सुंदरलाल बहुगुणा : प्रकृति की आवाज़ का ख़ामोश हो जाना

‘क्या है इस जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार’, ‘हिम पुत्रियों की लरकार, वन नीति बदले सरकार, वन जागे वनवासी जागे’, वर्ष 1974 के आसपास उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में नारे आम थे। ये ही नारे पहाड़ों पर आज बचे जंगलों के आधार बने। तब इन नारों की वजह से पहाड़ों के जंगल कटने से बचे थे। ये चिपको आंदोलन का दौर था, वो आंदोलन जिसकी शुरुआत 1973 में चमोली जिले से हुई। इस आंदोलन में लोग पेड़ों से चिपक जाते थे, और उन्हें कटने से बचाते थे। इस आंदोलन के प्रणेता रहे पर्यारणविद् सुंदरलाल बहुगुणा का 94 वर्ष की उम्र में बीते शुक्रवार को निधन हो गया है। उम्र के आखिरी पड़ाव में पहुँचते - पहुँचते बहुगुणा शारीरिक रूप से भी काफी कमजोर हो चुके थे, नजर धुंधली पड़ चुकी थी और काफी कम और धीमी आवाज में बात करते थे। पर जैसे ही पर्यावरण का जिक्र होता, उनकी आंखों में पुरानी चमक लौट आती है और जुबां भी प्रखर हो जाती। उनका जाना बड़ी क्षति है।
पद्मविभूषण सुंदरलाल बहुगुणा का दशकों पहले दिया गया सूत्रवाक्य 'धार एंच पाणी, ढाल पर डाला, बिजली बणावा खाला-खाला' आज भी न सिर्फ पूरी तरह प्रासंगिक है। इसका मतलब है कि ऊंचाई वाले इलाकों में पानी एकत्रित करो और ढालदार क्षेत्रों में पेड़ लगाओ। इससे जल स्रोत रीचार्ज रहेंगे और जगह-जगह जो जलधाराएं हैं, उन पर छोटी-छोटी बिजली परियोजनाएं बननी चाहिए। उनकी ये सीख न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि हिमाचल के लिए भी प्रासंगिक है। सुंदरलाल बहुगुणा को 1981 में पद्मश्री पुरस्कार दिया गया। तब उन्होंने यह कहकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि जब तक पेड़ कट रहेंगे, वे खुद को इस योग्य नहीं समझते।
आजादी के लिए लड़े, कांग्रेसी कार्यकर्ता भी रहे
09 जनवरी 1927 को टिहरी गढ़वाल के सिल्यारा गांव में जन्में सुंदरलाल बहुगुणा देश की आजादी के लिए भी लड़े थे और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे गांधीवादी थे और आजादी के बाद उन्होंने राजनीतिक जीवन त्यागकर समाज सेवा को अपना लक्ष्य बना लिया। भूदान आंदोलन से लेकर दलित उत्थान, शराब विरोधी आंदोलन, चिपको आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही। टिहरी बांध के विरोध उनके लंबे संघर्ष के चलते केंद्र सरकार ने पुनर्वास नीति में तमाम सुधार किए।
चंबा से शुरू की थी पदयात्रा
वर्ष 1981 से 1983 के बीच सुंदरलाल बहुगुणा ने पर्यावरण संरक्षण के संदेश लेकर, चंबा के लंगेरा गांव से हिमालयी क्षेत्र में करीब 5000 किलोमीटर की पदयात्रा की थी। पूरी दुनिया में यह यात्रा सुर्खियों में रही।
टिहरी बांध के विरोधी थे
पर्यावरण को बचाने के लिए ही 1990 में सुंदर लाल बहुगुणा ने टिहरी बांध का विरोध किया था। विरोध में उन्होंने 84 दिन लम्बी भूख हड़ताल की और एक बार अपना सर भी मुंडवा लिया। उनका कहना था कि 100 मेगावाट से अधिक क्षमता का बांध नहीं बनना चाहिए। उनका कहना है कि जगह-जगह जो जलधाराएं हैं, उन पर छोटी-छोटी बिजली परियोजनाएं बननी चाहिए। बहुगुणा के उस प्रतिरोध के कारण ही केंद्र सरकार को बांध निर्माण और विस्थापन से जुड़े कई मामलों में समितियों का गठन करना पड़ा। हालांकि टिहरी बांध का निर्माण नहीं रुका।