जोड़ तोड़ नहीं किया, इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए
वो 14 फरवरी 1980 का दिन था। शिमला सर्दी की लहर में थरथरा रहा था। एक माह पहले दिल्ली की सत्ता में कांग्रेस वापस लौटी थी। उसके बाद से ही पूरे देश में नेताओं के दल-बदल से सरकारें गिरने का सिलसिला भी शुरू हो चुका था। हिमाचल प्रदेश में भी जनता पार्टी के विधायकों में भगदड़ मची हुई थी। प्रतिदिन एक-एक, दो-दो करके विधायक पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो रहे थे। 14 फरवरी तक शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के खेमे में जा चुके थे और शांता कुमार समझ चुके थे कि अब हाथ पैर मारने का फायदा नहीं है। सो उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल अमीरुद्दीन खां को दे दिया। अपने कार्यालय से उन्होंने अपनी पत्नी को फ़ोन किया, उन्हें बुलाया और दोनों सिनेमा देखने चले गए। फिल्म थी जुगनू। इस्तीफा देकर फिल्म देखने जाने वाला मुख्यमंत्री हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही दूसरा कोई हो। दूसरा कोई हो भी नहीं सकता, शांता सिर्फ एक ही हो सकते है।
हिमाचल के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का खिताब शांता कुमार के नाम है, इसी के साथ शांता कुमार प्रदेश के एकलौते ब्राह्मण मुख्यमंत्री भी है। कांग्रेस के एकछत्र राज को तोड़ जनता पार्टी की सरकार बनाने में शांता कुमार का बड़ा हाथ था। अपने उसूलों, और नियमों पर चलने वाले शांता भगवत गीता और स्वामी विवेकानंद को अपने जीवन का आधार मानते है। इन्हीं आदर्शों पर चलते हुए शांता ताउम्र राजनीति करते रहे। शांता कुमार का जन्म 12 सितंबर 1934 को जगन्नाथ शर्मा और कौशल्या देवी के घर हुआ। पंडित के घर पैदा होने वाले शांता कुमार को आज हिमाचल के अलावा पूरा देश जानता है। शांता कुमार ने जेबीटी की पढ़ाई की और उसके बाद एक स्कूल में टीचिंग का काम करने लगे। लेकिन जल्द ही टीचिंग से उनका मोहभंग हो गया। वो दिल्ली चले गए और वहां संघ के साथ काम करने लगे। हालांकि उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और ओपन यूनिवर्सिटी से वकालत की डिग्री हासिल की। शांता के राजनीतिक करियर का आगाज वर्ष 1964 में हुआ। शांता ने पंचायत चुनाव लड़ा और पंच बन गए। ये बस शुरुआत थी। वर्ष 1967 आया और शांता ने जिला कांगड़ा के पालमपुर से अपना पहला चुनाव लड़ा लेकिन चुनाव हार गए। पर इसके बाद धीरे-धीरे शांता विपक्ष का चेहरा बनते गए। 1972 का साल आया और शांता एक बार फिर विधानसभा चुनाव के रण में उतरे। इस बार क्षेत्र था जिला कांगड़ा का खेरा। इस मर्तबा शांता चुनाव जीत गए और विधानसभा में विपक्ष की आवाज़ के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हो गई।
फिर इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया। इमरजेंसी लगी तो राजनैतिक हालात बदल गए और शांता कुमार को भी नाहन जेल में बंद कर दिया गया, जहाँ उनका साहित्यकार अवतार देखने को मिला। जेल में रहते हुए शांता कुमार ने कई उपन्यास लिखे, जिसका श्रेय वे कांग्रेस को देते है। 21 महीने तक लगे इस आपातकाल को 21 मार्च 1977 को खत्म किया गया था। इसके बाद हिमाचल में विधानसभा का चौथा चुनाव हुआ। कई मायनों में साल 1977 का ये विधानसभा चुनाव खास बन गया। इस चुनाव में सूबे में जनता पार्टी ने बढ़त बनाई थी और शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। ये वो चुनाव था जब प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार आई थी और तब खुद के अपने एक वोट की बदौलत शांता कुमार ने सीएम बनकर इतिहास रचा था।
दरअसल 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पहुंचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने।
बतौर मुख्यमंत्री अपने पहले कार्यकाल में शांता कुमार ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। अन्तोदय योजना के जरिये उन्होंने गरीबों के बीच अपनी पैठ बनाई। गांव- गांव तक पानी के हैंडपंप पहुंचाए और पानी वाला मुख्यमंत्री कहलाये। सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। फरवरी 1980 में जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। इसका ज़िक्र शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा निज पथ का अविचल पंथी में भी किया है , शांता कहते है कि "एक एक करके विधायक जनता पार्टी का साथ छोड़ कर कांग्रेस में जा रहे थे। मैं अपने एक पत्रकार मित्र को रोज फोन पर यूं पूछता था, ‘आज का स्कोर...?’ उसके पास पार्टी छोड़ने वालों के संबंध में जो समाचार होता था, वह मुझे बता देता था। मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि अब सरकार नहीं टिकेगी। जिन कारणों से और जिस तरीके से विधायक पार्टी छोड़ रहे थे, उसका कोई इलाज हमारे पास नहीं था। मैं चुपचाप तमाशा देख रहा था। कुछ मित्र नाराज होते कि मैं सरकार बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। जैसे एक डूबते जहाज का कैप्टन चुपचाप बैठा धीरे-धीरे डूबते जहाज को देखता है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी भी थी।"
दरअसल तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। सो ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार के उसूल नहीं टिके। शांता कुमार ने भी इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। बताते है कि अगले दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने शांता कुमार को फोन किया और पूछा कौन सी फिल्म देखी। शांता ने जवाब दिया जुगनू, साथ ही फिल्म का रिव्यू भी दे दिया। बोले, 'बहुत अच्छी फिल्म है आप भी देखकर आइये।' शांता ने अपनी आत्मकथा में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि तब उनके पास भी सियासी जोड़ तोड़ के लिए धनबल जैसी चीज़ों का प्रस्ताव था, मगर शांता अपने आदर्शवाद पर टिके रहे और उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा।
भाजपा को हिमाचल में किया खड़ा
वर्ष 1980 में ही भारतीय जनता पार्टी का गठन भी हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, भैरों सिंह शेखावत के साथ शांता कुमार भी उस दौर में पार्टी में मुख्य चेहरों में शुमार थे। इसके बाद 10 वर्षों तक शांता कुमार ने भाजपा को हिमाचल में खड़ा करने का काम किया। पार्टी के गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा को 29 सीटें मिली थी, जो कांग्रेस से महज दो सीटें कम थी। 1989 में शांता कुमार संसद भी पहुंचे और उसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सीएम फेस रहे। चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली और शांता एक बार फिर मुख्यमंत्री शांता हो गए। दिसंबर 1992 में बाबरी कांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने शांता की सरकार को बर्खास्त कर दिया जिसके बाद 1993 में फिर चुनाव हुए।1990 में जिस भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी वो 1993 में मजह 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। खुद शांता कुमार भी चुनाव हार गए। हार का कारण ये नहीं था कि उन्होंने काम नहीं किया, बल्कि शांता अपने काम की वजह से ही हारे। कांग्रेस के रोटी-कपडा- मकान के घिसे पीटे नारे को लोगों ने शांता के आत्मनिर्भर हिमाचल के नारे पर तरजीह दी। तब उनकी हार का कारण था कर्मचारियों की नाराज़गी।
भारी पड़ा 'नो वर्क नो पे' का फरमान
हिमाचल में आज भी सत्ता का रास्ता कर्मचारियों के वोट तय करते है। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट लगा था। इसी के विरोध में सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। शांता भी उसूलों के पक्के थे सो 'नो वर्क नो पे' का फ़रमान जारी कर दिया। 29 दिन चली इस हड़ताल का पैसा कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को उन्होंने बर्खास्त कर दिया। सो जब अगला चुनाव आया तो कर्मचारियों ने भी शांता कुमार से बराबर बदला लिया।
शांता की देन है पानी की रॉयल्टी
हिमाचल प्रदेश को हर वर्ष करीब दो हजार करोड़ रुपये पानी की रॉयल्टी से मिलते है। ये शांता कुमार की ही देन है। जब पहली बार उन्होंने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया था तो विपक्ष ने जमकर खिल्ली उड़ाई थी। पर कांग्रेस की केंद्र सरकार को ये बात समझ आ गई और हिमाचल को उसका हक मिला। इसका जिक्र भी शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है।
मोदी की पसंद नहीं थे शांता
1993 चुनाव की हार के बाद शांता कुमार प्रदेश की सियासत में वापसी नहीं कर सके।1998 चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी हिमाचल के प्रभारी थे और माना जाता है उनसे शांता की बनती नहीं थी। मोदी की पसंद प्रो प्रेम कुमार धूमल थे और चुनाव से पहले भाजपा ने धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। इसके बाद पंडित सुखराम के समर्थन से धूमल ने पांच वर्ष सत्ता सुख भोगा। शांता कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच हमेशा एक लकीर रही है। गोधरा दंगों के बाद शांता कुमार ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि अगर मैं गुजरात का मुख्यमंत्री होता तो त्यागपत्र दे देता।
पत्नी संतोष शैलजा ने निभाया हर कदम पर साथ
कहते है शांता कुमार के शांता कुमार होने में उनकी धर्मपत्नी संतोष शैलजा की भूमिका भी कम नहीं रही है। संतोष शैलजा शांता कुमार के हर निर्णय में उनके साथ रही। अमृतसर में जन्मी संतोष शैलजा ने अपनी मां को नहीं देखा था। मौसियों ने पाला पोसा और वह दिल्ली के डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगी। वहीं शांता कुमार भी पढ़ाते थे। नजदीकी और समझ बढ़ी तो संबंध स्थायी हो गया। हिमाचल प्रदेश लौटे तो यहां की संस्कृति को ऐसे आत्मसात किया कि शांता के पैतृक गांव गढ़ के बुजुर्ग भी कहने लगे, 'लगता नहीं कि बहू बाहर से आई है। ' शांता कुमार राजनीति में आए, आपातकाल में जेल गए तो संतोष शैलजा ने अध्यापन जारी रखते हुए माता-पिता दोनों भूमिकाओं में बच्चों की परवरिश की। वे खुद भी राजनीति में आ सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। अपनी आत्मकथा में भी शांता ने इसका जिक्र किया है। जब अनुरोध था, अवसर था, उन्होंने तब भी राजनीति में आने से इनकार किया।
आत्मकथा में लिखा, भाजपा भी सिद्धांतों से समझौते करने लगी है
शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा "निजपथ का अविचल पंथी" लिखी है जिसमें उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन के बल्कि राजनीति के भी कई राज खोले है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से भाजपा को भी बड़ी नसीहत दी है। उनका मानना है कि धीरे-धीरे सत्ता की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी समझौते करने लगी है। राजनीति के प्रदूषण का प्रभाव भाजपा पर भी पड़ना शुरू हो गया है। इस प्रदूषण से उस युग के उनके जैसे थोड़े से बचे हुए नेता बहुत व्यथित होते हैं। शांता ने ये भी लिखा कि "पार्टी के एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो मुझे यहां तक कहा था कि यह वह पार्टी ही नहीं है, जिसमें हम थे, इसलिए व्यथित मत हुआ करो।" उन्होंने आत्मकथा में लिखा, " पूरी राजनीति लगभग भटक चुकी है। अब तो सत्ता प्राप्ति के लिए और विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए दंगे तक करवाए जाते हैं। दल-बदल में नेताओं का क्रय-विक्रय होता है और पता नहीं क्या कुछ किया जाता है। पूरे देश की भ्रष्ट होती हुई इस राजनीति में आशा की एकमात्र अंतिम किरण भाजपा भी यदि भटक गई तो फिर देश का भविष्य कैसा होगा। भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है। एक समय था जब संघ के प्रमुख नेता इस बात पर ध्यान करते थे कि पार्टी मूल्यों की राजनीति से कहीं समझौता न कर ले। धीरे-धीरे संघ का यह मार्गदर्शन कम होता जा रहा है। मैं इस सारी स्थिति से चिंतित हूं। "