लाचार होती बुजुर्ग पार्टी, संगठनात्मक चुनाव ही अब संजीवनी, भाजपा की हार में अपनी जीत तलाश लेती है कांग्रेस

'औरों के ख़यालात की लेते हैं तलाशी और अपने गरेबान में झाँका नहीं जाता', मुज़फ़्फ़र वारसी का ये शेर कांग्रेस के मौजूदा हालात पर बिलकुल सटीक बैठता है। बंगाल में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला पर पार्टी को ख़ुशी इस बात की है कि भाजपा 77 पर सिमित रह गई। देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का मनोबल गिर चूका है और कांग्रेस की मानसिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वो स्वयं की जीत के बनिस्पत भाजपा की हार में अपनी ख़ुशी तलाश रही है। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व में न धार दिख रही है और न ही नई सोच, फिर भी परिवर्तन को पार्टी तैयार नहीं है। रही सही कसर चापलूसों की फ़ौज पूरा कर देती है। अशरफ़ मालवी ने कहा था कि 'हुकूमत से एजाज़ अगर चाहते हो, अंधेरा है लेकिन लिखो रोशनी है', कांग्रेस में भी ऐसा ही है। पार्टी में भविष्य देखना है तो अँधेरे को रोशनी कहना ही पड़ेगा। पर सवाल ये है कि ऐसा कब तक चलेगा। कब तक पार्टी हकीकत को अनदेखा करती रहेगी। ये सिर्फ कांग्रेस का आंतरिक मसला नहीं है, देश के लोकतंत्र के लिए भी एक मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक है। निसंदेह कांग्रेस की जड़ गहरी है, हिली जरूर है पर अभी उखड़ी नहीं है। कांग्रेस को जरूरत है वक्त रहते आत्ममंथन की।
कांग्रेस का एक बड़ा तबका मानता है कि संगठनात्मक तौर पर कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की सख्त आवश्यकता है। मौजूदा स्तिथि में एक ही रास्ता है की पार्टी में हर स्तर पर लोकतांत्रिक तरीक़े से संगठनात्मक चुनाव करवाकर नेतृत्व चुना जाए। राष्ट्रीय स्तर से बूथ स्तर तक संगठनात्मक चुनाव हो, राज्य स्तर पर भी पार्टी मजबूत हो और मुद्दा आधारित राजनीति के मार्ग पर पार्टी आगे बढ़े। कई बड़े नेता सार्वजानिक तौर पर इसकी वकालत कर चुके है। कई युवा नेता भी खुलकर लोकतांत्रिक तरीक़े से संगठनात्मक चुनाव करवाने के पक्ष में अपनी बात रखते रहे है। न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि प्रदेश में भी इसकी मांग उठती रही है। हालहीं में हिमाचल प्रदेश के युवा नेता और शिमला ग्रामीण विधायक विक्रमादित्य सिंह ने इस मसले पर अपनी राय रखी। विक्रमादित्य इससे पहले भी संगठनात्मक चुनाव करवाने के पक्ष में बोलते रहे है।
कांग्रेस को कामराज प्लान की दरकार
तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के एक नेता को लगा कि पार्टी कमज़ोर होती जा रही है और इसी मुद्दे पर चर्चा करने के लिए एक दिन वो देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिले और कहा कि वे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहते है। वो नेता थे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज। जब पंडित नेहरू ने कामराज से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा की कांग्रेस के सब बुजुर्ग नेताओं में सत्ता लोभ घर कर रहा है, उन्हें वापस संगठन में लौटना चाहिए और लोगों से मिलना जुलना चाहिए। भारतीय राजनीती के इतिहास में इस योजना को कामराज प्लान के नाम से जाना जाता है। इस योजना के तहत उन्होंने खुद भी इस्तीफा दिया और इनके अलावा लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई तथा एसके पाटिल जैसे नेताओं ने भी पद त्यागे थे। अगर आज की बात करे तो भले ही अब भी कुछ राज्य में कांग्रेस की सरकार है मगर कांग्रेस की कुव्वत अब पुरे देश में कुछ खास नहीं रही। अपना अस्तित्व ढूंढ़ती आज की कांग्रेस को कामराज जैसे नेताओ की ज़रूरत है जो सत्ता का लालच छोड़ कर पार्टी का संगठन मजबूत करने में अपना योगदान दें। वर्तमान परिवेश की बात करें तो पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंद्र सिंह और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ऐसे चेहरे है जो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का नेतृत्व करने का मादा रखते है। गहलोत तो 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में भी अपनी क्षमता का लोहा मनवा चुके है। वहीँ कई राज्यों में बेशक कांग्रेस सत्ता में नहीं है लेकिन सत्ता स्वपन ने ही नेताओं में रार डाली हुई है। ये बिखराव और अंतर्कलह ही पार्टी की बड़ी कमजोरी है। यदि ऐसे बुजुर्ग नेता युवाओं को आगे लाकर खुद पार्टी के संगठन में काम करते है तो निसंदेह पार्टी की काया पलट सकती है।
देश में हाल : यूपी, बंगाल, बिहार में मुख्य विपक्षी दल भी नहीं है कांग्रेस
उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, आंध्र प्रदेश, दिल्ली सहित देश के कई राज्यों में तो अब कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल तक नहीं रही। दक्षिण में भी पार्टी की स्तिथि ठीक नहीं है। कांग्रेस का जमीनी स्तर पर संगठन या तो नदारद है, या कमजोर पड़ चुका है। हर स्तर पर आत्ममंथन की जरूरत है। हालहीं में केरल में कांग्रेस गठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा, तमिलनाडु में गठबंधन की जीत पूरी तरह से डीएमके की ही जीत है। पुडुचेरी और आसाम भी पार्टी हारी है। पिछले वर्ष हुए बिहार चुनाव में तो कांग्रेस के साथ गठबंधन का खमियाजा आरजेडी को भुगतना पड़ा था। राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब में जरूर अब भी कांग्रेस के मुख्यमंत्री है। महाराष्ट्र, झारखण्ड और तमिलनाडु में गठबंधन की सरकार है पर इनमें कांग्रेस की हैसियत कुछ ख़ास नहीं दिखती। मध्य प्रदेश में आपसी खींचतान से कांग्रेस सत्ता गवां चुकी है तो राजस्थान में बमुश्किल सत्ता बची है। इसी तरह कर्नाटक में भी गठबंधन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई।
हिमाचल: लचर संगठन से पार्टी लाचार, वीरभद्र का अब भी विकल्प नहीं
देश के मुकाबले हिमाचल में कांग्रेस की स्तिथि बेहतर दिखती है लेकिन 2022 में बगैर वीरभद्र सिंह अब भी कांग्रेस सरकार की कल्पना गले से नहीं उतरती। बढ़ती उम्र और खराब सेहत ने वीरभद्र सिंह को काफी सिमित कर दिया है, पर उनका विकल्प अब भी कांग्रेस के पास नहीं दिख रहा। बीते साढ़े तीन साल में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री का दायरा सिमित ही दिखा हैं। कौल सिंह ठाकुर और सुधीर शर्मा जैसे कई वरिष्ठ नेता पिछला चुनाव हारने के बाद मानो किसी योजना के तहत हाशिए पर धकेल दिए गए है। कांग्रेस का प्रदेश संगठन लचर हैं। प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर तो मानो बंद कमरे से पत्रकार वार्ता करके ही अपनी सियासी गाड़ी धकेलना चाहते है। हालांकि नगर निगम चुनाव में पार्टी के बेहतर प्रदर्शन ने कुछ आस जरूर जगाई है पर विधानसभा चुनाव जीतने के लिए पार्टी को दमदार चेहरे और नेतृत्व की जरुरत है, जो फिलहाल नहीं दिखता। पांच साल की सत्ता परिवर्तन थ्योरी के आधार पर ही सत्ता में वापसी मुश्किल होगी।