दियोटसिद्ध: बाबा को बकरे चढ़ाए तो जाते हैं, लेकिन बलि नहीं दी जाती
यहां बकरे चढ़ाए तो जाते हैं, लेकिन उनकी बलि कभी नहीं दी जाती अपितु मंदिर प्रशासन उन बकरों की देखभाल करता है। हिमाचल की पहाड़ियों पर बसे बाबा बालक नाथ मंदिर की महिमा अपार है। हमीरपुर जिले के चकमोह गाँव की पहाड़ी के शिखर पर स्थित इस पूजनीय स्थल को दियोटसिद्ध के नाम से जाना है। मंदिर में पहाड़ी के बीच एक ऐतिहासिक गुफा है जिसे बाबा जी का आवास स्थान माना जाता है। मंदिर में बाबा जी की एक भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। वहीं मंदिर में जो भक्तगण बाबाजी के दर्शन के लिए आते है वो बाबा जी की भेदी में रोट चढ़ाते हैं। इस रोट को आटे में चीनी या गुड़ डाल कर घी में बनाया जाता है। वहीँ यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है, जो उनके प्रेम का प्रतीक है और उनका पालन पोषण किया जाता है। मंदिर से करीब छह किमी आगे एक शाहतलाई नामक स्थान है, ऐसी मान्यता है कि इस जगह पर बाबाजी ध्यान योग किया करते थे। मंदिर में बाबा जी के दर्शन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि बाबा बालकनाथ गुजरात के जूनागढ़ से भगवान शिव के दर्शन करने के लिए शाहतलाई आए थे। उस समय शाहतलाई में रत्नों माई नाम की एक महिला रहा करती थी। उस महिला की कोई संतान नहीं थी। रत्नों ने बाबा बालक नाथ को अपना धर्म का पुत्र बनाया था। बाबा बालकनाथ गांव में रत्नों की गायों को चराया करते थे। माता रत्नों उन्हें खाने में रोटी और छाछ देती थी। यह सिलसिला 12 साल तक चला। एक दिन बाबाजी अपनी तपस्या में लीन थे, उस दौरान सभी गाय लोगों के खेतों में चरने के लिए घुस गई। इस बात की शिकायत लेकर गांव के लोग माता रत्नों के पास आ गए। लोगों की बाते सुन कर माता रत्नों गुस्से में आ गईं और उन्होंने गुस्से में आकर बाबा बालक नाथ को बुरा भला कह डाला। यहां तक कि उन्होंने बाबाजी को रोटियों और छाछ का ताना भी दे दिया। माता रत्नों की बातों से दुखी होकर बाबा ने वट वृक्ष के खोल में रखीं 12 वर्षों की रोटियां और छाछ से भरा तालाब उन्हें दिखा दिया। तब कहीं जाकर मां रत्नों को बाबा बालकनाथ के दिव्य पुरुष होने का अहसास हुआ। उन्होंने बाबा से क्षमा याचना भी की। जब इस बात की जानकारी गुरू गोरख नाथ को मिली तो वह प्रसन्न होकर बाबा बालक नाथ के पास पहुंच गए और उन्हें अपना चेला बनने के लिए कहा। परन्तु बाबा बालक ने उनका चेला बनने से इंकार कर दिया। गोरख नाथ ने क्रोधित होकर उन्हें जबरदस्ती अपना चेला बनाने की कोशिश भी की लेकिन गुरु गोरख नाथ की कोशिश को नाकामयाब करते हुए बाबा बालकनाथ ने उड़ारी मारी और धौलगिरी पर्वत पर पहुंच गए, जहां पर बाबा जी की पवित्र गुफा है। कहा जाता है कि बाबाजी तपस्या करते हुए इसी गुफा में अंतर्ध्यान हो गए थे। जानकारों का कहना है कि बाबा बालक नाथ की गुफा में दियोट यानि दीपक जलता है, जिसके बाद से यहां का नाम दियोटसिद्ध पड़ा।
भगवान शिव ने दिया बालक की छवि में रहने का वरदान
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि बाबा बालकनाथ जी का जन्म सभी युगों में हुआ। हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया। सत युग में उन्हें स्कन्द, त्रेता युग में उन्हें कौल और द्वापर युग में बाबाजी महाकौल के नाम से जाना गया। अपने हर अवतार में उन्होंने गरीबों एवं निःसहायों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों का नाश किया है। हर एक जन्म में बाबा बालकनाथ भगवान शिव के भगत कहलाए। द्वापर युग के दौरान जब महाकौल कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के दर्शन के लिए जा रहे थे, रास्ते में उनकी मुलाकात एक वृद्ध स्त्री से हुई। उस वृद्ध स्त्री ने महाकौल से कैलाश जाने का कारण पूछा। वृद्ध स्त्री को जब बाबाजी की इच्छा का पता चला कि वह भगवान शिव से मिलने जा रहे हैं, तो वृद्ध स्त्री ने बाबा जी को मानसरोवर नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी। स्त्री ने उन्हें माता पार्वती जोकि मानसरोवर नदी में अक्सर स्नान के लिए आया करती थी, उन से भगवान शिव तक पहुँचने का उपाय पूछने के लिए कहा। बाबाजी ने बिलकुल वैसा ही किया जैसा उस वृद्ध स्त्री ने उन्हें करने के लिए कहा और घोर तपस्या के बाद बाबाजी भगवान शिव से मिलने में सफल हुए। बालयोगी की तपस्या को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बाबा जी को कलयुग तक भक्तों के बीच सिद्ध प्रतीक के तौर से पूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया और चिर आयु तक उनकी छवि को बालक की छवि के तौर पर बने रहने का भी आशीर्वाद दिया।
स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की
माना जाता है कि बाबा बालक नाथ जी ने कलयुग में गुजरात के काठियाबाद में देव के नाम से जन्म लिया था। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था। बाबा बालकनाथ बचपन से ही अध्यात्म में लीन रहते थे। यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। परम सिद्धि की राह को अपनाते हुए बाबा जी ने अपने घर परिवार का त्याग कर दिया। परम सिद्धि की राह पर निकले बाबा बालकनाथ का सामना जूनागढ़ की गिरनार पहाड़ी में स्वामी दत्तात्रेय से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की और वह सिद्ध बने। तभी से उन्हें बाबा बालकनाथ जी कहा जाने लगा।
गुफा के अंदर दर्शन के लिए नहीं जाती महिलाएं :
बाबा बालक नाथ गुफा के अंदर महिलाएं नहीं जाती है। यह परंपरा काफी लम्बे से चली आ रही है। महिलाएं गुफा में प्रवेश करने के बजाय मंदिर परिसर में चबूतरे से ही गुफा के दर्शन करती थी। महिलाओं का गुफा का दूर से दर्शन करने का कारण बाबाजी का ब्रह्मचारी होना माना जाता है। कुछ समय पहले मंदिर में एक बोर्ड लगा जिस पर महिलाओं का गुफा में प्रवेश न करने का संदेश था। मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग रास्ते थे। हालांकि अब उस बोर्ड को हटा दिया गया है। मंदिर प्रशासन और सरकार द्वारा भी मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं पर किसी तरह की रोक नहीं लगायी गयी है। यदि कोई महिला दर्शन के लिए गुफा के अंदर जाना चाहती है, तो वह जा सकती है। यह पूरी तरह महिलाओं की इच्छा पर निर्भर करता है।
गुरना पेड़ में डोरी बांधकर होती है हर इच्छा पूरी:
बाबा बालकनाथ की तपोस्थली शाहतलाई में प्राचीन काल की दो ऐतिहासिक धरोहरें वट वृक्ष और गुरना पेड़ आज भी उपस्थित हैं। इन पेड़ों से लाखों लोगों की श्रद्धा जुड़ी हुई है। इन ऐतिहासिक धरोहर की खास बात यह है कि प्राचीन काल से यह पेड़ सालभर हरे भरे रहते हैं। शाहतलाई में स्थित गुरना पेड़ का विशेष धार्मिक महत्व है। गुरना पेड़ का दर्शन किए बिना बाबा बालक नाथ की यात्रा अधूरी मानी जाती है। मान्यता के अनुसार बाबा जी ने चरण गंगा के किनारे स्थित गुरने की छाया में बैठकर तपस्या की थी। गुरना पेड़ आज भी उसी तरह हरा भरा है। माना जाता है कि गुरना पेड़ के तने में डोरी बांधने से हर मनोकामना पूरी होती है। जब मनोकामना पूरी हो जाती है तो श्रद्धालु उस डोरी को खोल देते हैं। इतना ही नहीं श्रद्धालु गुरने के पत्तों को तोड़कर प्रसाद के रूप में घर ले जाते थे। इससे गुरने का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगा था। इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए मंदिर न्यास ने गुरने के तने के चारों ओर लोहे की ऊंची ग्रिल लगा दी है। अब श्रद्धालु ग्रिल पर ही डोरी बांधकर मन्नतें मांगते हैं।