यूं ही 6 बार मुख्यमंत्री नहीं बने थे राजा वीरभद्र सिंह
वीरभद्र सिंह, वो वटवृक्ष है जिनकी छाया में हिमाचल कांग्रेस का सूर्य सदा उदयमान रहा। वो राजा जिसके सियासी कौशल के आगे बड़े -बड़े नतमस्तक हुए। अर्से से हिमाचल में कांग्रेस का मतलब वीरभद्र सिंह ही रहा है। उनका निवास होलीलॉज अर्से से सियासत का केंद्र बिंदु रहा और आज उनके जाने के बाद भी है। उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वीरभद्र मॉडल को आगे रखकर चुनाव लड़ा है। अखबारों में कांग्रेस के प्रचार का सबसे बड़ा विज्ञापन अब भी वीरभद्र सिंह का दिखा है। निसंदेह हिमाचल प्रदेश की सियासत में वीरभद्र सिंह सबसे बड़ा नाम है। उनका राजनैतिक सफर भी इसकी तस्दीक करता है।
1982 में वीरभद्र सिंह ने पहली बार प्रदेश की सत्ता संभाली थी और 2012 में छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2017 तक वीरभद्र सिंह सीएम रहे और इस दरमियान कई नेताओं का वक्त आया और चला गया, पर वीरभद्र सिंह का तो मानो दौर चल रहा था। वीरभद्र 59 साल के राजनीतिक जीवन में 6 बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्रीय मंत्री और पांच बार सांसद रहे और जब तक आखिरी सांस ली हिमाचल कांग्रेस में वीरभद्र का ही दबदबा रहा। अलबत्ता जब वे अस्पताल में मौत से संघर्ष करते रहे, तब भी उनका होना मात्र ही निष्ठावान कांग्रेसियों को ऊर्जा देता रहा। वीरभद्र सिंह का रुतबा इतना ऊंचा रहा है कि पार्टी के बड़े नेता भी मुखर होकर उनका विरोध नहीं कर पाए। वे सर्वमान्य नेता बने रहे, अपनों के लिए भी और विरोधियों के लिए भी।
शिमला का बिशप कॉटन स्कूल हिमाचल का ही नहीं अपितु देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार है। उस दौर में जब रामपुर- बुशहर रियासत के राजकुमार वीरभद्र ने बिशप कॉटन स्कूल में दाखिला लिया था तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि स्कूल का नाम उस शख्सियत से जुड़ने जा रहा है जो आगे चलकर 6 बार हिमाचल का सीएम बनेगा। स्कूल पास आउट करने के बाद वीरभद्र ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में हिस्ट्री होनोर्स में बीए और एमए की। हसरत थी हिस्ट्री का प्रोफेसर बन छात्रों को पढ़ाने की। पर देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था और वीरभद्र सिंह राजनीति में आ गए। जो वीरभद्र छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहते थे, उन्होंने खुद इतिहास बना दिया। सबसे अधिक समय तक हिमाचल का सीएम रहने का रिकॉर्ड वीरभद्र सिंह के ही नाम है। वे करीब 22 वर्ष और कुल 6 बार हिमाचल के सीएम रहे है।
1962 में हुई चुनावी राजनीति में एंट्री
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रेरणा से उन्होंने राजनीति में आने का निर्णय लिया था। नेहरू की बेटी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी तब वीरभद्र से खासी प्रभावित थी। इंदिरा के कहने पर 1959 में वीरभद्र सिंह दिल्ली से हिमाचल लौटे और लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करना शुरू किया। वीरभद्र का ताल्लुक तो रामपुर- बुशहर रियासत से था, लेकिन जल्द ही वे शिमला क्षेत्र में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। नतीजन 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें महासू ( वर्तमान शिमला ) सीट से उम्मीदवार बनाया। 28 वर्ष के वीरभद्र आसानी से चुनाव जीत गए और पहली मर्तबा लोकसभा पहुंचे। इसके बाद 1967 और 1972 में वीरभद्र मंडी से चुनाव लड़ लोकसभा पहुंचे। हालांकि इमरजेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र को हार का मुँह देखना पड़ा। पर उन्होंने अपनी निष्ठा नहीं बदली और इंदिरा गांधी के वफादार बने रहे। 1980 में फिर चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह एक बार फिर जीत कर लोकसभा पहुँच गए। 1982 में इंदिरा सरकार में उन्हें उद्योग राज्य मंत्री भी बना दिया गया।
1983 में हुई हिमाचल की सियासत में एंट्री
वीरभद्र वर्ष 1962 से चुनावी राजनीति में है पर हिमाचल प्रदेश की सियासत में उनका आगमन हुआ वर्ष 1983 में। वर्ष 1983 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे ठाकुर रामलाल। तब वीरभद्र केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री थे। तभी टिंबर घोटाले के आरोप के चलते ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और पार्टी हाईकमान ने भरोसा जताया वीरभद्र सिंह पर। इसके बाद से हिमाचल प्रदेश की सियासत वीरभद्र सिंह के इर्द गिर्द घूमती रही।
1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट
1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई।
1993 में फिर की वापसी
1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए थे। ऐसा लगने लगा था कि शायद ही वीरभद्र इसके बाद कभी सीएम बने। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब पंडित सुखराम और विद्या स्ट्रोक्स का भी हिमाचल और कांग्रेस में खासा दबदबा था। पर जो आसानी से हार मान ले, वो वीरभद्र सिंह नहीं बनते। हार के बाद वीरभद्र ने संगठन में अपनी जड़ें और मजबूत की और विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बने रहे। शांता सरकार की गिरती लोकप्रियता को भी उन्होंने जमकर भुनाया। 1993 में शांता सरकार गिरने के बाद जब चुनाव हुए तो वीरभद्र सिंह तीसरी बार प्रदेश के सीएम बने। 1998 में भी कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, लेकिन पंडित सुखराम के सहयोग से सरकार भाजपा की बनी। 2003 में फिर वीरभद्र सिंह की वापसी हुई और वे दिसंबर 2007 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने केंद्र का रुख किया और 2009 से 2012 तक केंद्र में मंत्री रहे।
2012 में कई नेताओं के मंसूबों पर फेरा पानी
2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र में मंत्री होने के चलते शायद ही किसी को वीरभद्र के लौटने की उम्मीद रही हो। कांग्रेस में भी कई चाहवान सीएम की कुर्सी पर आंखें गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र को तो अभी दिल्ली से शिमला वापस लौटना था। चुनाव से पहले वीरभद्र ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आये। हालांकि तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई साल से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मज़बूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वीरभद्र ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' वीरभद्र ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट कर दिया था कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो।आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने।
83 की उम्र में कांग्रेस ने बनाया सीएम फेस
साल था 2017 का। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था। भाजपा में सीएम फेस को लेकर दुविधा थी और अंतिम क्षण तक पार्टी सीएम फेस घोषित करने से बचती रही। उधर, कांग्रेस के सामने कोई दुविधा नहीं थी। 83 वर्ष के वीरभद्र सिंह पार्टी के सीएम कैंडिडेट थे और अकेले भाजपा से लोहा ले रहे थे। संभवतः इससे पहले और इसके बाद भी इतने उम्रदराज नेता को हिंदुस्तान में कभी भी, किसी भी चुनाव में सीएम फेस घोषित नहीं किया गया। दिलचस्प बात ये है कि इस निर्णय को लेकर शायद ही कांग्रेस आलाकमान के मन में कोई दुविधा रही हो। खेर, कांग्रेस चुनाव हार गई पर हिमाचल में वीरभद्र का जलवा उनकी अंतिम सांस तक बरकरार रहा।
पीएम इंदिरा गांधी से विवाह की अनुमति लेने गए
वीरभद्र सिंह का विवाह दो बार हुआ। 20 साल की उम्र में जुब्बल की राजकुमारी रतन कुमारी से उनकी पहली शादी हुई। किन्तु कुछ वर्षों बाद ही रतन कुमारी का देहांत हो गया। इसके बाद 1985 में उन्होंने प्रतिभा सिंह से शादी की। प्रतिभा सिंह से वीरभद्र सिंह की शादी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल वीरभद्र सिंह की पहली पत्नी के निधन के बाद वीरभद्र की माता उनसे दूसरी शादी करने के लिए कहा करती थी, लेकिन वीरभद्र काफी सालों तक नहीं माने। काफी मनाने के बाद जब वीरभद्र माने तो सहमति प्रतिभा सिंह के नाम पर बनी। उस वक्त वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री थे तो वीरभद्र सिंह पीएम इंदिरा गांधी से भी मिलने गए और उनसे से भी इसकी आज्ञा ली। हालाँकि तब इंदिरा ने उनसे कहा था की ये आपका निजी जीवन है इसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं। सिर्फ यही नहीं वीरभद्र ने उस ज़माने में प्रतिभा से भी उनकी इच्छा पूछी थी। दरससल प्रतिभा सिंह, वीरभद्र सिंह से उम्र में काफी छोटी थी। ऐसे में वीरभद्र नहीं चाहते थे कि उनकी इच्छा के खिलाफ कुछ भी हो। प्रतिभा भी राजी हुई तो फिर बिना किसी शोर के काफी सादे तरीके से शादी हुई। कहते है जिस दिन वीरभद्र की शादी हुई उस दिन भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में काम कर रहे थे। आज प्रतिभा सिंह कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष है और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण से विधायक।
कई नेताओं के अरमान कुचले
अपनी सियासी पारी में वीरभद्र सिंह न सिर्फ दूसरे राजनीतिक दलों से लोहा लिया बल्कि पार्टी के भीतर भी अपना तिलिस्म बरकरार रखा। वो उन अपवादों में शामिल है जिन्होंने आलाकमान की हां में हां नहीं मिलाई बल्कि जिनकी ताकत के आगे कई मौकों पर आलाकमान भी झुका। वीरभद्र की सियासी महारथ के आगे कई दिग्गज नेताओं का सीएम बनने का अरमान आजीवन अधूरा रहा जिनमें राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले पंडित सुखराम और विद्या स्टोक्स भी शामिल है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वीरभद्र सिंह ने केंद्र से वापसी कर प्रदेश की सियासत का रुख किया और न सिर्फ भाजपा की बाजी पलट दी अपितु पार्टी के भीतर भी कई नेताओं के अरमान कुचल दिए।
सर्वमान्य : चार निर्वाचन क्षेत्रों से जीते
हिमाचल की सियासत में यदि कोई ऐसा नेता है जिसका वर्चस्व पूरे प्रदेश में दिखा तो वे थे वीरभद्र सिंह। उनकी जमीनी पकड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे चार निर्वाचन क्षेत्रों से विधायक रहे। जुब्बल -कोटखाई से उनकी शुरुआत हुई, फिर रोहड़ू को अपना गढ़ बनाया, तदोपरांत शिमला ग्रामीण से जीतकर विधानसभा पहुंचे और अपने अंतिम चुनाव में अर्की से जीतकर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया। हिमाचल में उन जैसा सर्वमान्य नेता निसंदेह कोई नहीं हुआ।