आगे क्या : चुनावी राजनीति या नोटा मुहिम से प्रेशर पॉलिटिक्स

देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा के संयुक्त तत्वाधान में चल रही सवर्ण आंदोलन जैसा ही एक आंदोलन 2018 के विधानसभा चुनाव से पूर्व मध्य प्रदेश में भी देखने को मिला था। हालांकि दोनों में पूरी तरह समानता नहीं है, दोनों प्रदेशों के सियासी समीकरण भी अलग है, फिर भी जो कुछ हिमाचल में चल रहा है उसे बेहतर तरीके से समझने के लिए मध्य प्रदेश में सवर्ण समाज के आंदोलन पर नज़र डालना बेहद जरूरी है। कुछ लोग मानते है कि हिमाचल में चल रहा आंदोलन मध्य प्रदेश के आंदोलन से प्रेरित है। खासतौर से उपचुनाव में जिस तरह नोटा को लेकर मुहिम छेड़ी गई थी उसके बाद से ही जानकार इस आंदोलन को हल्का लेने की भूल नहीं कर रहे। बेशक सवर्ण आयोग गठन का सरकार ने ऐलान कर दिया हो लेकिन लगता है कि सियासी पिक्चर अभी बाकी है।
वर्ष 2018 में एससी/एसटी संशोधन विधेयक संसद से पारित हुआ और सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश निरस्त कर दिया गया जहां इस कानून के तहत बिना जांच गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी। देशभर में सवर्ण समाज में इसे लेकर रोष था, पर इसका ज्यादा प्रभाव दिखा मध्य प्रदेश में। दिसंबर 2018 में ही मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी होने थे सो जाहिर है चुनावी बेला में असर भी ज्यादा दिखा। सामान्य पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग अधिकारी कर्मचारी संस्था (सपाक्स) के बैनर तले मध्य प्रदेश में तब शिवराज सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था। दिलचस्प बात ये है कि तब सपाक्स इस मुद्दे को आधार बनाकर चुनाव मैदान में भी उतरी, हालाँकि जनता ने उसे पूरी तरह नकार दिया। माहिर मानते है कि चुनावी साल में हिमाचल में भी सवर्ण समाज के नाम पर सियासत होना तय है। पर बड़ा सवाल ये है कि क्या देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा चुनावी रण में दिखेंगे या ये नोटा की मुहिम के साथ ही प्रेशर पॉलिटिक्स बरकरार रखने का प्रयास करेंगे। देवभूमि क्षत्रिय संगठन के अध्यक्ष रुमीत सिंह ठाकुर का कहना है कि दोनों राजनैतिक दलों ने बीते कई दशकों से प्रदेश के हितों पर कुठारघात किया है। वो ये भी कहते है कि आने वाले समय में बागवानों के मुद्दों को भी उठाया जायेगा। साथ ही ये कहने से भी गुरेज नहीं करते कि यदि भाजपा -कांग्रेस ने उनकी नहीं सुनी तो जरुरत पड़ने पर तीसरे राजनैतिक विकल्प का रास्ता भी खुला है।
नोटा को बनाया जा सकता है हथियार
2018 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की 22 सीटों पर जीत के अंतर से ज्यादा नोटा दबाया गया था और इनमें से अधिकांश भाजपा हारी थी। सवर्ण समाज का वोट भाजपा के साथ माना जाता है और यदि ये नोटा सवर्ण समाज का था तो निसंदेह इसमें भाजपा का ही घाटा रहा। हिमाचल प्रदेश में बीते दिनों हुए उपचुनाव में जिस तरह नोटा को लेकर अभियान चलाया गया उसके पीछे मध्य प्रदेश की इस केस स्टडी को आधार माना जाता है। संभवतः आगामी विधानसभा चुनाव में भी नोटा के इस्तेमाल को ही हथियार बनाया जा सकता है।