मंजुला वर्मा की कलम से : 'भाव मेरे मन के जागे'

भाव मेरे मन के जागे,
जीत गए कुछ मन की राग ये
बदलाव आज किस तरह का जमाने में आ गया
हर इंसान मतलबी सा हो गया।
रिश्ते भी रिश्ते नहीं रहे,
हर एक रिश्ता अजनबी सा हो गया,
इंसानियत कहां खो गई,
इंसान के खिलाफ हो गया
कुदरत का कहर कुछ यूं देखा हमने,
आज इंसान कैद, और जानवर आजाद हो गया।
कुदरत के आगे सब डर से गए
अमीरी के नशे में चूर थे,
वह भी वक्त के आगे झुक से गए।
इंसान अब भी ना तू समझा
तो कहर बहुत बरस जाएगा,
कुदरत का कहर कुछ यू बरसा,
जो छोड़ गए थे कुछ अपने,
आज वह भी अपनों के लिए तरसा।
याद आ गया मुझे अपने बचपन का जमाना,
मां बापू का प्यार और उनका धमकाना,
आज फिर वो संस्कार लौट कर आए,
जो इस पाश्चात्य सभ्यता को नहीं थे भाय।
धरती मां जिसको बांझ सा था कर दिया ,
आज वह खेत खलियान फिर से हैं लहराए,
घर से गए बुद्धू घर को लौट आए,
सुबह का भूला शाम को घर आए तो बुलाना कहलाए।
कुछ इस तरह से मंजू के मन के भाव आज जाग आए,
वाह री कुदरत तूने टूटे हुए रिश्ते फिर से है मिलवाए,
ये थे मेरे मन के भाव जो आज बाहर निकल कर के आए।
मंजुला वर्मा
भाषा अध्यापिका
जिला मंडी
हिमाचल प्रदेश