जयराम ठाकुर : NOT AN ACCIDENTAL CHIEF MINISTER
कोई उन्हें 'एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर' मानता है, तो कोई कमजोर मुख्यमंत्री, लेकिन जयराम ठाकुर को लेकर एक बात सब मानते है, वो है उनकी मेहनत और सरलता जिसकी बदौलत छात्र राजनीति के नारे लगाते -लगाते जयराम हिमाचल प्रदेश की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे है। 2017 में जब भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए तो सबसे बड़ा सवाल ये ही था कि अब मुख्यमंत्री कौन होगा ? सवाल था कि क्या पार्टी धूमल को ही मौका देगी, या कोई और मुख्यमंत्री होगा। भाजपा में कई चाहवान थे और जयराम ठाकुर के अलावा जगत प्रकाश नड्डा, महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव बिंदल के नाम को लेकर भी चर्चा थी। उधर धूमल गुट के कई निष्ठावान विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर चुके थे। जीत कर आएं 44 विधायकों में से आधे से अधिक धूमल के साथ बताये जा रहे थे। फिर तमाम चिंतन -मंथन के बाद आलाकमान ने जयराम ठाकुर के नाम की घोषणा की। ऐसा नहीं है कि जयराम सिर्फ इसलिए सीएम बने क्यों कि धूमल चुनाव हार गए थे। सीएम पद के तो कई दावेदार थे, जयराम ही क्यों ? जयराम ठाकुर के राजनीतिक सफर पर निगाह डालें तो इसका जवाब भी मिल जाता है।
एक समय में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के पिता बढ़ई का काम किया करते थे। आर्थिक स्थिति माली थी लेकिन उन्होंने जयराम ठाकुर की शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। जयराम ठाकुर ने मंडी से बीए पास किया और मास्टर्स की पढ़ाई के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का रुख किया। इसी दौरान वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए। इस तरह छात्र राजनीति से उनका राजनीतिक सफर शुरु हो चुका था। जयराम ठाकुर वर्ष 1986 में एबीवीपी के संयुक्त प्रदेश सचिव बने। वर्ष 1989 से 93 तक जम्मू-कश्मीर में संगठन में कार्य किया। वर्ष 1993 से 1995 तक वह भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के प्रदेश सचिव व प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। अपने कामकाज से वे संघ के भी करीबी हो गए।
वर्ष 1998 में वह पहली बार चच्योट से विधायक चुने गए। वर्ष 2000 से 2003 तक वह जिला मंडी भाजपा अध्यक्ष रहे और 2003 से २००५ तक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। इसके बाद 2003 तथा 2007 में चच्योट विधानसभा सीट से लगातार जीत हासिल करते रहे। वर्ष 2007 में उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष के तौर पर चुनावों में जीत दर्ज न करने का मिथक को तोड़ते हुए लगातार तीसरी जीत हासिल की और धूमल सरकार में पंचायती राज मंत्री बने। परिसीमन के बाद उन्होंने 2012 में सिराज से चुनाव लड़ा और जीते और ये सिलसिला 2017 में भी जारी रहा। हिमाचल प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर को उनके अच्छे प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्होंने खुद की विधानसभा सीट पर तो शानदार जीत दर्ज की ही, जिला मंडी के अंतर्गत आने वाली 10 विधानसभा सीटों में से बीजेपी को 9 सीटें मिली। इस बढ़िया प्रदर्शन का श्रेय भी जयराम ठाकुर को दिया गया। इसी वजह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया।
2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर की चुनौतियां कम नहीं रही। उन्होंने धूमल का स्थान लिया था तो स्वाभाविक है चुनौतियां कम होनी भी नहीं थी। पर आहिस्ता -आहिस्ता जयराम ठाकुर रंग में आते गए और खुद को साबित भी किया। माहिर उनकी ताजपोशी के बाद से ही मानते रहे कि पार्टी के भीतर उनकी मुखालफत जैसी स्थिति बन सकती है, पर ऐसा एक भी मौका नहीं आया। इस बीच भाजपा पार्टी ने पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया और फिर धर्मशाला और पच्छाद का उपचुनाव भी जीता। स्थानीय निकाय चुनाव में भी पार्टी का पलड़ा भारी रहा। पर 2021 में पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से दो में भाजपा को हार मिली। फिर 2021 के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी हारी और जयराम की मुश्किलों में इजाफा होना शुरू हुआ। इसके बाद तो कयास लगने लगे कि आलाकमान सीएम फेस भी बदल सकता है। पर जयराम ने इसका जवाब ये कहकर दिया कि 'मैं हूँ और मैं ही रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ जयराम ठाकुर की कुर्सी तब बची रही बल्कि आलाकमान ने उनके चेहरे पर ही हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। अब इस बार जयराम ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलने का नारा दिया है। अगर जयराम ठाकुर रिवाज बदल देते है तो वे वीरभद्र सिंह के बाद ऐसा करने वाले पहले मुख्यमंत्री होंगे।
कॉलेज के टी स्टॉल पर बैठकर बनाते थे रणनीति
हिमाचल के सीएम बने जयराम ठाकुर की सादगी के किस्से आज भी वल्लभ कॉलेज मंडी के गलियारों में गूंजते हैं, खासकर कैंटीन में। यह कैंटीन कॉलेज के बिलकुल साथ सटा मामू टी-स्टाल था। यहां एबीवीपी का छात्र नेता होते हुए दिन भर साथियों के साथ जयराम ठाकुर सियासी चर्चा करते थे। उनकी सादगी और ईमानदारी का हर कोई प्रशंसक था। वे जब जरूरत पड़े तो मामू टी स्टाल का गल्ला संभालने से भी पीछे नहीं रहते। जब मुख्यमंत्री पद के लिए जयराम के नाम पर मुहर लगी तो पूरे मंडी में माहौल उत्सव सा था। मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर मामू टी स्टाल गए और उनका आशीर्वाद लिया।
पहली बार चुनाव लड़ने को नहीं थे पैसे
जयराम ठाकुर समृद्ध आर्थिक पृष्ठभूमि से नहीं थे। 1993 में जयराम ठाकुर ने प्रदेश की चुनावी राजनीति में एंट्री हुई। उन्हें चच्योट विधानसभा से टिकट दिया गया। वही भारतीय जनता पार्टी के टिकट मिलने से जयराम ठाकुर तो खुश थे, लेकिन परिवार में पिता और मां नाराज थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस वजह से पिता नहीं चाहते थे कि वह चुनाव लड़े, फिर भी जयराम ठाकुर ने हिम्मत नहीं हारी और चुनावी मैदान में उतरे। इस चुनाव में हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। जयराम ठाकुर ने चुनाव में 1998 में जीत का स्वाद चखा। उन्हें इसी विधानसभा सीट से फिर टिकट मिला जिसमें वह जीत दर्ज की।
संघ प्रचारकों के सम्मेलन में मिले दो दिल
हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का निजी जीवन खुली किताब है, लेकिन उनकी पत्नी डॉ. साधना और उनके मिलने की कहानी दिलचस्प है। जयराम ठाकुर और उनकी पत्नी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरा नाता रहा है। डॉ साधना मूल रूप से कर्नाटक की रहने वाली हैं, लेकिन बाद में वह कनार्टक से जयपुर शिफ्ट हो गई थी। जयराम ठाकुर का ससुराल जयपुर के झोटवाड़ा में है। नब्बे के दशक में जम्मू में आयोजित संघ प्रचारकों के सम्मेलन में जयराम की मुलाकात राजस्थान की प्रचारक डॉ. साधना से हुई। यहीं पर जयराम ठाकुर की उनकी पत्नी से जान-पहचान बनी और बाद में दोनों ने शादी करने का फैसला किया और 1995 में दोनों की शादी हुई। डा. साधना पेशे से डॉक्टर हैं और अपने पति की कामयाबी में इनका भी अहम योगदान है। डा. साधना ने घर को तो बखूबी संभाला ही, साथ में अपनी पति के हर कार्य में उनका साथ दिया और हर समय एक मजबूत ढाल की तरह उनके साथ खड़ी रही। हालांकि जब जयराम ठाकुर की शादी हुई उस वक्त जय राम ठाकुर पहला चुनाव हारे हुए थे और राजनीति में अभी उनकी नई-नई पहचान ही बन रही थी। साधना ठाकुर के पिता श्रीनाथ राव भी आरएसएस नेता रहे हैं।
कर्मचारियों के विरोध का करना पड़ा सामना
बतौर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने कार्यकाल में हर वर्ग का ख्याल रखा, लेकिन कर्मचारियों का विरोध भी उन्हें खूब सहना पड़ा। 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों को उम्मीद थी की पुरानी पेंशन बहाली के लिए प्रदेश सरकार कुछ कदम उठाएगी। परन्तु सत्ता में आने के बाद जब कोई बदलाव होता नहीं दिखा तो शुरुआत हुई उस संघर्ष की जो आगे चल कर प्रदेश के कर्मचारियों सबसे बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया। पुरानी पेंशन को लेकर ये आंदोलन रातों रात खड़ा नहीं हुआ। पहले कई बार पेन डाउन स्ट्राइक हुई और फिर कर्मचारी सड़क पर उतर आएं। मामला विधानसभा घेराव तक पहुंच गया। कभी भारी संख्या में कर्मचारी धर्मशाला पहुंचे तो कभी शिमला, पेंशन व्रत हुए, पेंशन संकल्प रैली हुई, पेंशन अधिकार रैली हुई। कर्मचारियों के इन प्रदर्शनों में उमड़ा जनसैलाब स्पष्ट संकेत देता रहा था कि कर्मचारी मानने को तैयार नहीं थे। मगर सरकार हर बार आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देती रही। कर्मचारियों का ये संघर्ष बहुत कम समय में एक आंदोलन में बदल गया। कर्मचारी संगठनों ने खूब हल्ला बोला और सीएम जयराम ठाकुर के लिए " जोइया मामा शुनदा नहीं" के नारे तक लगे। सरकार द्वारा 2009 की अधिसूचना लागू कर प्रदेश के कर्मचारियों को मनाने का भी प्रयास भी हुआ, मगर कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली की मांग पर अड़े रहे। पुरानी पेंशन बहाली को लेकर इस चुनाव में कर्मचारियों ने 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान चलाया, जो भाजपा के जी का जंजाल बनता दिख रहा है।
अफसरशाही पर पकड़ को लेकर उठते रहे सवाल
जयराम ठाकुर पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अक्सर सवाल उठे है। विरोधी इसे लेकर जयराम ठाकुर को कमजोर मुख्यमंत्री साबित करने में जुटे रहे। दरसअल अपने इस कार्यकाल में जयराम सरकार ने कई मर्तबा अपने फैसले बदले। इसके अलावा कई क्षेत्रों में मंत्रियों की बैठकों में अधिकारीयों की अनुपस्थिति चर्चा में रही, तो कभी किसी मीटिंग में अधिकारी और मंत्री के बीच खींचतान की ख़बरें बाहर आई। पर जयराम ठाकुर ने कई मौकों पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अपना पक्ष रखा। वे कहते रहे है कि लताड़ लगाकर काम करवाना उनका तरीका नहीं है, प्यार से भी काम होता है।