अल्मोड़ा में दुर्गा रूप में विराजमान नंदा देवी पूरी करती है भक्तों की मन्नतें
भारतवर्ष देवी-देवताओं की पावन स्थली है। यूं तो भारत के चप्पे-चप्पे पर धार्मिक स्थान हैं, मगर हिमाचल और उत्तराखंड को इसके लिए विशेष वरदान है। यही कारण है कि हिमाचल और उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। आइए आज उत्तराखंड कुमाऊं के अल्मोड़ा जिला में स्थित नंदा देवी मंदिर की यात्रा करते हैं। इस मंदिर में मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है। यह मंदिर समुद्रतल से 7816 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी मां नंदा को समर्पित है। चूंकि यहां मां दुर्गा के अवतार में विराजमान है तो मां दुर्गा भगवान शंकर की पत्नी हैं। पर्वतीय आंचल में इसकी मुख्य देवी के रूप में आराधना की जाती है। नंदा देवी गढ़वाल के राजा दक्षप्रजापति की पुत्री हैं। अत: सभी कुमाऊंनी और गढ़वाली इस मां को पर्वतांचल की पुत्री मानते हैं। इस मां को बुराई की विनाशकारण माना जाता है। वहीं इसे कुमणू घुमंतू के रूप में भी माना जाता है। इसका इतिहास 1000 वर्ष से भी पुराना है। यह मंदिर शिव मंदिर की बाहरी ढलान पर स्थित है। इसका उल्लेख महापुराणों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है।
पत्थर का मुकुट है आकर्षण का केंद्र
इस मंदिर में पत्थर का मुकुट और पत्थर से दीवार पर बनाई कलाकृतियां आकर्षण का केंद्र हैं। भविष्यपुराण में इसका महालक्ष्मी, नंदा, नंदा क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूंढस, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी के रूप में उल्लेख है। अल्मोड़ा स्थित नंदा देवी का मंदिर उत्तराखंड के प्रमुख मंदिरों में से एक है। कुमाऊं में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा देवी के मंदिर स्थित हैं। अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है।
हर साल भाद्र मास की अष्टमी को लगता है मेला
नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र मास की अष्टमी को मेला लगता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है। यह प्रतिमाएं कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं। मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊंची चोटी नंदादेवी के सदृश बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चंदन, अक्षत एवं पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है। धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मु_ी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नन्दा बनाया जाता है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाए जाते हैं।
सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुंवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते हंै। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलाएं भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं। दिन भर भगवती पूजन चला रहता है। अष्टमी की रात्रि को भी पूजन होता है। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा के रूप में निकाली जाती है।