रस्किन बांड : वो साहित्यकार जिसका नाम ही काफी है
कहते है साहित्य के पौधे को पेड़ बनाने में परिवेश की आबोहवा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। हिमाचल की खूबसूरत वादियों और शुद्ध वातावरण ने भी कई साहित्यकारों को जन्म दिया है। इन कई शानदार साहित्यकारों में से एक है रस्किन बॉन्ड। देश के अंग्रेज़ी साहित्यकारों में रस्किन बॉन्ड का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। रस्किन बॉन्ड का जन्म 19 मई 1934 को हिमाचल प्रदेश के जि़ला सोलन के कसौली नगर में हुआ था। साहित्यिक लेखन में आज तक के 72 से अधिक वर्षों की अवधि में, बॉन्ड ने पांच सौ से अधिक कहानियां, निबंध, आलेख और उपन्यास लिखे हैं जो बच्चों और वयस्कों के लिए समान रूप से रोचक हैं। इनके साथ ही रस्किन बॉन्ड हिमाचल और गढ़वाल की पहाडि़यों से अपनी भूतिया कहानियों से भी पाठकों को रोमांचित करने में सफल रहे हैं। एंग्लों इंडियन परिवार में जन्में रस्किन को भारत की पहाड़ियां, वादियां बहुत पसंद आती थी। यही वजह है कि मौसम-वादियां, नदी-पर्वत, घटाएं-धूप और छोटे कीड़े उनकी कहानियों का हिस्सा बन गए।
रस्किन बॉन्ड ने अपना बचपन दिल्ली, शिमला, मसूरी और देहरादून जैसे शहरों में बिताया। रस्किन बॉन्ड केवल चार साल के थे जब उनकी मां उनके पिता से अलग हो गईं और बाद में उन्होंने एक भारतीय से शादी कर ली। रस्किन बॉन्ड को अपने पिता के साथ बहुत ज़्यादा लगाव था। दुर्भाग्य से सन 1944 में कोलकाता में तैनाती के दौरान मलेरिया से ग्रसित हो जाने से उनके पिता की मृत्यु हो गई। युवा रस्किन उस समय दस वर्ष के थे जब उन्हें बोर्डिंग स्कूल में एक शिक्षक के माध्यम से अपने पिता की असामयिक मृत्यु की ख़बर मिली। अपने पिता की मृत्यु के बाद अकेले रह गए रस्किन को और अधिक उदास किया उनकी मां की दूसरी शादी और देहरादून में उनके गार्डियन बने मिस्टर हैरिसन के परिवार ने। भारतीयता के रंग में रंगे रस्किन को पक्का अंग्रेज बनाने में वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए वह अक्सर रस्किन की पिटाई भी कर देते थे। तब एक दिन विरोध में अपने संरक्षक पर हाथ उठा रस्किन घर से भाग गए। यह सब कुछ बहुत दुखद था। लेकिन इन सब विपरीत परिस्थितियों ने उनके हृदयस्पर्शी लेखन के लिए अच्छी जमीन तैयार कर ली। "रूम ऑन द रूफ" इन्हीं घटनाओं की परिणति है।
रस्किन बॉन्ड ने शिमला के प्रसिद्ध बिशप कॉटन स्कूल में पढ़ाई की। स्कूल के बाद रस्किन लगभग चार वर्षों के लिए ब्रिटेन चले गए थे। यह 1951 के आसपास की बात है जब भारत आजाद हो चुका था, लेकिन खूब घने पेड़ों के बीच बसे उनकी दादी के घर में बिताए हुए बचपन के दिन और हिंदुस्तानी साथियों की याद ब्रिटेन में हमेशा के लिए बस जाने से उनका मोहभंग करती रहती। यही यादें सहारा बनीं "द रूम ऑन द रूफ" उपन्यास लिखने में। उपन्यास काफी प्रसिद्ध हुआ और इससे उनकी जो कमाई हुई, उन पैसों से उन्होंने 'स्वदेश' यानी भारत वापसी की। उपन्यास की कथावस्तु का केंद्र देहरादून शहर था जिस पर उन्हें अपने समय का एक प्रसिद्ध पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। उसके बाद जीवन यापन के लिए उन्होंने लेखन को ही सहारा बना लिया। रस्किन बॉन्ड की लेखन शैली बेहद सहज और सरल रही इसलिए जल्द ही वह बेस्टसेलर लेखकों में शामिल हो गए। इस उपन्यास को 1957 में जॉन लेवेलिन राइस पुरस्कार मिला, जो 30 वर्ष से कम आयु के ब्रिटिश राष्ट्रमंडल लेखक को दिया जाता था। इसी उपन्यास को ‘दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में क्रमबद्ध किया गया था और उसके लिए चित्र प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा ने बनाए थे।
रस्किन बॉन्ड 30 साल के थे जब उन्होंने दिल्ली में अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया और इसके बजाय एक पूर्णकालिक लेखक बनने के लिए देहरादून में बस गए। तब उन्होंने 'द थीफ', 'व्हेन डार्कनेस फॉल्स, 'अ फेस आन द डार्क', द काइट मेकर, द टनल , अ फ्लाइट्स ऑफ पिजन, द वुमन आन प्लेटफार्म, मोस्ट ब्यूटीफुल, डेल्ही इज नॉट फार, एंग्री रिवर जैसी पांच सौ से भी अधिक कहानियां, उपन्यासों, लेख और कुछ कविताओं की रचना की। कथावस्तु बहुत सामान्य और सरल होने के बावजूद भी उनकी हर रचना दिल पर एक खास प्रभाव छोड़ जाने में कामयाब रहती है।
कई कहानियों पर बनी फिल्में :
रस्किन बॉन्ड की कुछ कहानियों को फिल्मी पर्दे के लिए भी रूपांतरित किया गया है। मसलन फिल्म अभिनेता/निर्माता शशि कपूर और निर्देशक श्याम बेनेगल ने 80 के दशक में रस्किन बांड के उपन्यास 'फ्लाइन ऑफ़ पिजन्स' पर 'जुनून' नाम से खूबसूरत और चर्चित फिल्म बनाई थी। रस्किन बांड की कहानी द ब्लू अंब्रेला पर विशाल भारद्वाज ने इसी नाम से फिल्म बनाई है। इसी तरह विशाल भारद्वाज ने ही रस्किन बांड की रचना 'सुज़ैन्स सेवेन हसबैंड' पर ' सात खून माफ़' फिल्म बनाई।
पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित
रस्किन बॉन्ड को अंग्रेज़ी में उनके उपन्यास ‘आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन दि देहरा’ के लिए 1992 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बॉन्ड ने बच्चों के लिए सैकड़ों लघु कथाएं, निबंध, उपन्यास और किताबें लिखी हैं। उन्हें 1999 में पद्मश्री और 2014 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
बिशप कॉटन स्कूल को बताते है अल्मा मेटर
रस्किन बांड को अपने स्कूल से भी बेहद लगाव था। ये बात हाल ही में प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘लोन फॉक्स डांसिंग’ में दिखाई देती है जहाँ रस्किन बॉन्ड ने बिशप कॉटन स्कूल शिमला में बिताए दिनों का बहुत ही रोचक तरीके से ज़िक्र किया है। वे स्पष्ट कहते हैं कि उनका स्कूल उनकी ‘अल्मा मेटर’ थी, यानी दूसरी मां जिसने पूरी तरह से प्यार-दुलार और सहारा देकर उन्हें वर्तमान स्तर तक पहुंचाया।