सिंहासन खाली करो कि जनता आती है : रामधारी सिंह दिनकर
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्र कवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति,एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के बारे में एक कहानी है जिसका पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ये कहानी अक्सर आपके कानों में कहीं न कहीं से आ ही जाती होगी। लाल किले पर एक कवि सम्मेलन हुआ था जिसकी अध्यक्षता ‘दिनकर’ कर रहे थे। इस सम्मेलन में उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे।
पंडित नेहरू सीढ़ियों से ऊपर चढ़ कर मंच की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनका पैर लड़खड़ा गया। देर होती इससे पहले दिनकर ने उन्हें पकड़ लिया। जब नेहरू मंच पर बैठने लगे तो उन्होंने दिनकर का शुक्रिया अदा किया। दिनकर ने हंसते हुए कहा कि “इसमें शुक्रिया की क्या बात है जब जब राजनीति लड़खड़ाई है उसे कविताओं ने ही सम्भाला है।”
प्रस्तुत है उनकी लिखी एक ऐसी कविता जो भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक जे पी आंदोलन की आवाज़ बनी ।
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।