोलेनाथ की पूजा अर्चना करते हैं और रुद्रनाथ मंदिर को विशेष तौर पर सजाया जाता है। शिवरात्रि पर दूर-दूर से भक्त आकर भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। 2- डोली यात्रा डोली यात्रा के दिन सभी शिव भक्त भगवान शिव की मूर्ति को गोपेश्वर लाते हैं। यहाँ से आसपास के गावों से होते हुए यह डोली यात्रा पितृधर पहुँचती हैं। फिर वहाँ पर इनकी पूजा अर्चना करने के बाद भगवान शिव की मूर्ति को वापस रुद्रनाथ मंदिर में लाया जाता है। 3- वार्षिक मेला रुद्रनाथ मंदिर में वार्षिक मेला का आयोजन श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन किया जाता है। इस दिन रक्षा बंधन का त्योहार भी होता है। वार्षिक मेले में आसपास के स्थानीय लोग आते हैं और मिलजुल कर इस मेले का आनंद लेते हैं। रोचक है बदरीनाथ धाम का इतिहास चार धामों में से एक बदरीनाथ धाम सनातन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। इस मंदिर का इतिहास काफी रोचक है। आठवीं शताब्दी से लेकर सोल्हवीं शताब्दी तक मंदिर में कई परिवर्तन हुए। कई बार हुई त्रासदी के बाद मंदिर का फिर निर्माण हुआ। हालांकि श्री हरि का यह धाम शुरू से ही मंदिर रूप में नहीं था और न ही विष्णु भगवान की मूर्ति यहां स्थापित थी। कहा जाता है कि शंकराचार्यजी अपने बदरीधाम निवास के दौरान छह महीने यहां रुके थे। इसके बाद वह केदारनाथ चले गए थे। हालांकि उन्होंने ही अलकनंदा नदी से भगवान बदरीनाथ की मूर्ति प्राप्त की थी जिसे हिंदू और बैद्ध संघर्ष के दौरान सुरक्षित रखने के लिए साधुओं ने नारदकुंड में डाल दिया था।। इसके बाद तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में मूर्ति को स्थापित कर दिया। हालांकि यह मूर्ति गुफा से विलुप्त हो गई और पुन: तप्तकुंड में ही पहुंच गई। यह दो बार हुआ। कथा है कि तीसरी बार संत रामानुजाचार्य ने मूर्ति की स्थापना करवाई। पारंपरिक कथा के अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से बौद्धों को निष्कासित कर दिया। इसके बाद कनकपाल और उनके उत्तराधिकारियों ने इस मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली।16 वीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बदरीनाथ की मूर्ति को गुफा से निकालकर वर्ममान मंदिर में स्थापित कर दिया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां पर सोने का छत्र चढ़ाया। 20वीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य दो भागों में बंटा तब बदरीनाथ मंदिर ब्रिटिश हुकूमत के आधीन हो गया। पर राज्य बंटने के बाद भी मंदिर का प्रबंधन और प्रशासन गढ़वाल के राजा के पास ही रहा। मंदिर कई बार हुआ है त्रासदी का शिकार भगवान बदरीनाथ के इस मंदिर को हिमस्खलन के चलते कई बार नुकसान पहुंचा लेकिन गढ़वाल के राजाओं ने मंदिर के नवीनीकरण के साथ ही इसका विस्तार भी किया। 1803 में इस क्षेत्र में आए भूकंप से मंदिर को काफी नुकसान पहुंचा। इस घटना के बाद जयपुर के राजा ने मंदिर का पुन: निर्माण करवाया। मंदिर का निर्माण कार्य 1870 के अंत तक चला।
हिमाचल प्रदेश को देवी-देवताओं को भूमि कहा जाता है। प्रदेश के कोने -कोने में कई धार्मिक स्थान है, जिनसे कोई न कोई गाथा जुड़ी हुई है। इनमें पूरे देश में सुप्रसिद्ध प्राचीन व ऐतिहासिक द्रोण शिव मंदिर शिवबाड़ी भी है। इस मंदिर को भगवान शिव की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यह भी माना जाता है कि इस स्थान पर गुरु द्रोणाचार्य ने पांडवों को धनुर्विद्या भी सिखाई थी। ये मंदिर ऊना जिले के उपमंडल गगरेट में स्थित है। गगरेट से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध धार्मिक स्थल शिवबाड़ी में महाशिवरात्रि को भगवान शिव के लाखों उपासक यहां पर माथा टेकने पहुंचते है। सोमभद्रा नदी के किनारे स्थित शिवबाड़ी मंदिर हर आने वाले को अपनी ओर आकर्षित करता है। मंदिर का इतिहास व उससे जुड़ी दंत कथाएं इस मंदिर का इतिहास काफी पुराना है। किसी समय यह स्थान गुरु द्रोणाचार्य की नगरी थी। पांडव अपने वनवास के समय में यहाँ आ कर रुके थे। दंतकथा के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर भगवान शिवजी आराधना करने जाया करते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम जयाति था। उसने अपने पिता से पूछा कि वह प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर क्या करने जाते है। तो गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि वह प्रतिदिन पर्वत पर भगवान शिव की आराधना करने जाते है। जयाति ने जिद्द की कि वह भी उनके साथ वहां पर जाएगी। गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि वह अभी छोटी है और वह घर पर ही भगवान शिव की आराधना करे। जयाति शिवबाड़ी में ही मिट्टी का शिवलिंग बनाकर भगवान शिव की आराधना करने लग पड़ी। इस प्रकार जयाति ने ओम नमः शिवाय का जाप करना शुरू कर दिया। लोभ रहित एवं सांसारिक भावनाओं से दूर बालिका को निस्वार्थ तपस्या से वशीभूत होकर भगवान शिव भी उसको बालक रूप में दर्शन देने पहुंच गए। शिव जयाति के साथ खेलते और कथा के बाद अदृश्य हो जाते। जयाति ने यह बात अपने पिता को बताई। अगले दिन गुरु द्रोणाचार्य कैलाश पर्वत पर न जाकर कहीं पास में छिप कर बैठ गए। जैसे ही वह बालक जयाति के साथ खेलने पहुंचा तो गुरु द्रोणाचार्य उस बालक के प्रकाश को देखकर समझ गए कि वह तो साक्षात् भगवान शिव है, जिस पर वह बालक के चरणों में गिर गए और भगवान ने साक्षात् उन्हें दर्शन दे दिए। भगवान ने कहा कि वह बच्ची उनको सच्ची श्रद्धा से बुलाती थी तो वह वहाँ पर आ जाते थे। जब जयाति को इस बात का पता चला तो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न रहा। जयाति ने भगवान शिव से वहीं पर रहने की जिद्द कर डाली। उसकी जिद्द पर भगवान शिव ने अपनी पिंडी वहाँ लाकर रख दी और वचन दिया कि बैसाखी के दूसरे शनिवार यहां पर विशाल मेला लगेगा, जिसमें वह स्वयं शमिल हुआ करेंगे। उसके बाद इस मंदिर की स्थापना हुई। भगवान शिव ने शिवबाड़ी में स्वयं अपने हाथों से शिवलिंग की स्थापना की है। बैसाखी के बाद आने वाले दूसरे शनिवार को वह दिन माना जाता है जिस दिन भगवान शिव पूरा दिन यहाँ विचरण करते है। मंदिर की विशेषताएं इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग की यह विशेषता है कि यह धरती में धंसा हुआ है। शिवबाड़ी के चारों और चार कुओं की स्थापना की गई थी। यहाँ स्थित जंगल की लकड़ी का उपयोग भी केवल मुर्दो को जलाने के लिए किया जाता है। जो भी इस जंगल की लकड़ी का उपयोग अन्य कार्यों के लिए करने की कोशिश करता है, उसे अनिष्टता का सामना करना पड़ता है। वहीं इस शिवलिंग की पूरी परिक्रमा ली जाती है, जबकि आमतौर पर शिवलिंग की आधी परिक्रमा ली जाती है। वहीं यदि क्षेत्र में बारिश न हो तो गांव वाले नीचे स्थित कुएँ में से जल भरकर शिवलिंग पर चढ़ाते है। जब वह पानी शिवलिंग से बहता हुआ नीचे सोमभद्रा नदी में जा मिलता है तो बारिश हो जाती है। यदि पानी न मिले तो बारिश नहीं होती। सिद्ध महात्माओं की तपस्थली है शिवबाड़ी शिवबाड़ी गुरु द्रोणाचार्य सहित कई सिद्ध महात्माओं की तपस्थली रही है। कई सिद्ध महात्माओं की समाधियां आज भी यहाँ स्थित है। इन सिद्ध महात्माओं में से एक थे महात्मा बलदेव गिरी जी। कहा जाता है कि शिवबाड़ी में पहले भूत -प्रेतों का वास था। बलदेव गिरी जी ने यहाँ घोर तप करके इस शिवबाड़ी को अपने मन्त्रों से कील दिया था। पहले वहाँ जाने पर तो दिन में भी लोग डरते थे,लेकिन अब तो रात के समय में भी लोग जाते है और मंदिर में रहते भी है। केवल शव जलाने के काम आती है जंगल की लकड़ी शिवबाड़ी मंदिर के चारों और घना जंगल फैला हुआ है जिसमें करोड़ों की वन संपदा की रक्षा भगवान भोले नाथ कर रहे है। करीब 678 कनाल में फैला विशाल जंगल अपने सौंदर्य को सहेजे हुए है। इस जंगल की लकड़ी केवल शव जलाने के काम आती है। लकड़ी का लाभ आम आदमी नहीं ले सकते। इस जंगल की लकड़ी को साथ ले जाने पर अमंगल हो सकता है। महाशिवरात्रि व बैसाखी पर लगता है मेला महाशिवरात्रि व बैसाखी पर मंदिर में लाखों की तादाद में शिव भक्त पहुंचकर पूजा- अर्चना करते है। इस मंदिर से आज तक कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा है। मंदिर में श्रद्धालुओं की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा जाता है।
मेष : मेष लग्न वाले जातक का व्यापार तथा व्यवसाय अच्छा चलेगा और लाभ भी होगा। इनको विनियोग तथा प्रतिभूति से भी लाभ होगा। भाई बंधुओं में अच्छा प्रेम रहेगा तथा घर में सुख शांति का योग बनता है। संतान के अटके कार्य पूरे होंगे तथा उनको शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षा में सफलता मिलेगी। वृष : वृष लग्न के जातकों का व्यापार और व्यवसाय अच्छा चलेगा और लाभ भी होगा। इनको विदेशी व्यापार और साझेदारी से भी लाभ होगा। वहीं विनियोग तथा प्रतिभूति से लाभ नहीं होगा। संतान को प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता मिलेगी। विवाह आदि कार्य में सफल होंगे। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी तथा मित्रों में अच्छी गुडविल बनेगी। मिथुन : मिथुन लग्न वाले का व्यापार तथा व्यवसाय अच्छा नहीं चलेगा और लाभ की प्राप्ति भी नहीं होगी। जातक को विदेशी व्यापार से भी लाभ नहीं होगा। इनको विनियोग तथा प्रतिभूतियों से फायदा हो सकता है। जातक की संतान को करियर में नहीं मिलेगी।करियर में समस्या हो सकती है। धार्मिक यात्रा का योग बनेगा। कर्क : कर्क लग्न वाले जातक को व्यवसाय तथा व्यापार से फायदा नहीं होगा। इनको विनियोग तथा प्रतिभूति से फायदा होगा, विशेषकर ओल्ड आइटम पर। धार्मिक यात्रा का विचार आएगा। पिता के साथ मुलाकात हो सकती है। संतान को प्रतियोगी परीक्षा में सफलता मिलेगी। स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। सिंह: इस सप्ताह आपकी सेहत में सुधार होगा। अगर कोई यात्रा ज़रूरी है तो कर लें नहीं तो यात्रा को अभी छोड़ भी सकते है। खर्चे भी बढ़ सकते है। इस दौरान किसी भी प्रकार के निर्णय ले पाएंगे जिससे आपको लाभ होगा। इस सप्ताह घर में किसी भी सदस्य को स्थान प्राप्त हो सकता है। कन्या: खुद को सेहतमंद रखने के लिए आपको ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। आपकी सेहत अच्छी रहेगी। इस सप्ताह के दौरान आर्थिक पक्ष के लिहाज से ये समय आपको बेहतर दिशा और अवसर प्रदान करने वाला साबित होगा जिससे आपको लाभ भी मिलेगा। आपके पारिवारिक मौहाल में किसी भी तरह की ख़ुशी की लहर दौड़ती दिखाई देगी। तुला : इस सप्ताह की शुरुवात अच्छे से होगी। इस बार आपकी सेहत में सकारात्मक बदलाव आएंगे। इस सप्ताह आपके अंदर अच्छे विचारो की वृद्धि होगी। ऐसे में इन अवसरों का उचित लाभ उठाते हुए, उन्हें अपने हाथों से निकलने न दें। आपके घरवालों के साथ कोई बड़ा विवाद भी हो सकता है जिनसे आपको बच के रहना चाहिए। वृश्चिक: इस सप्ताह आपको समाज में मान सम्मान की प्राप्ति होगी। अगर आप लम्बे समय के लिए कोई निवेश करेंगे तो आपको उसमे लाभ मिलेगा। भाई बहनो का स्वास्थ्य ख़राब हो सकता है, उन्हें थोड़ी कमज़ोरी आ सकती है। इस समय आपके प्रयास सफल होंगे और आपको मान सम्मान की प्राप्ति भी होगी। धनु : धनु राशि के लोगों के लिए यह सप्ताह रोजगार के मामले में काफी अच्छा रहने वाला है। इस सप्ताह आपको रोजगार के नए अवसर या उसमें उन्नति के अवसर प्राप्त होंगे। इस सप्ताह आप जिस भी दिशा में पूरे समर्पण के साथ प्रयास करेंगे, उसमें आपको शुभ फल की प्राप्ति होगी। मकर : मकर राशि के लोगों के लिए यह सप्ताह विभिन्न स्रोतों से आमदनी दिलाने वाला होगा। लेकिन सुख-सुविधाओं और घर की मरम्मत आदि पर इनका खर्च भी बना रहेगा। राजनीति में कोई भी बड़ा कदम उठाने से पहले सोच-विचार कर लें नहीं तो आपको हानि हो सकती है। नौकरीपेशा जातकों को इस हफ्ते अपने उच्च अधिकारियों के संपर्क में रहने की जरूरत है। कुंभ : कुंभ राशि के लोगों को इस सप्ताह अपने ज्ञात और अज्ञात शत्रुओं से बहुत सावधान रहने की जरूरत है। कार्यक्षेत्र में आपके विरोधी आपकी योजनाओं को बाधित करने का प्रयास कर सकते हैं। सप्ताह के मध्य में सहकर्मियों का सहयोग समय पर न मिलने से मन उदास हो सकता है। ऐसे में किसी पर भरोसा करने या किसी काम को दूसरों के भरोसे छोड़ने की गलती न करें। मीन: मीन राशि के लोगों को इस सप्ताह छोटी या लंबी दूरी की यात्रा करनी पड़ सकती है। यात्रा सुखद और लाभकारी सिद्ध होगी। इस सप्ताह युवा वर्ग मौज-मस्ती में अधिक समय व्यतीत करेंगे। सप्ताह के मध्य में घर में किसी प्रिय व्यक्ति के आगमन से प्रसन्नता का वातावरण रहेगा। परिवार के साथ पिकनिक या किसी मनोरंजन स्थल की यात्रा संभव है।
तिरुवनंतपुरम में स्थित भगवान विष्णु को समर्पित पद्मनाभस्वामी मंदिर भारत का सबसे रहस्यमयी मंदिर माना जाता है। साल 2011 में इस मंदिर के 6 दरवाजों को खोला गया था, तो उसमें से बेशुमार मात्रा में खजाने की प्राप्ति हुई थी। तब करीब 1 लाख 32 हजार करोड़ का खजाना भारत सरकार को प्राप्त हुआ था। हालांकि सातवें दरवाजे को खोलने को लेकर काफी विवाद हुआ। फिर बढ़ते विवाद के चलते सुप्रीम कोर्ट ने उस दौरान इस मामले में दखल दिया और सातवें दरवाजे को खोलने पर रोक लगा दी। कहा जाता है कि पिछले 6 दरवाजों को खोलने पर जितना खजाना निकला था, उससे कहीं अधिक खजाना सातवें दरवाजे के भीतर मौजूद है। पर अब तक ऐसा किया नहीं गया। दरअसल मान्यताओं के अनुसार अगर पद्मनाभस्वामी मंदिर के सातवें दरवाजे को खोला जाएगा, तो कई अनिष्टकारी घटनाएं हो सकती हैं। यह रहस्य ही पद्मनाभस्वामी मंदिर को अन्य मंदिरों से अलग बनाता है। माना जाता है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर देश के सबसे धनी मंदिरों में से है, जिसके पास दो लाख करोड़ के आसपास की प्रॉपर्टी है। अब तक इस मंदिर के 7वें दरवाजे को खोला नहीं गया है। कहा जाता है कि ये दरवाजा शापित है और इसे एक खास मंत्र के द्वारा ही खोला जा सकता है। इस दरवाजे को बोल्ट बी के नाम से भी जाना जाता है। बताया जाता है कि इस पर एक सांप के आकार का चित्र बना हुआ है। स्थानीय लोगों का मानना है कि अगर सातवें दरवाजे को खोला गया तो कई तरह की अशुभ घटनाएं होंगी। कहते है कि एक बार किसी व्यक्ति ने इस दरवाजे को खोलने का प्रयास किया, लेकिन उसको जहरीले सांप ने काट लिया था। इसके बाद कई लोगों की मान्यता है कि खजाने की रक्षा सांप करते हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस दरवाजे पर किसी भी प्रकार का ताला नहीं लगा हुआ है। मान्यता : मंत्रोच्चार करके ही खोला जा सकता है सातवां दरवाजा ! मान्यता है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर के सातवें दरवाजे को गरुण मंत्र के उच्चारण करने के बाद ही खोला जा सकता है। पर यदि मंत्र पढ़ते वक्त पुजारी से कुछ गलती हो जाएँ, तो उसी समय उसकी मृत्यु हो जाएगी। ऐसे में इस दरवाजे को कोई सिद्ध पुरुष ही मंत्रोच्चार करके खोल सकता है। हालांकि ये सब मान्यताएं है और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि मंदिर के सातवें दरवाजे के भीतर कितना खजाना छिपा हुआ है। अब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। शाही घराने के अधीन ट्रस्ट करता है देखरेख : पद्मनाभस्वामी मंदिर के निर्माण का कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार ये मंदिर लगभग 5000 साल पुराना है। पर मंदिर के स्ट्रक्चर के लिहाज से देखें तो माना जाता है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर की स्थापना सोलहवीं सदी में की गई थी। तब त्रावणकोर के राजाओं द्वारा इसे बनाया गया था। त्रावणकोर के राजा भगवान विष्णु के परम भक्त हुआ करते थे और उन्होंने अपनी संपत्ति और सब कुछ भगवान विष्णु के प्रति समर्पित कर दिया था। वर्ष 1750 में महाराज मार्तेंड वर्मा ने अपने आपको भगवान का दास बताया था और तब से ही इस मंदिर की देखरेख राजघराना कर रहा है। पूरा राजघराना मंदिर की सेवा में जुट गया और अब भी शाही घराने के अधीन एक प्राइवेट ट्रस्ट मंदिर की देखरेख कर रहा है। इतिहासकार एमिली हैच ने भी किया है जिक्र : इतिहासकार और सैलानी एमिली हैच ने पद्मनाभस्वामी मंदिर का जिक्र अपनी किताब 'त्रावणकोर: ए गाइड बुक फॉर दी विजिटर' में भी किया है। उन्होंने लिखा हैं कि साल 1931 में इसके दरवाजे को खोलने की कोशिश की जा रही थी तो हजारों नागों ने मंदिर के तहखाने को घेर लिया और इससे पहले साल 1908 में भी ऐसा हो चुका है। इसके बाद ये सवाल भी उठे कि जमीन के भीतर क्या ये रक्षक सांप सदियों से रह रहे थे, जो एकाएक सक्रिय हो उठे या कोई गुप्त जगह है जहां ये सांप रहते रहे हों। हालांकि इस संस्मरण का पुष्ट जिक्र अन्य कहीं नहीं मिलता। बंद कैसे है दरवाजा, अब तक रहस्य है? पद्मनाभस्वामी मंदिर का सातवां दरवाजा लकड़ी का बना हुआ है और दिलचस्प बात ये है कि इसे खोलने या बंद करने के लिए कोई सांकल, नट-बोल्ट, जंजीर या ताला नहीं लगा है। बावजूद इसके ये दरवाजा बंद कैसे है, ये वैज्ञानिकों के लिए अब तक एक रहस्य है। मान्यता है कि सदियों पहले इसे कुछ खास मंत्रों के उच्चारण से बंद किया गया था और अब कोई भी इसे खोल नहीं सकता। रिटायर्ड पुलिस अफसर की याचिका पर खोले गए थे दरवाजे : एक रिटायर्ड पुलिस अफसर टी पी सूंदर राजन की याचिका पर इस मंदिर के दरवाजों को खोलने का फैसला हुआ था। उन्होंने ही सबसे पहली बार कहा था कि मंदिर के तहखानों में अथाह संपत्ति हो सकती है और ये भी कहा था कि मौजूदा ट्रस्ट इतने अमीर मंदिर की देखभाल करने लायक नहीं है और इसे राज्य सरकार के हाथ में चला जाना चाहिए। इसके बाद मामला कोर्ट में पहुंचा लेकिन इसी बीच सुंदर राजन की मौत हो गई ।मंदिर पर आस्था रखने वालों की मान्यता है कि टी पी सूंदर राजन की एकाएक मौत का कारण भी इन्हीं दरवाजों का शाप है। हालांकि परिजनों के अनुसार ज्यादा तनाव के कारण उनकी मौत हुई। पद्मनाभ एकादशी पर होती है विशेष पूजा : अश्विन महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पद्मनाभ एकादशी भी कहा जाता है। इस एकादशी व्रत का महत्व खुद श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था। पद्म पुराण के मुताबिक इस दिन भगवान विष्णु के पद्मनाभ स्वरूप की पूजा करने का भी विधान है। तिरुवनंतपुरम के पद्मनाभ मंदिर में इस एकादशी पर विशेष पूजा की जाती है। भगवान विष्णु को समर्पित पद्मनाभ स्वामी मंदिर पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजमान हैं। दीपक के प्रकाश में होते हैं दर्शन : मंदिर के मुख्य कक्ष में विष्णु भगवान की लेटी हुई मुद्रा में प्रतिमा है और वहां कई दीपक जलते हैं। इन्हीं दीपकों के उजाले से भगवान के दर्शन होते हैं। स्वामी पद्मनाभ की मूर्ति में भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल पर जगत पिता ब्रह्मा की मूर्ति स्थापित है। भगवान पद्मनाभ की मूर्ति के आसपास दोनों रानियों श्रीदेवी और भूदेवी की मूर्तियां हैं। भगवान पद्मनाभ की लेटी हुई मूर्ति पर शेषनाग के मुंह इस तरह खुले हुए हैं, जैसे शेषनाग भगवान विष्णु के हाथ में लगे कमल को सूंघ रहे हों। यहां मूर्ति का दर्शन अलग-अलग दरवाजों से किया जा सकता है। पुरुषों के लिए धोती और महिलाओं के लिए साड़ी अनिवार्य : मंदिर में पुरुष केवल धोती पहनकर ही मंदिर में प्रवेश पा सकते हैं और महिलाओं के लिए साड़ी पहनना जरूरी है। अन्य किसी भी लिबास में प्रवेश यहां वर्जित है। मंदिर में एक सोने का खंभा बना हुआ है। मंदिर का स्वर्ण जड़ित गोपुरम सात मंजिल का है जिसकी ऊंचाई करीब 35 मीटर है। कई एकड़ में फैले इस मंदिर में अद्भुत कारीगरी की गई है।
मेष मेष राशि के जातकों को इस सप्ताह सौभाग्य का पूरा साथ मिलेगा। यदि कोई कार्य लंबे समय से अटका हुआ था तो वह मित्र या सत्ता-शासन के सहयोग से पूरा होगा। आप सप्ताह की शुरुआत से ही अपने कार्यों में अनुकूलता महसूस करेंगे। इस सप्ताह आप अपनी वाणी से अपने विरोधियों को भी अपना मित्र बना लेंगे। व्यवसाय से जुड़े लोगों का बाजार में फंसा पैसा अप्रत्याशित रूप से निकल आएगा। यदि कोई व्यक्ति आपका उधार नहीं चुका रहा है, तो इस सप्ताह कोशिश करने पर फंसा धन निकल सकता है। वृष वृष राशि के जातकों के करियर और कारोबार के लिए यह सप्ताह बेहद शुभ रहने वाला है। यदि आप इस दिशा में पूरे मनोयोग से प्रयास और परिश्रम करते हैं तो निश्चित तौर पर आपको सफलता प्राप्त होगी। लेकिन ऐसा करते समय आपको अपनी सेहत को नजरंदाज नहीं करना है, अन्यथा आपको बेवजह शारीरिक एवं मानसिक कष्ट उठाना पड़ सकता है। इस सप्ताह आपको मौसमी बीमारी से खूब सावधान रहने की आवश्यकता रहेगी। मिथुन मिथुन राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह थोड़ा व्यस्तता लिए रहने वाला है। सप्ताह की शुरुआत से आप पर कामकाज का बोझ बना रहेगा। हालांकि इस दौरान आपको करियर और व्यवसाय में आगे बढ़ने के लिए अच्छे अवसर प्राप्त होंगे। व्यापारियों के लिए यह समय उत्तम कहा जाएगा। व्यवसाय में उन्हें मनचाहा लाभ होगा। वहीं नौकरीपेशा वालों के लिए समय थोड़ा मध्यम बना हुआ है। ऐसे में उन्हें अपने सीनियर और जूनियर दोनों से बना कर चलना चाहिए। कर्क कर्क राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह मिलाजुला रहने वाला है। सप्ताह की शुरुआत में आपका अधिकांश समय बेवजह के कामों में बीतेगा। व्यर्थ की भागदौड़ करने पर मन थोड़ा निराश रहेगा। इस सप्ताह किसी से कोई ऐसा वादा न करें, जिसे निभाने में आपको मुश्किलों का सामना करना पड़े। सप्ताह के मध्य में आपको करिअर-कारोबार के सिलसिले में लंबी दूरी की यात्रा करनी पड़ सकती है। व्यवसाय से जुड़े जिन लोगों का धन बाजार में फंसा हुआ है, उन्हें इस दौरान प्रयास करने पर सफलता मिल सकती है। सिंह सिंह राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह बेहद शुभ रहने वाला है। सप्ताह की शुरुआत से ही आपके सोचे हुए काम समय पर बनते नजर आएंगे। इस दौरान आपके जीवन में सकरात्मक परिवर्तन देखने को मिलेंगे। इष्टमित्रों की मदद से आपके कार्यक्षेत्र या फिर निजी जीवन से जुड़ी किसी बड़ी समस्या का समाधान निकल आएगा। सप्ताह के प्रांरभ में ही लंबी दूरी की यात्रा पर जाने का योग बनेगा। हालांकि यात्रा के दौरान अपने खान-पान और सेहत का विशेष ख्याल रखने की जरूरत बनी रहेगी। आर्थिक दृष्टिकोण से यात्रा लाभप्रद रहेगी। कन्या कन्या राशि के लिए यह सप्ताह मिलाजुला साबित होने वाला है। इस सप्ताह आपको मनचाही सफलता को पाने के लिए अधिक परिश्रम और प्रयास करना होगा। नौकरीपेशा वालों के लिए यह सपताह मध्यम फलकारी रहेगा। उन्हें कार्यक्षेत्र में उन लोगों से बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है, जो अक्सर आपका काम बिगाड़ने में लगे रहते हैं। व्यवसाय से जुड़े लोगों को धन के लेन-देन में सावधानी बरतने की जरूरत बनी रहेगी। कुल मिलाकर आर्थिक दृष्टिकोण से यह सप्ताह आपके लिए मिले-जुले फल देने वाला रहेगा। तुला तुला राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह बेहद लकी साबित होने जा रहा है। इस सप्ताह आपके सोचे हुए कार्य समय पर पूरे होंगे और आपके द्वारा किए गए प्रयास का पूरा परिणाम प्राप्त होगा। जो लोग लंबे समय से अपने ट्रांसफर या अपने कार्यक्षेत्र में बदलाव की सोच रहे थे, उनकी यह कामना इस सप्ताह पूरी हो सकती है। नौकरपेशा लोगों की आय के अतिरिक्त स्रोत बनेंगे। संचित धन में वृद्धि होगी। यह सप्ताह राजनीति से जुड़े लोगों के विशेष रूप से लाभप्रद साबित होगा। इस सप्ताह उनकी झोली में कोई बड़ा पद गिर सकता है। वृश्चिक वृश्चिक राशि के जातकों को इस सप्ताह की शुरुआत में ही कोई बड़ी खुशखबरी मिल सकती है, जिससे आपके घर-परिवार में खुशियों का माहौल बना रहेगा। यह सप्ताह आपके लिए गुडलक लिए हुए है। बीते समय में आपने जिन कार्यों के लिए प्रयास किए थे, उससे संबंधित मनचाही सफलता प्राप्त होगी। भूमि-भवन के क्रय-विक्रय की कामना पूरी हो सकती है। धनु धनु राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह शुभता और सौभाग्य को लिए है। सप्ताह की शुरुआत में ही आपको करियर-कारोबार से जुड़ा कोई सुखद समाचार प्राप्त होगा। रोजी-रोजगार की तलाश में भटक रहे लोगों को मनचाहा अवसर प्राप्त होगा। किसी भी कार्य में आपको न सिर्फ घर में बल्कि बाहर भी खूब सहयोग और समर्थन हासिल होगा। पारिवारिक सुख के दृष्टिकोण से यह सप्ताह अत्यंत ही शुभ है। घर में किसी प्रिय व्यक्ति की बड़ी उपलब्धि से आपका मान-सम्मान बढ़ेगा। परिजनों से उत्तम सहयोग मिलेगा। पढ़ने-लिखने वाले छात्रों को मनचाही सफलता मिलेगी। मकर मकर राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह मिलाजुला रहने वाला है। सप्ताह की शुरुआत में अचानक से कोई बड़ी परेशानी या खर्च आ सकता है, जिसका आपको जरा भी अंदाजा नहीं होगा। हालांकि आप अपने बुद्धि, विवेक और मित्रों की मदद से इस संकट से उबरने में कामयाब हो जाएंगे। इस दौरान कोई भी निर्णय असंमजस की स्थिति में लेने से बचें, अन्यथा बड़ा नुकसान हो सकता है। सप्ताह के पूर्वार्ध के मुकाबले उत्तरार्ध थोड़ा राहत भरा रहने वाला है। कुंभ कुंभ राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह शुभ साबित होने वाला है। सप्ताह की शुरुआत से ही इस राशि के जातकों को शुभ समाचार मिलने लगेंगे। भाग्य का पूर्ण सहयोग प्राप्त होने की वजह से आप अपने कार्यक्षेत्र में जो भी जिम्मेदारी लेंगे उसमें बेहतर करके दिखाएंगे। आपके कामकाज की सीनियर और जूनियर प्रशंसा करेंगे। कुंभ राशि से जुड़ी महिलाओं का अधिकांश समय पूजा-पाठ या धार्मिक गतिविधियों में बीतेगा। उनकी ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ेगी। मीन मीन राशि के जातकों इस सप्ताह अपने धन और समय का सदुपयोग करने की जरूरत रहेगी, अन्यथा उन्हें परेशान होना पड़ सकता है। सप्ताह की शुरुआत में उन लोगों से बेहद सावधान रहें जो आपको बहकाने की कोशिश करते हैं। घर-परिवार के किसी सदस्य के साथ गलतफहमी को दूर करने के लिए स्वयं पहल करें और समस्या को विवाद की बजाय संवाद से सुलझाने का प्रयास करें। सप्ताह के मध्य में कामकाज को लेकर अधिक व्यस्तता रह सकती है।
मेष मेष राशि के जातकों को इस सप्ताह सौभाग्य का पूरा साथ मिलेगा। यदि कोई कार्य लंबे समय से अटका हुआ था तो वह मित्र या सत्ता-शासन के सहयोग से पूरा होगा। आप सप्ताह की शुरुआत से ही अपने कार्यों में अनुकूलता महसूस करेंगे। इस सप्ताह आप अपनी वाणी से अपने विरोधियों को भी अपना मित्र बना लेंगे। व्यवसाय से जुड़े लोगों का बाजार में फंसा पैसा अप्रत्याशित रूप से निकल आएगा। यदि कोई व्यक्ति आपका उधार नहीं चुका रहा है, तो इस सप्ताह कोशिश करने पर फंसा धन निकल सकता है। वृष वृष राशि के जातकों के करियर और कारोबार के लिए यह सप्ताह बेहद शुभ रहने वाला है। यदि आप इस दिशा में पूरे मनोयोग से प्रयास और परिश्रम करते हैं तो निश्चित तौर पर आपको सफलता प्राप्त होगी। लेकिन ऐसा करते समय आपको अपनी सेहत को नजरंदाज नहीं करना है, अन्यथा आपको बेवजह शारीरिक एवं मानसिक कष्ट उठाना पड़ सकता है। इस सप्ताह आपको मौसमी बीमारी से खूब सावधान रहने की आवश्यकता रहेगी। मिथुन मिथुन राशि के जातकों के लिए यह सप्ताह थोड़ा व्यस्तता लिए रहने वाला है। सप्ताह की शुरुआत से आप पर कामकाज का बोझ बना रहेगा। हालांकि इस दौरान आपको करियर और व्यवसाय में 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ईश्वर पर विश्वास अक्सर विपरीत परिस्थितियों में साहस जुटाने में मदद करता है। ऐसा ही एक किस्सा भारतीय सेना के पास भी है। भारत की वीर भूमि राजस्थान की धरा अनेक युद्धों और चमत्कारों को अपनी गोद में समेटे हुए है। वहीं भारत के राजस्थान में स्थित तनोट माता मंदिर अपने आप में अद्भुत व चमत्कारिक है। यह मंदिर जैसलमेर से लगभग 130 किलोमीटर की दूरी पर भारत-पाकिस्तान की बॉर्डर सीमा के निकट स्थित है। माता तनोट के इस मंदिर का एक किस्सा भारतीय सेना से जुड़ा है या यूँ कहलीजिए की भारतीय सेना का एक रोचक किस्सा माता तनोट के इस मंदिर से जुड़ा है। यह मंदिर करीब 1200 साल पुराना है। लेकिन इस मंदिर ने अपना चमत्कार सन 1965 में दिखाया। उस समय भारत-पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था। भारतीय सीमा में 4 किलोमीटर तक घुस आई पाकिस्तानी सेना इस मंदिर को पार नहीं कर पाई थी और उसके द्वारा बरसाए गए गोले भी इस मंदिर पर बेअसर रहे थे। लड़ाई के दौरान पाकिस्तान की तरफ से गिराए गए करीब 3000 बम भी इस मंदिर में खरोंच तक नहीं पंहुचा पाए । वहीं, मंदिर परिसर में गिरे 450 बम तो फटे ही नहीं। बीएसएफ जवानों और स्थानीय लोगों का मानना है कि उस युद्ध में तनोट माता की कृपा ने भारत को जीत दिलाई थी । इस कारण बीएसएफ के जवानों और दूसरे श्रद्धालुओं के बीच इस मंदिर की काफी मान्यता है। मंदिर के अन्दर ही एक संग्रहालय भी है जिसमें वे गोले रखे हुए हैं। यहां के पुजारी भी सैनिक ही हैं। यह मंदिर भारत के लोगों के साथ-साथ पाकिस्तानी सेना के फौजियों के लिए भी आस्था का केन्द्र रहा है। मंदिर में देवी के दर्शन करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। तनोट माता मंदिर का इतिहास पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि प्राचीन काल में बहुत पहले मामड़िया नाम का एक चारण था और उनकी कोई संतान नही थी। संतान प्राप्ति की लालसा लेकर उन्होंने सात बार हिंगलाज शक्तिपीठ की पैदल यात्रा की थी। उनकी इस तपस्या के बाद एक बार हिंगलाज माता उनके सपने में आई और उनसे पूछी कि तुम्हारी क्या इच्छा है तो मामड़िया ने कहा कि माता आप एक बार मेरे घर पर जन्म लें। माता ने उनको इच्छा पूर्ति का आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गयी। बाद में माता की कृपा से चारण के घर 7 पुत्रियों और 1 पुत्र ने जन्म लिया। उन सभी पुत्र-पुत्रियों में से आवड़ माता प्रथम संतान थी जिन्होंने विक्रम संवत 808 में मामड़िया चारण के घर पर जन्म लिया था। बाल्यकाल से ही आवड़ माता ने अपना चमत्कार दिखाना शूरु कर दिया। चारण के घर जन्मी सातों पुत्रियां देवी स्वरूप थी और शक्ति का प्रतीक थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा भी की थी। कहा जाता है कि आवड़ माता की कृपा से यहाँ पर माड़ प्रदेश में भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया था। कहा जाता है कि राजा तणुराव भाटी ने माड़ प्रदेश को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भी भेंट किया। आवड़ माता ने अपने ही हाथों से विक्रम संवत 828 ईस्वी में अपने मंदिर की स्थापना की। विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने राजा तणुराव के पोत्र सिद्ध देवराज, राजपूतों, चारणों, भक्तों, ब्राह्मणों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाया और कहा कि आप सभी सुख-पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहे है। अब हमारें जन्म लेनें का उद्देश्य पूरा हुआ। यह कहकर सातों बहनें हिंगलाज माता मंदिर की और देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले तनोट माता के मंदिर की पूजा-अर्चना साकल दीपी ब्राह्मण करते थे। 1965 के बाद से तनोट माता मंदिर की पूजा सीसुब ट्रस्ट द्वारा नियुक्त पुजारी करता है। 1971 में भी तनोट माता ने की थी भारतीय सेना की रक्षा 1971 में जब भारतीय सेना पाकिस्तान को पूर्वी पाकिस्तान में हरा रही थी तो पाकिस्तान ने राजस्थान में पश्चिमी मोर्चा खोल दिया। लेकिन इस बार, उन्होंने साडेवाला को नहीं चुना क्योंकि यह भारतीय सेना द्वारा अच्छी तरह से संरक्षित का लिया गया था। इस बार पाकिस्तानियों ने लोंगेवाला से तनोट मंदिर को घेरने का प्रयास किया । यह मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में 120 पुरुषों की एक कंपनी द्वारा संरक्षित था। कई बाधाओं के बावजूद, जवानों ने उम्मीद नहीं खोई और तनोट माता पर अपना विश्वास बनाए रखा। 4 दिसंबर को, पाकिस्तान ने लोंगेवाला पर पूरी बटालियन और टैंक स्क्वाड्रन के साथ हमला किया। लेकिन फिर से माता के पास गिरे बमों में विस्फोट नहीं हुआ। लोंगेवाला स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक लड़ी गई सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है। 1971 के युद्ध के बाद, तनोट माता और उनके मंदिर की ख्याति ऊंचाइयों पर पहुंच गई और बीएसएफ ने उस स्थान पर एक संग्रहालय के साथ एक बड़े मंदिर का निर्माण किया जहां भारतीय सेना पर बिना फटे बम रखे गए है। भारतीय सेना ने मंदिर परिसर के अंदर लोंगेवाला की जीत को चिह्नित करने के लिए एक विजय स्तम्भ का निर्माण भी किया गया है और प्रत्येक वर्ष 16 दिसंबर को 1971 में पाकिस्तान पर महान जीत के स्मरणोत्सव के रूप में एक उत्सव मनाया जाता है। प्रसिद्ध बॉलीवुड फिल्म बॉर्डर भी 1971 में लोंगेवाला की लड़ाई पर आधारित थी, जब भारतीय सेना के 120 लोगों ने 2000 पाकिस्तानी सैनिकों को टैंक स्क्वाड्रन से कुचल दिया था। इस फिल्म में यह भी दिखाया गया है कि कैसे तनोट माता पर विश्वास ने सैनिकों को दुश्मन के खिलाफ अपनी आशा खोने नहीं दी। युद्ध विराम के बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने भी माँ की शक्ति का लोहा माना था । पाक ब्रिगेडियर शाहनवाज़ खान ने तो भारत सरकार से माता के दर्शन करने की गुज़ारिश की थी। काफी समय बाद खान को सरकार ने दर्शन की अनुमति दे दी । उन्होंने न केवल तनोट माता के दर्शन किए अपितु चांदी का सुन्दर छत्र भी चढ़ाया जो आज भी इस बात का सबूत है। 1965 की लड़ाई के बाद सीमा सुरक्षा बल ने लिया मंदिर का जिम्मा 1965 की लड़ाई के बाद इस का मंदिर का जिम्मा सीमा सुरक्षा बल ने ले लिया था। सुर्खा बल ने यहाँ अपनी एक चौकी भी बना ली थी। मंदिर की सफाई से लेकर पूजा -अर्चना और यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए सुविधाओं का सारा प्रबंधन बीएसएफ के अधीन ही है। हर वर्ष आश्विन और चैत्र नवरात्रों में यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। करीब आधा घंटे नियम से सुबह-शाम माता की भव्य आरती की जाती है। हालाँकि यह इलाका सामरिक दृष्टि से संवेदनशील सीमा क्षेत्र में है इसलिए विश्रामगृह में श्रद्धालुओं की पूरी जांच और परिचय पत्र होने पर ही रात्रि को ठहरने की अनुमति दी जाती है । रुमाल वाली देवी के नाम से भी जानी जाती है तनोट माता तनोट माता को रुमाल वाली देवी के नाम से भी जाना जाता है। माता तनोट के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाले भक्त मंदिर में रुमाल बांधकर मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु माता का आभार व्यक्त करने वापिस दर्शनार्थ आते है और रुमाल खोलते है। यह मान्यता भी कई सालों से चल रही है। इस परम्परा का आम लोगों के साथ माता के दर्शनार्थ तनोट आने वाले मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी, सेना व सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी व जवान भी निर्वहन करते है।
उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले के पवित्र स्थलों में से एक नंदा देवी मंदिर का विशेष धार्मिक महत्व है। इस मंदिर में देवी दुर्गा का अवतार विराजमान है।समुन्द्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी माँ नंदा देवी को समर्पित है। नंदा देवी समूचे गढ़वाल, कुमाऊं मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं। उत्तराखंड वासियों का माँ नंदा के साथ ऐसा रिश्ता है, जो शायद ही किसी भक्त और उसके आराध्य का हो। कोई इन्हे अपनी बेटी मानता है तो कोई बहन। मानवीय रिश्तों में बांध कर देवी माँ को प्रेम और स्नेह के बंधन में बांधना भक्ति का एक अलग ही रूप है। यह देवी कत्यूर पंवार और चांद वंशों की कुलदेवी के रूप में पूजित है। कत्यूरी वंश की सभी शाखाओं में जिया रानी को नंदा देवी का अवतार मानते हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री आदिशक्ति माँ पार्वती के रूप नंदा देवी की हिमवन अर्थात पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में विशेष मान्यता रही है। पौराणिक साहित्य के अनुसार वाराह पुराण नंदा देवी के नाम का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि ,” देवी के इस रूप का हिमवन में आनंद पूर्ण विचरण करने की वजह से इसे नंदा नाम से उद्घोषित किया गया है। उत्तराखंड के बारे में वर्णित स्कंदपुराण के मानस खंड और केदारखंड में नंदा ”दारुमूर्तिसमासीना ‘ कहा गया है। इसका अर्थ है ,नंदा देवी का प्रतिनिधितव काष्ठ पर ही किया जाता है। इसी परम्परानुसार अल्मोड़ा और नैनीताल के नंदा महोत्सव में कदली वृक्ष पर नंदा की मूर्ति बनाई जाती है। नंदा देवी की कथा उत्तराखंड में नंदा देवी की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। क्युकी नंदा ,गढ़वाल के परमार वंश ,कुमाऊं के कत्यूर वंश और चंद वंश की कुल देवी मानी जाती है। इसलिए नंदा देवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है।सभी राजवंशों में नंदा देवी के बारे में अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं। नंदा को किसी चंद्रवंशी राजा की पुत्री कहा गया है। कहा जाता है कि, यह राजा हिमालय की पुत्री माँ पार्वती का अनन्य भक्त था। उसकी कोई संतान न होने के कारण वह राजा उदास रहने लगा। एक दिन उसकी भक्ति से खुश होकर मां पार्वती ने उसके स्वप्न में आकर कहा , कि मै तुम्हारी अगाध भक्ति से अति खुश हूँ। मै एक बार तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। राजा की नींद खुली तो,वह ख़ुशी के मारे रोमांचित हो गया। उसने बात अपनी महारानी को भी बताई। माँ पार्वती ने अपने वचनानुसार ,भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एक दिव्य कन्या के रूप में रानी के गर्भ से जन्म लिया। जन्म के ग्यारहवें दिन विधि विधान से उसका नामकरण किया गया। राजा ने उस दिव्य कन्या का नाम अपने राज्य के सबसे ऊँचे शिखर नंदाकोट के नाम पर नंदा रखा। चंद साम्राज्य ने इस दिन को हर्षोउल्लास से मनाया। उसके बाद प्रतिवर्ष नंदाष्टमी को यह उत्सव मनाये जाने लगा। कालान्तर में यह उत्सव अल्मोड़ा का लोकोत्सव या अल्मोड़ा का नंदा देवी का मेला के रूप में मनाये जाने लगा। यधपि यह चंदो और उनकी राजधानी अल्मोड़ा में ही केंद्रित था , लेकिन बाद में इसमें नैनीताल का लोकोत्सव भी जुड़ गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कत्यूरवंशी राजा कीर्तिवर्मन देव की पत्नी का नाम नंदा था। वह सीता और सावित्री के सामान पवित्र थी। नंदा देवी के बारे में गढ़वाल में प्रचलित लोकगाथाओं में इन्हे चांदपुर के राजा भानुप्रताप की पुत्री तथा धारानगरी के राजा कनकपाल की धर्मपत्नी बताया गया है। कहते हैं यह अपने दैवीयगुणों के कारण देवी के रूप में पूजी जाने लगी। वही नंदा देवी के बारे में गढ़वाल की दूसरी लोकगाथा में नंदा को हिमालय की पुत्री और चांदपुर राजा की पुत्री की सखी व् धर्म बहिन होने के कारण इसे गढ़वाल की पुत्री के रूप में पूजा जाने लगा। मुख्यतः नंदादेवी का सम्बन्ध हिमालय और माँ पार्वती से माना जाता है। हिमालयी क्षेत्र (गढ़वाल कुमाऊं ) उसका मायका और ,हिमालय, नंदा पर्वत ,कैलाश पर्वत उसका ससुराल माना जाता है। एशिया की सबसे कठिन व् बड़ी पैदल धार्मिक यात्रा नंदा राज जात इसी कहानी के आधार पर होती है। अर्थात नंदा को ससुराल छोड़ने की परम्परा को राज जात के रूप में मनाया जाता है। नंदादेवी मंदिर का इतिहास अल्मोड़ा में देवी की मूर्ति स्थापना के बारे में कहा जाता है,कि देवी नंदा की यह मूर्ति पहले गढ़वाल के जूनियागढ़ के किले में थी। सन 1617 के आस पास चंद राजा बाजबाहदुर चंद इस किले को जीतने के बाद ,इस मूर्ति को अल्मोड़ा ले आये। वहां मल्ला महल के अंदर एक मंदिर बनाकर इस मूर्ति को स्थापित कर दिया। और यहाँ इसकी रोज पूजा होने लगी और नंदा अष्टमी को इसका वार्षिकोत्सव मनाया जाता था। किन्तु सन 1815 में अंग्रेजों और गोरखों के संघर्ष में ,मल्ला महल के भवनों के साथ माँ नंदा देवी का मंदिर भी क्षतिग्रस्त हो गया। इस कारण नंदा का वार्षिक उत्सव शने शने कम हो गया। बाद में पूजा मात्र औपचारिकता रह गई। जनता ने अंग्रेजों से माँ नंदा के नए मंदिर के लिए काफी आग्रह किया लेकिन उन्होंने इसकी परवाह किये बिना 1832 में इसे पूर्णतः सिविल अधिकारियों का केंद्र बना दिया। कहते हैं कि अंग्रेजों के इस व्यवहार से देवी नंदा रुष्ट थी। तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल साहब ,पिंडारी -मिलम यात्रा पर थे तो, अचानक उनकी आँखों की रौशनी चली गई। पंडितों ने इसे देवी का प्रकोप कहकर ,उन्हें नए मंदिर की स्थापना का सुझाव दिया। इसके बाद नंदा देवी के वर्तमान परिसर में शिव मंदिर के साथ नंदा का मंदिर बनवाकर, मूर्ति को मल्लामहल से यहाँ लाकर प्रतिष्ठित किया गया। कहा जाता है कि ,इसके बाद आश्चर्यजनक रूप से ट्रेलसाहब के आँखों की रोशनी लौट आई थी। कहते है ,देवी की वर्तमान मूर्ति ,मूल मूर्ति नहीं है , जिसे राजा बाज बाहदुर चंद जूनागढ़ से लाये थे। अष्टधातु से निर्मित वह मूर्ति चोरी हो गई थी। उसके बाद चंद वंशीय आनदं सिंह ने माँ नंदा की नयी मूर्ति का निर्माण करवाया था। उसे यहाँ स्थापित करवाया था। वर्तमान में इसी मूर्ति का पूजन होता है। राज उद्योतचंद द्वारा 1690 -91 में बनाया गया उद्योत डीप चंद्रशेखर मंदिर वर्तमान में अल्मोड़ा का नंदादेवी मंदिर कहलाता है। मां भगवती की 9 अंगभूत देवियों में से एक है देवी नंदा रूप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रूपों में एक बताया गया है। मां भगवती की 9 अंगभूत देवियों में नंदा भी एक है। नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। भविष्य पुराण में जिन दुर्गा के स्वरूपों का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्र मंडला, रेवती और हरसिद्धि हैं। शक्ति के रूप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं। नंदा देवी का मूल धाम चमोली के कुरुड़ गांव में है। बाद में कई जगह पर इनके मंदिर बनाए गए। नंदा के इस शक्ति रूप की पूजा गढ़वाल में तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है। अल्मोड़ा में माँ नंदा का मूल मंदिर है। जहां पर की बधाण गढ़ी से मां नंदा भगवती को स्थापित किया गया। बधाण गढ़ी में नंदा के मुख्य मंदिर कुरुड़ की नंदा देवी की मूर्ति स्थापित थी, जो कि अल्मोड़ा के राजा के आक्रमण व लूट के बाद अल्मोड़ा में बसाई गई। नंदा देवी राज जात यात्रा राजजात या नन्दाजात का अर्थ है राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की “जात” यानि देवयात्रा बड़े धूमधाम से मनाई जाती है । लोक विश्वास है कि नंदा देवी हिंदी माह के भादो के कृष्ण पक्ष में अपने मायके पधारती है। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी के दिन मायके से विदा किया जाता है। राजजात या नंदा जात यात्रा देवी नंदा को अपने मायके से एक सजी संवरी दुल्हन के रूप में ससुराल जाने की यात्रा है। इस अवसर पर नंदा देवी को डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र , आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज़ आदि उपहार देकर पारंपरिक रूप में विदाई दी जाती है। कुमाउनी और गढ़वाली लोग इस उत्सव को माँ नंदा को मायके से ससुराल के लिए विदाई के रूप में मानते है। नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है। हज़ारो श्रद्धालु नंदा देवी राज जात में शामिल होते है और यात्रा की इस रस्म को बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है। नंदा देवी मेला नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास की नंदा अष्टमी के दिन आयोजित किया जाता है । पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी के सद्वश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूलि के समय चन्दन, अक्षत एवं पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंद वंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है।मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्म मुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलाएं भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं। अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंद्रवंशी प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा में निकाली जाती है। 3-4 दिन तक चलने वाले इस मेले का अपना एक धार्मिक महत्व है।
हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं की भूमि है, इसीलिए इसे देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ मौजूद सभी मंदिर अपने आप में बेहद ख़ास और कई रहस्यों को संजोए हुए है। ऐसा ही एक मंदिर हिमाचल प्रदेश के करसोग की जंजैहली घाटी में 11,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है माता शिकारी देवी का। यह मंदिर कई रहस्यों को खुद में समेटे हुए है। देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच में बसे इस धार्मिक स्थल के प्रति श्रद्धालुओं की गहरी आस्था है। सर्दियों के मौसम में यहां पर छह से सात फीट तक बर्फ गिरती है, लेकिन यह भारी बर्फ भी माता के छत रहित मंदिर की मूर्तियों पर नहीं टिक पाती है और न ही इस मंदिर के ऊपर छत टिक पाती है। कहा जाता है कि कई बार मंदिर की छत बनाने का काम शुरू किया गया लेकिन हर बार कोशिश नाकाम रही। मंदिर के ऊपर छत नहीं ठहर पाई। यह माता का ही चमत्कार है कि आज तक की गई, सारी कोशिशें भी शिकारी माता को छत प्रदान न कर सकीं और आज भी ये मंदिर छत के बिना ही है। यह मंदिर गर्मियों के दिनों में दर्शनों के लिए खुला रहता है हालांकि सर्दी के दिनों में बर्फ पड़ने के कारण कम ही श्रद्धालु यहाँ पहुंच पाते है। कहते हैं कि जो भी सच्चे मन माता शिकारी से कुछ मांगने आता है मां उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटने देती है। बताया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री राजा वीरभद्र सिंह ने भी अपनी धर्मपत्नी के साथ देवी शिकारी के मंदिर पहुंचकर पुत्र प्राप्ति की मांग की थी। जिसके बाद उन्हें देवी की असीम कृपा से पुत्र प्राप्ति हुई थी। शिकारी देवी मंदिर घने जंगल के मध्य में स्थित है। अत्यधिक जंगल होने के कारण यहां जंगली जीव-जन्तु भी बहुतायत में हैं। जब पांडव अज्ञातवास के दौरान शिकार खेलने के लिए यहां पहुंचे तो माता शिकारी देवी ने उन्हें दर्शन दिए। इसके बाद पांडवों ने माता का मंदिर बनाया और इस मंदिर का नाम शिकारी देवी पड़ा। पांडवों ने शक्ति रूप में विद्यमान माता की तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर माता ने उन्हें महाभारत के युद्ध में कौरवों से विजयी प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। कहा जाता हैं कि माता के आशीर्वाद से पांडव युद्ध मे विजयी रहे और उन्होंने यह माता शिकारी देवी के मंदिर की स्थापना करवाई। परंतु किसी कारणवश वो इस मंदिर का कार्य पूरा नहीं करवा पाए। पांडवों ने इस मंदिर में माता की एक पत्थर की प्रतिमा की स्थापना करवाई और उसके उपरांत पांडव यहां से चले गए। कहा जाता है कि उसके बाद कई लोगों ने इस मंदिर की छत बनवाने की कोशिश की, परंतु आज तक कोई भी इस कार्य में सफल नहीं हो पाया। माता के नाम के पीछे की कहानी माता का मंदिर एक ऊँचे पहाड़ पर स्थित है। माता के मंदिर के चारों ओर ऊँचे और घने जंगल है। यहां चारों और जंगली जीव-जन्तु भी बहुत अधिक मात्रा में पाए जाते है अत्यधिक जंगली जानवर जानवर होने के कारण कई शिकारी यहाँ जानवरों का शिकार करने के लिए यह आते थे। शिकार करने से पहले शिकारी माता के दर्शन करते थे। माना जाता था कि शिकारी की माता के आशीर्वाद के बाद वह अपने शिकार के खेल में विजयी भी रहते थे। इसी के बाद से इस मंदिर का नाम शिकारी देवी मंदिर पड़ा। रूठ कर शिकारी देवी के पास पहुंच जाते है बड़ा देव कमरूनाग मंडी जिला के बड़ा देव कमरूनाग अगर रूठ जाएं तो वे अपने मूल मंदिर से निकल जाते हैं और माता शिकारी देवी के मंदिर में विराजमान हो जाते हैं। देवता के कारदारों और गूरों को देव कमरुनाग को बड़ी मुश्किल से शिकारी देवी मंदिर से मना कर लाना पड़ता है। अब तक हजारों बार देव कमरूनाग रूठने पर माता शिकारी देवी के मंदिर में छिप चुके हैं। जब साजे के दिन देव कमरूनाग के मंदिर में कलया नहीं खपती है तो तब देवता के कारदारों को पता चलता है कि देव कमरूनाग मंदिर में नहीं है। फिर शिकारी देवी मंदिर में जाकर विधि विधान से देव कमरुनाग को मनाने का सिलसिला शुरू हो जाता है और देवता को मूल मंदिर में लाया जाता है।
दीपावली का पर्व सदियों से पूरे देशभर में मनाया जाता रहा है। हर किसी को यह पता है कि दीपावली का पर्व क्यों मनाया जाता है। दीपावली के मौके पर पूरे देश भर में रौनक रहती है, लेकिन बीते चार वर्षों में अयोध्या की दीपावली को लेकर पूरे देश भर में चर्चाएं हैं। हर वर्ष दीपावली के पर्व पर दीपोत्सव का आयोजन किया जाता है और ख़ास बात ये है कि इस आयोजन को हर वर्ष और भव्यता दी जा रही है। अयोध्या में हर बार अपना ही रिकॉर्ड तोड़कर एक नया कीर्तिमान स्थापित जाता है। आज दीपोत्सव के कारण अयोध्या की महिमा का बखान पूरी दुनिया में हो रहा है। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में फिर दीपोत्सव का नया विश्व रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयारी हो रही है। राम नगरी अयोध्या में इस साल का दीपोत्सव बड़ा धूम-धाम से होगा और इसको लेकर तैयारियां शुरू हो गई हैं। अयोध्या में सरयू के किनारे इस बार लगभग 16 लाख दीपक जलाए जाएंगे और कोशिश यह होगी कि पुराना रिकॉर्ड तोड़कर 14 लाख से अधिक दीपों का नया कीर्तिमान बनाया जाए। इसके लिए 18 हजार वालेंटियर्स की टीम बनाई जा रही हैं जिसमे स्कूल कालेज के छात्र-छात्राओं के अलावा एनजीओ और समूहों के लोग भी शामिल होंगे। राम की पौड़ी के किनारे के वृहद क्षेत्र में सभी मंदिर पीले रंग में रंगे जाएंगे और दीपोत्सव के समय लेजर लाइट शो और ग्रीन आतिशबाजी का भव्य दृश्य दिखाई देगा। -5 साल पहले हुई शुरुआत दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने 14 वर्ष के वनवास के बाद लौटे थे। अयोध्यावासियों का हृदय अपने परम प्रिय राजा जो कि पुरुषोत्तम बन चुके थे, उनके आगमन से सभी प्रफुल्लित हो उठे थे। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए थे। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी थी। तब से ही इसे दीपों का पर्व मनाया जानें लगा। उत्तर प्रदेश में साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली पूर्ण बहुमत की जीत के बाद से ही अयोध्या में दीपोत्सव की शुरुआत की गई थी। जहाँ राम की पैड़ी पर दीपोत्सव पहली बार भव्य रूप से मनाया गया था। इस दौरान हर साल दीप जलाने का रेकॉर्ड बनाया जा रहा है। - एक करोड़ 75 लाख रुपये खर्च होंगे राम की पैड़ी के घाटों पर दीप जलाने व इसकी व्यवस्था में कुल एक करोड़ 75 लाख रुपये खर्च होंगे। इसके लिए अवध विश्वविद्यालय प्रशासन ने तीन हिस्सों में टेंडर किया था, जो अब खोला जा चुका है। इसमें प्रतिभा प्रेस एंड मल्टी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड को सबसे बड़ा कार्य दो टेंडर की सामग्री की आपूर्ति का जिम्मा दिया गया है। अवध विश्वविद्यालय प्रशासन चयनित फर्मों को जल्द ही कार्यादेश जारी करेगा। आवश्यक सामग्री की आपूर्ति तय समय पर ही होगी। पहले हिस्से के टेंडर में दीया, बाती, कपूर व तेल की आपूर्ति होनी है, जिस पर एक करोड़ 28 लाख खर्च होंगे। बाल्टी, मग, मोमबत्ती, टोपी, छड़ी, परिचय पत्र, सीटी, वीडियोग्राफी व फोटोग्राफी, रंगोली में प्रयुक्त होने वाले सामान की आपूर्ति 18.5 लाख से की जाएगी। 40 हजार से अधिक स्वयंसेवकों के लिए भोजन जलपान व्यवस्था पर साढ़े 18 लाख खर्च होंगे। इस बार कुल 14 लाख 50 हजार जलते दीपों का विश्व रिकार्ड बनाने की तैयारी है। -हर वर्ष बढ़ाई जा रही दीयों की संख्या पिछले साल अयोध्या राम की पैड़ी में 9,41,551 दीप जलाकर विश्व रिकॉर्ड बनाया गया था। 2017 में यूपी में पूर्ण बहुमत से बीजेपी की सरकार बनने और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद अयोध्या में दीपोत्सव की शुरुआत की गई थी। पहले साल 51 हजार दीये जलाए गए थे। तबसे हर साल दीयों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2018 में 3,01152 दीये जलाए गए। 2019 में इस दीपोत्सव कार्यक्रम को प्रांतीय स्तर का मेला घोषित किया गया। 2019 में 5,50,000 दीप जलाए गए। 2020 में 6,06,569 दीप जलाए गए और 2021 में 9,41,551 दीये जलाए। अब 2022 में 14 लाख से अधिक दीये जलाकर नया विश्व रिकॉर्ड बनाया जाएगा। -18 हजार वालेंटियर्स होंगे इस बार इस दीपोत्सव को लेकर इस साल नया कीर्तिमान बनाने के लिए 16 लाख 28 हजार दीपो को जलाने का टारगेट है। इस बार मानकर चल रहे हैं कि 16 लाख दीपक जलाए जाएंगे। पिछले साल 11000 वालंटियर ने काम किया था। इस साल क्योंकि दीपो की संख्या बढ़ गई है तो करीब 18 हजार वालेंटियर्स स्टूडेंट टीचर इसमें मिलकर काम करेंगे और इसके लिए कमेटियां भी बनाई जा रही हैं। इसके अलावा दीए जलाने की जिम्मेदारी डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय को सौंपी गई है। विश्वविद्यालय के नोडल अधिकारी प्रो. अजय प्रताप सिंह टीम दीपोत्सव को सफल बनाने में जुटी हुई है। राम की पैड़ी सहित अन्य घाटों पर दीपोत्सव में 20 हजार वालंटियर अनुशासित रहकर 16 लाख दीए सजाएंगे। -घाटों पर 20 अक्तूबर तक पहुंच जाएंगे दीए सभी घाटों पर 20 अक्तूबर तक दीए पहुंच जाएंगे। 21 अक्तूबर से दीए बिछाने कार्य शुरू होगा। 22 अक्तूबर को दीयों की गणना होगी और 23 अक्तूबर को दीए में तेल-बाती लगाया जाएगा। फिर शाम को जलाये जायेंगे। -राम मंदिर का निर्माण तेज अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का कार्य जोर-शोर से जारी है। इसी महीने इसके नींव का कार्य पूरा होने की संभावना है और दिसंबर, 2023 से भगवान श्रीराम के इस नए भव्य मंदिर में श्रद्धालु पूजा-अर्चना कर पाएंगे। दिसंबर, 2023 तक मंदिर को भक्तों के लिए खोल दिया जाए, उससे पहले मंदिर निर्माण का कार्य संपन्न कर भगवान को वहां विराजमान करने का लक्ष्य है। यह मंदिर 360 फीट लंबा, 235 फीट चौड़ा और 161 फीट ऊंचा होगा। मंदिर में कुल मिलाकर 5 शिखर होंगे और सबसे ऊंचा शिखर 161 फीट ऊंचा होगा। उन्होंने बताया कि यह मंदिर 3 मंजिला होगा, जिसमें 20-20 फीट के तीन मंजिल बनाए जाएंगे और उसके बाद शिखर होगा। फिलहाल इसके गर्भगृह के बेस बनाने का कार्य पूर्ण हो चुका है और अब आगे की प्रकिया को तेजी से चलाया जा रहा है। ऐसे में माना जा रही है दीवाली के मौके पर बड़ी संख्या में राम मंदिर दिखेने के लिए लोग आएंगे। -दीपोत्सव के दौरान होंगे अनेक कार्यक्रम दीपोत्सव के दौरान अयोध्या में श्रद्धालुओं को जोड़ने के लिए कई आयोजन होंगे। इसकी संस्कृति विभाग अपने स्तर पर तैयारी कर रहा है। भजन संध्या स्थल और सांस्कृतिक मंच पर नियमित रूप से कार्यक्रम। दीपोत्सव की बढ़ती लोकप्रियता के कारण इस बार अन्य साल की तुलना में भारी भीड़ रहने की उम्मीद है। इस बार लक्ष्य बढ़ा कर 14.50 लाख दीप जलाने का है। ऐसे में सभी विभाग आपसी तालमेल समन्वय के साथ व्यवस्था को बेहतर बनाने की कवायद में जुट गए हैं। -21 प्रमुख मंदिर 4.50 लाख दीयों से होंगे रोशन पर्यटन विभाग के उप निदेशक राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि दीपोत्सव पर 14 लाख से ज्यादा दीये राम की पैड़ी में जलाए जाएंगे जबकि अयोध्या के प्रमुख 21 मंदिरों में 4.50 लाख दीये जलाए जाएंगे। ये दीये गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज नहीं किए जाएंगे। उन्होंने बताया कि राम जन्म भूमि पर 51 हजार, हनुमान गढ़ी पर 21 हजार दीये जलाए जाएंगे। इसी तरह कनक भवन, गुप्तार घाट, दशरथ समाधि, राम जानकी मंदिर साहिबगंज, देवकाली मंदिर, भरत कुंड (नंदीग्राम) समेत प्रमुख मंदिरों में 21 हजार दीये जलाए जाएंगे। वहीं पूरे अयोध्या को रोशन करने के लिए सामाजिक संगठनों को भी दीये वितरित किए जाएंगे। उप निदेशक ने बताया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी राम लीला होगी, जिसमें कई देशों के कलाकार भाग लेंगे। इसके साथ ही आतिशबाजी और लेजर शो भी होगा। -एक दीए में डाला जाएगा 40 एमएल तेल एक बार फिर यूपी सरकार दीपोत्सव का नया रिकार्ड बनाने के लिए जुटा हुआ है। पर इस बार योगी सरकार एक और नया प्रयोग करने जा रही है। इस दीपोत्सव में दीए अन्य दीपोत्सव की तुलना में अधिक देर तक अपनी रोशनी बिखेरेंगे। इसके लिए जिम्मेदार संस्था ने एक तरकीब निकाली है। उन्होंने दीए की साइज को बड़ा कर दिया। अब इस दीए में 30 एमएल तेल की जगह 40 एमएल तेल डाला जाएगा। जिस वजह से ये दीए देर तक जलेंगे और दीवाली के दिन अपनी रोशनी से भक्तों और दर्शकों का मन मोहेंगे। -रोजगार मिलने से कुम्हारों के घर भी होंगे रोशन दीपोत्सव में जलाने के लिए दिए के निर्माण का कार्य करने वाले कुम्हारों को रोजगार मिलने पर घर रोशन होंगे। आस्था के जरिए यहां के लोगों को रोजगार भी मिल रहा है जिससे ये लोग जीवन-यापन करते हैं।इन लोगों की दीपावली पर दीपक बनाकर अच्छी कमाई हो जाती है। दीपोत्सव में यहां के स्थानीय कुम्हारों से दीए खरीदे जाते हें।
नवरात्र एक प्रमुख हिंदू त्योहार है, जिसे पूरे भारत भर में काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। इस पर्व पर लोगों द्वारा देवी दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। नवरात्र का यह पर्व उत्तर भारत के कई राज्यों सहित में भी इस पर्व का काफी भव्य आयोजन देखने को मिलता है। वैसे तो नारी शक्ति देवी दुर्गा को समर्पित नवरात्र का यह पर्व एक वर्ष में चार बार आता है लेकिन इनमें से दो नवरात्रों को गुप्त नवरात्र माना जाता है और लोगो द्वारा सिर्फ चैत्र तथा शारदीय नवरात्र को ही मुख्य रूप से मनाया जाता है। ज्योतिष शास्त्रीय गणनानुसार कलश स्थापन शुभमुहूर्त्त प्रात: 06 बजकर 10 मिनट से 07 बजकर 52 मिनट तथ दूसरा अभिजित मुहूर्त्त 11 बजकर 48 मिनट से 12 बजकर 36 मिनट के बीच शुभ रहेगा। तिथि समय मातृस्वरूप दिनॉक आश्विन प्र. प्रतिपदा 27:08 (मां शैलपुत्री) : 26/9/2022 १० सोम द्वितीया 26:28 (मां ब्रह्मचारिणी) : 27/9/2022 ११मंगल तृतीया 25:28 (मां चंद्रघंटा) : 28/9/2022 १२बुध चतुर्थी 24:09 (मां कुष्मांडा) : 29/9/2022 १३गुरु पंचमी 22:35 (मां स्कंदमाता) : 30/9/2022 १४शुक्र षष्ठी 20:47 (मां कात्यायनी) : 01/10/2022 १५शनि सप्तमी 18:47 (मां कालरात्रि) : 02/10/2022 १६रवि अष्टमी 16:28 (मां महागौरी) : 03/10/2022 १७सोम नवमी 14:21 (मां सिद्धिदात्री) : 04/10/2022 १८मंगल दशहरा 12:00 (विजयादशमी ) : 05/10/2022 १९बुध कन्या पूजन का शास्त्रोक्त विधान एक वर्ष की कन्या का पूजन नहीं करना चाहिए। दो वर्ष – कुमारी – दुःख-दरिद्रता और शत्रु नाश तीन वर्ष – त्रिमूर्ति – धर्म-काम की प्राप्ति, आयु वृद्धि चार वर्ष– कल्याणी – धन-धान्य और सुखों की वृद्धि पांच वर्ष – रोहिणी – आरोग्यता-सम्मान प्राप्ति छह वर्ष – कालिका – विद्या व प्रतियोगिता में सफलता सात वर्ष – चण्डिका – मुकदमा और शत्रु पर विजय आठ वर्ष – शाम्भवी – राज्य व राजकीय सुख प्राप्ति नौ वर्ष – दुर्गा – शत्रुओं पर विजय, दुर्भाग्य नाश दस वर्ष – सुभद्रा – सौभाग्य व मनोकामना पूर्ति कन्या पूजन विधि:- सर्वप्रथम व्यक्ति को प्रातः स्नान करना चाहिए। उसके पश्चात् कन्याओं के लिए भोजन अर्थात पूरी, हलवा, खीर, चने आदि को तैयार कर लेना चाहिए । कन्याओं के पूजन के साथ बटुक पूजन का भी महत्त्व है, दो बालकों को भी साथ में पूजना चाहिए एक गणेश जी के निमित्त और दूसरे बटुक भैरो के निमित्त कहीं कहीं पर तीन बटुकों का भी पूजन लोग करते हैं और तीसरा स्वरुप हनुमान जी का मानते हैं | एक-दो-तीन कितने भी बटुक पूजें पर कन्या पूजन बिना बटुक पूजन के अधूरी होती है।कन्याओं को माता का स्वरुप समझ कर पूरी भक्ति-भाव से कन्याओं के हाथ पैर धुला कर उनको साफ़ सुथरे स्थान पर बैठाएं। ॐ कौमार्यै नम: मंत्र से कन्याओं का पंचोपचार पूजन करें । सभी कन्याओं के मस्तक पर तिलक लगाएं, लाल पुष्प चढ़ाएं, माला पहनाएं, चुनरी अर्पित करें तत्पश्चात् भोजन करवाएं। भोजन में मीठा अवश्य हो, इस बात का ध्यान रखें।भोजन के बाद कन्याओं के विधिवत् कुंकुम से तिलक करें तथा दक्षिणा देकर हाथ में पुष्प लेकर यह प्रार्थना करे- मंत्राक्षरमयीं लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम्। नवदुर्गात्मिकां साक्षात् कन्यामावाहयाम्यहम्।। जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये सर्वशक्तिस्वरुपिणि। पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोस्तु ते।। तब वह पुष्प कुमारी के चरणों में अर्पण कर उन्हें ससम्मान विदा करें। इस बार पांचवें नवरात्र अर्थात् 30 सितंबर से 25 नवंबर 2022 तक शुक्र अस्त रहेगा। अस्त से तीन दिन पहले वार्धक्य और तीन दिन बाद तक शुक्र बाल्यत्व दोष शुभ कार्यों में वर्जित रहता है।यथा- विवाह ,मुंण्डन, जनेऊ आदि संस्कार, गृहारंभ, गृह प्रवेश, नया वाहनादि खरीदना वर्जित रहता है। प्राय: अन्य नित्य नैमितिक कृत्य पूजा पाठ तथा नवग्रह अनिष्ट पीड़ा शांति के निमित्त जपानुष्ठान आवश्यकतानुसार करते रहना श्रेयस्कर रहेगा। - डॉ. देश राज शर्मा, नित्यानंद कृपा, हीरानगर शिमला (हि.प्र.)
नवरात्रि का त्योहार 26 सितंबर 2022 से शुरु हो चुका है। सनातन धर्म में नवरात्रि के त्योहारों को बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। नवरात्रि के दिनों में लोग जवारे बोते हैं और इसका विशेष महत्व है। नवरात्रि के पहले दिन से ही जौ बोए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि धरती की रचना के बाद जो सबसे पहली फसल उगाई गई थी, वह जौ ही थी। नौ दिनों की नवरात्रि पूजा के बाद इसको नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। मान्यता के अनुसार प्रकृति की शुरुआत में जो फसल सबसे पहले बोई गई थी, वह जौ थी, इसलिए इसे पूर्ण फसल भी कहा जाता है। नवरात्रि के दिनों में सिर्फ जौ बोने से ही सब कुछ नहीं होता बल्कि इसके बढ़ने की गति भी बहुत कुछ बताती है। इन नौ दिनों में जौ कितनी तेजी से बढ़ रही है, यह बहुत महत्वपूर्ण है। माना जाता है कि इसे बोने के पीछे कुछ शुभ और अशुभ संकेत भी छुपे होते हैं। यदि नवरात्रि में जौ बोने के कुछ समय बाद ही उगने लगें और जल्द ही हरी-भरी हो जाएं तो यह आपके लिए एक बहुत ही शुभ संकेत है। मान्यता है कि इससे संकेत मिलता है कि आपके घर के कामों में आ रही हर प्रकार की रुकावट जल्द ही दूर होगी और घर के सदस्यों का स्वास्थ्य भी अच्छा बना रहेगा। तेजी से जौ बढ़ने का अर्थ है कि घर में सुख-समृद्धि आना शुरू हो चुकी है। यदि आपके घर की जौ सफेद और हरे रंग में तेजी से बढ़ रही है तो यह एक शुभ संकेत माना गया है और माना जाता है कि माता ने आपकी पूजा स्वीकार की है। पीले रंग में उगने वाली जौ को भी घर में खुशियों की दस्तक माना जाता है। पर यदि नवरात्रि में बोई गई जौ ठीक प्रकार से नहीं उग रही हैं तो यह आपके घर के लिए एक अशुभ संकेत हो सकता है। यदि जौ काले रंग की टेढ़ी-मेढ़ी होती हैं तो इसे भी एक अशुभ संकेत माना गया है। ऐसे में आपको माता दुर्गा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह आपकी सारी परेशानियों को दूर करें।
सावन का महीना शुरू हो गया है। इसके सोमवार का बहुत अधिक महत्त्व है। सावन सोमवार के दिन व्रत रखते हुए भगवान शिव की पूजा अर्चना करने से विशेष लाभ प्राप्त होता है। कल यानी 25 जुलाई को सावन का दूसरा सोमवार है। इस दिन भगवान शिव जी पूजा के लिए समर्पित प्रदोष व्रत भी है। इसके साथ ही सावन सोमवार के इस दिन सर्वार्थ सिद्धि व अमृत सिद्धि के साथ धुव्र योग का भी निर्माण हो रहा है। ज्योतिष के अनुसार, सर्वार्थसिद्धि व अमृत सिद्धि योग में ज भी कार्य किये जाते हैं उनका पुण्य फल बहुत जल्द मिलता है।हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार, इस योग में पूजा-अर्चना करने से भगवान शिव व माता पार्वती की असीम कृपा प्राप्त होगी। सावन सोमवार का व्रत रखने के लिए प्रातः काल स्नान करके पूजा स्थल को स्वच्छ करके वेदी स्थापित करें। शिव मंदिर में जाकर भगवान भोलेनाथ को जल चढ़ाएं. पूरी श्रद्धा से शिव जी की पूजा करने और व्रत रखने का संकल्प लें। इस दिन भगवान शिव की आराधना करने के साथ-साथ माता पार्वती की भी पूजा करें। इस दिन सोम प्रदोष व्रत होने के कारण प्रदोष काल में भी शिव की उपासना करना न भूलें। व्रत के दौरान सावन सोमवार व्रत कथा का पाठ सुनें। पूजा समाप्त होने के बाद प्रसाद का वितरण करें।
कहा जाता है कांगड़ा का ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों का हर दुख उनकी तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाती है। यह 52 शक्तिपीठों में से मां का वो शक्तिपीठ है जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था और वहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। पहाड़ों को नहलाती सूर्य देव की पवित्र किरणें और भोर के आगमन पर सोने सी दमकती कांगड़ा की विशाल पर्वत श्रृंखला को देख ऐसा लगता है कि मानो किसी निपुण जौहरी ने घाटी पर सोने की चादर ही मढ़ दी हो। ऐसा मनोरम दृश्य कि एक पल को प्रकृति भी अपने इस रूप पर इतरा उठे। ब्रजेश्वरी देवी के धाम के बारे में एक पौराणिक कथा परसगलित है। कहते हैं कि भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नहीं किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। क्रोध की अग्नि में जल रहे शिव माता सती की देश पूरी सृष्टि में घूमने लगे। भगवान शिव के क्रोध के कारण पूरे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्मांड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। माता सती के शरीर के यह टुकड़े धरती पर जहां-जहां गिरे वह स्थान शक्तिपीठ स्थापित हो गए। मान्यता है कि यहां माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था इसलिए ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ में मां के वृक्ष की पूजा होती है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। फिर यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि माँ ब्रजेश्वरी ने पांडवों को सपने में दर्शन दिए थे। उन्होंने पांडवों को बताया कि वाहन कांगड़ा जिला में विराजमान है। फिर पाडंवों ने काँगड़ा जाकर माता के मंदिर का निर्माण किया था। तीन धर्मों के प्रतीक है ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है क्योंकि यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं झुकाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा। मां अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं। मां के दरबार में पांच बार होती है आरती मां ब्रजेश्वरी देवी की इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन मां की पांच बार आरती होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले मां की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि के श्रृंगार में ही मां की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद मां का रात्रि श्रृंगार उतार कर उनकी तीनों पिण्डियों का जल, दूध, दही, घी, और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। इसके बाद पीले चंदन से मां का श्रृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाएं जाते हैं। फिर चना पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर आरती संपन्न होती है। मां की प्रात: की, आरती दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से मां बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं। दोपहर बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त मां का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। कहाँ जाता है कि एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में मां एकादशी स्वयं मौजूद है इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है। सूर्यास्त के बाद इन पिण्डियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर मां का श्रृंगार किया जाता है और इसके साथ ही सायंकाल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को मां की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी मां की शैय्या तैयार कर मां की पूजा अर्चना करते हैं। भक्तों पर आने वाले संकट से पहले रो देते हैं बाबा भैरव वैसे तो सभी भगवान अपनी भक्तों की रक्षा करते है, लेकिन मां ब्रजेश्वरी देवी के मंदिर परिसर स्थित भगवान भैरव बेहद खास है। कहते हैं कि जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना आना शुरू हो जाता है। तब मंदिर के पुजारी विशाल हवन का आयोजन कर मां से आने वाली आपदा को टालने का निवेदन करते हैं। मान्यता है कि ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ के चमत्कार और महिमा से यहाँ आने वाली हर आपदा टल जाती है। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में स्थापित भैरव बाबा की प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह प्रतिमा 5 हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है। कहा जाता है कि साल 1976-77 में इस मूर्ति में आंसू व शरीर से पसीना निकला था। उस समय कांगड़ा बाजार में भीषण अग्निकांड हुआ था। काफी दुकानें जल गई थी। उसके बाद से यहां ऐसी विपत्ति टालने के लिए हर साल नवंबर व दिसंबर के मध्य में भैरव जयंती मनाई जाती है। उस दौरान यहां पाठ व हवन होता है। यह मूर्ति मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही बाईं तरफ है। इस मंदिर में महिलाओं का जाना पूर्ण रूप से वर्जित हैं। मां ने किया था मक्खन का लेप शक्तिपीठ ब्रजेश्वरी देवी मंदिर में सात दिवसीय घृतमंडल पर्व हर साल 14 जनवरी को मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर शुरू होता है। ये प्रक्रिया पूरे सात दिन चलती है। सात दिवसीय घृतमंडल पर्व में करीब 2 क्विंटल मक्खन से मां की पिंडी का श्रृंगार किया जाता है। इस धार्मिक आयोजन को देखने के लिए देशभर से श्रद्धालु कांगड़ा पहुंचते हैं। मान्यता और दावा है कि इस मक्खन रूपी प्रसाद से चर्म रोगों और कैंसर जैसी बीमारी से निदान मिलता है। घृतमंडल पर्व के संबंध में कहा जाता है कि जालंधर दैत्य को मारते समय मां ब्रजेश्वरी देवी के शरीर पर कई चोटें आई थी और देवताओं ने माता के शरीर पर माखन का लेप किया था। इसी परंपरा के अनुसार देसी घी को एक सौ एक बार शीतल जल से धोकर उसका मक्खन बनाकर मां की पिंडी पर चढ़ाया जाता है। साथ ही मेवों और फलों की मालाएं भी चढ़ाई जाती हैं। बाद में ये मक्खन जरूरतमंदों समेत भक्तों में भी बांटा जाता है।
lord shiva uttrakhand india temple first blessing उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। मंदिर में एक अखंड धुनी है। इस धुनि के संबंध में कहा जाता है कि ये वही अग्नि है, जिसके फेरे शिव-पार्वती ने लिए थे। आज भी उनके फेरों की अग्नि धुनि के रूप में जागृत है। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है। मान्यता है कि प्राचीन समय उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पास स्थित त्रियुगी नारायण मंदिर में भगवान विष्णु ने ही शिव-पार्वती का विवाह करवाया था। यहां स्थित अखंड धुनी के संबंध में मान्यता है कि ये तीन युगों से अखंड जल रही है। इसी वजह से इसे त्रियुगी मंदिर कहते हैं। ये मुख्य रूप से नारायण यानी भगवान विष्णु और लक्ष्मी का मंदिर है, लेकिन यहां शिव-पार्वती का विवाह हुआ था, इस कारण मंदिर में शिवजी और विष्णु जी के भक्त दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कहा जाता है कि पार्वती जी ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए त्रियुगी नारायण मंदिर के पास तपस्या की थी। माता पार्वती ने जिस स्थान पर तपस्या की थी उसे गौरी कुंड कहा जाता है। कहा जाता है कि केदारनाथ की यात्रा से पहले यहां पर आना चाहिए। ऐसा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिव-पार्वती के विवाह की संक्षिप्त कथा त्रेता युग में देवी सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद देवी ने पार्वती के रूप में जन्म लिया था। पार्वती ने कठोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और विवाह करने का वरदान मांगा। तब भगवान विष्णु ने पार्वती और शिवजी का विवाह इसी जगह करवाया था। इस मंदिर का स्वरूप केदारनाथ धाम के मंदिर जैसा है। भगवान शिव को विवाह में उपहार स्वरूप एक गाय मिली थी। यहां मौजूद एक स्तंभ के बारे में मान्यता है कि यह वही स्तंभ है, जिससे उस गाय को बांधा गया था। शिव के बारे में कहा जाता है कि वे इतने भोले हैं उन्हें दूल्हे के तौर पर कैसे सजना है, क्या करना है, इसका भी पता नहीं था। ऐसी बारात न कभी पहले निकली थी और अब न कभी निकलेगी। एक मौका तो ऐसा भी आया जब शिव को देख माता पार्वती की मां ने अपनी बेटी का हाथ उन्हें देने से मना कर दिया था। ब्रह्माजी ने निभाई थी पुरोहित की भूमिका शिव पार्वती के विवाह में ब्रह्माजी ने पुरोहित की भूमिका निभाई थी। विवाह में शामिल होने पहले ब्रह्माजी ने एक कुंड में स्नान किया था, जिसे ब्रह्मकुंड कहा जाता है। यहां भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी। उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। यहां विवाह में आए अन्य देवी-देवताओं ने स्नान किया था। विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं। इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रह्म शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। मंदिर आने वाले भक्त यहां भेंट में लकड़ियां अर्पित करते हैं। इस स्थान पर विष्णु भगवान ने लिया था वामन अवतार वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेता युग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बद्रीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं। यहां शादी करने वालों की संवर जाती है जिंदगी त्रियुगीनारायण मंदिर अब खास वेडिंग डेस्टिनेशन बनता जा रहा है। काफी लोग यहां विवाह करने के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शादी करने वाले जोड़े की जिंदगी संवर जाती है। इसी मंदिर में भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। आज भी उनकी शादी की निशानियां यहां मौजूद हैं। इस मंदिर की मान्यता को देखते हुए यहां कई सितारे यहां परिणय सूत्र में बंध चुके हैं। जिन लोगों की शादी हो गई है वो यहां आर्शीवाद लेने आते हैं और जिन लोगों की शादी नहीं हो रही है, वह भी यहां वरदान मांगने आते हैं। देशभर से रुद्रप्रयाग पहुंचने के लिए कई साधन आसानी से मिल सकते हैं। रुद्रप्रयाग से सोनप्रयाग पहुंचना होगा। अगस्त्यमुनि से गुप्तकाशी की फिर सोनप्रयाग आता है। यहां से त्रियुगी नारायण मंदिर आसानी से पहुंच सकते हैं। विश्व कल्याण के लिए होता है हरियाली मेले का आयोजन त्रियुगीनारायण मंदिर में प्रत्येक वर्ष क्षेत्र की खुशहाली व विश्व कल्याण के लिए हरियाली मेले का आयोजन किया जाता है। ये पौराणिक परंपरा अपने पर्यावरण को बचाने का भी संदेश देती है।एक सप्ताह पूर्व से ग्रामीण अपने-अपने घरों में जौ की हरियाली उगाने का कार्यक्रम शुरू करते हैं। सभी ग्रामीण अपने घरों से हरियाली लाकर त्रियुगीनारायण मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं। वैदिक मंत्रोच्चारण और पूजा अर्चना के साथ महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा व पौराणिक रीति-रिवाजों अनुसार पहले भगवान विष्णु को हरियाली को अर्पित करती हैं। गांव में प्रत्येक घर में बांटने के साथ ही बावन द्वादशी मेले के समापन अवसर पर भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित करने की परम्परा है। वामन द्वादशी मेले से पहले हरियाली मेला मनाने की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। यह मेला क्षेत्र की खुशहाली के लिए मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी मंदिर में शिव और पार्वती का विवाह हुआ था।
हिमाचल के चम्बा जिले को शिव भूमि के नाम से जाना जाता है। चम्बा के भरमौर में समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित पवित्र मणिमहेश सरोवर देशभर के भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। बर्फ से ढके इस पहाड़ पर भोलेनाथ का वास होता था। वहीं बर्फ से ढकी चोटियों के बीच यह मनोरम झील बनी हुई है। यह भगवान शिव की महिमा ही है कि अष्टमी के दिन स्नान से पहले ही झील का पानी बढ़ने लग जाता है। ऐसा क्यों होता है, इसका पता लगाने में वैज्ञानिक भी नाकाम रहे हैं। अष्टमी के बाद इस झील का पानी फिर कम हो जाता है। झील में इतना पानी अचानक कहां से आ जाता है ये रहस्य बरकरार है। इसी झील में स्नान करने के बाद पवित्र मणि के दर्शन भी होते हैं। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया। मणि महेश यात्रा पर जाने का मौका श्रद्धालुओं को जुलाई-अगस्त के दौरान ही मिल पाता है, क्योंकि तब यहां का मौसम कमोबेश ठीक रहता है। इन दिनों में यहां मेले का भी आयोजन किया जाता है जो जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। 15 दिनों तक चलने वाले मेले के दौरान प्रशासन की ओर से सभी प्रकार के प्रबंध किये जाते हैं। जन्माष्टमी पर यहां लगने वाले मेले में हिमाचल सहित देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं। यह यात्रा चंबा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से शुरू होती है। यहां से भोले की चांदी की छड़ी को लेकर यह यात्रा शुरू होती है और राख, खड़ामुख आदि क्षेत्रों से गुजरते हुए भरमौर पहुंचती है। भरमौर में छड़ी का पूजन किया जाता है और फिर यह हरसर और धांचू होते हुए राधा अष्टमी के दिन मणि महेश पहुंचती है। मणिमहेश झील के पास की हिमाच्छादित चोटियों से पिघलने वाला बर्फीले पानी मणिमहेश झील का मुख्य स्रोत हैं। जैसे ही जून के अंत तक बर्फ पिघलना शुरू होती है, यह कई छोटी धाराओं में टूट जाती है और मणिमहेश झील में आकर मिलती है। हरी-भरी पहाड़ियों और फूलों की एक साथ जलधाराएँ घाटी को सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य प्रदान करती हैं जो किसी स्वर्ग से कम नही है। बर्फ से ढकी चोटियों का प्रतिबिंब मणिमहेश झील के पानी में साफ़ साफ देखा जाता है। इसलिए कहा जाता है मणिमहेश मान्यता है कि कैलाश पर्वत पर भगवान भोले नाथ शेषमणि के रूप में विराजमान है। भगवान शिव लोगों को दर्शन भी मणि के रूप में देते है, इसलिए इस धार्मिक स्थल का नाम मणिमहेश पड़ा। कहा जाता है कि सच्चे मन से भगवान भोले नाथ की भक्ति के साथ डल झील में पहुंचने वाले श्रद्वालुओं को ही यहां मणि के दर्शन होते हैं। भगवान शिव आज भी चौथे पहर में अपने भक्तों को मणि के रूप में दर्शन देते हैं। इस भक्तिमय लम्हें के इंतजार में कई शिवभक्त पूरी रात नहीं सोते और जैसे ही चौथे पहर में चांद की रोशनी से मणि चमकती है तो पूरी डल झील और आसपास का क्षेत्र भगवान भोले नाथ के जयकारों और उदघोष से गूंज उठता है। चमत्कारों और रहस्यों से भरे कैलाश पर्वत में दिखने वाले इस अदभुत नजारे के आगे डल झील पर मौजूद हर कोई शख्स नतमस्तक हो जाता है। झील में स्नान करने का अपना महत्व जो भक्त अमरनाथ नहीं जा पाते हैं वे मणिमहेश झील में पवित्र स्नान के लिए पहुंचते हैं। पहले मणिमहेश झील तक पहुंचना काफी जटिल था लेकिन अब भरमौर से गौरीकुंड तक हेलीकॉप्टर की व्यवस्था है। पैदल यात्रा के लिए हड़सर सड़क का अंतिम पड़ाव है। यहां से आगे संकरे रास्तों पर पैदल या घोड़े-खच्चरों की सवारी कर ही सफर तय होता है। हड़सर से मणिमहेश झील की दूरी करीब 13 किलोमीटर है। इसके अलावा पैदल यात्रा करने के इच्छुक भक्तों के लिए हड़सर, धनछो, सुंदरासी, गौरीकुंड और मणिमहेश झील के आसपास रहने के लिए पूर्ण व्यवस्था की जाती है। स्त्रियों के स्नान के लिए गौरीकुंड गौरीकुंड पहुंचने पर प्रथम कैलाश शिखर के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि गौरीकुंड माता पार्वती का स्नान स्थल है। महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब दो किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है। यहां का खूबसूरत दृश्य पैदल पहुंचने वालों की थकावट को क्षण भर में दूर कर देता है और सकरात्मक ऊर्जा का संचार होता है। माता चौरासी में दर्शन करना जरुरी चौरासी माता के दर्शन के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती है। भरमौर का नाम पहले ब्रह्मïपुर हुआ करता था, इस दौरान माता भरमाणी का मंदिर भी चौरासी परिसर में ही था। किवदंतियों के अनुसार चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के विश्राम पर प्रतिबंध था। उस दौरान चौरासी सिद्धों का एक दल पवित्र मणिमहेश यात्रा पर जा रहा था। यात्रा के दौरान अँधेरा ज्यादा होने के कारण उन्होंने रात में यहीं पर ही रुकने का निर्णय लिया। जैसे चौरासी सिद्धों ने चौरासी परिसर में रात के समय प्रवेश किया तो इससे माता भरमाणी क्रोधित हो उठीं। माता भरमाणी उन चौरासी सिद्धों को श्राप देने लगी तो भगवान शंकर प्रकट हुए। शंकर को देख माता भरमाणी का क्रोध शांत हो गया। माता भरमाणी ने भगवान शंकर से क्षमा मांगी। साथ ही चौरासी परिसर में रात के समय पुरुषों के आगमन निषेध होने की बात कही। माता भरमाणी वहां से विलुप्त होकर यहां से तीन किलोमीटर दूर साहर नामक स्थान पर प्रकट हुईं। जिसके बाद भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे। नील मणि के नाम से भी है विख्यात कैलाश पर्वत को टरकोइज माउंटेन यानि कि नीलमणि भी कहा जाता है।मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है, तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती है। अलबता इस दौरान यहां का पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश में ओत-प्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि कैलाश पर्वत पर नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद है, जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली हो जाती है और खूबसूरती में चार चाँद लग जाता है।
देवभूमि हिमाचल प्रदेश में देवी-देवताओं के बहुत से मंदिर हैं और हर मंदिर का अपना विशेष महत्त्व है। ऐसा ही एक अलौकिक स्थान है सोलन स्थित माता शूलिनी का मंदिर। दरअसल सोलन का नाम मां शूलिनी देवी के नाम पर पड़ा। माता शूलिनी सोलन की अधिष्ठात्री देवी हैं। माता का मंदिर सोलन बाजार में स्थित है और हर वर्ष यहाँ जून माह में मेले का आयोजन होता है। इस मेले को राज्य स्तरीय मेले का दर्जा प्राप्त है। तीन दिवसीय इस मेले के पहले दिन मां शूलिनी की शोभायात्रा निकाली जाती है और माता शूलिनी अपने मंदिर स्थान से निकलकर अपनी गंज बाजार स्थित अपनी बहन के घर ( मंदिर )पहुँचती है। दो रात्रि तक माता यहाँ ही प्रवास करती है। इसीलिये इस मेले को दो बहनो के मिलन का मेला भी कहा जाता है। इस शोभायात्रा का आयोजन बेहद धूमधाम से होता है और विभिन्न झांकियां भी निकाली जाती है। नगर यात्रा के बाद माता अपनी बहन के घर पहुँचती है। इस दौरान श्रद्धा का जनसैलाब उमड़ता है और लाखों लोग माता के दर्शनों को सोलन नगरी पहुंचते है। तीन दिवसीय इस मेले के दौरान पूरा सोलन शहर दुल्हन की तरह सजाया जाता है और सैकड़ों भंडारों का आयोजन होता है। आसपास के राज्यों से भी व्यापारी दुकाने लगाने सोलन पहुंचते है। इस दौरान तीन दिन सांस्कृतिक संध्या का आयोजन भी होता है। देश -प्रदेश के कई नामी कलाकार इसमें भाग लेते है। मेले के तीसरे दिन माता अपनी बहन के घर से डोले में बैठकर फिर मंदिर को प्रस्थान करती है। बघाट रियासत की कुलदेवी है मां शूलिनी सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता था। इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी। बारह घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था। इस रियासत की प्रारंभ में राजधानी जौणाजी तदोपरांत कोटी और बाद में सोलन बनी। राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है। जनश्रुति के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा की प्रसन्नता के लिए मेले का आयोजन करते थे। बदलते समय के दौरान यह मेला आज भी अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार चल रहा है। माता शूलिनी के इस मंदिर का पुराना इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है। बघाट रियासत के लोग माता शूलिनी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते थे, तभी से माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों के लिए उनकी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है।
51 शक्तिपीठों में एक है मंदिर, अंबूचावी पर्व का है विशेष महत्व भारत धर्म प्रधान देश है। यहां हर स्थान पर देवी-देवताओं का वास है। शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां देवी-देवता वास न करते हों। यहां श्रद्धा चरम पर होती है। भारत का नाम ही आस्था के आधार पर पड़ा है। समय-समय युग पुरुष महात्माओं और महान पुरुषों ने इस धरा पर पांव रखकर इस धरा को पावन किया है। यहीं पर वेदों की रचना हुई। यहीं पर मनिषियों ने प्रकृति पर आधारित ग्रंथों की रचना की। यहीं पर अभिमानी रावण का वध कर श्री राम ने असत्य पर सत्य की जीत का संदेश भी दिया। यहीं पर कुरुक्षेत्र की धरती पर महाभारत जैसा युद्ध हुआ जिसने समस्त विश्व को संदेश दिया कि अधर्म कभी भी जीत नहीं सकता। किसी का जायज हक रखना उचित नहीं है। आज फस्र्ट वर्डिक्ट के सुधी पाठकों को असम की राजधानी दिसपुर में स्थित कामख्या मंदिर के बारे में जानकारी देगा। यह मंदिर गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति सती का है। मंदिर पहाड़ी पर बना है और बहुत ही विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। यानी कि प्राकृतिक सौंदर्य और आस्था दोनों का ही यहां समावेश होता है। बताया जाता है कि इस मंदिर का तांत्रिक महत्व भी है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। 51 शक्तिपीठों में से एक है मंदिर : पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के 51 शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है, जहां माता सूक्ष्म स्वरूप में निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों में माता कामाख्या का यह मंदिर सुशोभित है।हिंगलाज की भवानी, कांगड़ा की ज्वालामुखी, सहारनपुर की शाकम्भरी देवी, विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र-मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है। यहां मान्यता है कि जो भी बाहर से आए भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं, उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है। अंबूचावी पर्व माना जाता है वरदान : विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिए वर्ष में एक बार अम्बूवाची योग पर्व होता है। यह पर्व एक वरदान ही माना जाता है। यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। यह एक प्रचलित धारणा है कि देवी कामाख्या मासिक धर्मचक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है। इन तीन दिनों के दौरान कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं। इस बार अम्बूवाची योग पर्व जून की 22, 23, 24 तिथियों में मनाया गया। पौराणिक कथा : पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। कामाख्या के अनन्य भक्त ज्योतिषी एवं वास्तु विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा ने बताया कि अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियां एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है। कामाख्या मन्दिर परिसर : कामाख्या के शोधार्थी एवं प्राच्य विद्या विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा कहते हैं कि कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्रामगृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊंगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिए और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुकुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गई। इस पर नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा। नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गई थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था। पं. दिवाकर शर्मा ने बतलाया कि आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नद के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है। यहां दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। सर्वोच्च कौमारी तीर्थ : सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यंत महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियां होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। कामाख्या मंदिर मे योनि(गर्भ) की पूजा : पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी सती अपने योगशक्ति से अपना देह त्याग दी तो भगवान शिव उनको लेकर घूमने लगे उसके बाद भगवान विष्णु अपने चक्र से उनका देह काटते गए तो नीलाचल पहाड़ी में भगवती सती की योनि (गर्भ) गिर गई, और उस योनि (गर्भ) ने एक देवी का रूप धारण किया, जिसे देवी कामाख्या कहा जाता है। योनी (गर्भ) वह जगह है जहां बच्चे को 9 महीने तक पाला जाता है और यहीं से बच्चा इस दुनिया में प्रवेश करता है। और इसी को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना जाता है। कामाख्या मंदिर का समय : कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और फिर दोपहर 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक शुरू होता है। सामान्य प्रवेश नि: शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं। आम तौर पर इसमें 3-4 घंटे लगते हैं। वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लागत है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति रुपए 501 की लागत पर उपलब्ध है। इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है।
हिंदू धर्म मान्यता के अनुसार ब्रह्मा, विष्णू और महेश तीन प्रधान देव हैं। इसमें ब्रह्मा जी को समस्त सृष्टि का रचियता माना जाता है। वहीं विष्णू भगवान उस सृष्टि की पालना करते हैं।लेकिन महेश यानी कि भगवान शिव को विनाशकारी माना जाता है क्योंकि पृथ्वी पर पाप बढ़ जाने पर वे अपना रौद्र रूप दिखाते हैं। ब्रह्मा जी ने ही चार वेदों का ज्ञान दिया था। उनकी शारीरिक सरंचना भी बेहद अलग किस्म की है। ब्रह्मा जी के चार हाथ हैं। चार ही चेहरे हैं। ब्रह्मा जी चारों हाथों में एक-एक वेद लिए हुए हैं। इसका मंतव्य यह है कि ब्रह्मा जी चारों वेदों के माध्यम से समस्त सृष्टि का कल्याण करते हैं। अर्थात ब्रह्मा जी को कल्याणकारी माना गया है। मगर यह भी अचंभा है कि समस्त विश्व में विष्णू और महेश यानी कि भगवान शिव के अनगनित मंदिर हैं, मगर ब्रह्मा जी का एक ही मंदिर पुष्कर साहिब में है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्रि देवी ने उन्हें श्राप दिया था। हिन्दू लोक कथाओं के अनुसार धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके बढ़ते अत्याचारों से तंग आकर ब्रह्मा जी ने उसका वध किया। लेकिन वध करते वक्त उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा। इन तीनों जगहों पर तीन झीलें बनंी। इसी घटना के बाद इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। इस घटना के बाद ब्रह्मा ने संसार की भलाई के लिए यहां एक यज्ञ करने का फैसला किया। ब्रह्मा जी यज्ञ करने हेतु पुष्कर पहुंंच गए लेकिन किसी कारणवश सावित्री जी समय पर नहीं पहुंच सकीं। यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उनके साथ उनकी पत्नी का होना जरूरी था, लेकिन सावित्री जी के नहीं पहुंचने की वजह से उन्होंने गुर्जर समुदाय की एक कन्या गायत्री से विवाह कर इस यज्ञ शुरू किया। उसी दौरान देवी सावित्री वहां पहुंचीं और ब्रह्मा के बगल में दूसरी कन्या को बैठा देख क्रोधित हो गईं। उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि देवता होने के बावजूद कभी भी उनकी पूजा नहीं होगी। सावित्री के इस रूप को देखकर सभी देवता डर गए। सभी ने सावित्री जी से विनती की कि अपना श्राप वापस ले लीजिए, लेकिन उन्होंने किसा की न सुनी। जब गुस्सा ठंडा हुआ तो सावित्री ने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही आपकी पूजा होगी। कोई भी आपका मंदिर बनाएगा तो उसका विनाश हो जाएगा। भगवान विष्णु ने भी इस काम में ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सरस्वती ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण भगवान विष्णु ने राम के रूप में मानव अवतार लिया और 14 साल के वनवास के दौरान उन्हें पत्नी से अलग रहना पड़ा था। पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्माजी पुष्कर के इस स्थान पर दस हजार सालों तक रहे थे। इन सालों में उन्होंने पूरी सृष्टि की रचना की। जब पूरी रचना हो गई तो सृष्टि के विकास के लिए उन्होंने पांच दिनों तक यज्ञ किया था। कथा के अनुसार उसी यज्ञ के दौरान सावित्री पहुंच गई थीं जिनके शाप के बाद आज भी उस तालाब की तो पूजा होती है लेकिन ब्रह्माजी की पूजा नहीं होती। आज भी श्रद्धालु केवल दूर से ही उनकी प्रार्थना कर लेते हैं, परंतु उनकी वंदना करने की हिमाकत नहीं करते। ब्रह्माजी के साथ पुष्कर के इस शहर में मां सावित्री की भी काफी मान्यता है।कहते हैं कि क्रोध शांत होने के बाद सावित्री पुष्कर के पास मौजूद पहाडिय़ों पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और फिर वहीं की होकर रह गईं। मान्यतानुसार आज भी देवी यहीं रहकर अपने भक्तों का कल्याण करती हैं। मंदिर का निर्माण कब हुआ इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन ऐसा मन जाता हैं की आज से तकरीबन एक हजार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है, जिसके सही रख रखाव की जरूरत है। तब राजा ने इस मंदिर के पुराने ढांचे को दोबारा जीवित किया। आज के युग में इस मंदिर को जगत पिता ब्रह्मा मंदिर के नाम से जाना जाता है। जहां श्रद्धालुओं की लंबी कतारें देखी जा सकती हैं। लेकिन फिर भी कोई ब्रह्माजी की पूजा नहीं करता। प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा पर इस मंदिर के आसपास बड़े स्तर पर मेला लगता है।
फस्र्ट वर्डिक्ट । सोलन भारत एक महान देश है। यहां महान पुरुषों का ही आगमन नहीं हुआ अपितु महान कलाओं का निर्माण भी हुआ जो इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों में दर्ज हो गईं। हालांकि इन निर्माणों को बने सदियों बीत गईं, मगर इनकी आभा आज तक दमकती है। यही कारण है कि भारत का नाम विश्व के अग्रणी स्थानों में है। संस्कृति और संस्कारों के उदगम स्थल भारत ने समस्त विश्व को जीने की राह दिखाई। कला में ऐसे आयाम स्थापित किए कि विदेशी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। ओजस्वियों, ऋषि-मुनियों और मनीषियों की तपोस्थली भारत में अनेकों अनेक महापुरुषों का आगमन हुआ जिन्होंने समस्त विश्व को संस्कृति और संस्कारों का उपदेश दिया। फस्र्ट वर्डिक्ट अपने सुधी पाठकों को लगातार भारत की गौरव गाथा से अवगत करवाती जा रही है। हर सप्ताह भारत के उन ऐतिहासिक स्थानों पर प्रकाश डाला जा रहा है जो भारत की गौरव गाथा हैं। हालांकि आज डिजिटल इंडिया है और बहुत कुछ सोशल मीडिया में देखने को मिल रहा है बावजूद इसके भी फस्र्ट वर्डिक्ट बड़ी बारीकी से ऐसे स्थानों को प्रकाशित कर रही है। इसका मकसद भारतवासियों को संस्कृति और संस्कारों से जोड़े रखना है। इसी कड़ी में इस सप्ताह कोणार्क मंदिर पर प्रकाश डाला जा रहा है। उड़ीसा में स्थित है कोणार्क मंदिर : कोणार्क मंदिर भारत के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। यह उड़ीसा में स्थित है। यह जगन्नाथपुरी से पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पूर्व में स्थित है। सर्व प्रथम इस मंदिर को यूनेस्कों ने सन 1949 में विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी। यह मंदिर समुद्री तट पर स्थित है। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग 316 गुजरता है। यहां से चंद्रभागा नदी भी गुजरती है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ 1278 ई. के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने 1282 तक शासन किया। कई इतिहासकार इस मत के भी हैं कि कोणार्क मंदिर का निर्माण 1253 से 1260 ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है। मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है : मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। बाएं मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप जोकि हल्के पीले रंग में है। वहीं दाएं मंदिर का मूलरूप है। कोणार्क मंदिर का नामकरण कोण और अर्क शब्द से हुआ है। अर्क का अर्थ सूर्य है और कोण का अर्थ कोना या किनारा होता है। कोणार्क मंदिर का निर्माण लाल पत्थरों और ग्रेनाइट पत्थरों से हुआ है। इसे 1236-1264 ईसा पूर्व गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था। यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण कलिंग शैली में किया गया और भगवान सूर्य को रथ के रूप में विराजमान किया गया है। पत्थरों पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। बारह जोड़ी चक्रों को खींच रहे हैं सात घोड़े : सम्पूर्ण मंदिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुए निर्मित किया गया है। इनमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। मगर वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। ये बारह चक्र साल के बारह महीनों के प्रतीक हैं। ेप्रत्येक चक्र आठ अरों यानी पहररों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं। स्थानीय लोग प्रस्तुत सूर्य भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे। द्वार पर दो सिंह आक्रामक रूप से हाथियों पर हैं सवार : इसके द्वार पर दो सिंहों को आक्रामक रूप से रक्षा में तत्पर दिखाया गया है। दोनों हाथी एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये 28 टन की 8.4 फीट लंबी 4.9 फीट चौड़ी तथा 9.2 फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये 10 फीट लंबे व 7 फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है कि कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उडिय़ा शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है। कामुक मुद्राओं की शिल्प आकृति : यह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।इस प्रकार की आकृतियां मुख्यत: द्वारमंडप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प-कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है। एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। यहां पर मन्दिर की ध्वस्तता के सम्पूर्ण कारणों का उल्लेख करना जटिल कार्य से कम नहीं है। परन्तु यह सर्वविदित है कि अब इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है, जिसके मुख्य कारण वास्तु दोष भी कहा जाता है परन्तु मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका अहम रही है। कोर्णार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, कालापहाड़ से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन 1508 में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिए। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20-25 फीट मोटी दीवारों को तोडऩा असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मन्दिर धीरे-धीरे गिरने लगा तथा छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गई। उसने यहाँ की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिए। कई कथाओं के अनुसार, सूर्य मन्दिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत, इस ओर खिंचे चले आते हैं, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामत: वे गिर पड़ीं, परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।
देवभूमी हिमाचल पावन और पवित्र मानी गई है। इसलिए ये देवी-देवताओं के प्रिय स्थानों में से एक है। हिमाचल अपनी प्राकृतिक सुंदरता और मनोहरी दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यहां बहुत ही अच्छे पर्यटन स्थान हैं, जिनकी सुंदरता पर्यटकों के मन को मोह लेती है। तभी तो हिमाचल को प्रकृति का खजाना भी कहा जाता है। आज भी हिमाचल की भूमी यहां के धार्मिक स्थानों की वजह से ही पूरे भारत वर्ष में माननीय है। इनमें से एक है जयसिंहपुर विधानसभा का मां आशापुरी मंदिर। रोपड़ी नागवन के सबसे ऊंचे धौलाधार शृंखला के शिखर पर पंचरुखी के पास चंगर की वादियों में एक पहाड़ की चोटी पर मां आशापुरी विराजमान हैं। यहां के लोगों का मानना है कि जो भी भक्त यहां सच्चे मन से दर्शन के लिए आते हैं, मां उनकी मनोकामनाएं जरूर पूर्ण करती हैं। कांगड़ा जिले के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में से एक मां आशापुरी मंदिर का निर्माण पांडवों ने उस समय करवाया जब वे आज्ञातवास के दौरान हिमाचल प्रदेश आए थे। 16वीं सदी में इस मंदिर का निर्माण कटोच वंशज के सुप्रसिद्ध राजा मान सिंह ने करवाया था। मंदिर में पहुंचने वाले भक्तों को यहां आकर स्वर्ग जैसे आनंद का अनुभव होता है। माता आशापुरी का यह मंदिर हमेशा से ही अपनी बेजोड़ कलाकृति के लिए हिमाचल प्रदेश में चर्चित मे रहा है। आशापूरी मंदिर एक ऐतिहासिक स्थान भी है, जिस वजह से इस मंदिर को पुरातत्व विभाग की देख-रेख में रखा गया है। मंदिर के अंदर मां तीन पिंडियों के रूप में विराजमान हैं। मां आशापुरी को माता वैष्णो देवी का रुप माना जाता है। जिसके साथ ही यहां और देवी-देवताओं की भी पुरानी पत्थर से बन मंदिर के आस-पास बहुत ही मनमोहक दृश्य देखने को मिलते हैं।
हिमाचल प्रदेश देव भूमि है। जाहिर है यहां चप्पे-चप्पे पर देव स्थल हैं। कई देव स्थल तो चर्चित हैं। उनके बारे में लोग भलिभांति जानते हैं, मगर कई ऐसे मंदिर और देवस्थान भी हैं जो न ज्यादा चर्चा में हैं और न ही उनके बारे में कोई ज्यादा जानता है। हालांकि ये मंदिर चमत्कारों से परिपूर्ण हैं और यहां आस्था भी बहुत ज्यादा है। जरूरत सिर्फ इनकी पहचान को उजागर करने की है। फस्र्ट वर्डिक्ट अपने प्रयासों से ऐसे देवस्थलों से लोगों को मशरूफ करने जा रहा है। आज आपको कांगड़ा जिले में स्थित तत्वानी मंदिर के बारे में बताया जाएगा। यह मंदिर धर्मशाला से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर सलोल से चार किलोमीटर की दूरी पर बिलकुल गज खड्ड के किनारे स्थापित है। यहां खासियत यह है कि यहां गर्म पानी का चश्मा है। हालांकि कुल्लू के मणिकर्ण में भी गर्म पानी का चश्मा है। मगर यहां भी गर्म पानी का चश्मा है। मगर यहां का पानी कुल्लू के मणिकर्ण चश्मे के पानी से कम गर्म है। फव्वारे की नीचे खड़े होकर आसानी से स्नान किया जा सकता है। मंदिर भोलेनाथ को समर्पित है। यहां शिव भोले की पूजा-अर्चना होती है। इस मंदिर के पुजारी शिव गोस्वामी हैं। उन्होंने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि प्राचीन समय में यहां घना जंगल हुआ करता था। इसी स्थान पर तीन महात्माओं ने घोर तपस्सया की थी। उनमें से एक महात्मा का नाम गोपाल गिरि था, जबकि दो अन्य महात्माओं का नाम पता नहीं है। जब उनकी तपस्या पूर्ण हुई और प्रभु ने उन्हें अपने साक्षात दर्शन दिए तो इन महात्माओं से कुछ मांगने के लिए कहा। इस पर तीनों महात्माओं ने भगवान से पानी की मांग की। इस भगवान ने उन्हें गर्म पानी दिया। इसी कारण यहां गर्म पानी का चश्मा फूट निकला। इसी स्थान पर उन तीन महात्माओं के मंदिर बने हैं जिनकी आज भी पूजा की जाती है। कालांतर में गुलेर के राजा ने अपनी बेटी की शादी चंबा के राजा के बेटे के साथ कर दी। उस समय यातायात नहीं था तो पैदल ही यात्रा की जाती थी। उस समय गुलेर और चंबा के लिए जाने का यही रास्ता शार्टकट था। अत: एक बार रानी चंबा से पालकी में अपने मायके गुलेर रियासत जा रही थी। इसी स्थान पर कहारों ने उनकी पालकी को विश्राम दिया। तब महारानी की नजर इस चश्मे पर पड़ी। उन्होंने राजा से कह कर इसे बावड़ी के रूप में निर्माण करवा दिया। वहीं रानी ने इसी रास्ते में कई अन्य बावडिय़ों का भी निर्माण करवाया ताकि राहगीर पानी पी सकें। कुछ साल पहले यहां एक बावा सोमगिरि ने भी अपनी कुटिया बनाई थी। वह यहां लगभग 25 वर्ष तक रहे। सोमगिरि बावा ने यहां फलों का बागीचा भी लगाया था। मगर अब यहां कोई नहीं रहता है। वहीं मंदिर के पुजारी शिवदत गोस्वामी ने बताया कि यहां गर्म पानी के चश्में में स्नान करने के बाद अगर कोई शीश नवाकर मन्नत मांगता है तो वह अवश्य पूर्ण होती है। वहीं यहां गणमान्य देवेंद्र गुलेरिया ने डीसी से मंदिर के लिए सोलर लाइट की मंजूरी भी दिलवाई है। मंदिर कब का बना है इसकी सटीक जानकारी नहीं है, मगर मंदिर प्राचीन शैली में बना हुआ है। ऐसा माना जाता है कि यह पुराने राजाओं और महाराजाओं द्वारा ही निर्मित किया गया होगा। यहां प्राचीन शैली में निर्मित कुछ बावडिय़ां भी बनी हुई हैं। माना जाता है कि ये बावडिय़ां भी राजाओं और महाराजाओं के समय की ही बनी हुई हैं। यहां आने पर आदमी स्वत: ही भोलेनाथ की भक्ति में रम जाता है और एक असीम मानसिक सुकून की अनुभूति होती है। मंदिर में प्राचीन शैली में नंदी, शिव भोले नाथ और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। जहां गर्म पानी का चश्मा है वहां एक बावड़ी बनाई गई है और जिस जगह से गर्म पानी निकलता है वहां शेर का मुंह बनाया गया है। यह आकृति बहुत ही सुंदर ढंग से बनाई गई है। इसे देखने पर भक्त स्वत: ही कला के सौंदर्य की दाद देने को मजबूर हो जाता है। यह एक ऐतिहासिक स्थान है, मगर इसे हमेशा ही नजरअंदाज किया गया है। यहां आने के लिए सलोल के तहत परेई नामक स्थान पर बस से उतरना पड़ता है और उसके बाद गज खड्ड को पार करना पड़ता है। हालांकि गर्मियों में पानी का बहाव इतना ज्यादा नहीं होता, मगर बरसात में यहां बहुत ज्यादा पानी आता है। शिवरात्रि वाले दिन यहां बहुत बड़ा मेला लगता है और यहां स्थानीय भक्तों के अलावा अन्य स्थानों से भी भक्त शीश नवाने आते हैं। मान्यता है कि यहां मन्नत मांगने पर हाल में पूरी होती है और शिवभोलेनाथ अपना आशीर्वाद अवश्य देते हैं। गज खड्ड में पुल न होने के कारण स्थानीय लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कई बार मांग भी उठाई गई कालांतर में सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। मंदिर के ठीक ऊपर लंघाणा गांव भी है जहां के वाशिंदे बहुत टफ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यहां सुविधाओं का अभाव है। विकास नाममात्र हुआ है। यहां के लोग बहुत मेहनती और मिलनसार हैं। विकास की बयार न होने पर भी उनके माथे पर कभी शिकन तक नहीं देखी गई। हालांकि लोगों को रंझ जरूर है कि इस गांव के विकास की ओर सरकारें ध्यान नहीं देती। यदि गज खड्ड पर पुल का निर्माण हो जाए तो इन लोगों को बहुत सुविधा होगी। बरसात के दिनों में खड्ड में पानी बहुत ज्यादा होने से इन लोगों को मीलों पैदल सफर कर अपने घरों तक पहुंचना पड़ता है। कई लोग तो इन्हीं असुविधाओं की वजह से अपने आशियाने कहीं और जगह बना रहे हैं। वहीं मंदिर के साथ एक पक्का रोड बनाया गया है जो झीरबल्ला से मिलता है। यहीं से एक रोड सलोल के लिए जाता है तो दूसरा रैत-शाहुपर के लिए निकलता है।
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न: बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
हिमालय की बर्फीली चोटियों में कई देव स्थान हैं। कहते है कि हिमाचल में साक्षात महादेव शिव भी विराजमान होते है। यहां पर शिव के कई ऐसे मंदिर है जिनका पौराणिक महत्व भी है और ये स्थान रह्सयमई भी है। बात चाहे किन्नर कैलाश की करे या पीर पंजाल की पहाडिय़ों के पूर्वी हिस्से में स्थित मणिमहेश की, महादेव है हर स्थान भक्तों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। देश -विदेश से लाखों शिवभक्त पुण्य अर्जित करने व शिवशंभु की कृपा प्राप्ति हेतु इन स्थानों के दर्शन करने पहुँचते है। हिमाचल प्रदेश शिवभूमि भी है। 1. किन्नर कैलाश : हिमालय की गोद में बसा किन्नर कैलाश हिमाचल के किन्नौर जिले में स्थित है। 79 फीट ऊंचा ये शिवलिंग बर्फीले पहाड़ों से घिरा हैं। अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण किन्नर कैलाश शिवलिंग चारों ओर से बादलों से घिरा रहता है। ये दुर्गम स्थान है, इसलिए यहां पर ज्यादा लोग दर्शन के लिए नहीं आते हैं। ख़ास बात ये है कि सूर्य उदय होने से पहले किन्नर कैलाश के आसपास की पहाड़ियों का रंग और कैलाश के रंग में भी काफी फर्क दिखाई देता है। अब इसे कोई चमत्कार कहे या कोई रहस्य या विज्ञान, इसका उत्तर तो शायद किसी के पास भी नहीं है। ये सत्य है कि यहाँ स्थित शिवलिंग बार-बार रंग बदलता है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग हर पहर में अपना रंग बदलता है। 2 . बिजली महादेव : महादेव का ये अनोखा मंदिर कुल्लू के ब्यास और पार्वती नदी के संगम के पास ही एक पहाड़ पर बना हुआ है। कहा जाता है कि यहां आसमानी बिजली गिरने की वजह से शिवलिंग चकनाचूर हो जाता है। फिर मंदिर के पुजारी जब शिवलिंग को मक्खन से जोड़ते हैं, तो यह फिर से अपने पुराने रूप में आ जाता है। मान्यता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और बिजली के आघात को वे स्वयं सहन कर लेते हैं। 3 . मणिमहेश : हिमाचल की पीर पंजाल की पहाड़ियों के पूर्वी हिस्से में स्थित है भरमौर, और यहाँ मणिमहेश के रूप में महादेव विराजते है। यहाँ महादेव अपने भक्तों को मणिः के रूप में दर्शन देते है। यही वजह है इस पवित्र स्थल का नाम मणि महेश पड़ा। मणिमहेश नाम का पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इस हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 18,564 फीट है। स्थानीय लोग मानते हैं कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है। 4 .चूड़धार : सिरमौर जिले की सबसे ऊंची चोटी चूड़धार से शिव भक्तों की अटूट आस्था जुड़ी है। इस स्थल को चूर-चांदनी, चूर शिखर और चूर चोटी के नाम से भी जाना जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 12000 फीट है। यहां पर भगवान शिव के रूप में ही देवता शिरगुल महाराज विराजमान है। चोटी पर स्थित भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए हर साल हजारों सैलानी यहां पहुंचते हैं। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए शिव भक्तों को 14 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। खास बात यह है की इस छोटी पर अधिक बर्फ गिरने से इस मंदिर के कपाट करीब तीन माह के लिए बंद हो जाते है।
भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होता है अन्तर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। राज देवता माधोराय, बड़ादेव कमरुनाग और बाबा भूतनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।v देवता माधोरायनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
पंजाब में अगर अमृतसर का नाम लोगे तो अनायास ही यहां विशेष स्थलों का चित्र मानसिक पटल पर उभर कर सामने आ जाता है। अमृतसर को अमृत की धरती कहा जाता है। चूंकि पंजाब एक हिस्टोरीकल प्लेस है तो यहां कई ऐसी चीजें देखने वाली हैं तो पर्यटकों को इतिहास के झरोखों में लेकर चली जाती हैं। यहां सबसे बड़ा धार्मिक स्थान गोल्डन टेंपल है जहां हर रोज हजारों संगत नतमस्तक हो कर अपने जीवन को धन्य बनाती है। वहीं इसके अलावा यहां और भी कई अन्य धार्मिक स्थान हैं जो अपना विशेष महत्व रखते हैं। यहीं माडल टाऊन में एक देवी का मंदिर है। लोगों की उसमें बड़ी आस्था है। इसके अलावा रामतीर्थ और अन्य स्थल भी हैं जहां भक्त अपना शीश नवाते हैं। आज हम आपको अमृतसर के दुर्गियाना मंदिर के बारे में बताएंगे। इस मंदिर में भी लोगों की भारी आस्था है। यहां भी रोज हजारों श्रद्धालु शीश नवाकर मन्नतें मांगते हैं जो पूरी भी होती हैं। वास्तव में श्री दुर्गियाना मंदिर को लक्ष्मी नारायण मंदिर भी कहा जाता है। यह स्वर्ण मंदिर के बाद अमृतसर में अगला सबसे पवित्र मंदिर है। देखने में आपको ये स्वर्ण मंदिर जैसा लग सकता है। मंदिर में मुख्य देवता देवी दुर्गा हैं, फिर भी, यह भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को भी समर्पित है। मंदिर एक जल निकाय के बीच में स्थित है और यहां एक-एक घाट भी है, जहां तीर्थयात्री डुबकी लगा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन पवित्र जल में डुबकी लगाने से आपके पिछले जन्मों के सभी पाप मिट जाते हैं। इसका निर्माण मूल रूप से 16वीं शताब्दी के अंत में किया गया था, और वर्ष 1921 में फिर से, इसे गुरु हरसाई मल कपूर द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। मंदिर भक्तों और पर्यटकों के लिए रोजाना लंगर (मुफ्त भोजन) तैयार करता है। यहां दशहरा, जन्माष्टमी, रामनवमी और दिवाली बड़े उत्साह के साथ मनाए जाने वाले मुख्य त्यौहार हैं। इस मंदिर में शाम के समय जाने-माने कलाकार अपने भजनों के माध्यम से मां की स्तुति करते हैं। जब दुर्गियाना आओ तो यहां बैठकर मां की भेंटें सुनना कभी न भूलें। क्योंकि यही वह समय होता है जब चरम मानसिक सुकून की अनुभूति होती है और हर कोई मां की भक्ति में डूब जाता है। वहीं मंदिर के साथ-साथ एक बहुत ही आकर्षक बाजार भी लगता है जहां भक्त अपनी मनपसंद की वस्तुएं खरीद सकते हैं। यहां प्रसाद की दुकानें भी लगती हैं और साथ में फूलों की बिक्री भी होती है। भक्त लोग इन्हीं दुकानों से प्रसाद और फूल खरीदकर मां के चरणों में अर्पित करते हैं। दुर्गियाना में एक विशाल श्मशानघाट भी बना है। माना जाता है कि किसी की मृत्यु के बाद पार्थिव देह का संस्कार भी यहीं किया जाता है। इसके अलावा अमृतसर में कई ऐतिहासिक स्थान भी विद्यमान हैं। यहीं से बाघा बार्डर भी शायद बीस-पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
हिमाचल देवभूमि है। यहां चप्पे-चप्पे पर देवताओं का वास है। यही कारण है कि इस पावन स्थली को देवी-देवताओं ने अपना स्थान बनाया है। यूं भी हिमाचल की आवो-हवा और वातावरण अति शुद्ध है। प्रकृति यहां पर अपनी चरम छटा पर है। वहीं यहां प्रसिद्ध शक्तिपीठ भी विराजमान हैं। हर मंदिर में पूजन की अपनी मान्यताएं हैं। कांगड़ा में माता ब्रजेश्वरी की पिंडी रूप में पूजा होती है। चामुंडा में मां काली की पूजा होती है और ज्वाला में मां की पावन ज्योति की पूजा होती है। आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन करवाएंगे जहां पति-पत्नी एक साथ दर्शन नहीं कर सकते हैं। जी हां दंपति को एक साथ दर्शन करने की आज्ञा नहीं है। हालांकि सारे वेदों और संस्कारों में पति-पत्नी के एक साथ पूजन का विधान बताया गया है मगर इस मंदिर में ऐसा करने से मनाही है। शिमला जिला में रामपुर में समुद्र तल से 11000 फुट की ऊंचाई पर मां दुर्गा का एक स्वरूप विराजमान है, जिसे श्राई कोटि माता के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में पति-पत्नी एक साथ दर्शन नहीं कर सकते। दोनों का यहां एक साथ पूजन करना निषेध माना गया है। हर बात के पीछे कोई अहम कारण होता है। सो इस मंदिर में भी कुछ ऐसी ही कहानी जुड़ी है, जिस कारण पति-पत्नी को एक साथ पूजन करने पर मनाही है। इससे संबंधित जुड़ी कहानी के बारे में पुजारी वर्ग का कहना है कि एक बार भोलेनाथ ने अपने दोनों पुत्रों को गणेश जी तथा कार्तिकेय जी को समस्त ब्रह्मांड का चक्कर लगाने के लिए कहा। पिता का आदेश पाकर ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय जी तो ब्रह्मांड का चक्कर काटने के लिए प्रस्थान कर गए, मगर गणेश जी ने अपने माता-पिता के चक्कर काटकर ही यह कह दिया कि मेरे लिए तो माता-पिता के चरण ही समस्त ब्रह्मांड के तुल्य हैं। ऐसे में ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय जी जब समस्त ब्रह्मांड का चक्कर काटकर वापस लौटे तो तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। यह देखकर कार्तिकेय ने आजीवन विवाह न करने का प्रण ले लिया। श्राईकोटी मैं आज भी द्वार पर गणपति जी महाराज अपनी पत्नी सहित विराजमान हैं। कार्तिकेय जी के विवाह न करने के प्रण से माता पार्वती बहुत रुष्ट हो गई और उन्होंने कहा कि जो भी पति-पत्नी यहां उनके दर्शन करेंगे उस दम्पति का बिछुडऩा तय होगा। इस कारण आज भी यहां पति- पत्नी एक साथ पूजा नहीं करते। अगर फिर भी कोई ऐसा करता है मां के श्राप अनुसार उसे ताउम्र एक-दूसरे का वियोग सहना पड़ता है। यह मंदिर सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है तथा मंदिर की देख- रेख माता भीमाकाली ट्रस्ट के पास है। घने जंगल के बीच इस मंदिर का रास्ता देवदार के घने वृक्षों से और अधिक रमणीय लगता है। शिमला पहुंचने के बाद यहां वाहन और बस के माध्यम से नारकंडा और फिर मशनु गावं के रास्ते से होते हुए यहां पहुंचा
जयपुर में जहां पुराने राजा-महाराजाओं की रियासतें हैं वहीं यहां कई पौराणिक मंदिर भी स्थापित हैं। जयपुर के एक ऐसे ही मंदिर के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। जयपुर में स्थित बिरला मंदिर की महिमा अपार है। यह मंदिर भारत में स्थित कई बिरला मंदिरों का ही एक हिस्सा है। इस मंदिर को लक्ष्मी नारायण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। यह मंदिर मंदिर मोती डूंगरी पहाड़ी पर स्थित है। जयपुर के बिरला मंदिर का निर्माण 1988 में बिरला द्वारा किया गया था, जब जयपुर के महाराजा ने एक रुपये की टोकन राशि के लिए जमीन दे दी थी। सफेद संगमरमर से निर्मित, बिड़ला मंदिर की संरचना में आप प्राचीन हिंदू वास्तुकला शैली और आधुनिक डिजाइन का मेल देख सकते हैं। इस मंदिर की दीवारों को देवी-देवताओं की गहन नक्काशी, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञान भरे शब्दों से सजाया गया है। इस मंदिर में सुकरात, क्राइस्ट, बुद्ध, कन्फ्यूशियस जैसे कई जैसे ऐतिहासिक प्राप्तकर्ताओं और आध्यात्मिक संतों के चित्र भी देखने को मिलते हैं। अगर आप जयपुर के बिरला मंदिर को देखने के लिए जाना चाहते हैं तो आप जन्माष्टमी के समय जाएँ, क्योंकि इस समय मंदिर में कई धार्मिक गतिविधियाँ होती हैं। बिरला मंदिर को लक्ष्मी नायायण मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि यह मंदिर भगवान विष्णु (नारायण) उनकी पत्नी धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित है। पत्थर के एक टुकड़े से उकेरे गए लक्ष्मी नारायण देवता का विशेष ध्यान जाता है। इन सभी मूर्तियों के अलावा इस मंदिर में गणेश की मूर्ति भी है जो पारदर्शी दिखाई देती है।
हरिपुर-गुलेर रियासत 1415 ईस्वी में राजा हरिचंद ने बसाई थी। गुलेर का पहले का नाम ग्वालियर था और हरिपुर का नाम राजा हरिचंद के नाम पर पडा। उसी दौरान लगभग 500 के करीब ऐतिहासिक निर्माण हुए, जिनमें बावडिय़ां, तालाब, मंदिर, किले और कूओं का निर्माण हुआ। इन्हीं मंदिरों के निर्माण का एक हिस्सा गुलेर में आने वाले बिलासपुर नामक स्थान पर पर मां बिलासा और शिव भोलेनाथ का प्राचीन मंदिर है। बिलासपुर नगरोटा सूरियां (पौंग डैम) से देहरा की ओर जाने वाले रोड से 12 किलोमीटर की दूरी और हरिपुर से नगरोटा की ओर जाने वाले रोड से 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह़ां से गुलेर रेलवे स्टेशन लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसी जगह पर स्थित है पावन मां बिलासा का मंदिर। यह मंदिर प्राचीन शैली में बना हुआ है। यह़ां खासियत यह है कि ऊपर मां का मंदिर बना हुआ है ठीक इसके नीचे एक सदाबहार और बहुत ही आकर्षक बावड़ी बनी हुई है। सदाबहार इसलिए कि इस बावडी का पानी कभी सूखता नहीं है और पानी बहुत ही शीतल है। स्थानीय भाषा में लोग इसे नौण के नाम से पुकारते हैं। मां बिलासा में भक्तों की बहुत ज्यादा आस्था है। यह़ां हर मन्नत पूरी होती है। यह़ां हर साल मां का जागरण होता है और विशाल भंडारा लगता है। दूर-दूर से भक्त शीश नवाने पहुंचते हैं। यह़ां स्थानीय तौर पर भक्तों की की कीर्तन मंडली भी बनी जो माता का गुणगान करती रहती है। मंदिर प्राचीन शैली में बहुत ही सुंदर ढंग से बना है, जिसे निहारने से अनायास ही पुरानी गुलेर रियासत की याद ताजा होती है। कुछ साल पहले यह़ां एक दीवार क्षतिग्रस्त हो गई थी, जिसका जीर्णोद्धार किया गया है। यह़ां से कुछ ही दूरी पर प्राचीन शैली में बना शिव भोले का मंदिर भी है। यह़ां पहुंचने पर ऐसा लगता है कि हम प्रकृति से पूरी तरह आत्मसात हो गए हैं। हो सकता है क्षेत्र में आसपास और भी प्राचीन निर्माण हों, जिन्हें सहेजने की बहुत जरूरत है।
उत्तराखंड को देव भूमि कहा जाता है। जाहिर है कि उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे पर देवी-देवताओं का वास है। हालांकि उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश को भी देवभूमि कहा जाता है। दोनों की भागौलिक स्थिति भी एक जैसी। दोनों ही पहाड़ी क्षेत्र हैं। दोनों ही के चप्पे-चप्पे पर देवी-देवताओं का वास है। आज उत्तराखंड के एक ऐसे मंदिर की यात्रा करवाते हैं जहां पहुंचने मात्र से ही सारे दुखों और कष्टों पर मानो जैसे एक कैंची सी चल जाती है। जी हां उत्तराखंड की वादियों में कैंची धाम के नाम से विश्वविख्यात मंदिर में पहुंचने से भक्त के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। इस मंदिर को नींब करौरी अथवा नीम करौली के नाम से भी जाना जाता है। कई भक्तों के दूर हुए कष्ट : कैंची धाम के बारे में कई किस्से प्रचलित हैं, जिनसे यह पता चलता है कि यहां कष्ट जैसे छू मंत्र ही हो जाते हैं। मान्यता है कि यहां के बाबा नींब करौरी को हनुमान की शक्तियां प्राप्त थीं। लोग इन्हें हनुमान का ही अवतार मानते थे। बेहद साधारण वेषभूषा वाले बाबा नींब करौरी हमेशा आडंबरों से दूर रहे। वे न तो मस्तक पर तिलक लगाते थे और न ही गले में कंठी या माला धारण करते थे। उनके शिष्य की लिस्ट विदेशों तक थी। मिली जानकारी के अनुसार फेसबुक निर्माता जुकरवर्ग भी इनके शिष्यों की लिस्ट में शामिल हैं। एक बार जीवन में कोई कष्ट आने पर जुकरवर्ग बाबा नींब करौरी की शरण में आए थे। बाबा जी अभिमान और दंभ से सदा दूर रहते थे। इसका पता इस बात से चलता है कि वह कभी किसी को अपने पांव नहीं छूने देते थे। हालांकि वह सबको फलदायी आशीर्वाद तो देते मगर अपने पांव नहीं छूने देते थे। यदि कोई इनके पैर छूने की कोशिश करता तो वह सदैव हनुमान के पांव छूने का आह्वान करते। मान्यता है कि उन्हें साक्षात हनुमान जी के दर्शन हुए थे। कहां है धाम स्थित : यह धाम नैनीताल से लगभग ६५ किलोमीटर दूर स्थित है। यहां ट्रेन, बस या अपने किसी अन्य व्हीकल के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। नैनीताल तो वैसे भी पर्यटन की दृष्टि से एक खूबसूरत स्थान है। ऐसे में यहां स्थित कैंची धाम पर्यटन के सौंदर्य के साथ आस्था के सागर में भी डिबो देता है। कैंची धाम को लेकर मान्यता है कि यहां आने वाला व्यक्ति कभी भी खाली हाथ वापस नहीं लौटता। यहां पर मांगी गई मनौती पूर्णतया फलदायी होती है। यही कारण है कि देश-विदेश से हज़ारों लोग यहां हनुमान जी का आशीर्वाद लेने आते हैं। आम आदमी से लेकर खरबपति तक हैं बाबा के शिष्य : बाबा के भक्तों में एक आम आदमी से लेकर अरबपति-खरबपति तक शामिल हैं। बाबा के इस पावन धाम में होने वाले नित-नये चमत्कारों को सुनकर दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के भक्त और जाने-माने लेखक रिचर्ड अल्बर्ट ने मिरेकल आफ लव नाम से बाबा पर पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बाबा नीब करौरी के चमत्कारों का विस्तार से वर्णन है। इनके अलावा हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया राबट्र्स, एप्पल के फाउंडर स्टीव जाब्स और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग जैसी बड़ी विदेशी हस्तियां बाबा के भक्त हैं। हर साल लगता है विशाल भंडारा : श्री हनुमान जी के अवतार माने जाने वाले बाबा के इस पावन धाम पर पूरे साल श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन हर साल १५ जून को यहां पर एक विशाल मेले व भंडारे का आयोजन होता है। यहां इस दिन इस पावन धाम में स्थापना दिवस मनाया जाता है। बाबा नीब करौरी ने इस आश्रम की स्थापना १९६४ में की थी। बाबा १९६१ में पहली बार यहां आए और उन्होंने अपने पुराने मित्र पूर्णानंद जी के साथ मिल कर यहां आश्रम बनाने का विचार किया था।
भारतवर्ष देवी-देवताओं की पावन स्थली है। यूं तो भारत के चप्पे-चप्पे पर धार्मिक स्थान हैं, मगर हिमाचल और उत्तराखंड को इसके लिए विशेष वरदान है। यही कारण है कि हिमाचल और उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। आइए आज उत्तराखंड कुमाऊं के अल्मोड़ा जिला में स्थित नंदा देवी मंदिर की यात्रा करते हैं। इस मंदिर में मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है। यह मंदिर समुद्रतल से 7816 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी मां नंदा को समर्पित है। चूंकि यहां मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है तो मां दुर्गा भगवान शंकर की पत्नी हैं। पर्वतीय आंचल में इसकी मुख्य देवी के रूप में आराधना की जाती है। नंदा देवी गढ़वाल के राजा दक्षप्रजापति की पुत्री हैं। अत: सभी कुमाऊंनी और गढ़वाली इस मां को पर्वतांचल की पुत्री मानते हैं। इस मां को बुराई की विनाशकारण माना जाता है। वहीं इसे कुमणू घुमंतू के रूप में भी माना जाता है। इसका इतिहास 1000 वर्ष से भी पुराना है। यह मंदिर शिव मंदिर की बाहरी ढलान पर स्थित है। इसका उल्लेख महापुराणों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। पत्थर का मुकुट है आकर्षण का केंद्र इस मंदिर में पत्थर का मुकुट और पत्थर से दीवार पर बनाई कलाकृतियां आकर्षण का केंद्र हैं। भविष्यपुराण में इसका महालक्ष्मी, नंदा, नंदा क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूंढस, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी के रूप में उल्लेख है। अल्मोड़ा स्थित नंदा देवी का मंदिर उत्तराखंड के प्रमुख मंदिरों में से एक है। कुमाऊं में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा देवी के मंदिर स्थित हैं। अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। हर साल भाद्र मास की अष्टमी को लगता है मेला नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास की अष्टमी को मेला लगता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमाएं कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊंची चोटी नंदादेवी के सदृश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चंदन, अक्षत एवं पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मु_ी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाए जाते हैं। सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुंवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते हंै। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलाएं भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन चला रहता है। अष्टमी की रात्रि को भी पूजन होता है। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा के रूप में निकाली जाती है।
जैसा कि नाम से विदित है कि मां जयंती पापों का नाश करती है और जीत का प्रतीक है। मान्यता है कि मनुष्य चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, अगर उसने मां के चरणों में शीश नवा लिया तो समझो सारे पाप नष्ट हो गए। इस मां का उल्लेख द्वापर युग में भी मिलता है। माना जाता है कि यह माता सती की छठी भुजा से उत्पन्न हुई है। गोरखा समुदाय की है कुलदेवी यह माता गोरखा समुदाय की कुलदेवी है और नेपाल में भी इसकी बहुत मान्यता है। बताया जाता है कि यह मां जीत की भी परिचायक है। स्थिति चाहे कितनी भी विकट क्यों न हो, सच्चे मन से आराधना करने पर मां उसकी विजय का रास्ता प्रशस्त करती है। बताया जाता है कि एक बार इंद्र को शक्तिशाली राक्षस ने घेर लिया। उसे लगने लगा कि अब उसकी हार निश्चित है। उसी समय उसने मां जयंती की आराधना की। मां ने तुरन्त चामुण्डा का रूप धारण करते हुए उसकी रक्षा कर जीत का रास्ता प्रशस्त किया। लंज-कांगड़ा रोड पर स्थित है माता का मंदिर अब बात करते हैं कांगड़ा जिला में स्थापित मां जयंती के मंदिर की। यह मंदिर लंज-कांगड़ा रोड पर स्थित है। कांगडा से इसकी दूरी शायद एक अनुमान के अनुसार 6 या 7 किलोमीटर के बीच हो सकती है। यह माता 500 फीट ऊंची पहाड़ी पर पर स्थित है। मंदिर बहुत प्राचीन है। ठीक से अनुमान नहीं है, मगर मान्यता है कि मां यहां द्वापर काल से ही विराजमान है। वनवासकाल में पांडव भी रुके थे यहां माना जाता है कि अपने वनवास काल के दौरान पांडव भी यहां रुके थे। यही कारण है कि यहां हर साल पंचभीष्म (गुप्त नवरात्र) मनाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में पंजभीखू भी कहा जाता है। इस हिसाब से मंदिर कितना प्राचीन है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस मंदिर के संबंध में एक चंडीगढ़ के माजरा में भी है मां का मंदिर किंवदंती भी प्रचलित है। एक बार एक राजा की कन्या थी। वह मां की आराधना करती थी। जब वह कन्या वर योग्य हुई तो राजा ने उसकी शादी रचा दी। सब रस्में संपूर्ण होने के बाद जब विदाई का समय हुआ, तो कहार उसकी डोली नहीं उठा सके। उन्होंने बहुत कोशिश की, मगर डोली नहीं हिल सकी। आखिर में उस कन्या ने बताया कि मैं मां की अनन्य भक्त हूं। मां मेरे स्वप्न में आई थी और कहा था कि मैं भी तेरे साथ जाना चाहती हूं। फिर एक पत्थर की मूर्ति को मां की मूर्ति से स्पर्श करवाया गया, तब जाकर उसकी डोली उठी। यह जगह चंडीगढ़ के जयंती माजरा नामक गांव में स्थित है, जहां मां का मंदिर बना हुआ है। इस तरह मां की आस्था बहुत ज्यादा है। यह सारी जानकारी रिसर्च की गई है। भूल-चूक के लिए क्षमा-याचना। अब बात करते हैं मां के चारों ओर के दृश्य की। 500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है मंदिर जैसा कि बताया गया कि मां का मंदिर 500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर पूरी तरह से प्रकृति की गोद में स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए थोड़ी सी चढ़ाई चढऩी पड़ती है। यहां दृशय बहुत ही विहंगम है। मंदिर के ठीक सामने कांगडा का ऐतिहासिक किला स्थापित है। मंदिर में पहुंचने पर असीम शांति का अनुभव होता है। इस मंदिर से सारा परिक्षेत्र नजर आता है। यूं कहिए की मंदिर में पहुंचने पर ऐसा लगता है जैसे हम प्रकृति की गोद में आ गए हों पक्षियों का चहचहाना एक अलग उल्लास भर देता है। पंचभीष्म में उमड़ते हैं भक्त, खट्टे का उठाते हैं आनंद कहीं-कहीं मोर की कूहक भी सुनाई देती है। यहां हर साल पंचभीष्म (गुप्त नवरात्र) जिन्हें स्थानीय भाषा में पंजभीखू कहा जाता है, में मेले लगते हैं। मेलों में आस्था का सैलाब उमड़ता है। सड़क से लेकर ऊपर तक भक्तों की कतार नजर आती है। इन्हीं मेलों में विभिन्न प्रकार की दुकानें सजती हैं। मगर इन मेलों में सबसे स्पैशल चीज यहां मिलने वाला खट्टा है, जिसे स्थानीय भाषा में त्रुंज या दुडुंज कहते हैं। यहां वाहनों के नाम भी जयंती माता के नाम पर रखे गए हैं, जिनमें जयंती ट्रांसपोर्ट भी एक नाम है। मंदिर के ठीक नीचे एक नदी भी बहती है। कुल-मिलाकर यह आस्था का स्थान तो है ही, साथ में प्रकृति को करीब से निहारने का एक सुअवसर भी है।
हिमाचल देव भूमि है। यहां चप्पे-चप्पे पर आस्था का सैलाब है। यही कारण है कि हिमाचल का ख्याल जहन में आते ही सबसे पहले मानसिक पटल पर देवी-देवताओं की तस्वीर घूमने लगती है और अनायास ही श्रद्धा हिलोरे मारने लगती है। हालांकि बहुत सारे ऐसे देव स्थल हैं जिन्हें अभी पहचान नहीं मिल पाई है, मगर यहां आस्था और चमत्कार भरपूर हैं। जरूरत है तो बस इनको पहचान दिलवाने की। आइए आज एक ऐसे ही धर्मशाला में चाय के बागानों में स्थित धार्मिक स्थल कुनाल पत्थरी के बारे में जानते हैं। कुनाल पत्थर से हुआ नामकरण.......... हालांकि इस मंदिर का नाम कपालेश्वर भी है मगर यह मंदिर ज्यादातर कुनाल पत्थरी के नाम से ही विख्यात है। इसका कारण यह है कि मां के कपाल के ऊपर एक बड़ा सा पत्थर कुनाल की तरह विराजमान है। यही कारण है कि यह मंदिर कुनाल पत्थरी के नाम से विख्यात हो गया। सत्ती का गिरा था यहां कपाल............ यह मंदिर भी 51 शक्तिपीठों में से एक है। बताया जाता है कि पिता की ओर से शिव के अपमान से मां सत्ती इतनी कुपित हो गई कि राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में कूद कर अपनी जान दे दी। तब क्रोधित शिव सत्ती की पावन देह को लेकर सारी सृष्टि में घूमे। इस पर भगवान विष्णू ने शिव का क्रोध शांत करने के लिए सत्ती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस प्रक्रिया के तहत जहां भी सत्ती के पावन शरीर के अंग गिरे वहीं शक्तिपीठ स्थापित हो गए। ऐसा माना जाता है कि यहां मां सत्ती का कपाल गिरा था और यहां मां के कपाल की पूजा होती है। मां के कपाल के ऊपर स्थित कुनाल सदैव पानी से भरा रहता है और यही भक्तों की आस्था का केंद्र भी है। कुनाल में भरे पानी को भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है और उनकी सुख-स्मृद्धि की कामना की जाती है। कुनाल पत्थरी नाम के पीछे भी एक कहानी है कि इस पत्थर का आकार आटा गूथने वाले बर्तन परात के जैसा है। परात को पहाड़ की कांगड़ी बोली में कुनाल कहा जाता है। इस कुन्ड़ ने नीचे देवी की पिन्ड़ी रुपी शिला है। इस कुन्ड़ में हर समय पानी भरा रहता है। इस पानी में कोई कीड़ा या जाला नहीं लगता है। इस मन्दिर में रात्रि विश्राम हेतू सराय और धर्मशाला भी बनायी गयी है। यह मन्दिर ज्वालामुखी, बज्रेश्वरी, चामुन्ड़ा, भागसूनाग, अघंजर महादेव (मैंने नहीं देखा), तपोवन आदि मन्दिरों की परिक्रमा में आता है। पयर्टन की दृष्टि से भी है विहंगम स्थल यहां आस्था ही नहीं बल्कि पर्यटन भी अपने चरम पर है। धर्मशाला से ठीक तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर चाय के बागानों अपनी मनोरम छटा लिए हुए है। यहां आकर हर कोई एक आनंद की दुनिया में खो जाता है। क्योंकि चारों हरियाली ही हरियाली दिखती है। चाय के बागान ऐसे लगते हैं जैसे मानों हरियाली और आस्था में एक वृहद तारतम्य हो। जहां भी नजर डालो एक विहंगम परिदृश्य नजर आता है। हर आगंतुक को यहां आकर मानसिक सुकून मिलता है। यही कारण है कि यहां विदेशी पर्यटक भी अकसर आते रहते हैं। वहीं मान्यता है कि यहां आने वाले हर भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। नवरात्रों में लगती है भक्तों की भीड़ नवरात्र में इस मंदिर में भक्तों की भीड़ जुटती है और सारा वातावरण धार्मिक हो जाता है। हालांकि यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है, फिर इस मंदिर को इतनी पहचान नहीं मिल पाई है। इस मंदिर को धार्मिक पर्यटन के रूप में उभारा जाना चाहिए। इससे प्रदेश का भी गौरव बढ़ेगा वहीं ऐसा करने से दूर-दराज के पर्यटक भी आएंगे, जिससे प्रदेश की आर्थिकी को संबल मिलेगा। हिमाचल में अभी ऐसे कई धार्मिक स्थान हैं जिन को अभी पहचान की जरूरत है। फस्र्ट वर्डिक्ट का यही मकसद है कि ऐसे धार्मिक स्थानों को पहचान दिलवाई जाए जो भरपूर आस्था से लबालब हैं। जरूरत बस उन्हें उभारने की है। कैसे पहुंचे मंदिर यह धार्मिक मंदिर कांगड़ा से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, वहीं धर्मशाला से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पठानकोट-जोगिंद्र रेलमार्ग का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।इसके कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। वहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त वायुमार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, जिसके लिए गग्गल एयरपोर्ट पर उतरना पड़ेगा, जहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसी तरह इस मंंदिर में अन्य वाहनों के माध्यम से भी पहुंचा जा सकता है। दूर-दराज के लोग रात को धर्मशाला में ठहर सकते हैं, क्योंकि यहां रात्रि ठहराव के लिए होटलों की समुचित व्यवस्था है। वहीं यहां आने पर भक्त अन्य धार्मिक स्थलों और पर्यटन स्थलों का भी दीदार कर सकते हैं। चूंकि कांगड़ा एक धार्मिक स्थान है तो यहां अन्य मंदिर जैसे बज्रेश्वरी, चामुंडा, भागसूनाग, जयंती माता, कालका माता और अन्य धार्मिक स्थल भी हैं।