Dr. Rajesh Kashyap Professor of Medicine, MMU, Solan Senior Leader, BJP Solan In the recent past, there have been many scams in the recruitment of people to various jobs in the state and central services. These scams are given widespread publication in newspapers. For a few months it remains the talk of the town and then finally fades out over a period of time. Government responds just by CBI and police inquiries and finally, the cases are forgotten and closed. However, the pain and anguish of the young aspirants remain unanswered. No one has gone into the depth of the matter as to why these scams occur and reoccur. We have moved from machines to computers in the past few decades and from press-printed subjective papers to MCQs. Earlier when subjective papers were in use, there were fewer incidences of paper leakage. To answer in subjective form, the entrant or examinee still has to use his brain to write down the answers. It takes time and effort on the part of the aspirant. However, in the ’80s the format of the examination changed to MCQs. It was easy to evaluate and a large number of people could beexamined in one go. It is here that the corruption began in entrance and other examinations. People were given OMR sheets and now the total frisking is done to the extent that in one of the examinations, the entrants were asked to take down their jackets and boots in the height of winter. Still, the malpractice is continuing and new methods of cheating are being invented. It was shocking to know that a lady superintendent of the secrecy branch was involved in these malpractices herself. Is it justifiable to continue with the MCQ pattern or do we need to restructure our entrance examination into an examination for a university, school, or a salaried employment exam? In medical teaching just before entrance into medical college, dissection of frogs, cockroaches, and earthworms was carried out, and only those students could pursue medicine who generated interest in such types of practical activities. In the non-medical field, calculus, and trigonometry were the exposing parameters. The field of art demanded a flair for poetry and precise writing. Only those students who worked hard and were close to perfection in their subjects were selected for further courses. Similarly, entrance into the government services was based on university merit and this was no question of MCQ only viva. In some cases, the written paper was there since the number of seats are less and applicants are in lakhs MCQ became the method of choice for the selection of candidates to universities and services. This brought with it all an aorta of corruption. Though it is still preferred as a method of selection and screening of the candidates but cannot be a method for the final approval of the candidates. As there is no psychological testing, it only tests the cramming ability, not memory, intellect, and other cognitive functions of the brain in the real sense. To prevent corruption in appointments, clubbing of both methods should be done in government services. This can be time-consuming and costly but the pain of those aspirants will be reduced as it will be a better method by many parameters.Based on the pedagogy, both the above-mentioned methods have their advantages and disadvantages but the subjective form of answering has been found to be relatively better in the present scenario of a corrupt and mechanized society. Definitely, the written, subjective assessment assesses the thinking and articulation of that thought. The scientific superstition that anything passing through a computer is superior to the “volatile” human intellect is no more acceptable. The MCQ exam has really weakened India’s ability to think critically and creatively. Educationists and administrators must come forward to develop a practical solution to weed out corruption in all its forms from the entrance examinations. Note : The opinions expressed in the article are of the writer.
रचना झीना शर्मा ( ये लेखिका के निजी विचार है ) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 5 अक्टूबर को हिमाचल प्रदेश का दौरे पर रहे, यह दौरा अनेक मायनों में यादगार हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विशेष लगाव हिमाचल के साथ झलकता है और हर बार मोदी इस लगाव को प्रकट भी करते है। इस बार चुनाव से पहले यह अहम दौरा था, मंडी में पीएम आ नही पाए थे तो बिलासपुर में उस कमी को पूरा करने का काम पीएम ने बखूबी किया। पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि वो हिमाचल के बेटे है, हिमाचल की रोटी खाई है तो विकास के काम भी हिमाचल में करेंगे। पीएम का यह कहना अपने आप मे हिमाचल के लिए गर्वपूर्ण विषय है। हिमाचल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक कर्म भूमि रहा है। बतौर प्रदेश प्रभारी उन्होंने हिमाचल को संगठनात्मक मजबूती देने का काम किया,और सफलता के साथ नरेंद्र मोदी गुजरात से ऐसे आगे बढ़े कि उन्होंने बाबा विश्वनाथ के कांशी का स्नेह पा लिया, लेकिन हिमाचल की देवभूमि से उनका नाता बढ़ता ही गया। हिमाचल को उन्होंने अपने करीब रखा है, विकास व नेतृत्व दोनों में हिमाचल को आगे बढ़ाया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिमाचल आकर यहाँ प्रदेश को विकास के रंग में रंगा, वहीं खुद पीएम मोदी देवभूमि के देव रंग में रंग गए। यह दौरा एतिहासिक रहा, पीएम ने हर व्यक्ति से खुद को जोड़ने का काम किया। वही प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व की फिर मंच से खुलकर तारीफ की, उनकी सरकार के काम को सराहा,नेतृत्व को सराहा। पीएम ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की पीठ को थपथपा कर प्रदेश में उनके नेतृत्व को आगे बढ़ाया, तो वही भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के प्रति अपने स्नेह को दिखाया। नड्डा को पार्टी के अध्यक्ष के साथ अपना मार्गदर्शक कहकर संम्बोधित कर उनके कद को ऊंचा करने काम उनके ही प्रदेश में किया। वही कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर को भी मंच से सम्मान दिया। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का भी ज़िक्र कर धुमल को भी सम्मान दिया। प्रधानमंत्री ने हिमाचल के नेतृत्व व जनता दोनों को साधने के काम किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दौरा सफलता के साथ प्रदेश को वो सौगात दे गया जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। प्रधानमंत्री ने कुल्लू के दशहरे से नया इतिहास जोड़ दिया। पीएम मोदी ने यहा दशहरे में अपनी हाज़री लगाई, वही श्री रघुनाथ जी का आशीर्वाद भी लिया। वे देश के पहले पीएम है जिन्हें रघुनाथ जी आशीर्वाद भी लिया। विश्वभर में प्रधानमंत्री के कारण कुल्लू दशहरे का ओर अधिक विश्व भर में प्रचार हो गया, जिसका लाभ पर्यटन में भी होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दिन में 3,650 करोड़ रुपये से अधिक की परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। जिन परियोजनाओं का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन व शिलान्यास किया, यह हिमाचल प्रदेश की तकदीर व तस्वीर को बदलेंगे। स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक बड़ा संस्थान जिसकी कभी कल्पना नहीं की जा सकती वह मिला है,जो हिमाचल ही नहीं बल्कि पंजाब ,हरियाणा व उत्तराखंड को भी लाभ देगा। बड़ी बात यह है कि इसमें आयुष्मान कार्ड भी चलेंगे और हिम केयर कार्ड को भी अनुमति दे दी गई है, इससे गरीब अपना इलाज करवा पाएगा। एम्स बिलासपुर एम्स बिलासपुर के उद्घाटन के माध्यम से देश भर में स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के लिए प्रधानमंत्री के दृष्टिकोण और संकल्प को फिर से प्रदर्शित किया। प्रधानमंत्री ने अक्टूबर 2017 में इसका शिलान्यास भी किया था। केंद्रीय क्षेत्र की योजना- प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत इसे स्थापित किया गया है। एम्स बिलासपुर, 1,470 करोड़ रुपये से अधिक की लागत से निर्मित है। इस अत्याधुनिक अस्पताल में 18 स्पेशियलिटी और 17 सुपर स्पेशियलिटी विभाग, 18 मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर, 64 आईसीयू बेड के साथ 750 बेड शामिल है। यह अस्पताल 247 एकड़ में फैला है। यह 24 घंटे आपातकालीन और डायलिसिस सुविधाओं, अल्ट्रासोनोग्राफी, सीटी स्कैन, एमआरआई आदि जैसी आधुनिक डायग्नोस्टिक मशीनों, अमृत फार्मेसी व जन औषधि केंद्र और 30 बिस्तरों वाले आयुष ब्लॉक से सुसज्जित है। अस्पताल ने हिमाचल प्रदेश के जनजातीय और दुर्गम जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए डिजिटल स्वास्थ्य केंद्र भी स्थापित किया है। साथ ही, काजा, सलूनी और केलांग जैसे दुर्गम जनजातीय और अधिक ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से अस्पताल द्वारा विशेषज्ञों द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जाएंगी। इस अस्पताल में हर साल एमबीबीएस कोर्स के लिए 100 छात्रों और नर्सिंग कोर्स के लिए 60 छात्रों को प्रवेश दिया जाएगा। विकास परियोजनाएं प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राजमार्ग-105 पर पिंजौर से नालागढ़ तक करीब 31 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग को चार लेन का बनाने की परियोजना की आधारशिला रखी, जिसकी लागत करीब 1690 करोड़ रुपये है। यह सड़क परियोजना अंबाला, चंडीगढ़, पंचकूला और सोलन व शिमला से बिलासपुर, मंडी और मनाली की ओर जाने वाले यातायात के लिए एक प्रमुख संपर्क लिंक है। चार लेन के इस राष्ट्रीय राजमार्ग का लगभग 18 किमी का हिस्सा हिमाचल प्रदेश के अंतर्गत आता है और शेष भाग हरियाणा में पड़ता है। यह राजमार्ग हिमाचल प्रदेश के औद्योगिक केंद्र नालागढ़-बद्दी में बेहतर परिवहन सुविधा सुनिश्चित करेगा और क्षेत्र में औद्योगिक विकास को भी गति देगा। इससे राज्य में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। मेडिकल डिवाइस पार्क प्रधानमंत्री नालागढ़ में करीब 350 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले मेडिकल डिवाइस पार्क की आधारशिला रखी। इस मेडिकल डिवाइस पार्क में उद्योग स्थापित करने के लिए 800 करोड़ रुपये से अधिक के समझौता ज्ञापन पर पहले ही हस्ताक्षर किए जा चुके हैं। इस परियोजना से क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। हाइड्रो इंजीनियरिंग कॉलेज का भी उद्घाटन प्रधानमंत्री बंदला में गवर्नमेंट हाइड्रो इंजीनियरिंग कॉलेज का भी उद्घाटन किया। इस पर लगभग 140 करोड़ रुपये का व्यय हुआ। इस कॉलेज से पनबिजली परियोजनाओं के लिए प्रशिक्षित कामगार उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी। हिमाचल प्रदेश इस क्षेत्र में अग्रणी राज्यों में से एक है। इससे युवाओं के कौशल को बढ़ाने और पनबिजली क्षेत्र में रोजगार के पर्याप्त अवसर प्रदान करने में मदद मिलेगी। कुल्लू दशहरा अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा महोत्सव 11 अक्टूबर, 2022 तक कुल्लू के ढालपुर मैदान में मनाया जाएगा। इसके पहले दिन 5 अक्टूबर को शुभारंभ पर पीएम नरेंद्र मोदी खुद पहुँचे। यह महोत्सव इस मायने में अनूठा है कि इसमें घाटी के 300 से अधिक देवी-देवताओं का समावेश होता है। महोत्सव के पहले दिन, देवता अपनी अच्छी तरह से सुसज्जित पालकियों में अधिष्ठाता देव भगवान रघुनाथ जी के मंदिर में अपनी श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं और फिर ढालपुर मैदान के लिए आगे बढ़ते हैं। ऐतिहासिक कुल्लू दशहरा समारोह में प्रधानमंत्री इस दिव्य रथ यात्रा और देवताओं की भव्य सभा के साक्षी बनें। यह पहली बार हुआ जब देश के प्रधानमंत्री कुल्लू दशहरा समारोह में भाग लिया। बार बार आये पीएम, स्वागत है हम यह कह सकते हैं कि हिमाचलवासी होने के नाते हम सब को यह सम्मान है कि देश के प्रधानमंत्री हिमाचल को अपना दूसरा घर मानते हैं और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से हिमाचल में जोश भरने का काम किया, यह निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी के लिए जहां संजीवनी बनेगा। वहीं हिमाचल प्रदेश के नेतृत्व के जोश व उत्साह को भी आगे बढ़ाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदलने में सहायक होंगे, यह अपने आप में बड़ी बात है। हिमाचल प्रदेश के लिए डबल इंजन की सरकार हिमाचल प्रदेश को लगातार शिखर की ओर ले जाने का प्रयास कर रही है ।प्रधानमंत्री लगातार देवभूमि में आते रहे उनका बार-बार स्वागत है।
* रचना झीना शर्मा (लेखिका कसुम्पटी मंडल भाजपा की उपाध्यक्ष है ओर खुद त्रिदेव के रूप सम्मेलन में शामिल रही है। ) * ये लेखिका के स्वतंत्र विचार है। भारतीय जनता पार्टी विश्व की इस समय सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बनी है, पार्टी में करोड़ों की संख्या में कार्यकर्ता जुड़े हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी ने 1980 में अपनी यात्रा को देश की राजनीति में शुरू किया। हालांकि वैचारिक रूप से बहुत पहले से जनसंघ के रूप में कार्य होता रहा और इसे नया रूप में भारतीय जनता पार्टी के रूप में मिला। भाजपा शुरू से ही पार्टी विद डिफरेंस है। पार्टी ने कार्यकर्ता, कार्यक्रम व जनसेवा को महत्व दिया, चाहे उस समय विस्तार अधिक नहीं हुआ था, बावजूद इसके विचारधारा के बल पर पार्टी ने देश की सेवा के भाव से कार्य करते हुए अपने संगठन को आगे बढ़ाने का काम किया। भारतीय जनता पार्टी का संगठन लगातार पसीना बहाते हुए, खून देते हुए आगे बढ़ता गया। विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए कर्मठता के साथ कार्यकर्ता को खड़ा करते हुए काम किया गया। दो सांसदों की पार्टी से पूर्ण बहुमत की लगातार बनने वाली सरकार का सपना साकार किया। वर्तमान में देश को विकास के मॉडल पर आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मजबूत यशस्वी नेतृत्व के बल पर विचारधारा को और अधिक प्रखर करते हुए भाजपा विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है। भारतीय जनता पार्टी ने सदैव कार्यकर्ता कार्यक्रम की चिंता की, इसीलिए हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने त्रिदेव की परिकल्पना की। यह अपने आप में संगठन की बेजोड़ शैली है, जिसने कार्यकर्ता को कर्मठता के साथ संगठन की डोर के साथ जोड़कर आगे बढ़ाने का काम किया। हिमाचल के संगठन ने जिस प्रकार से त्रिदेव ,पन्ना प्रमुख व ग्राम केंद्र की संरचना को मजबूती के साथ लागू किया, उसकी प्रशंसा देश का नेतृत्व करता है और यह हिमाचल का मॉडल देश के अन्य राज्यों में भी अपनाया गया। हिमाचल भाजपा के संगठन मंत्री पवन राणा की कर्मठ मेहनत के परिणाम स्वरूप यह मॉडल हिमाचल की पहचान बन गया। वर्तमान में पार्टी संगठन व सरकार के तालमेल के चलते लगातार सक्रिय रहकर कार्यकर्ता मेहनत कर आगे बढ़ रहा है और पार्टी के कार्यक्रमों के माध्यम से केंद्र व प्रदेश की योजनाओं को जनता तक पहुंचाने का काम किया जा रहा है।संग़ठन मंत्री पवन राणा ने अनुशासन के साथ व्यवस्थित सम्मेलन करवाएं जिनकी जितनी प्रशंसा हो कम है। त्रिदेव सम्मेलन बड़ी शक्ति के साथ किए गए हैं, इसके पीछे बहुत बड़ी मेहनत है जिसने यह सफलता दिलाई है। यह सम्मेलन हिमाचल प्रदेश के चारों संसदीय क्षेत्रों में सफलता के साथ हुए और केंद्रीय नेतृत्व ने इसमें भाग लिया और कार्यकर्ताओं का केंद्र व प्रदेश की नीतियों को लेकर के मार्गदर्शन किया। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने प्रदेश सरकार की नीतियों को लेकर गहराई से बात रखी, समाज कल्याण व सामाजिक सुरक्षा के भाव के साथ हर वर्ग के लिए 72 के करीब नीतियां इस सरकार ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के मार्गदर्शन में बनाई है, जिन्हें जमीनी स्तर पर लागू किया गया है और उनका लाभ जरूरतमंद लोगों तक पहुंच रहा है। पेंशन, हिमकेयर, सहारा ,शगुन योजना, गृहणी योजना, टोल टैक्स माफ ,खेत, पानी,सड़क, स्वास्थय, शिक्षा, गाँव ,शहर,गाय संरक्षण ,पर्यटन सहित हर क्षेत्र में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर में लगातार सक्रिय रहकर काम किया जा रहा है। कर्मचारियों को भी उनके हक दिए जा रहे है। कोरोना काल में भी लोगों को राहत पहुंचाने का काम सक्रियता से किया गया। यह अपने आप में प्रदेश सरकार के नेतृत्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की खूबी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसकी सराहना कर चुके है। उसी का परििणाम है कि प्रदेश में मजबूत नेतृत्व, दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ सरकार मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व में काम कर रहा है। त्रिदेव सम्मेलन में कार्यकर्ता की भूमिका को लेकर जिस प्रकार से नींव रखी गई, निश्चित रूप से यह भाजपा का ही संगठन है जिसमें इस प्रकार की परिकल्पना करते हुए कार्यकर्ता को मान सम्मान देते हुए आगे बढ़ाया जा रहा है। प्रदेश में सत्ता नहीं रिवाज बदलेगा, यह संकल्प भाजपा कार्यकर्ता ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व में लिया है, भाजपा का संगठन इसके लिए कर्मठता से काम कर रहा है। निश्चित रूप से भाजपा परिवार के मुखिया राज्य अध्यक्ष सुरेश कश्यप जी का कुशल नेतृत्व मिला है और इसी के साथ सभी पदाधिकारियों ने जिम्मेदारी के साथ अपना काम किया है। यह त्रिदेव सम्मेलन बेहद सफल रहे, कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भरने वाले रहे और प्रदेश में भाजपा के संगठन को और मजबूती देने वाले रहे हैं। निश्चित रूप से आने वाले समय में विस के चुनाव आने हैं ,ऐसे में यह सम्मेलन अपने आप में बड़ी भागीदारी सुनिश्चित करते हुए कार्यकर्ताओं को चुनावों के लिए भी तैयार कर गए हैं।
स्वतंत्र विचार : डॉ मामराज पुंडीर, पूर्व विशेष कार्य अधिकारी अध्यक्ष सिरमौर कल्याण समिति प्रान्त महामंत्री हिमाचल प्रदेश शिक्षक महासंघ आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर पूरा देश अमृत महोत्सव का उत्सव मना रहा है। ऐसे में उन लोगों को नमन करने का वक्त आ गया है जिन्होंने देश को गुलामी की जंजीरों को तोड़ने और खुले आसमान में साँस लेने के लिए अपने देशवासियों के लिए प्राण तक दे दिए। विश्व के सबसे लोकप्रिय नेता और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश आज विश्व को पछाड़ने में लगा है और इसमें कोई दो राय नहीं कि आज विश्व में भारत की साख बनी है। जब हिंदुस्तान आगे बढ़ रहा है, इसका मतलब सीधा सा है कि हिंदुस्तान का हर क्षेत्र, गाँव, कस्बा , शहर, इंसान तरक्की कर रहा है। यदि यह बात सही है तो आज हिंदुस्तान का हर गाँव, हर शहर, हर कस्बा, आगे बढ़ रहा होगा। आज मैं समाज के कुछ ऐसे पहलुओ को छूना चाहूँगा जो शायद समाज के कुछ लोगों को पीड़ा दे सकते है। में बाटुंगा की किस प्रकार राजनेताओं ने सिर्फ वोट बैंक के लिए एक समुदाय का उपयोग किया। मेरा अपना मत हमेशा से समाज में हो रहे आरक्षण के खिलाफ रहा है क्यूंकि आरक्षण की आड़ में जो भारत के संविधान निर्माता डॉ भीम राव अंबेडकर को भी सशय था, कि समाज में एक ऐसी खाई पैदा हो जाएगी जो आने वाले समय में समाज को बांटने का काम करेगी, इसलिए समाज में आरक्षण की शुरुआत सिर्फ 10 सालो तक कुछ समाज में पिछड़ी जातियों के लिए की गयी थी। परंतु आज सिर्फ 10 साल नही 100 साल भी पूरे हो जाएंगे लेकिन आरक्षण में राजनीति होती रहेगी और जिन पिछड़ो के लिए यह आरक्षण शुरू किया गया था वह आज इससे कोसो दूर है। समाज में कई ऐसे उदाहरण है जो आरक्षण का फायदा उठा कर एक ही परिवार से चार चार आईएएस बन गए परंतु वह गरीब, पिछड़ा आज भी अपनी बारी का इंतजार करता रह गया। सरकार ने कुछ साल पहले क्रीमी लेयर की बात कही थी परंतु कुछ ऊंचे पदों पर बैठे आरक्षण समर्थित लोगों ने इसको लागू ना होने देने के लिए दिन रात एक कर दिया। इस मुद्दे को उठाना मेरा आज का मकसद नही, कभी और चर्चा करेंगे, मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि यदि आरक्षण जरूरी है तो किसको। यह सवाल मैंने जब से हौश संभाला है तब से अपने आप से पूछ रहा हूँ, और यही सवाल पूछ रही थी हिमाचल प्रदेश के सबसे पिछड़े तबके और क्षेत्र के हाटी समुदाय की जनता। यदि समाज में आरक्षण जरूरी है तो किसको। सिरमौर की पिछड़ी जनता अपने उस मसीहा को ढूंढ रही है जो उनको उनका हक दिलवाए। आज मैं आप सभी का ध्यान हिमाचल प्रदेश को देश और विश्व के मानचित्र पर पहचान दिलाने वाले और हिमाचल निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार के जन्मस्थान की तरफ दिलाना चाहूँगा। कहते है कि डॉ परमार ने प्रदेश की जनता के लिए बहुत कुछ किया और हिमाचल प्रदेश को एक नई पहचान दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, सिर्फ छौड़ गए तो अपने सिरमौर वासियो को जिनको आज हिमाचल प्रदेश के कोने कोने में मजदूरी करने के लिए जाना पड़ता है। आखिर हिमचल प्रदेश के हाटी समुदाए को मलाल क्या है उस पर प्रकाश डालने कि कोशिश करते है। कुछ साल पहले तक उत्तर प्रदेश का हिस्सा होने वाला जौनसार बाबर जो आज उत्तराखंड की राजधानी देहारादून का पिछड़ा क्षेत्र है और सिरमौर जिल्ले का गिरिपार का क्षेत्र किसी जमाने में सिरमौर की रियासत का हिस्सा था । जिसका कार्ये “कोटी” नामक स्थान से देखा जाता था। लोगो का रहन -सहन, खान- पान, शादी विवाह , रस्मों रिवाज, और संस्कृति की झलकियां मिलती-जुलती थी और आज भी जोनसार- बाबर और ट्रांसगिरी यानि गिरिपार यानि हाटी समुदाए की रिश्तेदारी आपस में होती है। बस फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि जब 1964-65 जो सर्वेक्षण हुआ उसके तहत 1968 टोंस नदी आधार मान कर जोनसार बाबर को जनजाति क्षेत्र घोषित कर दिया गया और सिरमौर के हाटी समुदाय की रिपोर्ट जिसे 1979 में केंद्र को भेजी थी। जिसमे साफ साफ लिखा गया था इस समुदाए और क्षेत्र को क़बायली क्षेत्र घोषित करने की जो शर्ते जरूरी है वह सभी शर्ते पूरी है। हम आजादी की 75वीं साल गिराह मनाने जा रहे है परंतु आज तक सिर्फ हाटी समुदाए की फाइल बनती गई और दबती गई। आखिर हम हाटी क्षेत्र के लोग इस जनजाति दर्जे की मांग क्यो कर रहे है। इस पर प्रकाश डालने के सिवाए हमारे पास कोई चारा नही। हाल ही में प्रदेश के एक अखबार ने हिमाचल प्रदेश के गिरिपार क्षेत्र की कुछ कुरुतियों को प्रमुखता से उठाया, चाहे जाने अनजाने में उस खबर की सत्यता सिर्फ कुछ ही हो , परंतु धुंए वही उठता है जहां आग होती है। मैंने उस खबर की सत्यता पर कडा संज्ञान लिया। एक बहुत ही इंग्लिश चैनल सीएनएन -आईबीएन ने कुछ वर्ष पहले हाटी समुदाए की पोलिएंडरी प्रथा पर एक डॉक्युमेंट्री तैयार की और उसे अपने चेनलों में प्रमुख्य से उठाया। 31.08.2002 को देश के एक समाननीय चेनल ज़ी न्यूज़ ने अपनी एक डॉक्युमेंट्री में साफ साफ दर्शाया गया था कि सिरमौर जिले के खास तौर से जितना भी गिरि पार क्षेत्र आता है वहां आज भी पोलिएंडरी और पोलिगामी जैसी कुरित्या मौजूद है और उसके कई कारणों को निचोड़ कर यदि देखा जाए तो सबसे बड़ा कारण आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा ही माना जाता रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के कारण आज लोगों को इस क्षेत्र से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है और नाहन, सोलन, शिमला के बस स्टैंड पर अपनी आजीविका चलाने के लिए विवश होना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को उठाने के लिए हिमाचल से कोई नेता नहीं मिला। हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष माननीय प्रेम कुमार धूमल जी ने 1991 में जब लोकसभा हमीरपुर से सांसद थे उन्होंने इस मुद्दे को देश की सबसे बड़ी पंचायत में उठाया। परंतु जब 2002 में इस विधेयक को विधानसभा में पारित करना था तो हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर के पांचों विधायक विधानसभा से वॉकआउट कर गए। उसके बाद डॉ धनी राम शांडील ने इस मुद्दे को उठाने का प्रयास किया। परंतु हाटीयों का मसीहा कौन होगा, यह प्रश्न आज भी हाटी समुदाए के लोगों के लिए गर्दिश के पन्नो में शामिल था। हाटी क्षेत्र के भोले भले लोगो को यह बात जरूर सता रही होगी कि किन्नौर को जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए पूर्व आईएएस और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष स्वर्गीय श्री टीसी नेगी जी वहाँ के मसीहा बने। गद्दी समुदाए को उनका हक़ दिलाना मैं श्री शांता कुमार जी पूर्व मुख्यमंत्री उनके मसीहा बने। परंतु हाटी समुदाय का मसीहा कौन बनेगा यह अतीत का प्रश्न था। सिरमौर जिले का यह पिछड़ा क्षेत्र शिमला संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आता है और ऐसे में इस क्षेत्र के लोकसभा सांसद और विधायक की जिम्मेवारी दुगनी हो जाती है। इस पिछड़े क्षेत्र में जो तहसीले आती है उसमे पावंटा साहिब का कुछ क्षेत्र, तहसील कमरौउ, तहसील शिल्लाई, तहसील रेणुका, संघडाह आदि क्षेत्र आते है। ऐसा नहीं कि इस क्षेत्र से कोई बड़ा नेता नहीं रहा हो। परन्तु इस मसले को अमली जामा पहुचाने का मादा किसी में नहीं था यह एक कड़वी सच्चाई भी है। और एक सच्चाई यह भी है कि ज़्यादातर राज इस क्षेत्र पर, हिमाचल और केंद्र में देश कि सबसे पुरानी पार्टी काँग्रेस ने ही किया है। हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और हिमाचल प्रदेश के निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार भी (1952 से जनवरी 1977) इसी क्षेत्र से चुन कर विधानसभा पहुंचे। 1952 से आज तक जब भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए लोगों ने अपने प्रतिनिधि इस उम्मीद से चुने की उनको भी न्याय मिलेगा। 1962 से 1977 तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधि करने का मौका सांसद प्रताप सिंह (काँग्रेस) को मिला। 1977 से 1980 तक श्री बालक राम (जनता दल) से सांसद रहे , 1980 से 1999 तक जिस प्रकार हिमाचल में वर्तमान मुख्यमंत्री माननीय वीरभद्र सिंह को ज़्यादा मौकों पर सता दी वही इस पिछड़े क्षेत्र ने भी अपने सांसद के रूप मे स्व श्री के डी सुल्तान पूरी को देश की सबसे बड़ी पंचायत में चुन कर भेजा। परंतु प्रदेश की भोली भली जनता के हाथ सिर्फ आश्वास्न लगे। न राजा का साथ मिला नही उनके बजीर का। लोगों को वोट बैंक की तरह उपयोग किया गया। इसी प्रकार देश और प्रदेश के प्रथम चुनाव के बाद भी इस चुनाव क्षेत्र पर काँग्रेस का दबदबा रहा, जिसमें मुख्यमंत्री से लेकर कई कैबिनेट मंत्री तक नेता चुन कर जाते परंतु चुन कर जाने के बाद नेता मस्त और जनता प्रस्त हो जाती। पूर्व में शिमला संसदीय क्षेत्र की कमान एक जुझारू सांसद श्री वीरेंद्र कश्यप के हाथों रही और उन्होंने समय-समय पर हाटी समुदाय की आवाज़ को लोकसभा में उठाया, और उनके प्रयासों से इस मुदे को नई संजीवनी मिली है। हिमाचल में माननीय धूमल जी के नेतृत्व में काम कर रही थी उन्होने हाटी समुदाय का एक प्रतिनिधिमण्डल तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन से मिलाया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि हिमाचल में इस समुदाय पर एक अलग से सर्वे किया गया जिसका जिम्मा हिमाचल प्रदेश विश्वविधायल में प्रोफेसर को दिया गया। और वह रिपोर्ट आज राज्य सरकार ने केंद्र को भी सौंप दी है। परंतु रिपोर्ट को फिर राजनीति की अंगेठी में जलना पड़ेगा। क्यूंकि इस पिछड़े क्षेत्र कि कुछ 19 पंचायतों को इससे बाहर रख दिया है। और हैरानी तब होती है जब सता पक्ष के लोग इस पर प्रशन उठाते रहे और राजनीति करते रहे । जब रिपोर्ट बन रही थी तब शायद सता के नशे में कहीं खोये होंगे। प्रश्न साफ था क्या सांसद वीरेंद्र कश्यप बनेगे , हाटी समुदाए के मसीहा। पिछले कुछ दिन पहले माननीय सांसद श्री वीरेंद्र कश्यप के नेतृत्व में शिल्लाई के युवा विधायक श्री बलदेव तोमर और पच्छाद के युवा विधायक श्री सुरेश कश्यप, हाटी समुदाय के सदस्य श्री कुन्दन सिंह शास्त्री आदि का एक परतिनिधिमंडल देश के प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, हिमाचल के स्वास्थ्य मंत्री, जनजाति मामलों के मंत्री से दिल्ली में जाकर मिले और इस मुद्दे को विस्तार से उठाया। हाल ही में मुझे हाटी समुदाय कि एक बैठक में माननीय सांसद से मिलने और चर्चा करने का मौका मिला। और उनकी पीड़ा साफ नजर आती है। क्यूंकि अभी पिछले 2 सालों मैं कई बार इस मामले को लोकसभा में उठा चुके है। प्रश्न यही उठता है कि क्या हाटी समुदाए को उनका हक दिल्लाने में जिस जान से सांसद और उनकी टीम लगी हुई है । क्या देश के यशस्वी प्रधानमंत्री देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र को उनका हक देने में सहयोग करेंगे या फिर हर साल कि तरह सिर्फ चुनावी घोषणा पत्र बन कर रह जाएगा। आज़ाद देश में प्रधानमंत्री का नारा है कि सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास। जहाँ पूरा देश अमृत महोत्सव मनाने का कार्यक्रम बना रहे है इस फैसले से देश का सबसे पिछड़ा क्षेत्र गिरी पार को मुख्य धारा में आने का एक सुअवसर प्राप्त होगा। अंत में कुछ शब्दों के साथ जहाँ प्रदेश में यशवंत सिंह परमार जी का नेतृत्व मिला, वही कई वर्षो तक सता में रहने वाले वीरभद्र सिंह का सानिध्य भी प्रदेश को मिला। उसके बाद शांता जी का युग आया और धूमल जी ने भी प्रदेश को नेतृत्व दिया तथा हाटियों की आवाज हर मोर्चे पर उठाने का प्रयास किया । अब वक्त बदल गया है देश में डबल इंजन की सरकार है जहाँ केंद्र में मोदी जी का मजबूत नेतृत्व, वहीं प्रदेश में जय राम ठाकुर जी जैसा आम आदमी प्रदेश के विकास को दिशा देने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे है। हाटियों के 55 वर्षो के शांति पूर्ण संघर्ष की कहानी, जिन्होंने कभी नही रोड बंद किये, नही कभी तोड़ फाड़ की। इसका नतीजा है कि देश के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में शामिल जय राम ठाकुर उस आर जी आई की फाइल को आम इन्सान की तरह उठाकर गृह मंत्री अमित शाह के पास खुद ले गये और उनसे अपने प्रदेश के सबसे पिछड़े समुदाय हाटियों के दर्द को बयाँ करते हुए इनकी मांग को पूरा करने का आग्रह करते गये। बस यही क्षण था सिरमौर वासियों का मसीहा बनने का । नोट: ये लेखक के स्वतंत्र विचार है, फर्स्ट वर्डिक्ट इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेता
अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक नंद लाल शर्मा ने नई दिल्ली में नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर दुएबा से शिष्टाचार भेंट की। ज्ञात रहे कि नेपाल के प्रधानमंत्री, नेपाल सरकार के अन्य मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ भारत की आधिकारिक यात्रा पर हैं। शर्मा ने नेपाल में एसजेवीएन द्वारा निर्मित की जा रही 900 मेगावाट की अरुण-3 जल विद्युत परियोजना की प्रगति से नेपाल के प्रधानमंत्री को अवगत कराया। उन्होंने रिकॉर्ड समय में लोअर अरुण परियोजना की डीपीआर तैयार करने और अनुमोदन से संबंधित गतिविधियों की जानकारी दी। एसजेवीएन का लक्ष्य निर्धारित समय से पहले अरुण-3 परियोजना को कमीशन करना और आवश्यक अनुमोदन मिलते ही लोअर अरुण परियोजना का निर्माण आरंभ करना है। नंदलाल शर्मा ने नेपाल की विशाल जलविद्युत क्षमता के विकास और जल विद्युत परियोजनाओं के तीव्र और कुशल निष्पादन के लिए एक-बेसिन, एक-वकासकर्ता के दृष्टिकोण का पालन करने के संलाभों के बारे में भी चर्चा की।
भारत में करीब 40 दिन बाद कोविड-19 के दैनिक मामलों की संख्या 50,000 से कम रही और देश में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की कुल संख्या बढ़कर 4,26,31,421 हो गई। इसके अलावा, देश में उपचाराधीन मरीजों की संख्या गिरकर 5,37,045 हो गई। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने रविवार को यह जानकारी दी। मंत्रालय के सुबह आठ बजे अद्यतन किए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत में संक्रमण के 44,877 नए मामले सामने आए तथा 684 और मरीजों की मौत होने के बाद मृतक संख्या बढ़कर 5,08,665 हो गई। देश में चार जनवरी को संक्रमण के 37,379 नए मामले सामने आए थे। भारत में लगातार सातवें दिन संक्रमण के दैनिक मामलों की संख्या एक लाख से कम रही। देश में अभी 5,37,045 कोरोना वायरस संक्रमितों का इलाज चल रहा है, जो संक्रमण के कुल मामलों का 1.26 प्रतिशत है। पिछले 24 घंटे में कोविड-19 के उपचाराधीन मरीजों की संख्या में 73,398 की कमी दर्ज की गई। देश में मरीजों के ठीक होने की राष्ट्रीय दर 97.55 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि देश में सात अगस्त 2020 को संक्रमितों की संख्या 20 लाख, 23 अगस्त 2020 को 30 लाख और पांच सितंबर 2020 को 40 लाख से अधिक हो गई थी। संक्रमण के कुल मामले 16 सितंबर 2020 को 50 लाख, 28 सितंबर 2020 को 60 लाख, 11 अक्टूबर 2020 को 70 लाख, 29 अक्टूबर 2020 को 80 लाख और 20 नवंबर को 90 लाख के पार चले गए थे।
साल्ट लेक सिटी डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 में रिपब्लिक पार्टी की नेशनल कमेटी (आरएनसी) में राष्ट्रपति पद की दौड़ में सभी दावेदारों को पीछे छोड़ते हुए अपनी पार्टी के नेताओं को हैरान कर दिया। वहीं, 2020 में, पार्टी को रिपब्लिकन अध्यक्ष के रूप में उनका समर्थन करने के लिए बाध्य किया गया था। हालांकि, 2024 में रिपब्लिकन पार्टी के पास एक विकल्प है। आरएनसी पर अब फिर से पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप का समर्थन करने का कोई दायित्व नहीं है। पार्टी के नियमों के हिसाब से तटस्थता की आवश्यकता होती है, अगर एक से अधिक उम्मीदवार पार्टी के राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन चाहते हैं। वर्ष 2018 से नेवादा का प्रतिनिधित्व करने वालीं आरएनसी की सदस्य मिशेल फियोर ने कहा, ‘‘अगर ट्रंप तय करते हैं कि वह मुकाबले में उतरेंगे तो आरएनसी को उन्हें शत-प्रतिशत समर्थन देना चाहिए। हम पार्टी के उपनियमों को बदल सकते हैं। ट्रंप के प्रति वफादारी फिर से याद दिलाती है कि अमेरिका का प्रमुख राजनीतिक दल देश के लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर करने वाले व्यक्ति के साथ अपने रिश्ते को गहरा कर रहा है। हाल में ट्रंप ने कहा था कि तत्कालीन उपराष्ट्रपति माइक पेंस चुनाव परिणाम को पलट सकते थे। वर्ष 2024 में होने वाले चुनाव से पहले आरएनसी में ट्रंप के प्रति बढ़ती वफादारी पिछले चुनावों में पार्टी के रुख से निश्चित तौर पर अलग है।
स्कैंडल पॉइंट......शिमला आए हर व्यक्ति ने ये नाम तो सुना ही होगा, इस पॉइंट से गुज़रे भी होंगे लेकिन इस जगह पर ऐसा क्या स्कैंडल हुआ की इसका नाम स्कैंडल पॉइंट रख दिया गया, ये सवाल भी बहुचर्चित है। बात बहुत पुरानी है तो कहानियां भी बहुत सी बन गईं है। कुछ कहते की इस जगह पर हिंदुस्तान का पहला लव स्कैंडल हुआ था तो कुछ इस तथ्य को मानने से इंकार करते है। स्कैंडल पॉइंट से जुड़ी कहानियों में से एक कहानी है पाटियाला के महाराजा भूपेंदर सिंह की। बात 1892 की है, ब्रिटिश शासन में शिमला के वाईस रॉय और पाटियाला के महाराजा भूपेंदर सिंह अच्छे दोस्त हुआ करते थे और अक्सर वाइसराय के घर पर आया जाया करते थे। उसी समय पटियाला के राजा को वाईसरॉय की बेटी से महब्बत हो गई और दोनों ने शादी करने का फैसला किया लेकिन वाईस रॉय को ये रिश्ता मंज़ूर नहीं था और उन्होंने इसका विरोध भी किया। लेकिन दोनों प्रेमी अपना मन मना चुके थे। ब्रिटिश काल में शिमला के मालरोड पर शाम के समय ब्रिटिश अधिकारी अपने परिवार के साथ टहलने आया करते थे मगर यहां हिन्दुस्तानियों को आने की अनुमति नहीं थी। एक दिन शाम जब सब मॉलरोड पर टहल रही थे तो पटियाला के महाराजा ने अंग्रेज वाइसराय की बेटी को उठा लिया था। इसे पहला लव स्कैंडल कहा जाता है और जिस जगह पर यह कथित वारदात हुई उसे आज स्कैंडल प्वाइंट के नाम से जाना जाता है। महाराजा भूपिंद्र सिंह ने वाइसराय लार्ड कर्जन की बेटी को उठाया था। कहा जाता है कि महाराजा भूपिंद्र सिंह घोड़े पर सवार होकर आए और मालरोड पर टहल रही लार्ड कर्जन की बेटी को उठा ले गए। गुस्से में वायसराय ने उनका शिमला आने पर प्रतिबंध लगा दिया। महाराजा ने भी अपनी आन-बान और शान के लिए शिमला से भी ऊंचा नगर बसाने की ठान ली और चायल का निर्माण कर डाला। पटियाला के महाराजा भूपिंद्र सिंह का जन्म 12 अक्टूबर 1891 में हुआ। वर्ष 1900 में उन्होंने राजगद्दी संभाली और 38 साल तक राजपाट किया। उन्होंने ऑनरेरी लेफ्टीनेंट कर्नल के तौर पर प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया था। लीग ऑफ नेशंज में 1925 में भूपिंद्र सिंह ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। महाराजा क्रिकेट के शौकीन थे। वर्ष 1911 में इंग्लैंड दौरे पर भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान भी वही थे। यहां हुआ था हिंदुस्तान का पहला लव स्कैंडल हालांकि कुछ इतिहासकार इस बात से इत्तफाक नहीं रखते। उनका दावा है कि लार्ड कर्जन साल 1905 तक वाइसराय रहे। उनकी तीन बेटियां थीं। देखा जाए तो 1905 में महाराजा की आयु 14 साल की थी। लार्ड कर्जन की बड़ी बेटी आइरिन की उम्र उस समय महज 9 साल थी।पंजाब यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी की प्रोफेसर रह चुकी मंजू जैदका अपनी किताब स्कैंडल पॉइंट में लिखती है की इस जगह से उनकी बहुत सी यादें जुडी है, उन्होंने इसपर काफी शोध भी किया है लेकिन महाराजा भूपेंदर सिंह की उम्र का तकाज़ा रखते हुए ये कहानी सच नहीं हो सकती। लेखिका का मानना है की इस कहानी में भूपेंदर सिंह के पिता राजेंदर सिंह को होना चाहिए क्यूंकि उनकी एक अँगरेज़ बीवी और बेटा था। हलाकि सच क्या है ये तो एक रहस्य ही रहेगा जो इतिहास में दफ़न हो चूका है।
हमे विश्वसनीय सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि रेल विभाग कालका हावड़ा ट्रैन को चंडीगड़ तक टर्मिनेट करने का फैसला ले रही है। यदि इस रेल गाड़ी को चंडीगढ़ तक चलाया गया तो इसका सीधा असर शिमला सर्किट के पर्यटन पर पड़ेगा। हावड़ा -कालका ट्रैन बहुत ही पॉपुलर ट्रैन है तथा वेस्ट बंगाल से आने वाले पर्यटकों के लिए बहुत ही सुविदाजनक है क्योंकि इसकी कनेक्टिविटी नैरो गेज वर्लड हेरिटेज ट्रैन द्वारा शिमला तक है। हिमाचल के पर्यटन में बंगाल तथा मुबई से आने वाले पर्यटकों का बहुत बड़ा योगदान है। दुर्गा पूजा सीजन में इस ट्रेन की अहमियत और भी बढ़ जाती है क्योंकि इस दौरान बहुत बड़ी संख्या में पर्यटक वेस्ट बंगाल से दुर्गा पूजा की छुटियों में शिमला आते है तथा यही से हिमाचल के अन्य पर्यटक स्थालों में घूमने जाते है। हावड़ा कालका रेलगाड़ी 1903 से भी पहले से कालका तक चल रही है तथा एक बहुत ही लोकप्रिय रेल गाड़ी है। यदि इस ट्रेन को चंडीगड़ तक ही रोक दिया तो विश्व विख्यात हेरिटेज दहरोहर शिमला कालका रेल सेवा भी बंद होने की कगार पर आ जायेगी क्योंकि मुम्बई बांद्रा कालका रेल सेवा भी आने वाले सप्ताह से पहले ही कालका की बजाय चंडीगढ़ तक शिफ्ट कर दी गई है। रेल मार्ग से आने वाले यात्रियों पर शिमला के होटल्स जहा वाहन नही जाते ,ट्रेवल एजेंट्स,टैक्सी ऑपरेटर्स का वयवसाय निर्भर है। यदि इन रेल गाड़ियों को चंडीगढ़ तक ही चलाया गया तो इससे ट्रैफिक की समस्या और बढ़ जाएगी क्योंकि अभी तक जो पर्यटक रेल सेवा से शिमला तक आ रहे थे वह सड़क मार्ग से आएंगे तो शिमला की ट्रैफिक समस्या और विकराल हो जाएगी तथा इसका पर्यटन पर विपरीत असर पड़ेगा। हम रेलवे ऑथोर्टीज़ से आग्रह करते है कि कालका हावड़ा सर्विस को कालका तक ही चलाया जाय तथा बांद्रा कालका ट्रैन को भी कालका तक ही चलाया जाए क्योंकि हिमाचल के पर्यटन में इसका बहुत बड़ा योगदान है। हमारी एसोसिएशन पर्यटन की दृष्टि से इन दोनी ट्रैन को कालका तक ही चलाने के विषय को मुख्यमंत्री के समक्ष भी उठाएगी तथा आग्रह करेगी इस विषय को रेल मंत्रालय से उठाया जाए ताकि हिमाचल के पर्यटन को इसका नुकसान न हो। -मोहिंद्र सेठ -प्रेजिडेंट -टूरिज्म इंडस्ट्री स्टेक होल्डर्ज असोसिएशन।
आज पूरा देश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन मना रहा है। गांधी से जुड़ा इतिहास इतना विस्तृत है की उसे समझ पाना तकरीबन असंभव सा लगता है लेकिन उनसे जुड़े कुछ सवाल ऐसे भी है जो आए दिन देश की जनता के सामने आते रहते है और हो भी क्यों न जिस शख्स को पुरे देश का राष्ट्रपिता माना जाता है, उनको लेकर उत्सुकता होना तो लाज़मी है। गांधी से जुड़ा एक सवाल एक असमंजस ये भी है की अगर गाँधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुकवा सकते थे। क्या गांधी ने जानबूझ कर भगत सिंह का कतल होने दिया? आदर्श क्रांतिकारी के तौर पर चर्चित भगत सिंह हिंसा के रास्ते पर चलकर आज़ादी पाने के समर्थक थे। 1907 में उनका जन्म हुआ जब 38 साल के लोकसेवक मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ़्रीका में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने का प्रयोग कर रहे थे। वहीं, जवान हो रहे भगत सिंह ने हिंसक क्रांति का रास्ता अपनाया। एक देश की सम्प्रभुता का रखवाला था तो दूसरा अहिंसा का मतवाला। दोनों का मकसत सिर्फ एक ही था, देश की आज़ादी। दोनों कहते थे की देश की जनता शोषण की बेड़ियों से मुक्त हो। कुछ देश भक्त गांधी के आदर्शों पर चलते तो कुछ भगत सिंह की जूनून भरी आक्रामक तकनीकों को अपनाते। देश में आज़ादी का आंदोलन दोनों ओर से प्रखर हो रहा था मगर 23 मार्च 1931 को लाहौर की सेंट्रल जेल में शाम के वक्त जब आम तौर पर फांसी नहीं दी जाती, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गए। गांधी के आलोचक आज भी इन तीनो की फांसी का इलज़ाम गांधी के माथे डालते है। तो क्या सच में यह गांधी की नाकामी थी? इसलिए दी जनि थी फांसी साल 1928 में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में वरिष्ठ कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय को पुलिस की लाठियों ने घायल कर दिया। इसके कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया। लाला जी के जीवन के अंतिम सालों की राजनीति से भगत सिंह सहमत नहीं थे लेकिन अंग्रेज़ पुलिस अधिकारियों की लाठियों से घायल हुए लाला जी की हालत देखकर भगत सिंह को बहुत गुस्सा आया। भगत सिंह ने इसका बदला लेने के लिए अपने साथियों के साथ मिलकर पुलिस सुपिरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई, लेकिन एक साथी की ग़लती की वजह से स्कॉट की जगह 21 साल के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या हो गई। इस मामले में भगत सिंह पुलिस की गिरफ़्त में नहीं आ सके, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने असेंबली सभा में बम फेंका। भगत सिंह जनहानि नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की गूंज पहुंचाना चाहते थे। बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी दे दी। गिरफ़्तारी के वक़्त भगत सिंह के पास उस वक्त उनकी रिवॉल्वर भी थी। कुछ समय बाद ये सिद्ध हुआ कि पुलिस अफ़सर सांडर्स की हत्या में यही रिवॉल्वर इस्तेमाल हुई थी। इसलिए, असेंबली सभा में बम फेंकने के मामले में पकड़े गए भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के गंभीर मामले में अभियुक्त बनाकर फांसी दी गई। गांधी और सज़ा माफ़ी 17 फरवरी 1931 से गोलमेज़ सम्मलेन के तहत वायसराय इरविन और गांधी के बीच बातचीत की शुरुआत हुई। इसके बाद 5 मार्च, 1931 को दोनों के बीच समझौता हुआ। इस समझौते में अहिंसक तरीके से संघर्ष करने के दौरान पकड़े गए सभी कैदियों को छोड़ने की बात तय हुई। मगर, राजकीय हत्या के मामले में फांसी की सज़ा पाने वाले भगत सिंह को माफ़ी नहीं मिल पाई क्यूंकि उन्होंने ने हिंसा का रास्ता अपनाया था। गांधी का विरोध इस दौरान ये सवाल उठाया जाने लगा कि जिस समय भगत सिंह और उनके दूसरे साथियों को सज़ा दी जा रही है तब ब्रितानी सरकार के साथ समझौता कैसे किया जा सकता है। इस मसले से जुड़े सवालों के साथ हिंदुस्तान में अलग-अलग जगहों पर पर्चे बांटे जाने लगे। साम्यवादी इस समझौते से नाराज़ थे और वे सार्वजनिक सभाओं में गांधी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन करने लगे। गांधी का नज़रिया गांधी ने इस मुद्दे पर प्रतिक्रियाएं दी हैं। गांधी का मानना था की वाइसराय के साथ बातचीत भारतीय लोगो के हितों के लिए थी, उसे शर्त रखकर जोखिम में नहीं डाला जा सकता था। हालाँकि गांधी ने वाइसराय के सामने फांसी रोकने का मुद्दा कई बार उठाया था जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी लेखनी में किया। गांधी अपनी किताब 'स्वराज' में लिखते हैं, "मौत की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए।" वह कहते हैं, "भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता ग़लत और असफल है।" "मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने कोशिश की। मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थीवो मैंने इस्तेमाल की। 23वीं तारीख़ की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्र लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी।" "भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन हिंसा को धर्म नहीं मानते थे। इन वीरों ने मौत के डर को भी जीत लिया थी। उनकी वीरता को नमन है, लेकिन उनके कृत्य का अनुकरण नहीं किया जाना चाहिए। उनके इस कृत्य से देश को फायदा हुआ हो, ऐसा मैं नहीं मानता। खून करके शोहरत हासिल करने की प्रथा अगर शुरू हो गई तो लोग एक दूसरे के कत्ल में न्याय तलाशने लगेंगे।" कानूनी रास्ते तलाशने की भी कोशिश हुई 29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा – इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की, लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला। इसका मतलब है कि गांधी और उनके साथियों ने भगत और उनके साथियों को बचाने के लिए कानूनी रास्ते तलाशे थे, मगर कामयाबी नहीं मिली। वो जानते थे कि ये सजा रद्द करवा पाना मुमकिन नहीं होगा, इसीलिए माहौल बेहतर करने के नाम पर वो सजा टालने की अपील कर रहे थे ताकि फिलहाल सजा रोकी जा सके। 20 मार्च को होम सेक्रटरी हबर्ट इमरसन से भी बात की गए मगर वहां भी बात नहीं बनी। वायसराय ने गांधी को क्या मजबूरियां गिनाईं? गांधी ने इरविन के सामने ये मुद्दा दूसरी बार 19 मार्च, 1931 को उठाया। मगर वायसराय ने जवाब दिया कि उनके पास ऐसी कोई वजह नहीं है, जिसे बताकर वो इस सजा को रोक सकें. वायसराय ने कुछ और भी कारण गिनाए। जैसे- फांसी की तारीख आगे बढ़ाना, वो भी बस राजनैतिक वजहों से, वो भी तब जबकि तारीख का ऐलान हो चुका है, सही नहीं होगा। सजा की तारीख आगे बढ़ाना अमानवीय होगा। इससे भगत, राजगुरु और सुखदेव के दोस्तों और रिश्तेदारों को लगेगा कि ब्रिटिश सरकार इन तीनों की सजा कम करने पर विचार कर रही है। कहा जाता है की गांधी अंतिम समय तक संघर्ष कर रहे थे। शोध कर्ताओं को इसके पुख्ता सुबूत भी मिले है, लेकिन गांधी का विरोध होता रहा। साल 1931 की 26 मार्च के दिन कराची में कांग्रेस का अधिवेशन में जब गांधी पहुंचे तो उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया गया। उनका स्वागत काले कपड़े से बने फूल और गांधी मुर्दाबाद-गांधी गो बैक जैसे नारों के साथ किया गया। फांसी के दिन तड़के सुबह गांधी द्वारा जो भावपूर्ण चिट्ठी वायसराय को लिखी गई थी वो दबाव बनाने वाली थी, लेकिन तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। भगत सिंह को फांसी दे दी गई।
गुरू ब्रह्मा गुरू विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नम: अर्थात गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं। इन शब्दों को समझने के लिए गुरुकुल युग में प्रवेश करना होगा। समय परिवर्तन होने के बाद गुरु शब्द को बोलने का नजरिया और गुरुओं के प्रति भावना में परिवर्तन भी हो गया। राष्ट्र निर्माण में समर्पित गुरुओं ने राष्ट्र के विकास में अहम योगदान दिया है। इस विषय पर जरुर अपने विचारो का लेख के माध्यम से सार्वजानिक करूंगा। हम शिक्षक दिवस मना रहे है। शिक्षक दिवस पर राष्ट्र को समर्पित, सभी शिक्षको को हार्दिक बधाई। शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूजनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। सही मायनो में कहा जाये तो एक शिक्षक ही अपने विद्यार्थी का जीवन गढ़ता है। शिक्षक ही समाज की आधारशिला है। एक शिक्षक अपने जीवन के अन्त तक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करता है और समाज को राह दिखाता रहता है, तभी शिक्षक को समाज में उच्च दर्जा दिया जाता है। माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं। उनका स्थान कोई नहीं ले सकता, उनका कर्ज हम किसी भी रूप में नहीं उतार सकते, लेकिन शिक्षक ही हैं जिन्हें हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता के बराबर दर्जा दिया जाता है क्योंकि शिक्षक ही हमें समाज में रहने योग्य बनाता है। इसलिये ही शिक्षक को समाज का शिल्पकार कहा जाता है। गुरु या शिक्षक का संबंध केवल विद्यार्थी को शिक्षा देने से ही नहीं होता बल्कि वह अपने विद्यार्थी को हर मोड़ पर उसको राह दिखाता है और उसका हाथ थामने के लिए हमेशा तैयार रहता है। विद्यार्थी के मन में उमड़े हर सवाल का जवाब देता है और विद्यार्थी को सही सुझाव देता है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए सदा प्रेरित करता है। एक शिक्षक या गुरु द्वारा अपने विद्यार्थी को स्कूल में जो सिखाया जाता है या जैसा वो सीखता है वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है जैसा वह अपने आसपास होता देखते हैं। इसलिए एक शिक्षक या गुरु ही अपने विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है जो हमें गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है जहाँ पर शिक्षक अपने शिक्षार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ गुणवत्तायुक्त शिक्षा भी देते हैं, जोकि एक विद्यार्थी में उच्च मूल्य स्थापित करने में बहुत उपयोगी है। जब अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति आता है तो वह भी भारत की गुणवत्तायुक्त शिक्षा की तारीफ करता है। किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी है तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी तो वहाँ की प्रतिभा दब कर रह जायेगी बेशक किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति बेकार हो, लेकिन एक शिक्षक बेकार शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा नीति में तब्दील कर देता है। शिक्षा के अनेक आयाम हैं, जो किसी भी देश के विकास में शिक्षा के महत्व को अधोरेखांकित करते हैं। एक शिक्षक द्वारा दी गयी शिक्षा ही शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का मूल आधार है। शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहारकुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना जाता है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आदर्शों पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ-साथ ऐसे भी शिक्षक हैं जो शिक्षक और शिक्षा के नाम को कलंकित कर रहे हैं, ऐसे शिक्षकों ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है, जिससे एक निर्धन शिक्षार्थी को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है और धन के अभाव से अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। आधुनिक युग में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। शिक्षक वह पथ प्रदर्शक होता है जो हमें किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाता है। आज के समय में शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण हो गया है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण देश के समक्ष बड़ी चुनौती है। पुराने समय में भारत में शिक्षा कभी व्यवसाय या धंधा नहीं थी। गुरु एवं शिक्षक ही वो हैं जो एक शिक्षार्थी में उचित आदर्शों की स्थापना करते हैं और सही मार्ग दिखाते हैं। एक शिक्षार्थी को अपने शिक्षक या गुरु प्रति सदा आदर और कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। किसी भी राष्ट्र का भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि वह ना सिर्फ हमको सही आदर्श मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि प्रत्येक शिक्षार्थी के सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है। हम भली भांति जानते हैं कि पुरातन काल में भारतीय गुरुकुलों में जो शिक्षा प्रदान की जाती थी, वह निश्चित रूप से बच्चों का समग्र विकास करने वाली ही थी। इतना ही नहीं वह शिक्षा विश्व स्तरीय ज्ञान का द्योतक भी थी, इसलिए विश्व के कई देश भारत के शिक्षालयों में ज्ञान और विज्ञान की उच्च स्तरीय शिक्षा ग्रहण करने आते थे। हमें अब उसी शिक्षा पद्धति की ओर कदम बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। अभी भारत सरकार ने इस दिशा में सार्थक कदम बढ़ाया है। यह शिक्षा इंडिया को भारत बनाने में सकारात्मक सिद्ध होगी, यह संकेत दिखाई देने लगे हैं। शिक्षको को भी चाहिए कि वह इस नीति को आत्मसात कर बच्चों के भविष्य को वह दिशा प्रदान करें जो विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। क्योंकि शिक्षक संस्कारों का एक प्रकाश स्तंभ है, जो विद्यार्थियों के जीवन में ज्ञान की किरणें फैलाता है।शिक्षा वही है, जो जीवन में नैतिक मूल्यों का विकास करे, इसके साथ ही सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति कर्तव्य पालन का बोध कराए। राष्ट्रीय दायित्व का बोध केवल इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों के अध्ययन और अध्यापन से ही हो सकता है। वर्तमान में यह देखने में आ रहा है कि हम शिक्षा तो ग्रहण कर रहे हैं, लेकिन पिछले पाठों को भूलते जा रहे हैं। इसका एक मूल कारण हमारे देश की शिक्षा नीति है। आज से 73 वर्ष पूर्व जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ, तब हमारी शिक्षा नीति को भारतीय बनाने पर जितना जोर दिया जाना चाहिए, उतना नहीं दिया गया। शिक्षा के क्षेत्र में हम पूरी तरह से भटक गए। इसलिए आज की पीढ़ी में न तो भारतीय संस्कारों का बोध है और न ही नैतिकता के जीवन मूल्य ही हैं।शिक्षा वही सार्थक होती है, जो अपने देश के लिए चरित्रवान समाज और सकारात्मक सोच का निर्माण कर सके। भारत में अभी तक जो शिक्षा दी जा रही थी, उसमें भारत के मानबिन्दुओं का उपहास उड़ाया गया और विदेशियों का गुणगान किया गया। इसमें ऐसे भी विदेशी शामिल किए गए, जिन्होंने भारतीयता को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे चरित्रों के पठन पाठन से ही आज की पीढ़ी भारत के संस्कारों से दूर होती जा रही है। लेकिन हमारे देश के शिक्षकों को भी यह समझना चाहिए कि छात्रों को क्या शिक्षा दी जाए।हमारे देश में शिक्षाविद डॉ. राधाकृष्णन के जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन आज के विद्यार्थियों को यह भी नहीं पता होगा कि डॉ. राधाकृष्णन जी के जीवन शिक्षकों के एक आदर्श है, एक पाथेय है। जिस पर चलकर हम शिक्षक की वास्तविक भूमिका का सही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सन 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति बने, तब उनके कुछ विद्यार्थी उनके पास उनका जन्मदिन मनाने की स्वीकृति लेने गए। उस समय राधाकृष्णन जी ने कहा मेरा जन्मदिन मनाने के बजाय 5 सितंबर शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाए तो मुझे अति प्रसन्नता एवं गर्व महसूस होगा। डॉ. राधाकृष्णन का शिक्षकों के बारे में मत था कि शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे। वास्तविक शिक्षक तो वह है जो छात्र को आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे। आज की शिक्षा चुनौतियों को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि जीवन में पैसे कैसे कमाए जाते हैं, इसे ही ध्यान में रखकर दी जा रही है। कहा जा सकता कि जो शिक्षा दे रहे हैं, वे इसे व्यवसाय मान रहे है और जो ग्रहण कर रहे वे इसे आय प्राप्त करने का साधन। ऐसी शिक्षा चरित्र का निर्माण नहीं कर सकती। इसलिए शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को ऐसी शिक्षा भी दें, जो उनके जीवन को संवार सके। क्योंकि जिस शिक्षा से संस्कारों का निर्माण होता है, वही जीवन के काम आती है जिनकी याद में हम शिक्षक दिवस मनाते हैं, वे चाहते थे कि शिक्षा विद्यार्थियों को सही और गलत का बोध कराने वाली होना चाहिए। वास्तव में डॉ. राधाकृष्णन जी भारतीय संस्कृति के संवाहक थे। उन्होंने अपने लेखों और प्रबोधन के माध्यम से भारतीय संस्कृति की सुगंध को हमेशा ही प्रवाहित किया। एक बार शिकागो विश्वविद्यालय में उनको धर्म शास्त्रों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जहां उन्होंने भारत के ज्ञान के बारे में प्रेरणास्पद उद्बोधन दिया। इस उद्बोधन के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन जी की ख्याति वैश्विक धरातल पर और भी बढ़ती चली गई और इसी कारण उन्हें भारत एवं अन्य देशों की प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। उसके बाद विश्व में भारत का गौरव गान होने लगा। उनके भाषणों में सिर्फ भारत ही होता था। वह जब बोलते थे तब ऐसा लगता था कि यही भारत की वाणी है। वह वास्तव में भारत रत्न थे। इसलिए भारत सरकार ने सन 1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। शिक्षा अत्यंत ही अनमोल एवं मूल्यवान है। जिससे विद्यार्थी अपने स्वयं के ज्ञान का विस्तार तो करता ही है, साथ ही देश को भी मजबूत करता है। डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक आधुनिक भारत के राजनीतिक विचारक में भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में शिक्षकों और शिक्षा के महत्व को बताया है। डॉक्टर राधाकृष्णन के अनुसार शिक्षक देश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसी वजह से अधिक सम्मान के योग्य होते हैं। भारत में सनातन काल से गुरु और शिष्य का संबंध समर्पण की भावना से परिपूर्ण रहा है। गुरु देश के भविष्य को संवारता है। वर्तमान पीढ़ी देश का भविष्य है। गुरु जैसे संस्कार युवा पीढ़ी को देंगे वैसा ही देश का चरित्र बनेगा। -डॉ मामराज पुंडीर -राजनीतिक शास्त्र प्रवक्ता
-हर वर्ष बचेंगे करोड़ों, रुकेगा भूमि कटाव और सरकारी नलों पर निर्भरता भी होगी कम -छावनी बोर्ड सुबाथू, जतोग कैंट और एमसी सोलन बचा रहे लाखों लीटर पानी प्रदेश में हर वर्ष जल संकट बढ़ता जा रहा है, लेकिन सरकार ने आज तक वर्षा जल संग्रहण के लिए कोई कारगर योजना तैयार नहीं की है। बारिश के दिनों में लाखों-करोड़ों लीटर पानी आकाश से बरसता है और यदि उसका सही तरीके से संग्रहण किया जाए तो न केवल हिमाचल में किसी भी मौसम में जल संकट समाप्त हो जाएगा, बल्कि सरकार का करोड़ों रुपये बचेगा, भूमि कटाव की समस्या कम होगी और लोगों की सरकारी पेयजल योजनाओं पर निर्भरता कम हो जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रदेश के पारंपरिक प्राकृतिक जलस्त्रोत फिर से पुनर्जीवित हो उठेंगे। दिन-प्रतिदिन पानी की बढ़ रही समस्या को देखते हुए पिछले कई वर्षों से यह कहा जा रहा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, लेकिन यदि इंसान प्रकृति से खिलवाड़ न करे और उसके विरुद्ध न चले तो इस कथित विश्वयुद्ध को टाला जा सकता है। इसके लिए सरकारों की इच्छाशक्ति का होना बेहद जरूरी है। कुछ दशकों पहले तक बरसात के मौसम में जोहड़ों और कच्चे तालाबों के माध्यम से बारिश के पानी का संग्रहण किया जाता था, जिससे साल भर तक प्राकृतिक जलस्त्रोत रिचार्ज रहते थे और उनमें पानी की कमी नहीं आती थी, लेकिन समय के बदलाव के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में जोहड़ और तालाब मिट्टी से भर गए और लोगों की निर्भरता पूरी तरह से सरकारी नलों पर हो गई। शहरों की बात छोड़ दें तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग नलों के पानी पर ही निर्भर हो गए हैं, बहुत कम क्षेत्रों में लोग कुओं या बावडिय़ों से पानी ढोते हुए नजर आते हैं। केंद्र सरकार के जलशक्ति मिशन के तहत अब सरकार ने आने वाले समय में हर घर को नल देने की विस्तृत योजना तैयार की है और हर माह देश भर में लाखों पानी के कनेक्शन दिए भी जा रहे हैं, लेकिन सरकार ने यह नहीं सोचा कि जब हमारी नदियों या बड़े जलाश्यों में ही पानी नहीं बचेगा तो अरबों रुपये की यह योजनाएं किस काम की रहेंगी। सरकार को चाहिए कि बारिश के पानी का संग्रहण करने की विस्तृत योजना तैयार करे और जिन लोगों के पास अपनी भूमि है, वहां पानी के बड़े भंडारण टैंकों का निर्माण सुनिश्चित किया जाए। शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक निर्माणधीन भवन का नक्शा तभी पास किया जाए जब उसमें वर्षा के जल संग्रहण टैंक के निर्माण का प्रावधान हो। टीसीपी में हालांकि यह प्रावधान तो है, लेकिन इन टैंकों को सरकारी नलों में आने वाले पानी से भर कर रेन वाटर हार्वेस्टिंग के नाम पर मात्र खानापूर्ति की जा रही है। वर्षा के पानी को बनाया जा सकता है सौ प्रतिशत शुद्ध प्रदेश के सबसे पुराने छावनी क्षेत्र सुबाथू के अलावा शिमला के जतोग कैंट और नगर परिषद सोलन में हजारों लीटर वर्षा के पानी को संरक्षित किया जा रहा है। यह पानी मिनरल वॉटर की तरह शुद्ध हो कर हजारों लोगों की प्यास बुझा रहा है। लैबोरेटरी से इस पानी में शून्य प्रतिशत बेक्टीरिया होने की पुष्टि की गई है। हालांकि सुबाथू में तो छावनी बोर्ड ने पानी को और अधिक शुद्ध बनाने के लिए अतिरिक्त फिल्टर लगाए हैं, लेकिन मात्र 85 सौ रुपये लागत का फिल्टर लगा कर कर एक मध्यम वर्गीय परिवार भी एक वर्ष में कम से कम 100 दिनों का पानी बचा सकता है। प्रदेश में औसतन 70 से 120 सेंटीमीटर बारिश होती है और एक सेंटीमीटर बारिश होने पर एक हजार वर्ग मीटर छत से एक हजार लीटर पानी बर्बाद होता है या यूं कहें कि उसे बचाया जा सकता है। सीमित संसाधनों वाले स्वायत्त छावनी बोर्ड प्रशासन ने वर्षा जल संग्रहण में रुचि दिखाई और इसका नतीजा यह हुआ कि आज इन क्षेत्रों में पेयजल संकट दूर हो गया है। छावनी बोर्ड कार्यालय की सभी छतों का पानी पाइप के माध्मय से फिल्टर होकर बड़े भंडारण टैंक में एकत्रित किया जाता है और उसके बाद उसे लोगों को सप्लाई किया जा रहा है। किसी भी मौसम में नहीं होगी पानी की किल्लत हिमाचल सरकार भी यदि पहल करे तो किसी भी मौसम में पानी की किल्लत नहीं होगी। गर्मियों में नदियों व जलस्त्रोतों का पानी सूख जाता है, वहीं, भारी बारिश होने पर गाद से पेयजल योजनाएं बंद हो जाती हैं, जिससे सरकार को मशीनरी बर्बाद होने पर करोड़ों रुपये का नुकसान झेलना पड़ता है। टैंकरों पर भी सरकार हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करती है। ऐसे में यदि हर स्कूल की छत, सरकारी कार्यालयों, सार्वजनिक भवनों और हर घर की छत से वर्षा जल संग्रहण किया जाए तो हर वर्ष करोड़ों रुपये बच सकते हैं, बस आवश्यकता है तो सरकार के संकल्प व इच्छा शक्ति की, क्योंकि अभी तक प्रदेश सरकार ने छावनी परिषदों की भांति वर्षा के जल संग्रहण में कोई रुचि नहीं दिखाई है।
The economy of the day in our Country is shattered due to the reasons not to be detailed here, as to why blame anybody, it may create another controversy. Therefore, it is better to explore the possibilities as to how and who could handle and take it in their hands to give a big boost to strengthen it through certain remedial measures and maybe, we should take our countrymen into confidence and make them understand before dealing with such harsh steps. Basically, the main objective with the Govt or the next popular Govt that comes into power with clean and dedicated people who must have that required potentials in their minds i.e. the money of the Politicians deposited into the Swiss-Banks should immediately be withdrawn and transferred back to India and be treated as Indian National property forthwith. All Banks in our Country should ensure to supply the detail of Total money deposited with them by big Guns in general and by the politicians in particular with their complete addresses and all that along with the detail of their family members, close relatives, known ones with the further clarifications to the effect that any huge amounts deposited with the Banks namelessly with an untitled mode which must create doubts in the minds of investigating agencies that certain account/amount holders can not earn or manage to have such access towards the huge amount deposited by them under their name and style in a very white way. It is because of the very hard fact that this practice was never practiced upon earlier by the fellow Politicians due to their being CHIPS OF THE SAME BLOCK. It certainly allowed to happen due to the reasons that there was no option rather THIRD option available with the people of this country, whom they could have been able to elect and sent them to Parliament. Apart from the said remedy, there are other measures to be adopted likewise first to strengthen the shattered economy that too in the sweet will of the clean and responsible people in power, otherwise, the condition of our Country as on today is clearly visible and in case it goes on like this, definitely, we may stand nowhere in the eyes of the World and we may be held responsible by our generation and the generation to come. All detail to be given here is not possible. Its a gist simply.
आज स्वतंत्रता दिवस पर अपनी आज़ादी का जश्न मनाने के साथ साथ, एक सदा और सुन लेना भी ज़रूरी है जो बँटवारे के समय से सुनाई पड़ती है। ये आवाज़ें वक़्त के साथ धुंधली ज़रूर हो सकती हैं, मगर इन्हें कभी दबा पाना मुमकिन नहीं। जहाँ देश में ख़ुशी की लहर है, वहीं यहाँ की हवा में मिट्टी की खुशबू के साथ उठती है गंध, उन सभी शवों की जिन्हें कोई जलाने, दफ़नाने वाला भी नहीं मिला। जी हाँ हम बात कर रहे हैं विभाजन की उस लड़ाई की, जिसने इस मुल्क़ को दो हिस्सों में बाँट कर रख दिया। बंटवारे की त्रासदी में कितने ही लोग बेघर हुए और कितने ही परिवारों के चिराग बुझ गए। उस दर्द की कल्पना भी कर पाना मुश्किल है। मगर इस दर्द को बेहद करीब से छुआ जा सकता है, उस समय का दर्द बयां करते कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ कर। ऐसी ही कुछ रचनाओं की आज बात करेंगे। अमृता प्रीतम ने "पिंजर" में उकेरा है विभाजन का दर्द जहाँ बेहतरीन लेखन और स्वतंत्रता की बात हो, वहां अमृता प्रीतम का नाम आना भी लाज़मी है। विद्रोही समझ वाली अमृता, न केवल महिलाओं के लिए बोला करती थी, बल्क़ि बेहतरीन, स्वतंत्र समझ का उदाहरण भी थी। अमृता के कई उपन्यासों में विभाजन का दर्द दिखाई देता है, जिनमें से एक है "पिंजर"। यूँ तो विभाजन पर कई उपन्यास लिखे गए हैं, परन्तु आज तक लिखे गए सभी उपन्यासों में पिंजर का अपना विशिष्ठ स्थान है। पिंजर को पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे आस पास होती सत्य घटनाओं पर ही आधारित है। 1947 में हुए विभाजन का दर्द, अमृता ने अपने इस उपन्यास के ज़रिये 1950 के आस पास लिखा। अमृता के इस उपन्यास का अहम किरदार है "पुरो" जो एक हिन्दू परिवार में जन्म लेती है, परन्तु पारिवारिक रंजिश के चलते, एक मुस्लमान शेख द्वारा, ज़बरदस्ती विवाह सम्बन्ध में बाँधी जाती है। इस उपन्यास में अमृता बात करती हैं एक ऐसे गाँव की जहाँ मुसलमानों की आबादी हिन्दू आबादी से कहीं ज़्यादा है और दंगों के चलते सभी हिन्दू एक हवेली में छुप गए, जो भी हिन्दू बहार आता वह मार दिया जाता था। अमृता लिखती हैं "एक रात जब हिन्दू मिलिट्री के ट्रक गाँव में आए तो लोगों ने हवेली में आग लगा दी। मिलिट्री ने आग बुझा कर लोगों को बाहर निकाला। “आधे जले हुए तीन आदमी भी निकाले गए, जिनके शरीर से चर्बी बह रही थी, जिनका मांस जलकर हड्डियों से अलग-अलग लटक गया था। कोहनियों और घुटनों पर से जिनका पिंजर बाहर निकल आया था। लोगों के लारियों में बैठते-बैठते उन तीनों ने जान तोड़ दी। उन तीनों की लाशों को वही फेंककर लारियाँ चल दीं। उनके घर वाले चीखते-चिल्लाते रह गए, पर मिलिट्री के पास उन्हें जलाने-फूंकने का समय नहीं था।” इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी रौशनी डालते हुए अमृता लिखती हैं "कुछ शहरों में सीमाएं बना दी गई थीं जिनकी एक ओर हिन्दू और दूसरी ओर सभी मुसलमान थे" दूसरी ओर से मुसलमान मरते कटते चले आ रहे थे, कुछ वहीँ मार दिए गए और कुछ रास्ते में मारे गए।" मोहन राकेश ने सुनाई बिछड़े अपनों की दास्ताँ साहित्यकार मोहन राकेश अपने उपन्यास "मलबे का मालिक" में भी ऐसा ही कुछ दर्द बयां करते नज़र आए जिसमें कहानी के मुख्य किरदार 'गनी मियां' दंगों के समय पाकिस्तान चले जाते हैं और उनके बेटे बहु और दो पोतियां यहीं हिंदुस्तान में रह जाते हैं। विभाजन के 7 साल बाद, जब दोनों देशों में आवाजाही के साधन खुलते हैं, तो हॉकी का मैच देखने के बहाने गनी मियां अमृतसर (भारत) आते हैं, इस आस में कि अपने पुराने घर परिवार को फिर देख सकेंगे, परन्तु यहां आ कर उन्हें पता चलता है कि उनके परिवार की 7 साल पहले ही हत्या हो चुकी है। पियूष मिश्रा ने "हुस्ना" (नाटक) में किया अधूरी मोहब्बत का ज़िक्र बंटवारे के समय हुई ऐसी कई घटनाओं का, कई परिवारों का दर्द जहाँ इन रचनाओं में आज भी ज़िंदा है, वहीं मुझे पियूष मिश्रा का एक नाटक, "हुस्ना" याद आता है। पियूष मिश्रा ने न केवल इसे लिखा, बल्क़ि मंच पर बखूबी इसे निभाया भी। इस नाटक में दो मुल्क़ों के बंटवारे में कभी न बँट पाने वाली, मोहब्बत की कहानी है। जिसमें हिंदुस्तान में रहने वाले प्रेमी का खत है, जो की उसकी विभाजन के बाद से, पाकिस्तान में रह रही प्रेमिका के नाम है। खत को गाने के रूप में पेश किया गया है जिसके बोल हैं, "लाहौर के उस जिले के दो परांगना में पहुंचे , रेशमी गली के दूजे कूचे के चौथे मकां में पहुंचे, और कहते हैं जिसको दूजा मुल्क़ उस पाकिस्तान में पहुंचे," गाने की इन पंक्तियों में लेखक खुद के पाकिस्तान में होने की कल्पना करते हैं व कहते हैं "मुझे लगता है में लाहौर के पहले जिले के दुसरे राज्य में हूँ।" इसी गाने में पियूष मिश्रा ने दोनों मुल्क़ों की समानताओं की ओर इशारा करते हुए यह भी लिखा की "पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में, वैसे ही जैसे झड़ते हैं यहाँ ओ हुस्ना, होता क्या उजाला वहां वैसा ही, जैसा होता है हिन्दोस्तान में हाँ ओ हुस्ना।" सवाल है जो "दर्द यहाँ है क्या वही दर्द वहां दूसरी ओर सभी उठता है?" जी हाँ यहाँ बात उठती है पाकिस्तानी लेखकों की तो उनकी रचनाओं पर भी रौशनी डालना ज़रूरी है। जॉन ऐलिया ने भेजे सन्देश फ़ारेहा के नाम पाकिस्तान के मशहूर लेखक जॉन ऐलिया की ही बात करें तो, जॉन का जन्म 1931 में अमरोहा (भारत) में हुआ और विभाजन के समय वह पाकिस्तान चले गए। जॉन की कई ग़ज़लें उनकी बचपन की मोहब्बत "फ़ारेहा" के नाम हैं, फ़ारेहा हिंदुस्तान में रहा करती थीं और कहा जाता है विभाजन के बाद जॉन का फ़ारेहा से मिलना कभी नहीं हुआ। मगर जॉन की लिखी एक ग़ज़ल "फ़ारेहा" में उनका दर्द पढ़ा जा सकता है " सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा, था सब कुछ वो इक फ़साना फ़ारेहा, हाँ मौहब्बत एक धोखा ही तो थी, अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा " इन पंक्तियों में जॉन अपनी बचपन की मोहब्बत फ़ारेहा से, सब कुछ भूल जाने को कहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं के दो मुल्क़ों के बीच खिंच चुकी इस लकीर को मिटा पाना, और इस मौहब्बत को अनजाम देना भी अब मुमकिन नही। विभाजन से किसी का घर टूटा तो किसी का दिल, किसी के अपने बिछड़े तो किसी के अपने ही पराए हो गए। इस नुकसान की भरपाई तो अब की नहीं जा सकती, पर इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि नुकसान दोनों ओर बराबर रहा होगा।
सरदार पटेल ने लगाया था आरएसएस पर प्रतिबन्ध अगर देशभक्ति की कसौटी तिरंगा फहराना है, तो राष्ट्रीय स्वयं संघ (आरएसएस ) तो अभी नया-नया देशभक्त हुआ है। आपको और हमे आरएसएस से देशभक्ति सीखने की जरुरत नहीं है। शायद आप नहीं जानते कि दिन रात देश भक्ति की नसीहत देने वाला संघ 2002 के पहले तिरंगा नहीं फहराता था। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे अवसरों पर भी आरएसएस के दफ्तरों में कभी तिरंगा नहीं फहराया जाता था। वर्ष 2002 तक सिर्फ दो मर्तबा ऐसा हुआ जब आरएसएस ने तिरंगा फहराया, पहला 15 अगस्त 1947 को और दूसरा 1950 में। दरअसल महात्मा गाँधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। जी हाँ वहीँ पटेल जिनका गुणगान करते हुए संघ आज थकता नहीं है।तब जब सरदार पटेल ने गांधीजी की हत्या में संलिप्तता के मामले में संघ पर लगा प्रतिबंध हटाने के पहले तिरंगे को राष्ट्रध्वज मानने के लिए गोलवलकर को मजबूर किया था, जिसके बाद संघ को तिरंगा फहराना पड़ा। आपको एक और दिलचस्प किस्सा सुनाते है। 26 जनवरी 2001 को आरएसएस मुख्यालय नागपुर ने तीन युवक जबरन घुस गए और उन्होंने वहां राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा लहरा दिया। वे तीन युवक राष्ट्रप्रेमी युवा दल के थे और इस बात से क्षुब्ध थे कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर भी आरएसएस कभी तिरंगा नहीं फहराता। तीनो युवकों पर मुक़दमा दर्ज हुआ, जिसे उन्होंने 12 साल तक झेला। इस प्रकरण के बाद आरएसएस की देश भक्ति पर भी सवाल उठने लगे। आखिरकार तिलमिलायें हुए आरएसएस ने 2002 से तिरंगा फहराना शुरू किया। आरएसएस तिरंगा क्यों नहीं फहराता था, आज तक आरएसएस इसका जवाब नहीं दे पाया है।
Assorted minds, big and small, continue to rack their brains to interpret the results of the 2019 Lok Sabha elections. There is virtually a spate of opinions which widely diverge. Undoubtedly the BJP, led by the Narendra Modi-Amit Shah duo, had a cake-walk in these elections. Its landslide victory in large parts of the country is unprecedented in ways more than one. So far no non-Congress government was ever repeated; it has taken a quantum jump this time. Jubilation in its ranks is fully justified. Let there be no mistake about it. Let us not miss the wood for the trees: the Hindu Rashtravadi forces, spearheaded by the RSS of which the BJP is the political wing, are in absolute control of the state power at the level of the Union of India, that is, Bharat. As is well-known, the RSS, since its inception in 1925, has been striving first to “Militarise Hindus, Hinduise India” and later establish a Hindu Rashtra in the country. It was exactly at that period in the history of our country when Mahatma Gandhi had emerged as the undisputed leader of the Indian National Congress founded four decades earlier. Under his leadership the party was able to bring together all sections of the people, irrespective of religion, creed, colour, caste, region etc. It became the mainstream organisation to lead the masses to achieve independence from the British colonial rule. Nationalism was its pantheon which commanded unqualified loyalty and dedication of all and sundry in the party. Right from the beginning, the RSS was, of course, successful in dividing the Hindus in particular along Sanghi Hindus and non-Sanghi Hindus. But non-Sanghi Hindus were not necessarily anti-Sanghi ones. That was true of some of the prominent leaders in the Indian National Congress also. The glaring examples are Madan Mohan Malaviya and Lala Lajpat Rai. Both of them happened to be the Presidents of the Indian National Congress at one point of time. Such leaders continued to be present even under the stewardship of Jawaharlal Nehru and Indira Gandhi. What was actually needed was the projection of such stalwarts as the Nationalist Hindus against Hindu Nationalists. Nationalism in post-independence India required an altogether different orientation for the reconstruction of the country and the rejuvenation of her people. Jawaharlal Nehru did his best to accomplish that during his lifetime. His successors, however, forgot his warning that the RSS was the biggest threat to the unity and integrity of the nation. What we witnessed in the 2014 and 2019 elections did not happen all of a sudden. Its formal beginning had been made in 1967 when Samyukt Vidhayak Dal governments were formed in more than half of the then existing States of the Union of India. The SVDs were constituted of mainly the Bharatiya Jan Sangh, the earlier version of the BJP, the Socialists and the Communists. This experiment was done at the call of Dr Rammanohar Lohia, a strong Socialist leader. As a matter of fact it was he who propounded the theory of anti-Congressism. Later it became the most popular political line of all the major parties. It suited most the Jan Sanghis but the Communists were not left behind because a trend among them had been visible since 1942 during the period of the ‘Quit India’ movement and later followed by B.T. Ranadive, one-time CPI General Secretary, in 1948. In the meantime there was hardly any political party which did not join hands with the BJP to defeat the INC. Just like the BJP the Communists of all hues regarded the Congress as the main enemy. To cite a couple of examples: The CPM-led Left Front and BJP joined hands to install the Janata Dal-led V.P. Singh Government in 1989 while in 2012, not far from 2014, the CPIs, CPM and BJP’s top leaders were seen embracing one another at Jantar Mantar, New Delhi during a protest rally against the INC-led UPA Government of Dr Manmohan Singh. This cooperation continued until the BJP Government was placed safely at Delhi. The Indian National Congress can be held guilty for inadequate appreciation of the RSS threat and inept leadership to combat it. That was why it continued to yield space to Right reactionary nationalism and miserably failed to prevent the BJP from coming to power at the Centre. It did make efforts to wean away some of the parties from the anti-Congress line and did succeed also.The example of the UPA Government between 2004-2014 is an example in point. The Communists, nonetheless. were the real facilitators of the process throughout their history. There was, however, one exception. The United Communist Party of India, rather the Unknown Communist Party of India, formed in 1989 under the leadership S.A. Dange and Mohit Sen, had consistently maintained that the RSS was the real enemy of our country and her people. With the decimation of the Congress and the elimination of the Communists, the BJP might feel safe and secure but the country is on the brink of disintegration. The nation is facing that future both horizontally and vertically. The concept of a Hindu Rashtra is self-destructive. A part claiming to be the total whole is deceptive and illusory while the part poised against the whole is suicidal. Besides nobody can stop the claim of Sikh Rashtra, Christian Rashtra and another Muslim Rashtra et al. There is definitely space for preventing the BJP from reaching its goal of establishing a Hindu Rashtra if, and this is a big IF, the nationalists transcending all political boundaries join heads and constitute a Front from the Panchayat and Municipal to the National level to expose the implications of the Hindu Rashtra in general and the way Rashtravad is being pushed by the Hindu Samrat, Narendra Modi. Nationalists everywhere have ample material knowledge and material to do so. No political party, the least, the Indian National Congress, alone can save the country from the menace posed by the Mohan Bhagwat-Narendra Modi-Amit Shah trio. Hargopal Singh is a Member, Political Committee, United Communist Party of India. This article is written by him and it is his personal opinion.