महाकवि निराला की पांच अमर रचनाएँ
महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ प्रबुद्ध छायावादी कवि थे। वे कविताओं के साथ-साथ निबंध, उपन्यास व कहानियाँ भी रचते थे। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 21 फरवरी 1896 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में हुआ था। पिता पंडित रामसहाय त्रिपाठी एक सरकारी नौकरी करते थे। सूर्यकान्त बहुत छोटे थे जब उनकी माता का देहांत हो गया था। माता के निधन उपरांत , निराला का प्रारंभिक जीवन कठिनाइयों में बीता।
दिलचस्प बात ये है कि हिंदी के महान कवी निराला को ज्यादा हिंदी नहीं आती थी। निराला का विवाह मनोहरी देवी के साथ हुआ और मनोहरी की प्रेरणा से ही 20 वर्ष की आयु में निराला ने हिन्दी सीखी।
निराला जब 22 वर्ष के थे तब उनकी पत्नी का देहांत हो गया। एक पुत्री थी, वह भी विधवा हो गयी और कुछ समय बाद उसका भी देहांत हो गया। पत्नी व पुत्री की मृत्यु के बाद, निराला का जीवन नीरस था। उन्होंने लेखन में अपना मन लगाया और लेखन ही उनका परिवार बन गया।
वर दे वीणावादिनी वर दे !
वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे!
काट अंध-उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर;
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
चुम्बन
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल
कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर,
बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर
है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर!
तुम हमारे हो
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हुए दिन बीते।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हुए।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हुए।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है।
रात को सोते यह सपना देखा
कि वह कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुरत भर लेना"।
भेद कुल खुल जाए
भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है ।
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है ।।
हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है ।
तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में,
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है ।
पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है।
ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें,
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है।
गीत गाने दो मुझे
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।