18वीं शताब्दी में पनपी थी कांगड़ा शैली
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कला के क्षेत्र में काँगड़ा चित्रकारी का एक विशिष्ठ स्थान है। जैसा नाम से ज्ञात होता है, राजशाही के दौरे में इसका उदगम काँगड़ा से हुआ। अठारह्वीं शताब्दी में बिसोहली चित्रकारी के फीका पड़ जाने से कांगड़ा चित्रकारी फलने-फूलने लगी। कांगड़ा चित्रों के मुख्य केंद्र गुलेर, बसोली, चंबा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा हैं, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और टिहरी गढ़वाल (मोला राम द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया) में भी पहुंच गयी। अब इसे सामूहिक रूप से पहाड़ी चित्रकला के रूप में जाना जाता है, जो 17वीं और 19वीं शताब्दी के बीच राजपूत शासकों द्वारा संरक्षित शैली को दर्शाता है।
कांगड़ा चित्रकला कांगड़ा की सचित्र कला है। वर्ष 1765 से 1823 के दरमियान कांगड़ा के महाराजा संसार चंद के समय में इस कला को पंख लगे। महाराजा संसार चंद के दौर को इस कला का सुनहरा दौर भी कहा जाता है। कांगड़ा चित्रकला में सबसे अधिक भगवान कृष्ण की लीलाओं के रूपों को देखा जा सकता हैं। ख़ास बात ये है कि उस दौर में इसमें इस्तेमाल होने वाले रंग भी रसायनयुक्त न होकर पेड़ पौधों से बनते थे और ब्रश भी। ये ही कारण है कि करीब तीन सौ वर्ष गुजरने के बाद भी इन चित्रों में पहले जैसी ताजगी बरकरार है। उस दौर में ये चित्र हस्त निर्मित स्यालकोटी कागज पर उकेरे जाते थे, और खनिज और वनस्पत्ति रंगो का इस्तेमाल होता था। तब तंगरम हरिताल, दानाफरग, लाजवद्द, खडिया और काजल की स्याही प्रमुख रंग थे। जबकि रेखाकण के लिए गिलहरी की पूँछ के बाल से बनी तुलिका का उपयोग किया जाता था। पर समय के साथ अब हर प्रकार के कागज़ पर पोस्टर रंगों की मदद से कांगड़ा चित्र तैयार किये जाते हैं। कलाप्रेमियों के लिये इनकी कीमत भी प्राकृतिक वस्तुओं से बने मूल चित्रों से कई गुना कम होती है। इन्हें हस्तकला की दूकानों, चित्रकला की दूकानों या पर्यटन स्थलों पर आसानी से खरीदा जा सकता है।
लघुचित्र में सबसे उत्कृष्ट मानी जाती है कांगड़ा कलम :
कला जगत को भारत की लघुचित्र कला एक अनुपम देन है। जम्मू से लेकर गढ़वाल तक उतर- पश्चिम हिमालय पहाड़ी रियासतों की इस महान परम्परा का वर्चस्व 17वीं से 19वीं शताब्दी तक रहा। ये कला छोटी-छोटी रियासतों में पनपी है जिनमें से अधिकांश वर्तमान हिमाचल प्रदेश में है। यह चित्रकला पहाड़ी शैली के नाम से विश्व भर में विख्यात है। इस पहाड़ी चित्रकला के गुलेर ,कांगड़ा, चम्बा, मण्डी, बिलासपुर, कुल्लू मुख्य केन्द्र थे। कांगड़ा कलम को लघुचित्र में सबसे उत्कृष्ट माना गया है।
काँगड़ा कलम का स्वर्ण युग :
महाराजा संसार चन्द (1775-1823) ने कांगड़ा चित्र शैली को विकास के शिखर पर पहुँचाया। उनके शासन काल काँगड़ा कलम का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्होंने गुलेर के कलाकारों को अपने दरबार की ओर आकर्षित किया। राजा संसार चन्द कांगड़ा घाटी के शक्तशाली व कलापोषक राजा हुए है। उनके शासन काल मे ही कवि जयदेव की संस्कृत प्रेम कविता “गीत-गोविन्द”, “बिहारी की सतसई”,”भगवत पुराण”, “नलदमवन्ती” व “केशवदास” “रसिकप्रिया” कवीप्रिया को चित्रों में डाला गया है। कृष्ण “विभिन्न“ रुपों में इस चित्र कला का प्रतिनिधित्व करतें हैं। राजा के साथ श्रीकृष्ण के श्रृँगारिक चित्र, राग-रानियों, रामायण, महाभारत, भागवत्त, चण्डी-उपाख्यान (दुर्गा पाठ), देवी महत्मये व पौराणिक कथाओं पर चित्र कला तैयार हुई।
इनका रहा है विशेष योगदान :
किसी राष्ट्र की पहचान उसकी समृद्ध कला-संस्कृती से होती है। कांगड़ा कलम के विकास की गति निरन्तर जारी है। पंडित सेऊ व उनके वंशज द्वारा कला रुपी पौधों को जीवित रखने के लिए कला के वरिष्ठ एवं कला पोशक व महान कला संरक्षक ओम सुजानपुरी, चम्बा के विजय शर्मा (पदमश्री) का महान योगदान रहा है। भाषा संस्कृति विभाग व हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के प्रयासों से कुछ कला प्रतिभाएं और सामने हैं, जिनमें राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता मुकेश कुमार, धनी राम, प्रीतम चन्द, जोगिन्दर सिंह मुख्य हैं।
सियालकोट कागज़ पर तैयार किये गए है चित्र :
कहते है कांगड़ा की मिट्टी में कलाकार उत्पन्न करने की क्षमता है। ज़िला प्रशासन कांगड़ा के प्रयासों से यहाँ कई छिपी कला प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया गया है, जिनमें कांगड़ा कलम की महान परम्परा को जीवित रखने की अपार क्षमता है। ये सभी चित्र बही खातों के लिये बनाए गए विशेष प्रकार के हस्त निर्मित कागज़ों पर उकेरे गए है, जिन्हें सियालकोट कागज़ भी कहा जाता है। पहले इस कागज़ पर एक सफेद द्रव्य से लेप किया जाता है और बाद में शंख से घिस कर चिकना किया जाता है। जबकि रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है। इन रंगो को मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है।
वर्ष 2012 में मिला जीआई टैग :
कांगड़ा चित्रकारी को वर्ष 2012 में जीआई टैग दिया गया था। वर्ल्ड इंटलैक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग एक प्रकार का लेबल होता है जिसमें किसी प्रोडक्ट को विशेष भौगोलिक पहचान दी जाती है। ऐसा प्रोडक्ट जिसकी विशेषता या प्रतिष्ठा मुख्य रूप से प्राकृति और मानवीय कारकों पर निर्भर करती है। ये टैग किसी खास भौगोलिक परिस्थिति में पाई जाने वाली या फिर तैयार की जाने वाली वस्तुओं के दूसरे स्थानों पर गैर-कानूनी प्रयोग को रोकने के लिए भी दिया जाता है।