बॉन धर्म के अनुयायियों के लिए विशिष्ट महत्व रखती है मेनरी मोनेस्ट्री
बॉन मेनरी मोनेस्ट्री, न सिर्फ जिला सोलन के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है अपितु ये बॉन धर्म के अनुयायियों के लिए विशिष्ट महत्व रखती है। ये मठ युंगड्रंग बॉन मठ केंद्र द्वारा चलाया जाता है। 1969 में इसकी स्थापना मठाधीश लुंगटोक तेनपाई न्यिमा ने की थी। आज पूरी दुनिया में बॉन धर्म को माने वाले इस स्थान पर आते है।
बॉन धर्म तिब्बत की प्राचीन और पारंपरिक धार्मिक प्रथा है। माना जाता है कि लगभग आठवीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत से गया। पर बॉन धर्म उससे पहले से ही तिब्बत में प्रचलित था। यानि बॉन धर्म तिब्बत का अपना स्थानीय धर्म है। बौद्ध धर्म के तिब्बत में आने के बाद राजकीय समर्थन उस ओर मुड़ गया और बॉन धर्म के अनुचरों के साथ भेदभाव किया जाने लगा तो उन्होंने बौद्ध धर्म की कुछ मान्यताएं और कर्मकांड अपना लिया, जिसके चलते यह बौद्ध धर्म का एक सम्प्रदाय लगने लगा। जबकि वास्तव में दोनों धर्म अलग- अलग है। बॉन मतावलंबियों के अनुसार उनका धर्म तोनपा शेनरब के द्वारा स्थापित किया गया था जो शाक्यमुनि गौतम से भी पहले के युग के बुद्ध थे। बॉन धर्म के मूल विहार मेनरी मोनेस्ट्री की स्थापना भी सदियों पहले तिब्बत में हुई थी। फिर चीन के कब्जे के बाद कई बोन धर्मावलम्बी भारत आ गए और दोलांजी का मौजूदा विहार मूल मेनरी विहार के नाम पर फिर से बनाया गया। यहाँ मौजूद युंगडुंग बोन पुस्तकालय भी दुनियाभर में बॉन साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह है।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार बॉन धर्म के तत्व सिर्फ़ तिब्बत तक ही सीमित नहीं थे बल्कि उनका ऐतिहासिक प्रभाव तिब्बत से दूर कई मध्य एशिया के क्षेत्रों तक भी मिलता था। इतिहासकार बॉन धर्म को तिब्बती साम्राज्य से पहले आने वाले झ़ंगझ़ुंग राज्य से भी संबंधित मानते हैं। जबकि कई विद्वानों का मानना है कि बॉन धर्म और हिन्दू धर्म के भगवान शिव में बहुत-सी तीर्थ व अन्य समानताएं हैं। मसलन मानसरोवर और कैलाश पर्वत दोनों ही धर्मों में पवित्र माने जाते थे और हिंदुओं के लिए भगवान शिवजी के कारण विशेष महत्व रखते हैं। इसी तरह बहुत-सी तिब्बत में उत्पन्न होने वाली नदियां भी हिंदुओं और बोन धर्मियों के लिए धार्मिक आस्था की बिंदु हैं।
जीभ दिखाकर करते है अभिवादन :
18वीं शताब्दी में तिब्बत पर द्जुन्गर कबीलों का कब्ज़ा हो गया। द्जुन्गरों ने स्थानीय धार्मिक परम्पराओं का दमन शुरू किया और लामाओं (मॉन्क्स) और बोन धर्मावलम्बियों को पकड़ के जेलों में ठूंस दिया। उनका मानना था कि लगातार मंत्र पढ़ने से जीभ का रंग काला पड़ जाता है इसलिए द्जुन्गर अधिकारियों से मिलने आए हर व्यक्ति को अपनी जीभ दिखानी पड़ती थी, ताकि पहचान हो सके की वह लामा है या नहीं। कालांतर में लोगों के बीच यही अभिवादन का तरीका बन गया। आज भी तिब्बत में लोग एक दूसरे का अभिवादन जीभ दिखाकर ही करते हैं।
शिक्षा के बाद मिलती है गेशे की उपाधि :
दोलांजी स्थित मेनरी विहार बोन धर्म के अध्ययन का महत्वपूर्ण केंद्र है जहाँ शिक्षा के साथ भिक्षुओं के रहने और खाने का भी इंतजाम होता है। न्यूनतम 12 और अधिकतम 16 वर्ष तक भिक्षुओं को धर्म, दर्शन, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि की शिक्षा दी जाती है। प्रवीणता प्राप्त करने पर भिक्षुओं को ‘गेशे’ की उपाधि मिलती है जो पीएचडी के समकक्ष मानी जाती है। मौजूदा समय में बिहार में 200 से ज्यादा भिक्षु हैं जिनमें मंगोलिया, म्यांमार, तिब्बत, नेपाल के भिक्षु भी शामिल हैं।