कारगिल के पहले शहीद कैप्टेन सौरभ कालिया को इंसाफ का इंतज़ार

सरहद पर लड़ते वीर जवानों की शहादत के किस्से तो अक्सर सुनाएं जाते है, ये वीर गाथाएं देश के हर युवा को देश प्रेम का पाठ पढ़ाती है। इन वीर गाथाओं को सुनने के बाद सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है और आँखों में नमी आ जाती है। देश के लिए प्राण कुर्बान करने वाले कई जवानों में से एक जवान ऐसा भी हैं, जिनकी कहानी बहुत कम सुनाई देती है। कारण है उस कहानी के पीछे छिपा दर्द, जो किसी खौफ से कम नहीं है। ये कहानी है कैप्टन सौरभ कालिया की। सौरभ कालिया की शहादत की कहानी एक ऐसी वीर गाथा जो हर किसी को अचंभित कर दे, ये सोचने पर मजबूर कर दे कि कैसे कोई इतना निर्दयी हो सकता है। सौरभ को पाकिस्तान में 22 दिनों तक बंधी बनाकर ज़बरदस्त यातनाएं दी गई। उन्हें सिगरेट से जलाया गया, उनके कानों में लोहे की सुलगती छडे घुसेड़ दी गई, नाखून उखाड़ दिए गए, मगर उनके मुँह से गद्दारी का एक लब्ज भी पाकिस्तान निकलवा नहीं पाया। कैप्टेन कलिया वो जाबाज़ जवान है जिन्हें कारगिल की जंग शुरू होने से पहले ही शहादत मिल गई, जिनकी वीर गाथा के बिना कारगिल युद्ध की कहानी अधूरी है। इनकी शहादत को कारगिल की पहली शहादत भी कहा जाता है।
29 जून 1976 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे सौरभ कालिया के पिता डॉक्टर है। सौरभ ने पालमपुर के डीएवी पब्लिक स्कूल से 10वीं कक्षा तक की पढ़ाई की और फिर केन्द्रीय विद्यालय, पालमपुर से 12वीं की। इसके बाद साल 1997 में एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, पालमपुर से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। ग्रेजुएशन पूरी होते ही सौरभ ने सेना की परीक्षा दी। कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज (सीडीएस) के जरिये अगस्त 1997 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में सौरभ का चयन हुआ और 12 दिसंबर 1998 को उन्हें आईसी नंबर 585222 पर 4 जाट रेजिमेंट के तहत पहली पोस्टिंग मिली। सौरभ कालिया के पिता डॉक्टर एन के कालिया बताते है की "पासिंग आउट परेड के समय उसे वर्दी में देख कर मैं और उसकी माँ फुले नहीं समाए थे। 6 फुट 2 इंच का वो लम्बा जवान वर्दी में खूब जंच रहा था। सौरभ को बचपन से ही आर्मी में जाना था। उसने 12वीं के बाद एएफएमसी का एग्जाम दिया, लेकिन वे पास नहीं कर पाया। ग्रेजुएशन के बाद जब सौरभ ने CDS क्रैक किया तो हमें उसपर बहुत गर्व हुआ। "
31 जनवरी, 1998 को बरेली के जाट रेजिमेंटल सेंटर में रिपोर्टिंग के बाद जनवरी के मध्य में वो सेना में जाकर शामिल हुए। जनवरी 1999 में सौरभ कारगिल पहुंचे। मई 1999 के पहले हफ्ते में, कारगिल के कई क्षेत्रों में तीन बार पैट्रोलिंग ड्यूटी दी और उसके बाद कारगिल में पाक सेना के बड़े पैमाने पर घुसपैठ की विस्तृत जानकारी देने के लिए सबसे पहले अधिकारी के रूप में काम किया।
कैप्टेन सौरभ कालिया ने अपने अदम्य साहस और वीरता की मिसाल कायम की थी। पर विडंबना तो ये है की उनके इस साहस के लिए उन्हें आज तक कोई सैन्य सम्मान नहीं मिला। शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के परिजनों को आज भी इंसाफ न मिलने का मलाल है। शहीद कैप्टन सौरभ कालिया के लिए न्याय का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। पिछले दो साल से मामले पर सुनवाई नहीं हुई है। करीब दो दशकों से इंसाफ न मिलता देख उनके पिता डॉ. एनके कालिया और माता विजय कालिया का दर्द बेटे के शहीदी दिवस पर फिर छलका था। परिजनों का कहना है कि विंग कमांडर अभिनंदन की तर्ज पर भारत सरकार ने पाकिस्तान से मुद्दा उठाया होता तो उन्हें जरूर इंसाफ मिलता। जब तक विदेश मंत्रालय पाकिस्तान या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मामला सख्ती से नहीं उठाता, तब तक न्याय मिलना मुश्किल है। विदेश मंत्रालय को कैप्टन सौरभ कालिया का मामला पाकिस्तान और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाना चाहिए। उन्हें मोदी सरकार से न्याय मिलने की पूरी आस है।
पाकिस्तानी रेडियो ने दी बंदी बनाने की खबर
तारीख 3 मई 1999, ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहे ने करगिल की ऊंची चोटियों पर कुछ हथियारबंद पाकिस्तानियों को देखा और इसकी जानकारी इंडियन आर्मी को आकर दी थी। 14 मई को कैप्टन कालिया पांच जवानों के साथ पेट्रोलिंग पर निकल गए। कैप्टन सौरभ कालिया ने 'बजरंग पोस्ट' पर जाने के लिए अपने से बड़े, लेकिन रैंक में जूनियर जवान को न भेजकर खुद जाने का बड़ा फैसला लिया था। जब वे बजरंग चोटी पर पहुंचे तो उन्होंने वहां हथियारों से लैस पाकिस्तानी सैनिकों को देखा। कैप्टन कालिया की टीम के पास न तो बहुत हथियार थे न अधिक गोला बारूद। वे महज़ पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। दूसरी तरफ पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या बहुत ज्यादा थी और गोला बारूद भी उनसे अधिक था। पाकिस्तान के जवान नहीं चाहते थे कि ये लोग वापस लौटें। उन्होंने चारों तरह से कैप्टन कालिया और उनके साथियों को घेर लिया। कालिया और उनके साथियों ने जमकर मुकाबला किया लेकिन जब उनका असला खत्म हो गया तो पाकिस्तानियों ने उन्हें बंदी बना लिया। सौरभ और उनके साथियों ( सिपाही अर्जुन राम, भीका राम, भंवर लाल बगरिया, मूला राम और नरेश सिंह ) को अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध पाकिस्तान ले जाया गया। अगली रात पाकिस्तान के एक रेडियो के माध्यम से उनके बंदी बनाए जाने की खबर मिली। कैप्टन कालिया के छोटे भाई वैभव कालिया बताते हैं कि " उस समय बमुश्किल बात हो पाती थी, उनकी ज्वाइनिंग को मुश्किल से तीन महीने हुए थे। हमने तो उन्हें वर्दी में भी नहीं देखा था। फोन तो तब था नहीं, सिर्फ चिट्ठी ही सहारा थी, वो भी एक महीने में पहुंचती थी। एक अखबार से हमें सौरभ के पाकिस्तानी सेना के कब्जे में होने की जानकारी मिली। लेकिन हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था इसलिए हमने लोकल आर्मी कैंटोनमेंट से पता किया। "
क्षत-विक्षत हालत में भारत पहुंची पार्थिव देह
पाकिस्तानी सेना सौरभ और उनके साथियों से ख़ुफ़िया जानकारी हासिल करना चाहती थी। इसीलिए उन्हें 22 दिनों तक कैद में रखा गया, अमानवीय यातनाएं दी गई। मगर सौरभ और उनके साथियों ने पाकिस्तान को कोई भी जानकारी नहीं दी। भारत में किसी को भनक भी नहीं थी की हमारे सैनिकों के साथ पकिस्तान में क्या हो रहा है। सौरभ कालिया की उम्र उस समय 23 साल थी और उनके साथी अर्जुन राम की महज़ 18 साल। 22 दिनों तक यातनाएं देने के बाद इन जवानो को गोली मार दी गई थी। 7 जून को पाकिस्तान ने भारत को इख्तला किया की उन्हें 6 भारतीय जवानों की लाशें अपनी सीमा के भीतर मिली है। 9 जून 1999 को कैप्टन सौरभ कालिया का शव क्षत-विक्षत हालत में भारत पहुंचा। जब कैप्टन कालिया का शव उनके घर पहुंचा तो सबसे पहले भाई वैभव ने देखा। वे बताते हैं कि उस समय हम उनकी बॉडी पहचान तक नहीं कर पा रहे थे। चेहरे पर कुछ बचा ही नहीं था। न आंखें न कान। सिर्फ आईब्रो बची थीं। उनकी आईब्रो मेरी आईब्रो जैसी थीं, इसी से हम उनके शव को पहचान पाए। कारगिल युद्ध के पहले शहीद हुए कैप्टन सौरभ कालिया का पार्थिव शरीर पालमपुर के शहीद कैप्टन विक्रम बतरा मैदान में पहुंचा था तो माता विजया कालिया ने बेटे के पार्थिव शरीर को कंधा दिया था। यह देखकर सारा पालमपुर रोया था। बेटे का क्षत-विक्षत शव देखकर परिजनों में पाकिस्तान के खिलाफ भारी आक्रोश था। ऑटोप्सी रिपोर्ट में पाया गया था की उनकी आँखे फोड़ने के बाद उन्हें निकाल दिया गया था। उनके कान में लोहे की गर्म छड़ी डाली गई थी। नाखून निकाल दिए गए थे, दांत भी टूटे थे। सिगरेट से जलाने के निशान उनकी बॉडी पर थे। उनकी अधिकतर हड्डियां तोड़ दी गयी थी, उँगलियों को भी काटा गया था।
शहादत के बाद अकाउंट में आई पहली सैलरी
वैभव कालिया बताते है की सौरभ ने आखिरी बार अपने भाई को अप्रैल में उसके बर्थडे पर फोन किया था और 24 मई को जब सौरभ का आखिरी खत घर पहुंचा, तब वो पाकिस्तानियों के कब्जे में थे। अपनी मां को कुछ ब्लैंक चेक साइन कर के दे गए थे, ये कहकर कि मेरी सैलेरी से जितने चाहे पैसे निकाल लेना। लेकिन, सौरभ की पहली सैलरी उनकी शहादत के बाद अकाउंट में आई।