तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा... गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल!
क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स?
लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा!
वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लंबी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे, कुछ तो मंत्री भी रहे... मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते हैं। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाए तो क्या होगा? क्या इनका साथ आना मुमकिन है? कहते हैं, जो सोचा जा सकता है, वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल!
2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीय से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया, ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंचे, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजतन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए-नए पार्टी में आए नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती... मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा!
अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाए हैं, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे हैं। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहिम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में, जहाँ भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि, उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है, ये बाद की बात है।
वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आए, जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है? ये सियासत है, यहाँ कुछ भी मुमकिन है!