कांग्रेस-भाजपा के दावों के बीच दो निर्दलीयों पर टिकी निगाहें
कहीं बदलते समीकरण, तो कहीं बदलती निष्ठाएं। कहीं अंतर्कलह, तो कहीं हावी निजी महत्वकांक्षाएं। कमोबेश जिला सोलन की पांचों विधानसभा सीटों का ये ही सूरत-ए-हाल है। कई सीटों पर इस कदर कांटे का मुकाबला है कि बड़े-बड़े माहिर भी भविष्यवाणी करने से बचते दिख रहे है। बहरहाल मतदान हो चुका है और अब आठ दिसंबर को नतीजों का इन्तजार है। दोनों मुख्य दल अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है और आम आदमी पार्टी भी उपस्थिति दर्ज करवाने की आशा में होगी। वहीँ जिला की दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने सियासी दिग्गजों की धुकधुकी बढ़ाई है। 2017 के नतीजों पर निगाह डालें तो भाजपा को पांच में से दो सीटें मिली थी, बावजूद इसके जयराम कैबिनेट में जिला सोलन को स्थान मिला। कसौली विधायक डॉ राजीव सैजल को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। डॉ सैजल पहले सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री रहे और फिर 2020 के कैबिनेट विस्तार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय मिला। अब भाजपा जिला सोलन में बेहतर करने की उम्मीद में है। वहीं कांग्रेस आश्वस्त है कि इस बार भी जिला में वो ही इक्कीस रहेगी। पर भाजपा-कांग्रेस के दावों के बीच निगाहें नालागढ़ और अर्की सीट पर रहेगी जहाँ निर्दलियों ने चुनावी समीकरण बदल कर रख दिए है।
नालागढ़ : केएल पर निगाह, बावा पर दबाव लाजमी
कुछ माह पहले नालागढ़ भाजपा में केएल ठाकुर के समकक्ष कोई चेहरा नहीं दिखता था, लेकिन हालात ऐसे बने कि केएल ठाकुर को बगावत करके चुनाव लड़ना पड़ा। दरअसल, कांग्रेस विधायक लखविंद्र राणा भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने उन्हें ही टिकट दिया। ऐसे में जो भाजपा नालागढ़ में लगभग एकजुट थी वो बगावत के व्यूह में फंस गई। अब नतीजे अगर भाजपा के पक्ष में नहीं आये तो सवाल तो उठेंगे ही। बहरहाल, माहिर मानते है कि नालागढ़ में इन दोनों के बीच ही मुख्य मुकाबला है। अब बात कांग्रेस की करें तो कांग्रेस ने हरदीप बावा को टिकट दिया, वहीं बावा जो 2017 में बागी थे। पर लखविंदर के जाने के बाद कांग्रेस के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे, सो बावा को टिकट रुपी आशीर्वाद मिल गया। पर अगर भाजपा की बगावत के बावजूद बावा नहीं जीत पाते है या तीसरे स्थान पर चले जाते है तो जाहिर है उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर भी सवाल जरूर उठेंगे। वहीँ आम आदमी पार्टी ने यहाँ से कांग्रेस छोड़कर गए पूर्व जिला परिषद् अध्यक्ष धर्मपाल चौहान को टिकट दिया। अब धर्मपाल का निर्णय कितना सही साबित होता है, ये तो नतीजे ही बताएँगे। बहरहाल नालगढ़ में केएल ठाकुर पर निगाह टिकी है। दिलचस्प बात ये है कि केएल ऐलान कर चुके है कि उनका समर्थन उसी दल को होगा जो पुरानी पेंशन बहाल करेगा, यानी अगर कांग्रेस सरकार बनती है और केएल ठाकुर भी जीत जाते है तो वे कांग्रेस के खेमे में भी दिख सकते है।
कसौली : अपेक्षाओं का बोझ कहीं सैजल की क्लीन इमेज पर भारी न पड़ गया हो
कसौली निर्वाचन क्षेत्र में एक तरफ मिस्टर क्लीन इमेज वाले वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के साथ भाजपा की पूरी टीम जीत का चौका लगाने के लिए मैदान में है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस और विनोद सुल्तानपुरी जीत का सूखा खत्म करने की फिराक में। वहीं इन दोनों का खेल बिगाड़ने की जुगत में मैदान में आम आदमी पार्टी के हरमेल धीमान भी आठ दिसम्बर के इन्तजार में है। कोशिश राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी की है, पर कोशिश कितना रंग लाती है इसके लिए फ़िलहाल तो इन्तजार करना होगा। अतीत पर गौर करें तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। 2003 में प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सरकार में रघुराज मंत्री बने। मंत्री बनने के बाद कसौली के लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी और शायद इसी का खामियाजा रघुराज को 2007 में उठाना पड़ा, जब वे चुनाव हार गए। तब जमीनी स्तर पर रघुराज के खिलाफ नाराजगी दिखी थी। उन्हें हराने वाले थे भाजपा के डॉ राजीव सैजल। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था, पर कसौली की जनता ने रघुराज पर युवा सैजल को वरीयता दी और वे चुनाव जीत गए। तब पहला चुनाव जीतने वाले सैजल वर्तमान में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री है। अब तक सैजल जीत की हैट्रिक लगा चुके है और अब जीत का चौका लगाने की तैयारी में है। हालांकि अब मंत्री बनने के बाद उनकी राह भी रघुराज की तरह जरा भी आसान नहीं दिख रही। भाजपा की मुश्किलें बढ़ाने के पीछे हरमेल धीमान का भी बड़ा हाथ है। कसौली भाजपा के वरिष्ठ नेता व भाजपा एससी मोर्चा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रहे हरमेल धीमान ने भाजपा छोड़ आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया और दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं लगातार दो चुनाव मामूली अंतर से हारने के बाद कांग्रेस के विनोद सुल्तानपुरी लगातार प्रो एक्टिव दिखे है और इस बार उनका चुनाव प्रबंधन भी बेहतर दिखा है। ऐसे में इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुल्तानपुरी कसौली के अगले सुल्तान बन सकते है।
सोलन : दामाद को मिलेगा जीत का शगुन, या ससुर अब भी दमदार
सोलन निर्वाचन क्षेत्र में वर्ष 2000 में उपचुनाव हुआ था। तब अप्रत्याशित तौर पर पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत का टिकट काट कर भाजपा ने डॉ राजीव बिंदल को टिकट दिया था, और पहली बार बिंदल विधायक बने थे। इसके बाद डॉ बिंदल ने 2003 और 2007 में भी जीत दर्ज की। 2007 से 2012 तक बिंदल मंत्री भी रहे और सोलन की राजनीति में उनका खूब डंका बजा। किन्तु 2012 में सोलन सीट आरक्षित हो गई तो डॉ राजीव बिंदल नाहन चले गए। इसके बाद से सोलन में भाजपा दो चुनाव हार चुकी है और दोनों बार कांग्रेस के कर्नल धनीराम शांडिल विधायक बने। 2012 में उन्होंने भाजपा की कुमारी शीला को हराया, तो 2017 में अपने दामाद और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजेश कश्यप को। इस बार फिर ससुर- दामाद में मुकाबला हुआ है और कांटे की टक्कर में कुछ भी मुमकिन है। सोलन भाजपा में गुट विशेष और डॉ राजेश कश्यप के बीच के मतभेद जगजाहिर है लेकिन बाहरी तौर पर चुनाव में पार्टी एकजुट दिखी है। अब अगर ज्यादा भीतरघात नहीं हुआ है तो भाजपा यहाँ जीत का सूखा समाप्त कर सकती है। यहाँ डॉ राजेश कश्यप के लगातार पांच साल फील्ड में सक्रिय रहने का लाभ भी भाजपा को मिल सकता है। वहीं कांग्रेस में भी कमोबेश ये ही स्थिति है। हालांकि ओपीएस और कर्नल की क्लीन इमेज के बूते पार्टी फिर जीत को लेकर आश्वस्त है। बहरहाल नतीजा जो भी हो लेकिन कड़ा मुकाबला तय है।
दून: परंपरागत सीट को फिर जीतने की कवायद में राम कुमार
बीते तीन दशक में दून निर्वाचन हलके की राजनीति बेहद दिलचस्प रही है। 1990 की शांता लहर में जनता दल के टिकट पर चौधरी लज्जा राम विधायक चुन कर आये थे। पर 1993 आते -आते चौधरी लज्जा राम ने पार्टी बदल ली और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1993, 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में चौधरी लज्जा राम यहाँ से विधायक रहे। पर 2007 के चुनाव में उन्हें भाजपा की विनोद चंदेल ने परास्त कर पहली बार कमल खिलाया। फिर आया 2012 का बेहद रोचक चुनाव। कांग्रेस ने चौधरी लज्जा राम के पुत्र राम कुमार को मैदान में उतारा, तो वहीँ भाजपा ने विनोद चंदेल को ही टिकट थमाया। इस मुकाबले में विजय राम कुमार चौधरी की हुई, पर दिलचस्प बात ये रही कि भाजपा चौथे पायदान पर रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों से बागी उम्मीदवार भी मैदान में थे। भाजपा के बागी दर्शन सिंह जहाँ 11 हज़ार से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे, तो कांग्रेस के बागी परमजीत सिंह पम्मी भी 10 हज़ार से ज्यादा वोट ले गए और तीसरे स्थान पर रहे।इस बीच अगला चुनाव आते -आते समीकरण बदल गए। राम कुमार के रहते परमजीत सिंह पम्मी को कांग्रेस में भविष्य नहीं दिख रहा था, सो पम्मी ने भाजपा का दामन थाम लिया। जैसा अपेक्षित था 2017 में भाजपा ने पम्मी को मैदान में उतारा और कांग्रेस से एक बार फिर राम कुमार चौधरी मैदान में थे। इस मुकाबले में पम्मी ने जीत दर्ज की। अब फिर दून में ये दोनों आमने -सामने है। चुनावी विश्लेषण की बात करें तो यहाँ राम कुमार करीब एक साल से चुनावी मोड में दिखे है जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। बहरहाल आठ दिसंबर तक कांग्रेस-भाजपा, दोनों यहाँ आशावान जरूर है।
अर्की : ठाकुर ने उड़ाई कांग्रेस-भाजपा की नींद
अर्की में राजा वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत पिछले वर्ष हुए उपचुनाव में कांग्रेस के संजय अवस्थी ने जीत हासिल की थी। हालांकि तब अवस्थी की उम्मीदवारी से नाराज होकर होलीलॉज के करीबी रहे राजेंद्र ठाकुर ने अपने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दी थी। उपचुनाव में तो ठाकुर ने बतौर निर्दलीय ताल नहीं ठोकी लेकिन तब से ही विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए। अब इन्हीं राजेंद्र ठाकुर ने निर्दलीय चुनाव लड़कर कांग्रेस-भाजपा की नींद उड़ाई है। वहीं भाजपा ने इस बार दो चुनाव हार चुके रतन पाल का टिकट काटकर दो बार विधायक रहे गोविंदराम शर्मा को मैदान में उतारा है। बाहरी तौर पर तो भाजपा एकजुट दिखी है लेकिन भीतरघात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में भाजपा की राह यहाँ आसां तो बिलकुल नहीं लगती। उधर, कांग्रेस ने अपेक्षा के मुताबिक संजय अवस्थी को ही टिकट दिया। बहरहाल, राजेंद्र ठाकुर ने अर्की की जंग रोचक कर दी है और यहाँ किसी की जीत की कोई गारंटी नहीं। यहाँ ये भी गौर करना होगा कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, साथ ही ये भी सम्भावना है कि ठाकुर ने दोनों के काडर में भी कुछ सेंध लगाई हो। हालांकि अर्की में कर्मचारियों की खासी तादाद है और ओपीएस फैक्टर के भरोसे कांग्रेस नैया पार लगाने को आश्वस्त जरूर है।