हिमाचल की सियासत के चाणक्य थे पंडित सुखराम
हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अलबत्ता कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री तो नहीं बन सके, लेकिन वे अपने आप में हिमाचल की सियासत का एक अध्याय थे। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहे जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल रहे और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पर बदले में पंडित जी ने अपने सभी पांच विधायकों के लिए मंत्री पद लिया। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता।
पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरुआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से जब भी चुनाव लड़ा, हर बार जीत हासिल की।
सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके भी आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर राम लाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए।
1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह फिर पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए।
इसके बाद 1996 में पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। सीबीआई की एक टीम उनके आवास पर छापेमारी की थी और पैसा बरामद किया था। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी का साथ, दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इसके बाद ही पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई।
केंद्र की सियासत में रहा रसूख
केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है।
वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी
1993 में कांग्रेस की सत्ता वापसी के बाद पंडित सुखराम भी सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के आगे उनका दावा टिका नहीं। फिर अगला चुनाव आते-आते पंडित जी कांग्रेस छोड़ चुके थे और 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। तब पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी।
2017 में दिया कांग्रेस को झटका
पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और इसके बाद कांग्रेस में वापस भी लौट आएं। फिर उन्होंने 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और वीरभद्र सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। उनके इस सियासी पेंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। पर पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। वहीं उनके बेटे अनिल शर्मा भाजपा में ही रहे। इसी वर्ष मई में पंडित सुखराम ने दुनिया को अलविदा कह दिया और उनके निधन के बाद उनके परिवार ने भाजपा में रहने का निर्णय लिया।
मंडी ने हमेशा साथ दिया, इस बार परिवार का इम्तिहान !
इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। अब उनके निधन के बाद उनके बेटे अनिल शर्मा ने भाजपा टिकट से मंडी सदर सीट से चुनाव लड़ा है और इस बार ये देखना रोचक होगा कि क्या मंडी पंडित जी के निधन के बाद भी उनके परिवार का साथ देगी।