राजकीय महाविद्यालय ढलियारा में शनिवार को पीटीए कार्यकारिणी का गठन किया गया। जिसमे सर्वसम्मति से सुतिंदर कुमार (विक्की महंत) को प्रधान, दीपक शर्मा को उपप्रधान, ब्रजेश्वर सिंह को सचिव, विजय कुमार को सहसचिव और सुरिंदर सिंह को खजांची चुना गया। संजीव चौहान को सलाहकार, दिनेश कुमार, रेखा देवी एवं नीलम कुमारी को सदस्य और कालेज की तरफ से डा गुलशन धीमान व संजीव जसवाल को सदस्य बनाया गया। प्राचार्य डा. अंजू चौहान ने नवनिर्वाचित सदस्यों को बधाई देते हुए मिलकर कालेज के विकास के लिए कार्य करने का आह्वान किया।
केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर निसंदेह हिमाचल का वो चेहरा है जिसे देश-विदेश में भी लोग न सिर्फ पहचानते है, बल्कि पसंद भी करते है। वर्तमान में मोदी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा युवा एवं खेल मंत्रालय का भार संभाल रहे 48 वर्षीय अनुराग ठाकुर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से चौथी बार सांसद है। 2019 में जब मोदी सरकार दूसरी बार सत्ता में लौटी तो अनुराग ठाकुर को वित्त राज्य मंत्री बनाया गया था। फिर जुलाई 2021 में उनका कद बढ़ा और वे केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बन गए। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में जन्में और पले बढ़े अनुराग ठाकुर के पिता प्रो. प्रेम कुमार धूमल दो बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे है। पर इसका मतलब ये नहीं है कि अनुराग आसानी से सियासत में स्थापित हो गए। उन्होंने एक आम कार्यकर्ता की तरह वर्षों संगठन में काम किया और हर मौके पर खुद को साबित भी किया। 2010 में वे भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और लगातार तीन टर्म तक इस पद पर रहे। संभवतः वे भाजयुमो में अब तक के सबसे लोकप्रिय अध्यक्ष रहे है। क्रिकेट की सियासत में भी अनुराग ठाकुर की खासी दिलचस्पी रही है। साल 2000 में अनुराग हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बने और चार बार इस पद पर रहे। प्रदेश में धर्मशाला स्टेडियम उन्हीं की देन है। इसी बीच मई 2016 में अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रेजिडेंट भी बने लेकिन लोढ़ा कमिटी की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद उन्हें ये पद छोड़ना पड़ा। बहरहाल भाजपा समर्थकों का एक बड़ा तबका ये चाहता है कि अनुराग प्रदेश की कमान संभाले। उधर बार-बार अनुराग ठाकुर दोहराते रहे है कि वे केंद्र में खुश है और फिलवक्त प्रदेश की सियासत में एंट्री का उनका कोई इरादा नहीं है। पर हिमाचल की सियासत से अनुराग को अलग नहीं रखा जा सकता। वैसे भी जानकार मान रहे है कि आठ दिसंबर को रिवाज नहीं बदला तो भाजपा में बहुत कुछ बदलना है। ऐसे में मुमकिन है कि 2027 आते-आते समीरपुर से शिमला का सियासी मार्ग फिर प्रशस्त हो जाएँ। पर अनुराग ठाकुर केंद्र की राजनीति का भी बड़ा नाम है। वर्तमान में कैबिनेट मंत्री है। अनुराग पार्टी के उन चुनिंदा चेहरों में से एक है जो अक्सर कैमरे के आगे आकर सरकार की बात रखते है। अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के उन गिने चुने नेताओं में से है जिनकी पहचान देश के हर कोने में है। ऐसे में अगर अनुराग केंद्र में भी जमे रहते है तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता है।
भारतीय जनता पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा राजनैतिक दल हैं और इस पार्टी की कमान भी एक हिमाचली नेता के हाथ में हैं। केंद्रीय मंत्री रहे जगत प्रकाश नड्डा वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनका जन्म बिहार में हुआ और प्रारंभिक शिक्षा भी, पर जड़े हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर से जुड़ी है। उनका राजनैतिक सफर भी हिमाचल प्रदेश से ही परवान चढ़ा। भाजपा के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले नड्डा का ने अपने सियासी सफर की शुरूआत साल 1975 में जेपी आंदोलन से की थी। देश के सबसे बड़े आंदोलनों में गिने जाने वाले इस आंदोलन में नड्डा भी शामिल हुए थे। इस आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद जेपी नड्डा बिहार की भाजपा की स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए थे। जेपी नड्डा ने 1977 में अपने कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज कर वो पटना यूनिवर्सिटी के सचिव बन गए। फिर पटना यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद नड्डा ने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान उन्होंने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में भी छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और उसमें जीत दर्ज की। भाजपा द्वारा नड्डा को वर्ष 1991 में अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया गया था। इसके बाद आया वर्ष 1993, जब जेपी नड्डा ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा की बिलासपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें राज्य विधानसभा में विपक्ष का नेता चुना गया था। नड्डा ने वर्ष 1998 और साल 2007 में इस सीट से फिर जीत दर्ज की। इस दौरान उन्हें प्रदेश कैबिनेट में भी जगह दी गई। उन्हें वर्ष 1998 में हिमाचल प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया और वर्ष 2007 में वो वन पर्यावरण और संसदीय मामलों के मंत्री रहे। अपने राजनीतिक करियर में नड्डा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, केरल, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के प्रभारी भी रहे है। साल 2012 में पार्टी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश की तरफ से राज्यसभा में भेजा था। इसके बाद भाजपा में नड्डा का कद लगातार बढ़ता चला गया। वे मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी रहे। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें पार्टी का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद 20 जनवरी 2020 को उन्हें भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। आगामी 20 जनवरी को उनका कार्यकाल पूरा हो रहा है लेकिन माना जा रहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक वे ही पार्टी के अध्यक्ष बने रह सकते है।
प्रदेश की सियासत में नारी शक्ति का असर कभी फीका नहीं रहा। हालाँकि हिमाचल के सियासी क्षितिज पर बेहद कम महिलाएं अब तक अपना नाम चमकाने में कामयाब रही और शायद इसका बड़ा कारण ये है कि प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दलों ने कभी महिलाओं पर ज्यादा भरोसा जताया ही नहीं। पर कई चेहरे ऐसे है जिनके बगैर हिमाचल की सियासी कहानी अधूरी हैं। कई महिलाएं न सिर्फ विधानसभा में जनता की आवाज बनी, बल्कि मंत्री भी रही। देश की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर भी हिमाचल प्रदेश से ही सांसद थी। वहीं प्रदेश की सियासत में एक मौका ऐसा भी आया जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गई। दरअसल वर्ष 2003 में हिमाचल की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी। 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था, फिर जब 2003 में मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो ठियोग विधायक और कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विद्या स्टोक्स से वीरभद्र सिंह को चुनौती मिली। प्रदेश में माहौल बना की शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाए। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमें से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। इस बार हुए चुनाव में अगर प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो दो महिलाएं सीएम पद की दौड़ में है। पहली है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और दूसरा नाम है वरिष्ठ कांग्रेस नेता आशा कुमारी का। बहरहाल महिला सीएम का इन्तजार इस बार भी खत्म होगा या नहीं, ये तो आगामी कुछ दिनों में ही पता चलेगा। आठ बार विधायक बनी विद्या स्ट्रोक्स वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स कांग्रेस से आठ बार विधायक चुनी गई। उनका रिकॉर्ड कोई दूसरी महिला नेता नहीं तोड़ पाई है। स्ट्रोक्स पहली बार 1974 में विधायक बनी थी। वह विधानसभा की अध्यक्ष भी रही है और नेता विपक्ष भी बनी। स्ट्रोक्स 1974, 1982, 1985, 1990,1998, 2003, 2007 व 2012 में विधायक रही। 1998 में जीती थी सबसे अधिक 6 महिलाएं हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर नज़र डाले तो 1998 के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की। इस चुनाव में कांग्रेस की विप्लव ठाकुर, मेजर कृष्णा मोहिनी, विद्या स्ट्रोक्स, आशा कुमारी और भाजपा की उर्मिल ठाकुर और सरवीण चौधरी ने जीत दर्ज की। हालांकि बाद में भाजपा नेता महेंद्र नाथ सोफत की याचिका पर सोलन का चुनाव सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द घोषित कर दिया गया जहाँ से पहले मेजर कृष्णा मोहिनी को विजेता घोषित किया गया था। वहीं 1998 में परागपुर में हुए उप चुनाव में निर्मला देवी ने जीत दर्ज की। सरला शर्मा से सरवीण चौधरी तक प्रदेश में 1972 में पहली बार सरला शर्मा मंत्री बनी। फिर 1977 में श्यामा शर्मा मंत्री रही। उसके बाद आशा कुमारी, विप्लव ठाकुर, चंद्रेश कुमारी, विद्या स्टोक्स मंत्री रही। वहीं जयराम सरकार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री सरवीण चौधरी इससे पहले धूमल सरकार में भी मंत्री रह चुकी है। सिर्फ तीन महिलाएं पहुंची लोकसभा लोकसभा की बात करें तो वर्ष 1952 में राजकुमारी अमृत कौर प्रदेश की पहली महिला सांसद बनी। इसके बाद चंद्रेश कुमारी वर्ष 1984 में कांगड़ा से सांसद चुनी गई। वहीं प्रतिभा सिंह मंडी सीट से तीसरी बार लोकसभा सांसद है। वे वर्ष 2004 और 2013 के उप चुनाव में भी विजेता रही थी। 1956 में लीला देवी बनी थी राज्यसभा सांसद अपर हाउस राज्यसभा की बात करें तो आज तक हिमाचल प्रदेश की कुल 7 महिलाएं राज्यसभा में पहुँच सकी है। सबसे पहले वर्ष 1956 में कांग्रेस नेता लीला देवी राज्यसभा के लिए चुनी गई। इसके बाद 1968 में सत्यावती डांग, 1980 में उषा मल्होत्रा, 1996 में चंद्रेश कुमारी, 2006 व 2014 में विप्लव ठाकुर को कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा भेजा। वहीं भाजपा से 2010 में बिमला कश्यप व 2020 में वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी राज्यसभा पहुंची।
हिमाचल प्रदेश में अगली सरकार चुनने के लिए 12 नवंबर को मतदान हो चुका है। आठ दिसंबर को नतीजा भी सामने होगा और तब तक दोनों ही मुख्य राजनीतिक दल अपनी जीत का दावा कर रहे है। भाजपा रिवाज बदलने की बात दोहरा रही है, तो कांग्रेस तख़्त और ताज बदलने की। रिवाज बदला तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही होंगे, पर सवाल ये है कि यदि तख्त पलटा तो मुख्यमंत्री का ताज किसके सिर होगा ? मतदान के बाद कांग्रेस के तमाम बड़े नेता दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता वापसी का दावा कर रहे है। इस दावे के पीछे कई कारण है, मसलन माना जा रहा है कि पुरानी पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे कांग्रेस के पक्ष में गए है। इसके अलावा पार्टी का टिकट आवंटन भी बेहतर दिखा है और सीमित बगावत भी कांग्रेस के दावे को और बल दे रही है। ऐसे में कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो कांग्रेस के सत्ता वापसी के दावे में दम दिख रहा है। बहरहाल, सवाल ये ही है कि अगर प्रदेश में तख्त पलटा तो ताज किसके सिर सजेगा ? 1985 से लेकर 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनावों में वीरभद्र सिंह ही कांग्रेस का मुख्य चेहरा रहे। हालांकि उनके रहते भी कांग्रेस में सीएम पद को लेकर कई मर्तबा संशय रहा है, लेकिन हर बार वीरभद्र इस दौड़ में इक्कीस रहे। 1993 में पंडित सुखराम, 2003 में विद्या स्टोक्स और 2012 में ठाकुर कौल सिंह के अरमानों पर वीरभद्र सिंह ने पानी फेरा। अब वीरभद्र सिंह नहीं रहे है और इस बार यदि कांग्रेस सत्ता में लौटी तो किसके अरमान पूरे होते है और किसके अरमानों पर पानी फिरता है, ये देखना रोचक होगा। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में कई चेहरे ऐसे है जिनका नाम भावी सीएम को तौर पर चर्चा में है। कई नेताओं के समर्थक मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर रहे है, तो कई नेता वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर अपना दावा आगे रख रहे है। जबकि कई मुख्य दावेदार अब तक बिलकुल शांत है और संभवतः आंकड़ों को अपने पक्ष में करने में जुटे है। दरअसल, बाजी वहीं मारेगा जिसके पास आलाकमान के आशीर्वाद के साथ समर्थक विधायकों का संख्याबल भी होगा। ऐसे में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए रोचक मुकाबला देखने को मिल सकता है। पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर और आशा कुमारी वो प्रमुख नाम है जिनके समर्थक खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। इनके अलावा एक और नाम समर्थकों द्वारा जमकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, वो है युवा नेता विक्रमादित्य सिंह। हालांकि ये वर्तमान स्थिति में व्यवहारिक नहीं लगता, पर इससे विक्रमादित्य की लोकप्रियता का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इनके अलावा आलाकमान के अपनी नजदीकी के बूते कर्नल धनीराम शांडिल भी रेस में बताये जा रहे है। समर्थक हर्षवर्धन चौहान और चौधरी चंद्र कुमार के नाम को भी आगे कर रहे है। यहां जिक्र सबका जरूरी है क्यों कि ये वो ही कांग्रेस है जिसने वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर, तमाम कयासों को गलत साबित करते हुए पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया था। प्रतिभा सिंह : विस चुनाव नहीं लड़ा, पर दावा कम नहीं हिमाचल प्रदेश को कभी महिला मुख्यमंत्री नहीं मिली है। अब तक 6 पुरुषों को ही मुख्यमंत्री बनने का गौरव मिला है। ऐसे में इस बार सुगबुगाहट है कि क्या प्रदेश को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलेगी ? ऐसे में निसंदेह प्रतिभा सिंह एक बेहद मजबूत दावेदार है। पार्टी आलाकमान को भी वीरभद्र सिंह के नाम के असर का बखूबी अंदाजा है और उपचुनाव के नतीजों में इसका असर भी दिख चुका है। इस बार भी चुनाव सामग्री में जिस तरह स्व वीरभद्र सिंह के नाम का इस्तेमाल किया गया है वो 'वीरभद्र ब्रांड' में आलाकमान के भरोसे को दर्शाता है। वहीं मंडी संसदीय उपचुनाव जीतकर प्रतिभा सिंह भी अपनी काबिलियत सिद्ध कर चुकी है। इसके बाद उन्हें प्रदेश संगठन की कमान भी दी गई। हालांकि प्रतिभा सिंह ने खुद विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है, बावजूद इसके बतौर मुख्यमंत्री प्रतिभा सिंह का दावा कम नहीं है। वैसे अब तक न तो प्रतिभा सिंह ने खुलकर सीएम पद के लिए अपनी दावेदारी आगे रखी है और न ही खुलकर इंकार किया है। वे 'वेट एंड वॉच' की नीति पर आगे बढ़ रही है। हालांकि होलीलॉज कैंप के कुछ नेता जरूर उनकी दावेदारी जताते रहे है। बहरहाल प्रतिभा सिंह मुख्यमंत्री बने या न बने लेकिन होलीलॉज के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। सुखविंद्र सिंह सुक्खू : दावे को कमतर आंकना भूल सुखविंद्र सिंह सुक्खू वो नेता है जो अपनी शर्तों पर सियासत करते आएं है। जो नेता वीरभद्र सिंह से टकराते हुए खुद की सियासी जमीन तैयार कर ले, उसके दावे को कमतर आंकना किसी के लिए भी बड़ी भूल सिद्ध हो सकता है। सुक्खू कांग्रेस प्रचार समिति के अध्यक्ष भी है और अगर पार्टी सत्ता में लौटी तो श्रेय उनको भी जायेगा। आलाकमान से उनकी नजदीकी भी जगजागीर है। सीएम बनने के सवाल पर सुखविंद्र सिंह सुक्खू एक मंजे हुए नेता की तरह जवाब देते आ रहे है। मतदान से पहले वे एक ही बात दोहरा रहे थे, कि पहले विधायक बनना होगा। अब मतदान के बाद सुक्खू साफ़ कह रह है कि चुने हुए विधायक सीएम तय करेंगे। दरअसल सुक्खू के जिन समर्थकों को इस बार टिकट मिला है, माना जा रहा उनमें से अधिकांश अपनी-अपनी सीटों पर अच्छा कर रहे है। इसके अलावा ये ही मुमकिन है कि होलीलॉज कैंप के बाहर के कई अन्य नेता भी खुद का दावा कमजोर पड़ने पर अपने समर्थकों सहित सुक्खू का साथ दे सकते है। यानी सुक्खू संख्याबल के मामले में भी कम नहीं माने जा सकते। ठाकुर कौल सिंह: वरिष्ठता और अनुभव की बिसात पर दावा करीब पांच दशक लम्बे अपने राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस ने निष्ठावान सिपाही है। जानकार मानते है कि अगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सहमति नहीं बनती है तो कौल सिंह ठाकुर वो नाम है जिसपर वरिष्ठता का हवाला देकर सहमति बनाई जा सकती है। होलीलॉज से भी कौल सिंह ठाकुर के सम्बन्ध अब बेहतर दिख रहे है, ऐसे में उन्हें इसका लाभ मिल सकता है। हालांकि कुछ लोग मानते है कि ठाकुर कौल सिंह की राह में जी 23 गुट को उनका समर्थन आड़े आ सकता है। पर इससे वे पहले ही मुकर चुके है। यहां एक फैक्टर और काम कर सकता है, वो होगा जिला मंडी में कांग्रेस का प्रदर्शन। दरअसल 2017 के चुनाव में मंडी में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था। ऐसे में अगर इस बार कांग्रेस अच्छा करती है तो ठाकुर कौल सिंह इसका क्रेडिट लेने में पीछे नहीं हटेंगे। मुकेश अग्निहोत्री : ये भी पकड़ सकते है ओकओवर का रास्ता नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से हैं, जो 5 साल भाजपा सरकार को विधानसभा के भीतर से लेकर बाहर तक घेरते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो बड़ा सवाल था कि आखिर सदन में कांग्रेस की अगुवाई कौन करेगा ? निगाहें उम्रदराज वीरभद्र सिंह पर थी और उन्होंने अपना भरोसा जताया मुकेश अग्निहोत्री पर। सदन में मुकेश अग्निहोत्री ने दमदार तरीके से न सिर्फ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया बल्कि हर मुमकिन मौके पर जयराम सरकार को भी जमकर घेरा। अब यदि कांग्रेस सत्ता में वापसी करती है तो सीएम पद के दावेदारों में मुकेश अग्निहोत्री भी शामिल है। अग्निहोत्री होलीलॉज कैंप के माने जाते है और वीरभद्र सिंह के बाद होलीलॉज निष्ठावान विधायकों के लिए खासी अहमियत रखते है। ऐसे में माहिर मानते है कि होलीलॉज और मुकेश के बीच सीएम को लेकर एक राय दिख सकती है, चेहरा चाहे कोई भी हो। आशा कुमारी : ये रानी भी है सीएम पद की दौड़ में डलहौजी सीट से फिर एक बार किस्मत आजमा रही आशा कुमारी भी सीएम पद की दौड़ में है। आशा कुमारी दो बार प्रदेश में मंत्री रही है। केंद्र में भी उनका अच्छा रसूख है। वे पंजाब की प्रभारी भी रह चुकी है और पार्टी आलाकमान के नजदीक मानी जाती है। अब आशा कुमारी न सिर्फ सातवीं बार विधायक बनने के पथ पर है, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार भी है। अलबत्ता आशा कुमारी ने अपनी दावेदारी को लेकर कभी कुछ नहीं कहा है लेकिन समर्थक उन्हें भी बतौर भावी सीएम प्रोजेक्ट कर रहे है। आशा भी मुकेश अग्निहोत्री की तरह होलीलॉज की करीबी रही है और वीभद्र सिंह के निधन के बाद बदले समीकरणों में दमदार दिख रही है। ये दिग्गज भी है दौड़ में पांच बार के विधायक राम लाल ठाकुर भी सीएम पद के दावेदारों में शुमार है। उन्हें 10 जनपथ का करीबी भी माना जाता है। अपने जमाने के जाने माने कबड्डी खिलाड़ी रहे राम लाल ठाकुर सियासी मैदान के भी मंजे हुए खिलाड़ी है। इस बार रामलाल ठाकुर चुनाव जीते तो छठी बार विधायक बनेंगे। वहीं दो बार सांसद रहने वाले कर्नल धनीराम शांडिल इस बार सोलन सीट से हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में है। कर्नल भी गाँधी परिवार के करीबी है। हिमाचल में एससी समुदाय से कोई नेता कभी मुख्यमंत्री नहीं बना, ऐसे में कर्नल एक विकल्प हो सकते है। एक अन्य दावेदार हर्षवर्धन चौहान भी माने जा रहे है। हर्षवर्धन के खाते में शिलाई से पांच जीत दर्ज है और इस बार वे भी छठी जीत के इरादे से चुनावी मैदान में उतरे है। उनके पिता गुमान सिंह चौहान भी शिलाई से चार बार विधायक रहे है। इस बार हाटी फैक्टर के बावजूद अगर हर्षवर्धन चौहान जीत जाते है, तो जाहिर है उनका दावा भी मजबूत होगा।
कॉलेज में छात्रों को पढ़ाते-पढ़ाते न जाने कब सियासत ने प्रोफेसर साहब को अपनी तरफ खींच लिया। एक दिन पंजाब में अपनी नौकरी छोड़ी और अपने प्रदेश हिमाचल वापस लौट आएं। शुरुआत की भाजपा के एक आम कार्यकर्त्ता के तौर पर, और देखते ही देखते प्रदेश में सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गए। हिमाचल प्रदेश की सियासत में प्रो प्रेमकुमार धूमल किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वे पहले ऐसे गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री है जिन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई, वो भी दो बार। वे इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने पांच साल हिमाचल प्रदेश में गठबंधन सरकार चलाकर दिखाई। इसलिए उन्हें सियासत का प्रोफेसर भी कहा जाता है। करीब दो दशक तक हिमाचल में भाजपा का सर्वमान्य चेहरा रहे प्रो धूमल बेशक इस बार चुनावी मैदान में नहीं उतरे है, पर अब भी उनका सियासी रसूख बरकरार है। बढ़ती उम्र का कुछ असर सेहत पर भी दिखता है, पर ताव और तेवर, दोनों कायम है। आज भी हिमाचल भाजपा में प्रो प्रेमकुमार धूमल की लोकप्रियता, उनकी कार्यशैली और उनकी जमीनी पकड़ का कोई विकल्प नहीं दिखता। दरअसल विकल्प हो भी नहीं सकता, धूमल तो आखिर कोई और हो भी नहीं सकता। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में लौटी भाजपा के सितारे 1993 के विधानसभा चुनाव के बाद गर्दिश में थे। तब दो बार मुख्यमंत्री रहे शांता कुमार सहित पार्टी के बड़े - बड़े दिग्गज चुनाव हार गए थे और भाजपा महज आठ सीटों पर सिमट कर रह गई थी। चुनाव के बाद पार्टी के एक और दिग्गज नेता जगदेव चंद का निधन हो गया और विधायकों की संख्या रह गई सात। तब हालात ऐसे बने कि पहली बार विधानसभा में पहुंचे जगत प्रकाश नड्डा को विपक्ष का नेता बनाया गया। इस पर वीरभद्र सिंह फिर मुख्यमंत्री बन चुके थे और प्रदेश में कांग्रेस का प्रभाव फिर तेजी से बढ़ रह था। इस हार के बाद पहली बार प्रदेश में शांता कुमार के खिलाफ भाजपा के भीतर से आवाज उठने लगी थी। 1998 का चुनाव आते -आते भाजपा में बहुत कुछ बदल चुका था और प्रदेश के समीकरण भी। नरेंद्र मोदी प्रदेश के प्रभारी थे, जो इस बात को समझ चुके थे कि 'नो वर्क नो पे' वाले सीएम रहे शांता कुमार के नाम पर फिर चुनाव लड़ना और जीतना बेहद मुश्किल है। पर मोदी के दिमाग में सत्ता वापसी का सारा प्लान मानो फिट था और इस प्लान का केंद्र थे प्रो प्रेम कुमार धूमल। दरअसल प्रो प्रेम कुमार धूमल तब मोदी के करीबी हो गए और प्रदेश की राजनीति में भी उनका ठीक ठाक कद था। मोदी को भी उनकी क्षमता का अहसास हो चुका था। सो, मोदी ने पार्टी आलाकमान को मनाया और चुनाव से पहले ही धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। पार्टी का दांव ठीक पड़ा और भाजपा सत्ता में लौटी। पर सरकार बनाना इतना आसान नहीं था। 1998 में प्रदेश की तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण पहले चरण में चुनाव नहीं हुए थे। 65 में से कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। जबकि भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। पंडित सुखराम की नई पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस के पास भी चार विधायक थे। वहीं नतीजों के बाद बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। ऐसे में किसी दल के पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था। उधर, पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा तो छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। पर भाजपा इसके लिए तैयार नहीं थी। फिर काफी सियासी उथल पुथल हुई और आखिरकार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। ये प्रदेश की पहली ऐसी गठबंधन सरकार थी जो पूरे पांच साल चली। इसके बाद हुए तीन सीटों के चुनाव और एक उपचुनाव में से तीन पर भाजपा जीती और एक पर हिमाचल विकास कांग्रेस। यानी निर्दलीय पर से तो निर्भरता खत्म हो गई थी पर पंडित सुखराम जैसे मंजे हुए नेता के साथ पांच साल गठबंधन सरकार चलाना आसान नहीं था। इसके बदले सुखराम के पांचो विधायकों को मंत्री बनाना पड़ा। भाजपा के कई नेता, खासतौर से शांता गुट के कई नेता अब भी इसे गलत करार देते है। इसके बाद से करीब दो दशक तक हिमाचल प्रदेश में प्रो प्रेम कुमार धूमल ही सर्वमान्य नेता रहे। 2003 के विधानसभा चुनाव में प्रो धूमल एक बार फिर भाजपा के सीएम फेस थे लेकिन भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। इसके बाद उनके नेतृत्व में 2007 का चुनाव लड़ा गया जिसमें भाजपा ने फिर सत्ता कब्जाई और धूमल दूसरी बार सीएम बने। दूसरी बार वे एक जनवरी 2008 से 25 दिसंबर 2012 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। 2017 में भाजपा को जिताया पर खुद चुनाव हार गए धूमल हिमाचल प्रदेश में 2017 विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर था। कांग्रेस मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी, पर भाजपा ने चुनाव से दस दिन पहले तक सीएम फेस घोषित नहीं किया था। भाजपा की सारी राजनीति धूमल बनाम नड्डा के नाम के कयासों के इर्द गिर्द घूम रही थी। इसका असर भी दिख रह था। भाजपा का कंफ्यूज कार्यकर्ता वीरभद्र के आगे कुछ हल्का दिख रहा था। 9 नवंबर को वोटिंग होनी थी और 30 अक्टूबर तक भाजपा ने सीएम फेस की घोषणा नहीं की थी। कांग्रेस भी भाजपा को बिना दूल्हे की बारात कहकर खूब चुटकी ले रही थी। माना जाता है कि तब प्रो प्रेम कुमार धूमल भाजपा आलाकमान की एकमात्र पसंद नहीं थे, लेकिन वीरभद्र की कांग्रेस को टक्कर देने वाला कोई और दिख भी नहीं रहा था। सो, सारे गुणा भाग करके आखिरकार 30 अक्टूबर को पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सिरमौर के पच्छाद में हुई रैली के दौरान प्रो प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। धूमल के नाम की घोषणा होते ही मानो भाजपा में जान सी आ गई, देखते-देखते समीकरण बदले और भाजपा ने बेहद मजबूती से चुनाव लड़ा। 18 दिसंबर को जब नतीजे आये तो भाजपा ने 44 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में शानदार वापसी की। पर इन 44 सीटों में सुजानपुर की सीट नहीं थी, इन 44 सीटों में प्रो प्रेम कुमार धूमल की सीट नहीं थी। भाजपा तो जीत गई थी, पर भाजपा को जिताने वाले धूमल खुद चुनाव हार बैठे। अगले मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर। इसके बाद हिमाचल भाजपा की सियासत ठीक उसी तरह बदलना शुरू हुई जैसे 1998 के बाद होता दिखा था। इस बार नहीं है चुनावी मैदान में भले ही धूमल साल 2017 का चुनाव हार गए थे मगर उनके समर्थकों को आस थी की इस बार धूमल दोबारा चुनाव लड़ेंगे और प्रदेश में अगर भाजपा की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन चुनाव से पहले दिल्ली में हुई भाजपा प्रदेश चुनाव समिति की बैठक के बाद सियासी गलियारों में चर्चा आम हुई कि प्रो धूमल चुनाव नहीं लड़ रहे है। अगले दिन इसका औपचारिक ऐलान भी हो गया। ये प्रदेश के हज़ारों धूमल निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिए झटका था। बाद में कहा गया कि धूमल साहब खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे और पहले ही ऐसा मन बना चुके थे। साल 2022 का चुनाव वो चुनाव है जिसमें कई दशकों बाद न धूमल मैदान में है और न वीरभद्र सिंह। माहिर मानते है कि प्रो धूमल का चुनाव न लड़ना इस चुनाव का टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है और नतीजों के बाद इस पर मुहर लग सकती है। दरअसल धूमल ऐसे नेता है जिनका प्रभाव प्रदेश की सभी 68 सीटों पर है और अगर वे चुनाव लड़ते तो समर्थकों में आस रहती। उनके मैदान में न होने से उनके समर्थक निश्चित तौर पर निराश जरूर हुए है। बने सड़कों वाले मुख्यमंत्री जब प्रो धूमल पहली बार सीएम बने तो केंद्र में एनडीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। उस दौर में देशभर में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से सड़कों का जाल बिछाया गया था और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। पहाड़ी राज्य होने के चलते हिमाचल में ये ये कार्य आसान नहीं था लेकिन धूमल सरकार ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए धूमल सड़क वाले मुख्यमंत्री के तौर पर भी जाने जाते है। दोनों बेटों ने चमकाया नाम प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल के दो बेटे है। केंद्र सरकार में खेल, युवा मामलों, सूचना और प्रसारण मंत्री और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद अनुराग ठाकुर धूमल के बड़े बेटे है और बीसीसीआई के कोषाध्यक्ष अरुण धूमल के छोटे बेटे है। अनुराग ठाकुर के रूप में धूमल के निष्ठावान भविष्य का मुख्यमंत्री भी देखते है। हालांकि अनुराग का कद केंद्र की सियासत में भी तेजी से बढ़ा रहा है और क्या वे प्रदेश की सियासत में लौटेंगे, ये देखना रोचक होगा। कॉलेज में प्रवक्ता थे, नौकरी छोड़ चुनी राजनीति प्रेम कुमार धूमल का जन्म 10 अप्रैल 1944 को हमीरपुर जिले के समीरपुर गांव में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिडिल स्कूल भगवाड़ा में हुई और मैट्रिक हमीरपुर के डीएवी हाई स्कूल टौणी देवी से। 1970 में इन्होंने दोआबा कॉलेज जालंधर में एमए इंग्लिश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इसके बाद पंजाब यूनिवर्सिटी के जालंधर स्थित कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में कार्य किया और बाद दोआबा कॉलेज जालंधर चले गए। नौकरी करते हुए उन्होंने एलएलबी भी की। इसी के साथ धूमल कई सामजिक संगठनों के साथ भी जुड़े रहे। राजनीति में प्रो धूमल का कद रातों रात नहीं बढ़ा था और यूँ ही कोई धूमल बन भी नहीं सकता। सियासत में आने के लिए धूमल ने प्रोफेसर की नौकरी छोड़ी और शुरुआत की भाजपा के युवा संगठन से। 1980-82 में धूमल भाजयुमो के प्रदेश सचिव रहे। पर चर्चा में आये 1989 में जब उन्होंने हमीरपुर संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की और लोकसभा पहुँच गए। इससे पहले 1984 का चुनाव वे हार चुके थे। इसके बाद 1993-98 में वो हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रहे। इस बीच 1996 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
कोई उन्हें 'एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर' मानता है, तो कोई कमजोर मुख्यमंत्री, लेकिन जयराम ठाकुर को लेकर एक बात सब मानते है, वो है उनकी मेहनत और सरलता जिसकी बदौलत छात्र राजनीति के नारे लगाते -लगाते जयराम हिमाचल प्रदेश की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे है। 2017 में जब भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए तो सबसे बड़ा सवाल ये ही था कि अब मुख्यमंत्री कौन होगा ? सवाल था कि क्या पार्टी धूमल को ही मौका देगी, या कोई और मुख्यमंत्री होगा। भाजपा में कई चाहवान थे और जयराम ठाकुर के अलावा जगत प्रकाश नड्डा, महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव बिंदल के नाम को लेकर भी चर्चा थी। उधर धूमल गुट के कई निष्ठावान विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर चुके थे। जीत कर आएं 44 विधायकों में से आधे से अधिक धूमल के साथ बताये जा रहे थे। फिर तमाम चिंतन -मंथन के बाद आलाकमान ने जयराम ठाकुर के नाम की घोषणा की। ऐसा नहीं है कि जयराम सिर्फ इसलिए सीएम बने क्यों कि धूमल चुनाव हार गए थे। सीएम पद के तो कई दावेदार थे, जयराम ही क्यों ? जयराम ठाकुर के राजनीतिक सफर पर निगाह डालें तो इसका जवाब भी मिल जाता है। एक समय में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के पिता बढ़ई का काम किया करते थे। आर्थिक स्थिति माली थी लेकिन उन्होंने जयराम ठाकुर की शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। जयराम ठाकुर ने मंडी से बीए पास किया और मास्टर्स की पढ़ाई के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का रुख किया। इसी दौरान वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए। इस तरह छात्र राजनीति से उनका राजनीतिक सफर शुरु हो चुका था। जयराम ठाकुर वर्ष 1986 में एबीवीपी के संयुक्त प्रदेश सचिव बने। वर्ष 1989 से 93 तक जम्मू-कश्मीर में संगठन में कार्य किया। वर्ष 1993 से 1995 तक वह भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के प्रदेश सचिव व प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। अपने कामकाज से वे संघ के भी करीबी हो गए। वर्ष 1998 में वह पहली बार चच्योट से विधायक चुने गए। वर्ष 2000 से 2003 तक वह जिला मंडी भाजपा अध्यक्ष रहे और 2003 से २००५ तक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। इसके बाद 2003 तथा 2007 में चच्योट विधानसभा सीट से लगातार जीत हासिल करते रहे। वर्ष 2007 में उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष के तौर पर चुनावों में जीत दर्ज न करने का मिथक को तोड़ते हुए लगातार तीसरी जीत हासिल की और धूमल सरकार में पंचायती राज मंत्री बने। परिसीमन के बाद उन्होंने 2012 में सिराज से चुनाव लड़ा और जीते और ये सिलसिला 2017 में भी जारी रहा। हिमाचल प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर को उनके अच्छे प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्होंने खुद की विधानसभा सीट पर तो शानदार जीत दर्ज की ही, जिला मंडी के अंतर्गत आने वाली 10 विधानसभा सीटों में से बीजेपी को 9 सीटें मिली। इस बढ़िया प्रदर्शन का श्रेय भी जयराम ठाकुर को दिया गया। इसी वजह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर की चुनौतियां कम नहीं रही। उन्होंने धूमल का स्थान लिया था तो स्वाभाविक है चुनौतियां कम होनी भी नहीं थी। पर आहिस्ता -आहिस्ता जयराम ठाकुर रंग में आते गए और खुद को साबित भी किया। माहिर उनकी ताजपोशी के बाद से ही मानते रहे कि पार्टी के भीतर उनकी मुखालफत जैसी स्थिति बन सकती है, पर ऐसा एक भी मौका नहीं आया। इस बीच भाजपा पार्टी ने पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया और फिर धर्मशाला और पच्छाद का उपचुनाव भी जीता। स्थानीय निकाय चुनाव में भी पार्टी का पलड़ा भारी रहा। पर 2021 में पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से दो में भाजपा को हार मिली। फिर 2021 के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी हारी और जयराम की मुश्किलों में इजाफा होना शुरू हुआ। इसके बाद तो कयास लगने लगे कि आलाकमान सीएम फेस भी बदल सकता है। पर जयराम ने इसका जवाब ये कहकर दिया कि 'मैं हूँ और मैं ही रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ जयराम ठाकुर की कुर्सी तब बची रही बल्कि आलाकमान ने उनके चेहरे पर ही हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। अब इस बार जयराम ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलने का नारा दिया है। अगर जयराम ठाकुर रिवाज बदल देते है तो वे वीरभद्र सिंह के बाद ऐसा करने वाले पहले मुख्यमंत्री होंगे। कॉलेज के टी स्टॉल पर बैठकर बनाते थे रणनीति हिमाचल के सीएम बने जयराम ठाकुर की सादगी के किस्से आज भी वल्लभ कॉलेज मंडी के गलियारों में गूंजते हैं, खासकर कैंटीन में। यह कैंटीन कॉलेज के बिलकुल साथ सटा मामू टी-स्टाल था। यहां एबीवीपी का छात्र नेता होते हुए दिन भर साथियों के साथ जयराम ठाकुर सियासी चर्चा करते थे। उनकी सादगी और ईमानदारी का हर कोई प्रशंसक था। वे जब जरूरत पड़े तो मामू टी स्टाल का गल्ला संभालने से भी पीछे नहीं रहते। जब मुख्यमंत्री पद के लिए जयराम के नाम पर मुहर लगी तो पूरे मंडी में माहौल उत्सव सा था। मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर मामू टी स्टाल गए और उनका आशीर्वाद लिया। पहली बार चुनाव लड़ने को नहीं थे पैसे जयराम ठाकुर समृद्ध आर्थिक पृष्ठभूमि से नहीं थे। 1993 में जयराम ठाकुर ने प्रदेश की चुनावी राजनीति में एंट्री हुई। उन्हें चच्योट विधानसभा से टिकट दिया गया। वही भारतीय जनता पार्टी के टिकट मिलने से जयराम ठाकुर तो खुश थे, लेकिन परिवार में पिता और मां नाराज थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस वजह से पिता नहीं चाहते थे कि वह चुनाव लड़े, फिर भी जयराम ठाकुर ने हिम्मत नहीं हारी और चुनावी मैदान में उतरे। इस चुनाव में हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। जयराम ठाकुर ने चुनाव में 1998 में जीत का स्वाद चखा। उन्हें इसी विधानसभा सीट से फिर टिकट मिला जिसमें वह जीत दर्ज की। संघ प्रचारकों के सम्मेलन में मिले दो दिल हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का निजी जीवन खुली किताब है, लेकिन उनकी पत्नी डॉ. साधना और उनके मिलने की कहानी दिलचस्प है। जयराम ठाकुर और उनकी पत्नी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरा नाता रहा है। डॉ साधना मूल रूप से कर्नाटक की रहने वाली हैं, लेकिन बाद में वह कनार्टक से जयपुर शिफ्ट हो गई थी। जयराम ठाकुर का ससुराल जयपुर के झोटवाड़ा में है। नब्बे के दशक में जम्मू में आयोजित संघ प्रचारकों के सम्मेलन में जयराम की मुलाकात राजस्थान की प्रचारक डॉ. साधना से हुई। यहीं पर जयराम ठाकुर की उनकी पत्नी से जान-पहचान बनी और बाद में दोनों ने शादी करने का फैसला किया और 1995 में दोनों की शादी हुई। डा. साधना पेशे से डॉक्टर हैं और अपने पति की कामयाबी में इनका भी अहम योगदान है। डा. साधना ने घर को तो बखूबी संभाला ही, साथ में अपनी पति के हर कार्य में उनका साथ दिया और हर समय एक मजबूत ढाल की तरह उनके साथ खड़ी रही। हालांकि जब जयराम ठाकुर की शादी हुई उस वक्त जय राम ठाकुर पहला चुनाव हारे हुए थे और राजनीति में अभी उनकी नई-नई पहचान ही बन रही थी। साधना ठाकुर के पिता श्रीनाथ राव भी आरएसएस नेता रहे हैं। कर्मचारियों के विरोध का करना पड़ा सामना बतौर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने कार्यकाल में हर वर्ग का ख्याल रखा, लेकिन कर्मचारियों का विरोध भी उन्हें खूब सहना पड़ा। 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों को उम्मीद थी की पुरानी पेंशन बहाली के लिए प्रदेश सरकार कुछ कदम उठाएगी। परन्तु सत्ता में आने के बाद जब कोई बदलाव होता नहीं दिखा तो शुरुआत हुई उस संघर्ष की जो आगे चल कर प्रदेश के कर्मचारियों सबसे बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया। पुरानी पेंशन को लेकर ये आंदोलन रातों रात खड़ा नहीं हुआ। पहले कई बार पेन डाउन स्ट्राइक हुई और फिर कर्मचारी सड़क पर उतर आएं। मामला विधानसभा घेराव तक पहुंच गया। कभी भारी संख्या में कर्मचारी धर्मशाला पहुंचे तो कभी शिमला, पेंशन व्रत हुए, पेंशन संकल्प रैली हुई, पेंशन अधिकार रैली हुई। कर्मचारियों के इन प्रदर्शनों में उमड़ा जनसैलाब स्पष्ट संकेत देता रहा था कि कर्मचारी मानने को तैयार नहीं थे। मगर सरकार हर बार आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देती रही। कर्मचारियों का ये संघर्ष बहुत कम समय में एक आंदोलन में बदल गया। कर्मचारी संगठनों ने खूब हल्ला बोला और सीएम जयराम ठाकुर के लिए " जोइया मामा शुनदा नहीं" के नारे तक लगे। सरकार द्वारा 2009 की अधिसूचना लागू कर प्रदेश के कर्मचारियों को मनाने का भी प्रयास भी हुआ, मगर कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली की मांग पर अड़े रहे। पुरानी पेंशन बहाली को लेकर इस चुनाव में कर्मचारियों ने 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान चलाया, जो भाजपा के जी का जंजाल बनता दिख रहा है। अफसरशाही पर पकड़ को लेकर उठते रहे सवाल जयराम ठाकुर पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अक्सर सवाल उठे है। विरोधी इसे लेकर जयराम ठाकुर को कमजोर मुख्यमंत्री साबित करने में जुटे रहे। दरसअल अपने इस कार्यकाल में जयराम सरकार ने कई मर्तबा अपने फैसले बदले। इसके अलावा कई क्षेत्रों में मंत्रियों की बैठकों में अधिकारीयों की अनुपस्थिति चर्चा में रही, तो कभी किसी मीटिंग में अधिकारी और मंत्री के बीच खींचतान की ख़बरें बाहर आई। पर जयराम ठाकुर ने कई मौकों पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अपना पक्ष रखा। वे कहते रहे है कि लताड़ लगाकर काम करवाना उनका तरीका नहीं है, प्यार से भी काम होता है।
हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अलबत्ता कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री तो नहीं बन सके, लेकिन वे अपने आप में हिमाचल की सियासत का एक अध्याय थे। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहे जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल रहे और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पर बदले में पंडित जी ने अपने सभी पांच विधायकों के लिए मंत्री पद लिया। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरुआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से जब भी चुनाव लड़ा, हर बार जीत हासिल की। सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके भी आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर राम लाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह फिर पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। इसके बाद 1996 में पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। सीबीआई की एक टीम उनके आवास पर छापेमारी की थी और पैसा बरामद किया था। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी का साथ, दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इसके बाद ही पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई। केंद्र की सियासत में रहा रसूख केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है। वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी 1993 में कांग्रेस की सत्ता वापसी के बाद पंडित सुखराम भी सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के आगे उनका दावा टिका नहीं। फिर अगला चुनाव आते-आते पंडित जी कांग्रेस छोड़ चुके थे और 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। तब पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी। 2017 में दिया कांग्रेस को झटका पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और इसके बाद कांग्रेस में वापस भी लौट आएं। फिर उन्होंने 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और वीरभद्र सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। उनके इस सियासी पेंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। पर पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। वहीं उनके बेटे अनिल शर्मा भाजपा में ही रहे। इसी वर्ष मई में पंडित सुखराम ने दुनिया को अलविदा कह दिया और उनके निधन के बाद उनके परिवार ने भाजपा में रहने का निर्णय लिया। मंडी ने हमेशा साथ दिया, इस बार परिवार का इम्तिहान ! इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। अब उनके निधन के बाद उनके बेटे अनिल शर्मा ने भाजपा टिकट से मंडी सदर सीट से चुनाव लड़ा है और इस बार ये देखना रोचक होगा कि क्या मंडी पंडित जी के निधन के बाद भी उनके परिवार का साथ देगी।
वो 14 फरवरी 1980 का दिन था। शिमला सर्दी की लहर में थरथरा रहा था। एक माह पहले दिल्ली की सत्ता में कांग्रेस वापस लौटी थी। उसके बाद से ही पूरे देश में नेताओं के दल-बदल से सरकारें गिरने का सिलसिला भी शुरू हो चुका था। हिमाचल प्रदेश में भी जनता पार्टी के विधायकों में भगदड़ मची हुई थी। प्रतिदिन एक-एक, दो-दो करके विधायक पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो रहे थे। 14 फरवरी तक शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के खेमे में जा चुके थे और शांता कुमार समझ चुके थे कि अब हाथ पैर मारने का फायदा नहीं है। सो उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल अमीरुद्दीन खां को दे दिया। अपने कार्यालय से उन्होंने अपनी पत्नी को फ़ोन किया, उन्हें बुलाया और दोनों सिनेमा देखने चले गए। फिल्म थी जुगनू। इस्तीफा देकर फिल्म देखने जाने वाला मुख्यमंत्री हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही दूसरा कोई हो। दूसरा कोई हो भी नहीं सकता, शांता सिर्फ एक ही हो सकते है। हिमाचल के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का खिताब शांता कुमार के नाम है, इसी के साथ शांता कुमार प्रदेश के एकलौते ब्राह्मण मुख्यमंत्री भी है। कांग्रेस के एकछत्र राज को तोड़ जनता पार्टी की सरकार बनाने में शांता कुमार का बड़ा हाथ था। अपने उसूलों, और नियमों पर चलने वाले शांता भगवत गीता और स्वामी विवेकानंद को अपने जीवन का आधार मानते है। इन्हीं आदर्शों पर चलते हुए शांता ताउम्र राजनीति करते रहे। शांता कुमार का जन्म 12 सितंबर 1934 को जगन्नाथ शर्मा और कौशल्या देवी के घर हुआ। पंडित के घर पैदा होने वाले शांता कुमार को आज हिमाचल के अलावा पूरा देश जानता है। शांता कुमार ने जेबीटी की पढ़ाई की और उसके बाद एक स्कूल में टीचिंग का काम करने लगे। लेकिन जल्द ही टीचिंग से उनका मोहभंग हो गया। वो दिल्ली चले गए और वहां संघ के साथ काम करने लगे। हालांकि उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और ओपन यूनिवर्सिटी से वकालत की डिग्री हासिल की। शांता के राजनीतिक करियर का आगाज वर्ष 1964 में हुआ। शांता ने पंचायत चुनाव लड़ा और पंच बन गए। ये बस शुरुआत थी। वर्ष 1967 आया और शांता ने जिला कांगड़ा के पालमपुर से अपना पहला चुनाव लड़ा लेकिन चुनाव हार गए। पर इसके बाद धीरे-धीरे शांता विपक्ष का चेहरा बनते गए। 1972 का साल आया और शांता एक बार फिर विधानसभा चुनाव के रण में उतरे। इस बार क्षेत्र था जिला कांगड़ा का खेरा। इस मर्तबा शांता चुनाव जीत गए और विधानसभा में विपक्ष की आवाज़ के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हो गई। फिर इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया। इमरजेंसी लगी तो राजनैतिक हालात बदल गए और शांता कुमार को भी नाहन जेल में बंद कर दिया गया, जहाँ उनका साहित्यकार अवतार देखने को मिला। जेल में रहते हुए शांता कुमार ने कई उपन्यास लिखे, जिसका श्रेय वे कांग्रेस को देते है। 21 महीने तक लगे इस आपातकाल को 21 मार्च 1977 को खत्म किया गया था। इसके बाद हिमाचल में विधानसभा का चौथा चुनाव हुआ। कई मायनों में साल 1977 का ये विधानसभा चुनाव खास बन गया। इस चुनाव में सूबे में जनता पार्टी ने बढ़त बनाई थी और शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। ये वो चुनाव था जब प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार आई थी और तब खुद के अपने एक वोट की बदौलत शांता कुमार ने सीएम बनकर इतिहास रचा था। दरअसल 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पहुंचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। बतौर मुख्यमंत्री अपने पहले कार्यकाल में शांता कुमार ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। अन्तोदय योजना के जरिये उन्होंने गरीबों के बीच अपनी पैठ बनाई। गांव- गांव तक पानी के हैंडपंप पहुंचाए और पानी वाला मुख्यमंत्री कहलाये। सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। फरवरी 1980 में जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। इसका ज़िक्र शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा निज पथ का अविचल पंथी में भी किया है , शांता कहते है कि "एक एक करके विधायक जनता पार्टी का साथ छोड़ कर कांग्रेस में जा रहे थे। मैं अपने एक पत्रकार मित्र को रोज फोन पर यूं पूछता था, ‘आज का स्कोर...?’ उसके पास पार्टी छोड़ने वालों के संबंध में जो समाचार होता था, वह मुझे बता देता था। मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि अब सरकार नहीं टिकेगी। जिन कारणों से और जिस तरीके से विधायक पार्टी छोड़ रहे थे, उसका कोई इलाज हमारे पास नहीं था। मैं चुपचाप तमाशा देख रहा था। कुछ मित्र नाराज होते कि मैं सरकार बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। जैसे एक डूबते जहाज का कैप्टन चुपचाप बैठा धीरे-धीरे डूबते जहाज को देखता है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी भी थी।" दरअसल तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। सो ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार के उसूल नहीं टिके। शांता कुमार ने भी इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। बताते है कि अगले दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने शांता कुमार को फोन किया और पूछा कौन सी फिल्म देखी। शांता ने जवाब दिया जुगनू, साथ ही फिल्म का रिव्यू भी दे दिया। बोले, 'बहुत अच्छी फिल्म है आप भी देखकर आइये।' शांता ने अपनी आत्मकथा में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि तब उनके पास भी सियासी जोड़ तोड़ के लिए धनबल जैसी चीज़ों का प्रस्ताव था, मगर शांता अपने आदर्शवाद पर टिके रहे और उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा। भाजपा को हिमाचल में किया खड़ा वर्ष 1980 में ही भारतीय जनता पार्टी का गठन भी हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, भैरों सिंह शेखावत के साथ शांता कुमार भी उस दौर में पार्टी में मुख्य चेहरों में शुमार थे। इसके बाद 10 वर्षों तक शांता कुमार ने भाजपा को हिमाचल में खड़ा करने का काम किया। पार्टी के गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा को 29 सीटें मिली थी, जो कांग्रेस से महज दो सीटें कम थी। 1989 में शांता कुमार संसद भी पहुंचे और उसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सीएम फेस रहे। चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली और शांता एक बार फिर मुख्यमंत्री शांता हो गए। दिसंबर 1992 में बाबरी कांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने शांता की सरकार को बर्खास्त कर दिया जिसके बाद 1993 में फिर चुनाव हुए।1990 में जिस भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी वो 1993 में मजह 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। खुद शांता कुमार भी चुनाव हार गए। हार का कारण ये नहीं था कि उन्होंने काम नहीं किया, बल्कि शांता अपने काम की वजह से ही हारे। कांग्रेस के रोटी-कपडा- मकान के घिसे पीटे नारे को लोगों ने शांता के आत्मनिर्भर हिमाचल के नारे पर तरजीह दी। तब उनकी हार का कारण था कर्मचारियों की नाराज़गी। भारी पड़ा 'नो वर्क नो पे' का फरमान हिमाचल में आज भी सत्ता का रास्ता कर्मचारियों के वोट तय करते है। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट लगा था। इसी के विरोध में सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। शांता भी उसूलों के पक्के थे सो 'नो वर्क नो पे' का फ़रमान जारी कर दिया। 29 दिन चली इस हड़ताल का पैसा कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को उन्होंने बर्खास्त कर दिया। सो जब अगला चुनाव आया तो कर्मचारियों ने भी शांता कुमार से बराबर बदला लिया। शांता की देन है पानी की रॉयल्टी हिमाचल प्रदेश को हर वर्ष करीब दो हजार करोड़ रुपये पानी की रॉयल्टी से मिलते है। ये शांता कुमार की ही देन है। जब पहली बार उन्होंने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया था तो विपक्ष ने जमकर खिल्ली उड़ाई थी। पर कांग्रेस की केंद्र सरकार को ये बात समझ आ गई और हिमाचल को उसका हक मिला। इसका जिक्र भी शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है। मोदी की पसंद नहीं थे शांता 1993 चुनाव की हार के बाद शांता कुमार प्रदेश की सियासत में वापसी नहीं कर सके।1998 चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी हिमाचल के प्रभारी थे और माना जाता है उनसे शांता की बनती नहीं थी। मोदी की पसंद प्रो प्रेम कुमार धूमल थे और चुनाव से पहले भाजपा ने धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। इसके बाद पंडित सुखराम के समर्थन से धूमल ने पांच वर्ष सत्ता सुख भोगा। शांता कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच हमेशा एक लकीर रही है। गोधरा दंगों के बाद शांता कुमार ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि अगर मैं गुजरात का मुख्यमंत्री होता तो त्यागपत्र दे देता। पत्नी संतोष शैलजा ने निभाया हर कदम पर साथ कहते है शांता कुमार के शांता कुमार होने में उनकी धर्मपत्नी संतोष शैलजा की भूमिका भी कम नहीं रही है। संतोष शैलजा शांता कुमार के हर निर्णय में उनके साथ रही। अमृतसर में जन्मी संतोष शैलजा ने अपनी मां को नहीं देखा था। मौसियों ने पाला पोसा और वह दिल्ली के डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगी। वहीं शांता कुमार भी पढ़ाते थे। नजदीकी और समझ बढ़ी तो संबंध स्थायी हो गया। हिमाचल प्रदेश लौटे तो यहां की संस्कृति को ऐसे आत्मसात किया कि शांता के पैतृक गांव गढ़ के बुजुर्ग भी कहने लगे, 'लगता नहीं कि बहू बाहर से आई है। ' शांता कुमार राजनीति में आए, आपातकाल में जेल गए तो संतोष शैलजा ने अध्यापन जारी रखते हुए माता-पिता दोनों भूमिकाओं में बच्चों की परवरिश की। वे खुद भी राजनीति में आ सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। अपनी आत्मकथा में भी शांता ने इसका जिक्र किया है। जब अनुरोध था, अवसर था, उन्होंने तब भी राजनीति में आने से इनकार किया। आत्मकथा में लिखा, भाजपा भी सिद्धांतों से समझौते करने लगी है शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा "निजपथ का अविचल पंथी" लिखी है जिसमें उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन के बल्कि राजनीति के भी कई राज खोले है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से भाजपा को भी बड़ी नसीहत दी है। उनका मानना है कि धीरे-धीरे सत्ता की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी समझौते करने लगी है। राजनीति के प्रदूषण का प्रभाव भाजपा पर भी पड़ना शुरू हो गया है। इस प्रदूषण से उस युग के उनके जैसे थोड़े से बचे हुए नेता बहुत व्यथित होते हैं। शांता ने ये भी लिखा कि "पार्टी के एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो मुझे यहां तक कहा था कि यह वह पार्टी ही नहीं है, जिसमें हम थे, इसलिए व्यथित मत हुआ करो।" उन्होंने आत्मकथा में लिखा, " पूरी राजनीति लगभग भटक चुकी है। अब तो सत्ता प्राप्ति के लिए और विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए दंगे तक करवाए जाते हैं। दल-बदल में नेताओं का क्रय-विक्रय होता है और पता नहीं क्या कुछ किया जाता है। पूरे देश की भ्रष्ट होती हुई इस राजनीति में आशा की एकमात्र अंतिम किरण भाजपा भी यदि भटक गई तो फिर देश का भविष्य कैसा होगा। भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है। एक समय था जब संघ के प्रमुख नेता इस बात पर ध्यान करते थे कि पार्टी मूल्यों की राजनीति से कहीं समझौता न कर ले। धीरे-धीरे संघ का यह मार्गदर्शन कम होता जा रहा है। मैं इस सारी स्थिति से चिंतित हूं। "
वीरभद्र सिंह, वो वटवृक्ष है जिनकी छाया में हिमाचल कांग्रेस का सूर्य सदा उदयमान रहा। वो राजा जिसके सियासी कौशल के आगे बड़े -बड़े नतमस्तक हुए। अर्से से हिमाचल में कांग्रेस का मतलब वीरभद्र सिंह ही रहा है। उनका निवास होलीलॉज अर्से से सियासत का केंद्र बिंदु रहा और आज उनके जाने के बाद भी है। उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वीरभद्र मॉडल को आगे रखकर चुनाव लड़ा है। अखबारों में कांग्रेस के प्रचार का सबसे बड़ा विज्ञापन अब भी वीरभद्र सिंह का दिखा है। निसंदेह हिमाचल प्रदेश की सियासत में वीरभद्र सिंह सबसे बड़ा नाम है। उनका राजनैतिक सफर भी इसकी तस्दीक करता है। 1982 में वीरभद्र सिंह ने पहली बार प्रदेश की सत्ता संभाली थी और 2012 में छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2017 तक वीरभद्र सिंह सीएम रहे और इस दरमियान कई नेताओं का वक्त आया और चला गया, पर वीरभद्र सिंह का तो मानो दौर चल रहा था। वीरभद्र 59 साल के राजनीतिक जीवन में 6 बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्रीय मंत्री और पांच बार सांसद रहे और जब तक आखिरी सांस ली हिमाचल कांग्रेस में वीरभद्र का ही दबदबा रहा। अलबत्ता जब वे अस्पताल में मौत से संघर्ष करते रहे, तब भी उनका होना मात्र ही निष्ठावान कांग्रेसियों को ऊर्जा देता रहा। वीरभद्र सिंह का रुतबा इतना ऊंचा रहा है कि पार्टी के बड़े नेता भी मुखर होकर उनका विरोध नहीं कर पाए। वे सर्वमान्य नेता बने रहे, अपनों के लिए भी और विरोधियों के लिए भी। शिमला का बिशप कॉटन स्कूल हिमाचल का ही नहीं अपितु देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार है। उस दौर में जब रामपुर- बुशहर रियासत के राजकुमार वीरभद्र ने बिशप कॉटन स्कूल में दाखिला लिया था तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि स्कूल का नाम उस शख्सियत से जुड़ने जा रहा है जो आगे चलकर 6 बार हिमाचल का सीएम बनेगा। स्कूल पास आउट करने के बाद वीरभद्र ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में हिस्ट्री होनोर्स में बीए और एमए की। हसरत थी हिस्ट्री का प्रोफेसर बन छात्रों को पढ़ाने की। पर देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था और वीरभद्र सिंह राजनीति में आ गए। जो वीरभद्र छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहते थे, उन्होंने खुद इतिहास बना दिया। सबसे अधिक समय तक हिमाचल का सीएम रहने का रिकॉर्ड वीरभद्र सिंह के ही नाम है। वे करीब 22 वर्ष और कुल 6 बार हिमाचल के सीएम रहे है। 1962 में हुई चुनावी राजनीति में एंट्री प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रेरणा से उन्होंने राजनीति में आने का निर्णय लिया था। नेहरू की बेटी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी तब वीरभद्र से खासी प्रभावित थी। इंदिरा के कहने पर 1959 में वीरभद्र सिंह दिल्ली से हिमाचल लौटे और लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करना शुरू किया। वीरभद्र का ताल्लुक तो रामपुर- बुशहर रियासत से था, लेकिन जल्द ही वे शिमला क्षेत्र में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। नतीजन 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें महासू ( वर्तमान शिमला ) सीट से उम्मीदवार बनाया। 28 वर्ष के वीरभद्र आसानी से चुनाव जीत गए और पहली मर्तबा लोकसभा पहुंचे। इसके बाद 1967 और 1972 में वीरभद्र मंडी से चुनाव लड़ लोकसभा पहुंचे। हालांकि इमरजेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र को हार का मुँह देखना पड़ा। पर उन्होंने अपनी निष्ठा नहीं बदली और इंदिरा गांधी के वफादार बने रहे। 1980 में फिर चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह एक बार फिर जीत कर लोकसभा पहुँच गए। 1982 में इंदिरा सरकार में उन्हें उद्योग राज्य मंत्री भी बना दिया गया। 1983 में हुई हिमाचल की सियासत में एंट्री वीरभद्र वर्ष 1962 से चुनावी राजनीति में है पर हिमाचल प्रदेश की सियासत में उनका आगमन हुआ वर्ष 1983 में। वर्ष 1983 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे ठाकुर रामलाल। तब वीरभद्र केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री थे। तभी टिंबर घोटाले के आरोप के चलते ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और पार्टी हाईकमान ने भरोसा जताया वीरभद्र सिंह पर। इसके बाद से हिमाचल प्रदेश की सियासत वीरभद्र सिंह के इर्द गिर्द घूमती रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1993 में फिर की वापसी 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए थे। ऐसा लगने लगा था कि शायद ही वीरभद्र इसके बाद कभी सीएम बने। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब पंडित सुखराम और विद्या स्ट्रोक्स का भी हिमाचल और कांग्रेस में खासा दबदबा था। पर जो आसानी से हार मान ले, वो वीरभद्र सिंह नहीं बनते। हार के बाद वीरभद्र ने संगठन में अपनी जड़ें और मजबूत की और विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बने रहे। शांता सरकार की गिरती लोकप्रियता को भी उन्होंने जमकर भुनाया। 1993 में शांता सरकार गिरने के बाद जब चुनाव हुए तो वीरभद्र सिंह तीसरी बार प्रदेश के सीएम बने। 1998 में भी कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, लेकिन पंडित सुखराम के सहयोग से सरकार भाजपा की बनी। 2003 में फिर वीरभद्र सिंह की वापसी हुई और वे दिसंबर 2007 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने केंद्र का रुख किया और 2009 से 2012 तक केंद्र में मंत्री रहे। 2012 में कई नेताओं के मंसूबों पर फेरा पानी 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र में मंत्री होने के चलते शायद ही किसी को वीरभद्र के लौटने की उम्मीद रही हो। कांग्रेस में भी कई चाहवान सीएम की कुर्सी पर आंखें गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र को तो अभी दिल्ली से शिमला वापस लौटना था। चुनाव से पहले वीरभद्र ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आये। हालांकि तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई साल से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मज़बूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वीरभद्र ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' वीरभद्र ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट कर दिया था कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो।आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। 83 की उम्र में कांग्रेस ने बनाया सीएम फेस साल था 2017 का। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था। भाजपा में सीएम फेस को लेकर दुविधा थी और अंतिम क्षण तक पार्टी सीएम फेस घोषित करने से बचती रही। उधर, कांग्रेस के सामने कोई दुविधा नहीं थी। 83 वर्ष के वीरभद्र सिंह पार्टी के सीएम कैंडिडेट थे और अकेले भाजपा से लोहा ले रहे थे। संभवतः इससे पहले और इसके बाद भी इतने उम्रदराज नेता को हिंदुस्तान में कभी भी, किसी भी चुनाव में सीएम फेस घोषित नहीं किया गया। दिलचस्प बात ये है कि इस निर्णय को लेकर शायद ही कांग्रेस आलाकमान के मन में कोई दुविधा रही हो। खेर, कांग्रेस चुनाव हार गई पर हिमाचल में वीरभद्र का जलवा उनकी अंतिम सांस तक बरकरार रहा। पीएम इंदिरा गांधी से विवाह की अनुमति लेने गए वीरभद्र सिंह का विवाह दो बार हुआ। 20 साल की उम्र में जुब्बल की राजकुमारी रतन कुमारी से उनकी पहली शादी हुई। किन्तु कुछ वर्षों बाद ही रतन कुमारी का देहांत हो गया। इसके बाद 1985 में उन्होंने प्रतिभा सिंह से शादी की। प्रतिभा सिंह से वीरभद्र सिंह की शादी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल वीरभद्र सिंह की पहली पत्नी के निधन के बाद वीरभद्र की माता उनसे दूसरी शादी करने के लिए कहा करती थी, लेकिन वीरभद्र काफी सालों तक नहीं माने। काफी मनाने के बाद जब वीरभद्र माने तो सहमति प्रतिभा सिंह के नाम पर बनी। उस वक्त वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री थे तो वीरभद्र सिंह पीएम इंदिरा गांधी से भी मिलने गए और उनसे से भी इसकी आज्ञा ली। हालाँकि तब इंदिरा ने उनसे कहा था की ये आपका निजी जीवन है इसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं। सिर्फ यही नहीं वीरभद्र ने उस ज़माने में प्रतिभा से भी उनकी इच्छा पूछी थी। दरससल प्रतिभा सिंह, वीरभद्र सिंह से उम्र में काफी छोटी थी। ऐसे में वीरभद्र नहीं चाहते थे कि उनकी इच्छा के खिलाफ कुछ भी हो। प्रतिभा भी राजी हुई तो फिर बिना किसी शोर के काफी सादे तरीके से शादी हुई। कहते है जिस दिन वीरभद्र की शादी हुई उस दिन भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में काम कर रहे थे। आज प्रतिभा सिंह कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष है और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण से विधायक। कई नेताओं के अरमान कुचले अपनी सियासी पारी में वीरभद्र सिंह न सिर्फ दूसरे राजनीतिक दलों से लोहा लिया बल्कि पार्टी के भीतर भी अपना तिलिस्म बरकरार रखा। वो उन अपवादों में शामिल है जिन्होंने आलाकमान की हां में हां नहीं मिलाई बल्कि जिनकी ताकत के आगे कई मौकों पर आलाकमान भी झुका। वीरभद्र की सियासी महारथ के आगे कई दिग्गज नेताओं का सीएम बनने का अरमान आजीवन अधूरा रहा जिनमें राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले पंडित सुखराम और विद्या स्टोक्स भी शामिल है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वीरभद्र सिंह ने केंद्र से वापसी कर प्रदेश की सियासत का रुख किया और न सिर्फ भाजपा की बाजी पलट दी अपितु पार्टी के भीतर भी कई नेताओं के अरमान कुचल दिए। सर्वमान्य : चार निर्वाचन क्षेत्रों से जीते हिमाचल की सियासत में यदि कोई ऐसा नेता है जिसका वर्चस्व पूरे प्रदेश में दिखा तो वे थे वीरभद्र सिंह। उनकी जमीनी पकड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे चार निर्वाचन क्षेत्रों से विधायक रहे। जुब्बल -कोटखाई से उनकी शुरुआत हुई, फिर रोहड़ू को अपना गढ़ बनाया, तदोपरांत शिमला ग्रामीण से जीतकर विधानसभा पहुंचे और अपने अंतिम चुनाव में अर्की से जीतकर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया। हिमाचल में उन जैसा सर्वमान्य नेता निसंदेह कोई नहीं हुआ।
हिमाचल का ये नेता जब भी मुख्यमंत्री बना, अपनी सियासी तिकड़म से बना। एक बार अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ यशवंत सिंह परमार को हटाकर सीएम पद कब्जाया, तो अगली बार शांता कुमार की जनता पार्टी के विधायकों को अपनी तरफ मिला लिया और कुर्सी हथिया ली। तीसरे मौके पर बहुमत नहीं था, तो निर्दलीयों को साध कर अपनी राजनीतिक कुशलता साबित कर दी। हम बात कर रहे है ठाकुर रामलाल की। वही ठाकुर राम लाल जो 1957 से 1998 तक 9 बार जुब्बल कोटखाई से विधायक चुने गए। उन्हें विरोधियों ने देवदार के पेड़ खाने वाला सीएम तक कहा। फिर ये ही ठाकुर रामलाल जब आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने तो विरोधियों ने उन्हें लोकतंत्र खाने वाला राज्यपाल कहा। ठाकुर रामलाल ही वो नेता थे जिन्होंने 18 साल सीएम रहे डॉ यशवंत सिंह परमार की राजनीतिक विदाई का ताना बाना बुना और उन्हें हिमाचल का तिकड़मबाज सीएम कहा गया। ठाकुर को हिमाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीति का जनक कहा जाता है। पहली बार रामलाल ने ही सूबे में राजनीतिक दांव-पेंच दिखाया था और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। साल 1957 में पहली बार ठाकुर रामलाल जुब्बल कोटखाई से विधायक बने। ठाकुर साहब 9 बार विधानसभा पहुंचे और हर बार उन्होंने जुब्बल कोटखाई का प्रतिनिधित्व किया। रामलाल ने हर बार बड़े अंतर से चुनाव में जीत हासिल की। साल 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी और कई दिग्गज चुनाव हार गए थे। उस वक्त भी ठाकुर रामलाल ने जुब्बल कोटखाई से 60 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर जीत हासिल की थी। 28 जनवरी 1977 को हिमाचल निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार इस्तीफा दे देते है। इसे डॉ परमार की समझ कहे या ठाकुर राम लाल की पॉलिटिकल मैनेजमेंट, कि खुद डॉ परमार पार्टी आलाकमान का रुख भांपते हुए ठाकुर रामलाल के नाम का प्रस्ताव देते है। उसी दिन शाम को ठाकुर रामलाल पहली बार हिमाचल के सीएम पद की शपथ लेते है। ऐसा अकस्मात नहीं हुआ था। दरअसल इससे करीब एक सप्ताह पहले ठाकुर रामलाल 22 विधायकों की परेड प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष करवा चुके थे। वैसे भी इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय गांधी के करीबी हो चुके थे। रामलाल, डॉ परमार की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे और उन्होंने संजय के नसबंदी अभियान को अपने क्षेत्र में पूरे जोर- शोर के साथ चलाया था। इसका लाभ भी उन्हें मिला। इस तरह ठाकुर रामलाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। पर करीब तीन माह बाद ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया और बतौर मुख्यमंत्री उनका पहला टर्म समाप्त हुआ। आपातकाल के बाद देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी और शांता कुमार अगले मुख्यमंत्री बने। पर शांता भी सत्ता का सुख ज्यादा नहीं भोग पाए। फरवरी 1980 में ठाकुर रामलाल ने एक बार फिर अपनी तिकड़मबाजी दिखाई और शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के साथ हो लिए। रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी और ठाकुर रामलाल फिर मुख्यमंत्री बन गए। 1982 में फिर चुनाव हुए और हिमाचल में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को 31 सीटें मिली जो बहुमत से चार कम थी और 6 निर्दलीय विधायक भी चुन कर आये थे। तब तक भाजपा का गठन भी हो चुका था और भाजपा भी शांता कुमार की अगुवाई में सरकार बनाने की जद्दोजहद में जुट गई। तब भाजपा को 29 सीटें मिली थी और दो सीटें जनता पार्टी ने जीती थी। नतीजन सारा दारोमदार निर्दलीय विधायकों पर था। तब एक बार फिर ठाकुर रामलाल की राजनीतिक करामात कांग्रेस के काम आई और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से रामलाल तीसरी बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने। एक गुमनाम पत्र ने गिरा दी कुर्सी सीएम ठाकुर रामलाल के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था। इसी बीच जनवरी 1983 में हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश को एक गुमनाम पत्र मिलता है। पत्र में लिखा गया था कि ठाकुर रामलाल के दामाद पद्म सिंह, बेटे जगदीश और उनके मित्र मस्तराम द्वारा जुब्बल-कोटखाई व चौपाल इलाके में सरकारी भूमि से देवदार की लकड़ी काटी जा रही है, जिसकी कीमत करोड़ों में है। न्यायाधीश ने जांच बैठाई, जिसके बाद ठाकुर रामलाल पर खुले तौर पर टिम्बर घोटाले के आरोप लगने लगे। शायद ठाकुर रामलाल इस स्थिति को भी संभाल लेते लेकिन उनसे एक और चूक हो गई जिसका खामियाजा उन्हें सीएम की कुर्सी गंवा कर चुकाना पड़ा। दरअसल ठाकुर रामलाल ने दिल्ली में पत्रकार वार्ता कर ये कह दिया कि उन्हें राजीव गांधी ने आश्वासन दिया है कि उन्हें टिम्बर घोटाले को लेकर परेशान नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजीव गांधी पर आरोप लगने लगे कि वे भ्रष्टाचार के आरोपी का बचाव कर रहे है। नतीजन ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देना पड़ा। दिलचस्प बात ये रही कि जिस तरह डॉ यशवंत सिंह परमार ने इस्तीफा देकर ठाकुर रामलाल का नाम प्रस्तावित किया था, उसी तरह ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव देना पड़ा। राज्यपाल बनकर भी रहे विवादों में ठाकुर रामलाल के बतौर मुख्यमंत्री सफर पर तो वीरभद्र सिंह के सत्ता संभालने के बाद ही विराम लग गया था, किन्तु अभी तो ठाकुर रामलाल पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगना बाकी था। कांग्रेस ने रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया था। आंध्र में 1983 में चुनाव हुए थे जिसमें एन टी रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान अगस्त 1983 में एन टी रामाराव उपचार के लिए विदेश चले गए। ठाकुर रामलाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी बाकी थी, सो रामलाल ने कांग्रेस नेता विजय भास्कर राव को बिना विधायकों की परेड के ही सीएम बना दिया। वे इंदिरा के दरबार में अपनी कुव्वत बढ़ाना चाहते थे, पर हुआ उल्टा। एनटी रामाराव वापस वतन लौटे और व्हील चेयर पर बैठ दिल्ली में 181 विधायकों के साथ जुलूस निकाला। कांग्रेस की जमकर थू-थू हुई और रातों रात ठाकुर रामलाल के स्थान पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बना दिया गया। इसके बाद रामलाल ने कांग्रेस छोड़ी, वापस भी आये पर स्थापित नहीं हो पाए। वीरभद्र को चुनाव हराने वाला नेता हिमाचल की सियासत में वीरभद्र सिंह से बड़े कद का नेता शायद ही दूसरा कोई हो। वीरभद्र अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे है और उनको हराने वाले थे ठाकुर रामलाल। जब ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से हटाया गया तो वो हिमाचल प्रदेश की सियासत में लौटे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और जनता दल का दामन थाम लिया। साल 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर ने जुब्बल कोटखाई से पर्चा भरा। उनके खिलाफ कांग्रेस ने दिग्गज नेता और सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह मैदान में उतरे। उस विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने वीरभद्र सिंह को चुनाव हराकर साबित कर दिया था कि उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ। दिलचस्प बात ये है कि सीएम बनने के बाद वीरभद्र सिंह इसी सीट से 1983 का उपचुनाव जीते थे और 1985 में इसी सीट से जीतकर दूसरी बार सीएम बने थे। विरासत को संभाल रहे रोहित ठाकुर 1990 के चुनाव के बाद ठाकुर रामलाल कांग्रेस में वापस लौट आएं। वे 1993 और 1998 का विधानसभा चुनाव फिर जुब्बल कोटखाई सीट से लड़े और जीते भी। साल 2002 में ठाकुर रामलाल का निधन हो गया। उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके पोते रोहित ठाकुर संभाल रहे है। 2003 हुए चुनाव में रोहित ठाकुर पहली बार जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतरे और चुनाव जीते भी। पर साल 2007 का चुनाव रोहित ठाकुर भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र बरागटा से हार गए। साल 2012 में रोहित ने नरेंद्र बरागटा को फिर हराया लेकिन साल 2017 में बाजी पलटी और नरेंद्र बरागटा फिर रोहित ठाकुर को हराकर विधानसभा पहुंचे। हालांकि नरेंद्र बरागटा के स्वर्गवास के बाद पिछले साल हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर ने एक बार फिर जीत दर्ज की। इस बार भी रोहित ठाकुर ने ही जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा है।
सिर्फ चार संसदीय सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में सियासत हमेशा किंग साइज रही है। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर इसी हिमाचल प्रदेश से सांसद थी। आपातकाल के बाद 1977 में इसी हिमाचल प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जो 1980 में दल बदल की भेंट चढ़ गई। 1992 में हिमाचल भी उन चार राज्यों में शामिल था, जहाँ 6 दिसंबर को हुए बाबरी विध्वंस के बाद कानून व्यवस्था का हवाला देकर सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था। यानी हिमाचल प्रदेश की सियासत में हमेशा रोमांच भरपूर रहा है। हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का गौरव अब तक 6 लोगों को मिला है। पहले मुख्यमंत्री डॉ वाईएस परमार जिला सिरमौर से थे। ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह जिला शिमला से, शांता कुमार जिला कांगड़ा से, प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर से और जयराम ठाकुर जिला मंडी से है। यानी प्रदेश के पांच जिलों को अब तक सीएम पद मिला है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को ये तय होगा कि अगली सरकार किसकी बनेगी। यदि प्रदेश में भाजपा सरकार रिपीट करती है तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री भी जयराम ठाकुर ही होंगे। वहीं अगर कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो सीएम पद के दावेदारों की फेहरिस्त लंबी है। कांग्रेस से अब तक सीएम रहे तीनों दिग्गज नेता अब इस दुनिया में नहीं है, सो ये तय है कि कांग्रेस सरकार बनी तो प्रदेश को बतौर सीएम नया चेहरा मिलेगा। हिमाचल प्रदेश में आखिरी बार 1985 में सरकार रिपीट हुई थी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। उनके बाद कोई रिपीट नहीं कर पाया। हालांकि 1998 में वीरभद्र सिंह ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी लेकिन बहुमत न होने के चलते उनको इस्तीफा देना पड़ा। प्रदेश में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा है, एक बार 1977 में और एक बार 1992 में। 1977 में शांता कुमार के नेतृत्व में पहली बार गठबंधन सरकार बनी लेकिन पांच साल चली नहीं। 1990 में भी भाजपा और जनता पार्टी गठबंधन की सरकार बनी, पर वो भी पांच साल नहीं चली। फिर 1998 में बनी भाजपा -हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार वो पहली गठबंधन सरकार है जो पांच साल चल सकी। हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर निगाह डालें तो आजादी के बाद 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल अस्तित्व में आया। 26 जनवरी 1950 को हिमाचल को पार्ट सी स्टेट का दर्जा मिला। तब देश में दस पार्ट सी स्टेट थे जिनमें हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर, दोनों शामिल थे। फिर 1 जुलाई 1954 को बिलासपुर हिमाचल का हिस्सा बना। इसके बाद 1 नवंबर 1956 को हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। तदोपरांत 1 नवंबर 1966 को पंजाब के कई हिस्से कांगड़ा समेत हिमाचल में शामिल हुए। 18 दिसंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश एक्ट पास किया गया और आखिरकार 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। पार्ट सी स्टेट बनने के बाद 1952 से 1957 तक यशवंत सिंह परमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि इस बीच हिमाचल प्रदेश नवंबर 1956 में टेरिटोरियल काउंसिल बन चुका था। 1957 में हुए चुनाव में कांग्रेस फिर बहुमत के साथ लौटी और ठाकुर करम सिंह टेरिटोरियल काउंसिल के चेयरमैन चुने गए। 1962 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1967 में हुए अगले चुनाव में भी ये कर्म जारी रहा। 1972 का चुनाव आते -आते हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल चुका था और उस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1977 में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार 1977 के विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 53 सीटें जीती थी और यशवंत सिंह परमार फिर मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि 1977 आते -आते हालात बदल चुके थे। देश में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस को लेकर पूरे देश में गुस्सा था और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था। वहीँ चुनाव से कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस ने यशवंत सिंह परमार को हटाकर ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। तब तक प्रदेश में शांता कुमार की अगुवाई में जनता पार्टी भी अपने पाँव मजबूत कर चुकी थी। नतीजन विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को महज 9। उस चुनाव में 6 निर्दलीय जीते थे। चुनाव के बाद शांता कुमार और रणजीत सिंह को बराबर विधायकों का समर्थन प्राप्त था और तब अपने ही वोट से शांता कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने। 1980 में अल्पमत में आ गई शांता सरकार 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। तब जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार ने इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था जुगनू। तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। इस तरह 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौटी और ठाकुर रामलाल दूसरी बार सीएम बने। पहले ही चुनाव में टक्कर दे गई भाजपा 1982 के चुनाव से पहले भाजपा का गठन हो चुका था। जनसंघ और आरएसएस विचारधारा के अधिकांश नेता अब भाजपा का चेहरा थे , जिनमें शांता कुमार भी शामिल थे। 1982 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में जबरदस्त टक्कर देखने को मिली। कांग्रेस ने उस चुनाव में 31 सीटें जीती जबकि भाजपा को 29 सीट मिली। जनता पार्टी 2 पर सिमट गई और 6 निर्दलीय विधायकों के हाथ में सत्ता की चाबी आ गई। ठाकुर रामलाल का गुणा भाग फिर काम कर गया और सत्ता कांग्रेस के पास ही रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा 1990 आते -आते भाजपा मजबूत हो चुकी थी और प्रदेश में वीरभद्र सरकार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी व्याप्त थी। देश में राम मंदिर आंदोलन के स्वर भी उठ रहे थे। तब प्रदेश में भाजपा ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा और इस गठबंधन को प्रचंड जीत मिली। भाजपा गठबंधन 57 सीटें जीतने में कामयाब रहा, जबकि कांग्रेस को महज 9 सीटें मिली। चुनाव के बाद शांता कुमार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। हालांकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने तब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारों को कानून व्यवस्था का हवाला देकर बर्खास्त कर दिया था, जिसमे शांता कुमार की सरकार भी थी। 1993 में कर्मचारी लहर भाजपा पर पड़ी भारी 1993 में कांग्रेस के लिए सत्ता की राह आसान थी। दरअसल मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार ने 'नो वर्क नो पे' का फरमान जारी कर प्रदेश के कर्मचारियों से पन्गा ले लिया था। जैसा अपेक्षित था कर्मचारी लहर में भाजपा टिक नहीं सकी और उसे महज आठ सीटों से संतोष करना पड़ा। खुद शांता कुमार चुनाव हार गए। उधर कांग्रेस को 52 सीटें मिली थी। तब पंडित सुखराम भी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के सियासी तिलिस्म के आगे उनका अरमान पूरा नहीं हुआ। हिमाचल के इतिहास का सबसे रोचक चुनाव 1998 में वीरभद्र सिंह सत्ता वापसी को लेकर आश्वस्त थे और इसलिए उन्होंने समय से कुछ पहले ही चुनाव करवा दिए। उधर, तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह भी अलग हो चुकी थी और पंडित सुखराम अपनी अलग पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन कर चुके थे। पंडित जी को कम आंकना ही शायद वीरभद्र सिंह की भूल थी। जब नतीजा आया तो पंडित सुखराम किंग मेकर की भूमिका में थे। तब तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण चुनाव नहीं हुए थे। कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और हिमाचल विकास कांग्रेस के पास चार विधायक थे। बहुमत का आंकड़ा 33 था और कांग्रेस के पास 31 विधायक थे। उधर पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा को छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। कहानी में ट्विस्ट अभी बाकी था। कहते है रमेश धवाला जब शिमला की तरफ आ रहे थे तो उनका एक तरह से अपहरण हो गया। फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं और उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया। इसके बाद वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया और रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह चौथी बार सीएम बन गए। वीरभद्र सिंह ने जैसे -तैसे सरकार बना तो ली लेकिन सरकार चली नहीं। तब रमेश धवाला को मंत्री पद भी दिया गया और कहते है धवाला को मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। तब भाजपा के प्रभारी थे नरेंद्र मोदी। कहते है धवाला को सीएम हाउस के एक कर्मचारी के जरिये सन्देश भेजा गया और सचिवालय जाते वक्त धवाला गाड़ी के उतर कर भाजपा खेमे में चले गए। सब कुछ तय रणनीति के अनुसार फिल्मी अंदाज में हुआ। इसके बाद भाजपा ने सरकार बनने का दावा पेश किया। राज्यपाल ने पहले तो बीजेपी को मना कर दिया, पर कुछ दिन बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया और सरकार बनाने को आमंत्रित किया। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया जिसमें रमेश धवाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। वीरभद्र सिंह भी समझ चुके थे कि बाजी उनके हाथ से जा चुकी है। जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह राज्य में प्रेम कुमार धूमल की सरकार बन गई। मौसम साफ होने के बाद प्रदेश की तीन सीटों पर चुनाव हुआ और एक सीट पर उपचुनाव। इनमें से तीन सीटें भाजपा जीती और एक हिमाचल विकास कांग्रेस। ऐसे में कांग्रेस की रही -सही उम्मीद भी खत्म हो गई। 2003 : मैडम दिल्ली में थी, शिमला में विधायकों की परेड हो गई 2003 आते -आते प्रदेश के सियासी समीकरण बदल चुके थे। प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर थी और हिमाचल विकास कांग्रेस और भाजपा के बीच भी दूरियां दिखने लगी थी। उस चुनाव में कांग्रेस 43 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी जबकि 16 सीटों पर सिमट कर रह गई। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस 49 सीटों पर चुनाव तो लड़ी लेकिन सिर्फ मंडी सदर सीट पर उसे जीत मिली थी। इस तरह कांग्रेस आसानी से सत्ता में लौटी। दिलचस्प बात ये है कि तब 1993 की तरह ही एक बार फिर कांग्रेस में सीएम पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। माना जाता है तब विद्या स्टोक्स पार्टी आलाकमान के करीब थी और नतीजों के बाद सीएम पद के लिए लॉबिंग भी शुरू कर चुकी थी। प्रदेश में माहौल बना कि शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाएं। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और इधर वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमे से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। 2007 में भी कायम रहा परिवर्तन का रिवाज 2007 के विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बरकरार रहा। भाजपा तब प्रो प्रेम कुमार धूमल के चेहरे पर चुनाव लड़ी तो कांग्रेस वीरभद्र सिंह के। सत्ता में आने पर दोनों ही तरफ सीएम फेस को लेकर कोई संशय नहीं था। तब सत्ता मिली भाजपा को और पार्टी 41 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं कांग्रेस 23 सीटें ही जीत सकी। उस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भी दमखम से लड़ी। 67 सीटों पर चुनाव लड़ बहुजन समाज पार्टी ने सात प्रतिशत से ज्यादा वोट लिए। हालांकि पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली, पर कई सीटों पर पार्टी ने कांग्रेस का खेल जरूर खराब किया। इस तरह प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक बार फिर केंद्र की सियासत का रुख किया। वीरभद्र सिंह मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े और सांसद बन गए। इसके बाद उन्हें केंद्र में मंत्री पद भी मिला। इस तरह रिकॉर्ड छठी बार सीएम बने वीरभद्र सिंह 2012 का चुनाव आते -आते वीरभद्र सिंह केंद्र से मंत्री पद त्याग कर प्रदेश में लौट आएं थे। जाहिर है वीरभद्र सिंह की नजर फिर सीएम पद पर थी। उधर कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका था। ठाकुर कौल सिंह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और प्रदेश में कांग्रेस की अगुवाई कर रहे थे। माना जाता है कांग्रेस आलाकमान भी बदलाव के मूड में था। पर वीरभद्र सिंह हार मानने वाले नहीं थे। इस खींचतान का असर कांग्रेस के प्रचार अभियान में भी दिख रहा था। फिर चुनाव से कुछ दिन पहले देखने को मिला वीरभद्र सिंह का मास्टर स्ट्रोक। शिमला में पत्रकार वार्ता कर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। उन्होंने कहा सोनिया गांधी चाहे तो सात दिन में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो सकती है। तब वीरभद्र सिंह ने कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' इशारा साफ था और आलाकमान भी समझ गया। आखिरकार आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। तब कांग्रेस 36 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2012 के बाद से ही देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा। हालांकि 2013 में हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह जीत गई लेकिन 2014 की मोदी लहर में कांग्रेस लोकसभा की सभी चार सीटें हारी। भाजपा को तो जीता दिया पर धूमल हार गये 18 दिसंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आये और 44 सीटों के साथ भाजपा की सरकार बनी। पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो. प्रेम कुमार धूमल 1911 वोटों से परास्त हो गए। कहते है इस चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी के चलते 30 अक्टूबर को राजगढ़ की रैली में अमित शाह ने धूमल को सीएम फेस घोषित किया। धूमल ने भाजपा को तो जीता दिया लेकिन जनता ने धूमल को ही हरा दिया। इस चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के पांच मंत्री हारे थे। नतीजों के बाद आई मुख्यमंत्री चुनने की बारी। धूमल का दावा हार का बावजूद मजबूत था। कई विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर रहे थे। किन्तु भाजपा आलाकमान बदलाव चाहता था और मौका मिला जयराम ठाकुर को। पांच बार के विधायक और वरिष्ठ नेता जयराम ठाकुर को लेकर कोई विद्रोह नहीं हुआ। इसके बाद कैबिनेट चुनते वक्त भी धूमल की राय को कुछ तवज्जो मिली। पर आहिस्ता-आहिस्ता जयराम ठाकुर मजबूत होते गए और धूमल गुट की उपेक्षा की खबरें सामने आने लगी। बहरहाल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को नतीजे सामने होंगे। अगली सरकार को लेकर अटकलों का दौर जारी है।1985 के बाद से चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलता है या बरकरार रहता है, यह देखना रोचक होगा।
2017 में जिला मंडी में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया था और इसका इनाम भी मंडी को मिला। भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल के चुनाव हारने के बाद जिला मंडी की सिराज सीट से पांचवी बार विधायक बने जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस तरह जिला मंडी का सीएम पद का इन्तजार भी खत्म हुआ। पर इससे पहले तीन मौके ऐसे आए थे जब मंडी को सीएम पद मिलते -मिलते रह गया था। मंडी जिला से मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सबसे पहले आई वर्ष 1962 में। उस समय चच्योट विधानसभा क्षेत्र से ही विधायक ठाकुर कर्म सिंह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। ठाकुर कर्म सिंह टेरिटोरियल काउंसिल के प्रथम अध्यक्ष रहे थे और माना जाता है कि अधिकांश विधायकों का समर्थन भी उनके साथ था। बावजूद इसके वे डॉ. यशवंत सिंह परमार से इस दौड़ में पिछड़ गए। जिला मंडी को मुख्यमंत्री पद मिलने का दूसरा बड़ा मौका आया वर्ष 1993 में। 1990 की करारी हार के बाद 1993 के चुनाव में कांग्रेस की वापसी तो हुई लेकिन वीरभद्र सिंह का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनना तब तय नहीं था। वीरभद्र सिंह को चुनौती दे रहे थे पंडित सुखराम। तब जिला मंडी की 9 सीटें कांग्रेस जीती थी और नाचन सीट कांग्रेस के बागी की झोली में गई थी। कांग्रेस प्रदेश की 53 सीटें जीती थी और कहते है तब पंडित सुखराम को 22 विधायकों का समर्थन प्राप्त था। पर मंडी जिला के ही दो बड़े नेता कौल सिंह ठाकुर और रंगीला राम राव ने वीरभद्र सिंह का साथ दिया और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए। 2012 चुनाव से पहले में कौल सिंह ठाकुर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे और मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे भी। पर चुनाव से ठीक पहले वीरभद्र सिंह प्रदेश की सियासत में वापस लौट आएं और उन्होंने सीएम पद पर फिर दावा ठोक दिया। वीरभद्र सिंह ने तेवर दिखाएं तो आलाकमान भी झुका और उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा। इस तरह वीरभद्र सिंह छठी बार मुख्यमंत्री बन गए और मंडी का सपना तीसरी बार टूट गया। साठ के दशक में शुरू हुई जिला मंडी को मुख्यमंत्री का पद दिलाने की कवायद आख़िरकार 2017 में पूरी हुई। दिलचस्प बात ये है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का निर्वाचन क्षेत्र सिराज है जो 2008 के परिसीमन से पहले चच्योट के नाम से जाना जाता था। इसी चच्योट हलके के विधायक कर्म सिंह ठाकुर ने पहली बार मंडी के लिए सीएम पद की लड़ाई लड़ी थी। क्या मंडी के पास ही रहेगा सीएम पद ? मौजूदा चुनाव में अगर भाजपा रिपीट कर पाई तो एक बार फिर सीएम पद मंडी के पास ही रहना तय है। उधर अगर कांग्रेस भी अगर सत्ता में आती है तो भी सीएम पद मंडी को मिल सकता है। दरअसल कांग्रेस से कौल सिंह ठाकुर भी सीएम पद की दौड़ में माने जा रहे है। हालांकि प्रतिभा सिंह, सुखविंद्र सिंह सुक्खू, मुकेश अग्निहोत्री, राम लाल ठाकुर और आशा कुमारी सहित कई अन्य नेता भी इस फेहरिस्त में शामिल है।
इस दफा ऊना जिला की हरोली सीट का चुनाव बड़े मायने रखता है। यह नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री की गृह सीट है। अग्निहोत्री कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से हैं, जो 5 साल भाजपा सरकार को विधानसभा के भीतर से लेकर बाहर तक घेरते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो बड़ा सवाल था कि आखिर सदन में कांग्रेस की अगुवाई कौन करेगा ? निगाहें उम्रदराज वीरभद्र सिंह पर थी और उन्होंने अपना भरोसा जताया मुकेश अग्निहोत्री पर। अग्निहोत्री भी भरोसे पर खरा उतरे। वे चौथी बार के विधायक थे और वीरभद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके थे। वीरभद्र सिंह से सियासत की बारीकियां सीखते-सीखते आगे बढ़ रहे थे, सो मात कैसे खाते। सदन में मुकेश अग्निहोत्री ने दमदार तरीके से न सिर्फ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया बल्कि हर मुमकिन मौके पर जयराम सरकार को भी जमकर घेरा। कभी पेशे से मुकेश अग्निहोत्री पत्रकार थे और जनसत्ता अखबार के लिए लिखा करते थे। तभी राजनीतिक खबरें लिखते-लिखते राजनीति ने न जाने कब मुकेश को अपने पाले में कर लिया और पत्रकारिता छोड़ अग्निहोत्री सियासी अखाड़े में उतर आएं। 2003 में वे संतोखगढ़ से अपना पहला चुनाव लड़े और विधानसभा पहुंच गए। 2007 में इसी सीट से दूसरी बार जीते। फिर नए परिसीमन के बाद अस्तित्व में आये हरोली विधानसभा क्षेत्र से वे 2012 और 2017 में चुनाव जीते। इस दौरान वे वीरभद्र सिंह के करीबी रहे और उन्हीं की सरपरस्ती में लगातार आगे बढ़ते रहे। अब इस बार मुकेश अग्निहोत्री ने पांचवी बार विधानसभा का चुनाव का लड़ा है और वे फिर अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। हरोली सीट की बात करें तो इस बार तीसरी बार मुकेश अग्निहोत्री और भाजपा के प्रो राम कुमार आमने सामने है। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में मुकेश अग्निहोत्री ने भाजपा के राम कुमार को 5172 वोटों से हराया तो यही अंतर साल 2017 के चुनाव में 7377 हो गया। अब इस चुनाव में भाजपा ने हरोली सीट पर एड़ी चोटी का जोर लगाया है। जयराम सरकार के विकास कार्यों और केंद्र की बल्क ड्रग पार्क की सौगात के सहारे भाजपा उलटफेर की कोशिश में रही है। उधर मुकेश अग्निहोत्री ने भी निसंदेह हरोली में काफी विकास करवाया है। पर खास बात ये है कि उन्होंने भावी सीएम के टैग के साथ इस बार चुनाव लड़ा है। हालांकि बेशक खुद मुकेश अग्निहोत्री बार -बार सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात दोहराते रहे हो, लेकिन उनके समर्थक तो उन्हें भावी सीएम ही मानते रहे है। दरअसल यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो मुकेश अग्निहोत्री भी मुख्यमंत्री की रेस में है। जाहिर है ऐसे में हरोली सीट पर सबकी निगाह टिकी है। बहरहाल मुकेश अग्निहोत्री अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। ये है सीएम पद के दावेदार अब बात कर लेते है कांग्रेस में सीएम पद के दावेदारों की। कुछ माह पूर्व प्रदेश में हुए फेरबदल के दौरान कांग्रेस आलाकमान ने तीन नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मे दिए थे। प्रतिभा सिंह प्रदेश अध्यक्ष, सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष और मुकेश अग्निहोत्री नेता प्रतिपक्ष। जाहिर है ये तीनों कांग्रेस की सत्ता वापसी की स्थिति में सीएम पद के दावेदार है। इनके अलावा कौल सिंह ठाकुर, राम लाल ठाकुर, आशा कुमारी सहित कई और नाम है जिन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। जानकार मानते है कि होलीलॉज और मुकेश के बीच सीएम को लेकर एकराय दिख सकती है, चेहरा चाहे कोई भी हो। तब रणजीत सिंह नहीं कर पाएं, अब मुकेश पर निगाहें : ऊना जिला को कभी सीएम पद नहीं मिला है। हालांकि इतिहास में एक मौका ऐसा आया जब ऊना को सीएम पद मिलते-मिलते रह गया। 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी सत्ता में आई थी। तब जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह जनता पार्टी के समर्थन में कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। ठाकुर रणजीत सिंह ऊना जिला के कुटलैहड़ से ताल्लुख रखते थे। तब सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने ठाकुर रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पंहुचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। तब ऊना को सीएम पद मिलते-मिलते रह गया था। अब अगर मुकेश अग्निहोत्री सीएम पद तक पहुंच पाएं तो 45 वर्ष पहले टुटा जिला ऊना का अरमान पूरा होगा।
हिमाचल प्रदेश का सियासी इतिहास बेहद रोचक है। यहाँ की सियासी हवा कब किसके अरमानों को उजाड़ दे, पता नहीं चलता। कई बड़े दिग्गज यहाँ चुनावी रण में धराशाई हुए है। दिलचस्प बात ये है कि हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के दावेदार ही नहीं, सीटिंग मुख्यमंत्री भी चुनाव हारे है। आज तक छ नेता हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने है और इनमें से तीन सीएम बनने के बाद भी विधानसभा चुनाव हारे है। जबकि एक नेता सीएम बनने से पहले हार चुके है। प्रदेश में अब तक डॉ यशवंत सिंह परमार, ठाकुर राम लाल, शांता कुमार, वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल और जयराम ठाकुर को सीएम बनने का सौभाग्य मिला है। इनमें से यशवंत सिंह परमार और ठाकुर रामलाल ही ऐसे है, जो कभी विधानसभा चुनाव नहीं हारे। शांता कुमार, वीरभद्र सिंह और प्रेम कुमार धूमल सीएम बनने के बाद भी विधानसभा चुनाव हार चुके है। जबकि जयराम ठाकुर 1993 में अपना पहला विधानसभा चुनाव हारे थे। हालांकि तब तक वे कभी विधायक भी नहीं बने थे। दो बार बतौर पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव हारे शांता कुमार शुरुआत करते है शांता कुमार से जिनका राजनीतिक सफर रोलर कोस्टर जैसा रहा है। शांता कुमार ने अपना पहला चुनाव 1967 में जनसंघ के टिकट पर लड़ा था और सीट थी पालमपुर। तब शांता कुमार चुनाव हार गए थे। इसके बाद 1972 में वे खेरा सीट से जीते, 1977 और 1982 में सुलह से। इस बीच वे 1977 से 1980 तक मुख्यमंत्री भी रहे। पर 1985 में पूर्व मुख्यमंत्री के टैग के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद शांता कुमार सुलह से चुनाव हार गए। पर इससे अगले ही चुनाव में 1990 में वे पालमपुर और सुलह, दोनों सीटों से जीते। 1990 में वे दूसरी बार सीएम भी बने और दिसंबर 1992 तक केंद्र द्वारा उनकी सरकार बर्खास्त करने तक इस पद पर बने रहे। पर 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में फिर सुलह सीट से हार गए। 2017 में प्रोजेक्टेड सीएम धूमल हारे थे चुनाव अब बात करते है प्रो प्रेम कुमार धूमल की जो दो बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। धूमल 1998 से 2003 तक पहली बार और 2007 से 2012 तक दूसरी बार मुख्यमंत्री रहे। 2017 में भी पार्टी ने उन्हें सीएम पद का चेहरा घोषित किया था। पर तब भाजपा तो जीत गई लेकिन प्रेम कुमार धूमल खुद सुजानपुर सीट से चुनाव हार गए। 1990 में सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह हारे थे अंत में बात करते है हिमाचल प्रदेश में बतौर सीटिंग सीएम चुनाव हारने वाले दिग्गज की। ये नेता थे 6 बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह। 1990 में वीरभद्र सिंह दो सीटों से चुनाव लड़े थे, जुब्बल कोटखाई और रोहड़ू। तब वीरभद्र सिंह रोहड़ू से तो चुनाव जीत गए लेकिन जुब्बल कोटखाई में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। दिलचस्प बात ये है कि इसी सीट से वे 1983 का उपचुनाव और 1985 का विधानसभा चुनाव जीते थे। दरअसल उनका सामना इसी सीट से जीतकर तीन बार सीएम रहे ठाकुर रामलाल से था। दो सियासी महारथियों के चुनावी घमासान में तब सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह को हार का सामना करना पड़ा था।
जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया, उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा-जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चुका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा था। मौजूदा चुनाव की बात करें तो जयराम कैबिनेट में उद्योग एवं परिवहन मंत्री और जसवां परागपुर से विधायक बिक्रम ठाकुर, सामजिक न्याय एवं आधिकारित मंत्री और शाहपुर से विधायक सरवीण चौधरी और वन मंत्री राकेश पठानिया, अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में कड़े मुकाबले में फंसे दिख रहे है। मंत्री राकेश पठानिया की तो सीट भी इस बार पार्टी ने बदली है और उन्हें नूरपुर से फतेहपुर भेजा गया है। वहीँ सुलह सीट से विधानसभा अध्यक्ष विपिन परमार भी कांग्रेस की बगावत में जीत तलाश रहे है। इन तीन मौजूदा मंत्रियों और विधानसभा अध्यक्ष के अलावा पालमपुर से पार्टी के प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर, देहरा से पूर्व मंत्री रमेश चंद धवाला, ज्वालामुखी से पूर्व मंत्री रविंद्र सिंह रवि और दल बदलकर भाजपा में आएं कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष पवन काजल कांगड़ा से चुनावी मैदान में है। जिला कांगड़ा में चुनाव लड़ रहे भाजपा के इन आठ दिग्गजों में से एकाध को छोड़ दिया जाएँ तो शायद ही कोई ऐसा है जो सहजता से चुनाव जीतता दिख रहा है। अधिकांश नेता कांटे के मुकाबले में फंसे है और इनके हारने की सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में आठ नेताओं का प्रदर्शन भाजपा के लिए काफी कुछ तय करने वाला है। 1985 से सत्ता के साथ जिला कांगड़ा जिसके कांगड़ा में ज्यादा विधायक, उसी की सरकार। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी। ऐसे में जाहिर है अगर भाजपा को सत्ता पर कब्ज़ा बरकरार रखना है तो विशेषकर इन आठ दिग्गजों का बेहतर करना आवश्यक है। बहरहाल, मतदान हो चूका है और आठ दिसम्बर को तय हो जायेगा कि कांगड़ा किसके साथ गया है।
1970 के दशक में एक लड़की भोपाल में छात्र राजनीति में सक्रीय थी और सियासत की बारीकियां सीख रही थी। रुझान शुरू से कांग्रेस की तरफ था। वहीं, उस युवती के पिता मध्य प्रदेश सरकार में आला प्रशासनिक अधिकारी थे, जो आगे चलकर मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव भी रहे। पिता का नाम था एम एस सिंह देव और उन्हीं की बेटी है आशा कुमारी। इन्हीं आशा कुमारी की शादी चम्बा के राजपरिवार में हुई और मध्य प्रदेश से आशा हिमाचल प्रदेश में आ बसी। पर यहाँ भी सियासत का उनका सफर न सिर्फ जारी रहा बल्कि परवान भी चढ़ा। 1985 में आशा कुमारी ने बनीखेत से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और विधानसभा पहुंची। 2007 तक उन्होंने बनीखेत से 6 चुनाव लड़े और चार बार जीती। फिर परिसीमन बदला और बनीखेत का नाम हुआ डलहौजी। 2012 और 2017 में आशा कुमारी इसी डलहौजी सीट से विधायक बनी। अब फिर एक बार यहाँ से किस्मत आजमा रही है। आशा कुमारी दो बार प्रदेश में मंत्री भी रही, पहले 1995 से 1998 तक और फिर 2003 से 2005 तक। केंद्र में भी उनका अच्छा रसूख है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे पंजाब की प्रभारी भी रह चुकी है। हालांकि इस बीच कुछ विवाद भी उनके साथ रहे। कभी न्यायलय में चल रहे जमीन विवाद ने उनकी चिंता बढ़ाई तो 2017 में एक महिला कांस्टेबल को थप्पड़ मारने के चलते वे चर्चा में रही। पर विवादों के बावजूद आशा कुमारी के राजनीतिक कद पर कोई खास आंच नहीं आई। अब आशा कुमारी न सिर्फ सातवीं बार विधायक बनने के पथ पर है, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार भी है। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। डलहौजी सीट से आशा कुमारी मैदान में है और फिर उनका सामना है भाजपा के डीएस ठाकुर से। 2017 में भी ये दोनों ही आमने -सामने थे और तब आशा कुमारी मामूली अंतर से चुनाव जीती थी। ऐसे में इस बार उनकी सीट को लेकर कयासबाजी जारी है। इस पूरे चुनाव में आशा कुमारी प्रदेश में ज्यादा प्रचार करती नहीं दिखी है और उनका फोकस अपनी सीट पर रहा है। इससे समझा जा सकता है कि वे खुद भी कोई चूक नहीं करना चाहती थी। जाहिर है अगर मुख्यमंत्री बनना है, तो पहले विधायक बनना होगा। हालांकि प्रदेश में एंटी इंकमबैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों से भी आशा कुमारी आशावान है, पर बावजूद इसके डलहौजी में करीबी मुकाबला देखने को मिल सकता है। बहरहाल आशा कुमारी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है और समर्थक उन्हें भी बतौर भावी सीएम प्रोजेक्ट कर रहे है।
क्या निर्दलीयों के बूते बनेगी प्रदेश में अगली सरकार ? क्या निर्दलीयों के सहारे भाजपा हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदलने जा रही है ? क्या कांग्रेस के अरमानों पर भाजपा फिर पानी फेर देगी ? क्या निर्दलीयों के समर्थन से सरकार रिपीट करवाकर जयराम ठाकुर इतिहास रच देंगे ? बहरहाल इन सवालों का जवाब तो ईवीएम में कैद है और आठ दिसंबर को पता चलेगा, लेकिन तब तक अटकलों और कयासबाजी से प्रदेश की सियासत गरमाई हुई है। भाजपा के निष्ठावानों को यकीन है कि अगर सरकार को बहुमत न भी मिला तो निर्दलीयों के सहारे पार्टी की नाव किनारे लग जाएगी। दरअसल प्रदेश की कई सीटों पर इस बार निर्दलीय दमखम से लड़े है और ऐसे में नजदीकी मुकाबला होने पर ये 'किंग मेकर' भी बन सकते है। दोनों दलों में करीब तीस बागी है, इनके अलावा कई अन्य निर्दलीय भी है जो मजबूत दिख रहे है। ऐसे में जाहिर है दोनों ही दल अभी से उन संभावित निर्दलीयों को डोरे डाल रहे है जो जीतकर विधानसभा की दहलीज लांघ सकते है। बताया जा रहा है कि विशेषकर भाजपा में ऐसी स्थिति से निबटने के लिए बाकायदा विशेष रणनीति बनाई जा रही है, ताकि जरुरत पड़ने पर तुरंत एक्शन लिया जा सके। ऐसा होना भी चाहिए क्यूंकि करीब प्रदेश की एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी बतौर निर्दलीय चुनाव लड़े है। हिमाचल प्रदेश में निर्दलीय विधानसभा चुनाव लड़ने वाले कई चेहरे है जिन पर नतीजों से पहले निगाहें टिकी है। अपने -अपने निर्वाचन क्षेत्रों में तो इन निर्दलीयों ने राजनीतिक दलों की टेंशन बढ़ाई ही है, दोनों पार्टियों के आलाकमान को भी काम पर लगाया हुआ है। कभी कोई निर्दलीय जीतने वाले के साथ जाने की बात कहता है, तो कभी कोई निर्दलीय ओपीएस को समर्थन देने की बात कहकर सियासी ताप बढ़ा देता है। आपको बताते है निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले वो 10 उम्मीदवार जिन्होंने नतीजों से पहले राजनीतिक दलों की धुकधुकी बढ़ाई है। आशीष शर्मा पहला नाम है आशीष शर्मा का।आशीष हमीरपुर से चुनाव लड़े है और इस सीट पर उनका दावा मजबूत है। दिलचस्प बात ये है कि आशीष चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हुए और फिर 48 घंटे के भीतर ही पार्टी छोड़ भी दी। अब आशीष चुनाव जीतते है तो जरुरत पड़ने पर किसका साथ देंगे, ये कहना मुश्किल है। केएल ठाकुर दूसरा नाम है केएल ठाकुर का जो भाजपा के बागी है और नालागढ़ से चुनाव लड़े है। ठाकुर को यहाँ जनता की साहनुभूति भी मिली और भाजपा का एक तबके का साथ भी। वहीं माना जा रहा है कि कांग्रेस के काडर में भी उन्होंने सेंध लगाई है। ऐसे में नालगढ़ से उनका जीत का दावा मजबूत है। दिलचस्प बात ये है कि केएल ठाकुर उस दल को समर्थन देने की बात कर रहे है जो ओपीएस बहाल करेगा। जानकार मान रहे है कि भाजपा ने उनके साथ जो किया उसकी टीस बरकरार है और ये भाजपा के लिए चिंता का सबब हो सकता है। राजेंद्र ठाकुर पिछले साल कांग्रेस छोड़ने वाले राजेंद्र ठाकुर ने किसी राजनीतिक दल का दामन नहीं थामा और निर्दलीय चुनाव लड़ा। ठाकुर एक बात बार -बार दोहराते रहे, जो दल जीतेगा वे उसी के साथ जायेंगे। ऐसे में अगर राजेंद्र ठाकुर जीतते है और सरकार बनाने को निर्दलीय की जरुरत पड़ती है, तो उनका रुख क्या होगा ये देखना दिलचप्स होगा। वैसे बेशक ठाकुर कांग्रेस छोड़ चुके है लेकिन होलीलॉज से उनके सम्बन्ध पुराने है। इंदु वर्मा ठियोग से पूर्व विधायक और भाजपा नेता राकेश वर्मा के निधन के बाद उनकी पत्नी इंदु वर्मा ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया था। पर कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो इंदु ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। उन्हें लेकर इस क्षेत्र में सहानूभूति भी दिखी है जिसके बुते इस बहुकोणीय मुकाबले में इंदु वर्मा भी जीत की दावेदार मानी जा रही है। अब अगर इंदु जीत जाती है तो किस तरफ जाएगी, ये देखना रोचक होगा। मनोहर धीमान इंदौरा में निर्दलीय चुनाव लड़कर मनोहर धीमान ने दोनों राजनीतिक दलों का सुकून हरा हुआ है। 2012 में भी मनोहर निर्दलीय चुनाव जीते थे जिसके बाद कांग्रेस एसोसिएट विधायक थे। पर 2017 के चुनाव से पहले मनोहर भाजपाई हो गए। असली खेल हुआ इसके बाद, भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया और मनाने में कामयाब भी रही। इस बार फिर से भाजपा का टिकट उन्हें नहीं मिला, तो मनोहर बाग्वट कर चुनाव लड़ रहे है। इस सीट पर जो रुझान आ रहे है उसके अनुसार जीत के लिए मनोहर का दावा भी मजबूत है। अब अगर मनोहर फिर जीते तो वापस भाजपा में जायेंगे या कांग्रेस को तवज्जो देंगे, ये देखना रोचक होने वाला है। होशियार सिंह 2017 में देहरा से निर्दलीय विधानसभा पहुंचने वाले होशियार सिंह पांच साल मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की शान में कसीदे पढ़ते रहे। चुनाव से कुछ माह पूर्व होशियार की भाजपा में एंट्री भी हो गई। पर जयराम ठाकुर से नजदीकी भी उन्हें टिकट नहीं दिलवा पाई। नतीजन फिर होशियार सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। इस बार भी होशियार सिंह जीत के दावेदार है। बहरहाल सवाल ये है कि अगर फिर होशियार जीत जाते है तो क्या फिर भाजपा में जाएंगे या फिर इस बार अलग रास्ता चुनेंगे। जगजीवन पाल सुलह से दो बार के विधायक जगजीवन पाल का टिकट कांग्रेस काट देगी, किसी को इसका अंदाजा नहीं था। पर कांग्रेस ने ऐसा कर दिया और जगजीवन बगावत कर निर्दलीय मैदान में उतर गए। जगजीवन पाल को लेकर सहानुभूति भी दिखी और ये भी माना जा रहा है कि संभवतः कांग्रेस के काडर में भी वे सेंध लगाने में कामयाब रहे है। ऐसे में जीत को लेकर उनका दावा भी मजबूत है। बहरहाल जगजीवन जीतते या नहीं, ये देखना रोचक होगा। गंगूराम मुसाफिर पच्छाद से लगातार सात चुनाव जीतने के बाद जब गंगूराम मुसाफिर लगातार तीन चुनाव हारे तो इस बार कांग्रेस ने उनका टिकट काट दिया। नतीजन मुसाफिर ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। पच्छाद में इस बार बहुकोणीय मुकाबला है और गंगूराम मुसाफिर का दावा भी मजबूत है। अगर मुसाफिर जीतते है तो वापस कांग्रेस में लौटेंगे या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वैसे मुसाफिर होलीलॉज के भी काफी करीबी रहे है। सुभाष मंगलेट होलीलॉज के एक और करीबी रहे नेता ने इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ा है। ये नेता है चौपाल से दो बार विधायक रहे सुभाष मंगलेट। निसंदेह चौपाल सीट पर मंगलेट की मौजूदगी ने कांग्रेस की परेशानी बढ़ाई है, लेकिन क्या मंगलेट खुद चुनाव जीतने की स्थिति में है, ये बड़ा सवाल है। अगर मंगलेट चुनाव जीत जाते है तो वो किस तरफ जाएंगे, ये देखना रोचक होगा। किशोरी लाल आनी से भाजपा ने इस बार सीटिंग विधायक किशोरी लाल का टिकट काट दिया। इसके चलते किशोरी लाल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है और आनी सीट से वे भी विधानसभा की दौड़ में है। परसराम परसराम ने भी आनी से ही निर्दलीय चुनाव लड़ा है, फर्क सिर्फ इतना है कि परसराम कांग्रेस के बागी है। यहाँ परसरराम की बगावत क्या रंग लाती है ये देखना रोचक होगा। तेजवंत नेगी फेहरिस्त में अगला नाम है किन्नौर से पूर्व भाजपा विधायक तेजवंत सिंह नेगी का। पिछले चुनाव 120 वोट से हारे तेजवंत की जगह भाजपा ने इस बार सूरत नेगी तो टिकट दिया है। इसके बाद तेजवंत ने बगावत कर दी और निर्दलीय मैदान में उतर गए। अब यहाँ त्रिकोणीय मुकाबले में तेजवंत का दावा भी खारिज नहीं किया जा सकता। बहरहाल सवाल ये ही है कि अगर तेजवंत जीत जाते है और उनका झुकाव क्या फिर भाजपा की तरफ ही होगा। कैप्टेन संजय परशर जसवां परागपुर से इस बार निर्दलीय के तौर पर कैप्टेन संजय पराशर ने चुनाव लड़ा है। यहाँ के बहुकोणीय मुकाबले में अगर कैप्टेन जीत जाते है तो उनके अगले कदम पर भी निगाह रहेगी। वैसे संजय पराशर भाजपा विचारधारा के माने जाते है। इनके अलावा मंडी से प्रवीण शर्मा, कुल्लू से राम सिंह, बंजार से हितेश्वर सिंह, फतेहपुर से कृपाल परमार, सुंदरनगर से अभिषेक, चम्बा से इंदिरा कपूर, बड़सर से संजीव शर्मा, धर्मशाला से विपिन नेहरिया सहित कई नाम है जो अपने क्षेत्रों में ख़ासा फर्क डाल सकते है। अब इनमें से कितने निर्दलीय जीत दर्ज करते है इस पर से तो आठ दिसम्बर को ही पर्दा उठेगा। साथ ही ये भी पता चलेगा कि क्या इस बार सत्ता की चाबी निर्दलीयों के हाथ में होगी। फिलवक्त तो ये ही कहा जा सकता है कि अगर दोनों में करीबी मुकाबला होता है और पांच-छ निर्दलीय भी जीत जाते है, तो कुछ भी मुमकिन है।
हिमाचल प्रदेश में मतदान हो चूका है और आठ दिसम्बर को नतीजा भी सामने होगा। 68 विधानसभा सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में इस बार आधी आबादी को कितना महिला प्रतिनिधित्व मिलेगा यानि कितनी महिलाएं जीतकर विधानसभा पहुँचती है, ये देखना रोचक होगा। हालांकि नतीजे से पहले ही ये तय है कि ये आंकड़ा बहुत उत्साहजनक नहीं होने वाला क्योंकि दोनों मुख्य राजनैतिक दलों ने महिलाओं को बेहद कम टिकट दिए है। पहले बात भाजपा की करते है। भाजपा ने इस बार 6 महिलाओं को टिकट दिए है। इनमें शाहपुर से मंत्री सरवीण चौधरी के अलावा, पच्छाद से सीटिंग विधायक रीना कश्यप, इंदौरा से सीटिंग विधायक रीता धीमान, चम्बा से नीलम नय्यर, बड़सर से माया शर्मा और रोहड़ू से शशिबाला शामिल है। वहीं भाजपा ने भोरंज से सीटिंग विधायक कमलेश कुमारी का टिकट काट भी दिया। यानी भाजपा ने दस प्रतिशत सीटों पर भी महिलाओं को टिकट नहीं दिया है। अब बात करते है कांग्रेस की। उसी कांग्रेस की जिसने उत्तर प्रदेश चुनाव में चालीस फीसदी टिकट महिलाओं को दिए थे। पर हिमाचल में पार्टी ने सिर्फ तीन महिलाओं को टिकट दिया है, यानी पांच फीसदी टिकट भी महिलाओं को नहीं मिले। पार्टी ने डलहौजी से मौजूदा विधायक आशा कुमारी, मंडी से चंपा ठाकुर और पच्छाद से दयाल प्यारी को ही टिकट दिया है। उधर कई सीटों पर निर्दलीय या आप के टिकट पर चुनाव लड़ रही महिलाएं भी मैदान में है। इनमें चम्बा से भाजपा की बागी इंदिरा कपूर भी शामिल है। पर एक नाम का जिक्र यहाँ जरूरी है और वो है ठियोग से कांग्रेस की बागी इंदु वर्मा। यानी प्रदेश की सात सीटें ऐसी है जहाँ भाजपा या कांग्रेस की महिला उम्मीदवार मैदान में है, एक सीट पर कांग्रेस-भाजपा दोनों ने महिला को उतारा है और निर्दलीय चुनाव लड़ रही इंदु वर्मा भी विधायक बनने की दौड़ में दिख रही है। मोटे तौर पर कुल करीब नौ सीटों पर महिलाएं दमदार तरीके से विधायक बनने की दौड़ में दिख रही है। अब इनमें से कितनी विधानसभा पहुँचती है, ये तो आठ दिसम्बर को ही तय होगा। इतिहास पर नजर डाले तो हिमाचल को सबसे ज्यादा 6 महिला विधायक 1998 में मिली थी। हालाँकि वर्ष 2000 में हुए सोलन उपचुनाव के बाद ये संख्या पांच रह गई थी। 2003 में चार महिलाएं चुनाव जीती तो 2007 में 5 महिलाएं विधानसभा पहुंची। 2012 में ये आंकड़ा तीन था जो 2017 में भी तीन ही रहा। हालांकि 2019 में हुए पच्छाद उपचुनाव के बाद विधानसभा में महिलाओं की संख्या चार हो गई। अब इस बार कितनी महिलाएं विधानसभा में पहुँचती है, ये देखना दिलचस्प होगा।
हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में इतिहास पर निगाह डाले तो अधिकांश मौकों पर कांग्रेस-भाजपा दोनों ही दलों के प्रदेश अध्यक्ष भी चुनाव लड़ते दिखे है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ था जहाँ कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू और भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती भी मैदान में थे। पर इस बार ऐसा नहीं हुआ है। न तो कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने विधानसभा का चुनाव लड़ा और न ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप ने। पर इन दोनों मुख्य राजैनतिक दलों के कुल आठ पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जरूर मैदान में है। इनमें से पांच भाजपा के तो तीन कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे है। दिलचस्प बात ये है कि इनमें से चार इस बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े है तो चार भाजपा के। दरअसल भाजपा के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष खीमीराम शर्मा अब कांग्रेस में शामिल हो चुके है। पहले बात भाजपा की करते है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे चार नेता इस बार पार्टी उम्मीदवार है। इनमें खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सराज से, सतपाल सिंह सत्ती ऊना सदर से, सुरेश भारद्वाज कसुम्पटी से और डॉ राजीव बिंदल नाहन सीट से मैदान में है। इसी तरह कांग्रेस की बात करें तो पूर्व अध्यक्ष ठाकुर कौल सिंह द्रंग से, सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन से, कुलदीप राठौर ठियोग से और भाजपा छोड़ कर आएं खीमीराम शर्मा बंजार सीट से मैदान में है। खास बात ये है कि दोनों पार्टियों से चुनाव लड़ने वाले इन आठ पूर्व अध्यक्षों में से तीन सीएम पद की दौड़ में भी शामिल है। भाजपा सरकार अगर रिपीट कर पाई तो जयराम ठाकुर ही फिर मुख्यमंत्री होंगे। वहीँ अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो कौल सिंह ठाकुर और सुखविंद्र सिंह सुक्खू सीएम हो सकते है। हालाँकि इस लिस्ट में कुलदीप राठौर का भी नाम शामिल है। बहरहाल इन आठ दिग्गजों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी-अपनी सीट जीतना है।
'नाई-नाई बाल कितने, जजमान सामने आ जाएंगे '..हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है और आठ दिसंबर को नतीजा भी सामने होगा। तब तक दावों का सिलसिला बरकरार रहने वाला है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022, वो चुनाव है जिसका नतीजा आने के बाद संभवतः प्रदेश की सियासत का परिदृश्य बिलकुल अलग हो। संगठन की एकजुटता, राजनीतिज्ञों की कूटनीति और कार्यकर्ताओं की निष्ठा, कहाँ कम और कहाँ अधिक है, आठ दिसंबर को सब स्पष्ट होगा। इस चुनाव के नतीजे कई बड़े नेताओं का अहम और सुनहरे अतीत पर टिका उनका वहम भी खत्म कर सकते है। दरअसल दोनों दलों के कई बड़े धुरंधर चुनावी मझधार में फंसे दिख रहे है। इस बार भी प्रदेश में सत्ता की लड़ाई दोनों मुख्य दलों यानी कांग्रेस और भाजपा के बीच ही दिख रही है। इस चुनाव में कहीं नए नेताओं का आगमन हुआ है, तो कहीं कुछ पुराने साथी साथ छोड़ गए। जहाँ एक सियासी युग का अंत होता दिखाई दिया, तो एक नए युग का उदय भी दिख रहा है। पिछले कई दशकों से जिन चेहरों पर भाजपा और कांग्रेस चुनाव लड़ते रहे, वो दोनों मुख्य चेहरे इस विधानसभा चुनाव में नहीं थे। हालाँकि कांग्रेस का चुनाव प्रचार जहाँ वीरभद्र सिंह के स्वर्गवास के बावजूद उनके नाम के इर्द गिर्द घूमता दिखाई दिया, वहीं धूमल के चुनाव न लड़ने के फैसले के बाद उनकी भागीदारी बेहद सीमित रही। इस चुनाव की एक नई कड़ी आम आदमी पार्टी भी साबित हुई। हर बार से अलग इस बार मुख्य मुकाबला सिर्फ भाजपा और कांग्रेस के बीच ही नहीं रहा बल्कि आम आदमी पार्टी ने भी कड़ी टक्कर देने की पूरी कोशिश की। हालांकि ये कोशिश रंग लाती दिख नहीं रही। चुनाव से कुछ माह पहले जरूर आम आदमी पार्टी ने सभी राजनैतिक दलों की धुकधुकी बढ़ा दी। मंडी में जब पहले रोड शो से आप ने चुनावी शंखनाद किया तो भाजपा -कांग्रेस कमर कसने को मजबूर हो गए। पर चुनाव नजदीक आते -आते आप का पूरा फोकस गुजरात शिफ्ट हो गया। हालांकि पार्टी ने सभी 68 सीटों पर चुनाव तो लड़ा, पर लगा महज खानापूर्ति के लिए ऐसा किया गया हो। पर चंद सीटों पर जरूर पार्टी प्रत्याशी अपने बुते फर्क डाल सकते है। चुनाव राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी लड़ा है लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनका प्रभाव ज्यादा नहीं दिखता। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी का हाथी भी इस बार सुस्ताया हुआ दिखा है। वहीं जिला शिमला की कुछ सीटों पर सीपीआईएम की मौजूदगी ने खासा फर्क डाला है। इनके अलावा कई सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी सब पर भारी पड़ सकते है। बहरहाल, मुख्य मुकाबला एक बार फिर कांग्रेस और भाजपा के बीच होता दिख रहा है। इस चुनाव में भाजपा सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलने का दावा कर रही है। दरअसल हिमाचल में 1985 के बाद से कोई भी मुख्यमंत्री प्रदेश में सरकार को रिपीट नहीं करवा पाया है। मगर भाजपा दावा करती आ रही है कि जयराम ठाकुर ये करने में सफल होंगे। निसंदेह, जो बड़े-बड़े दिग्गज नहीं कर पाएं, अगर वो जयराम कर गए तो इतिहास बन जाएगा। परन्तु अगर ऐसा नहीं होता तो अनगिनत सवाल खड़े हो जाएंगे। हालांकि इस सपने को साकार करने के लिए भाजपा के तमाम दिग्गज पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मैदान में डटे रहे है। चुनाव के ऐलान से पहले ही प्रधानमंत्री प्रदेश के कई दौरे कर चुके थे और उसके बाद भी उनकी रैलियों का दौर जारी रहा। प्रधानमंत्री के अलावा भाजपा के अन्य स्टार प्रचारक जैसे अमित शाह,जेपी नड्डा, अनुराग ठाकुर, स्मृति ईरानी और योगी आदित्यनाथ भी हिमाचल में डटे रहे। निसंदेह भाजपा राष्ट्रीय नेतृत्व की मौजूदगी के मामले में तो कांग्रेस से इक्कीस दिखी, मगर बात जब प्रदेश के नेताओं पर आती है तो मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर के अलावा कोई एक भी अन्य नेता ऐसा नहीं दिखा जो अपने क्षेत्र को छोड़ कर अकेले कहीं और जनसभा कर सके। शायद ये ही कारण है कि भाजपा का प्रचार प्रदेश के मुद्दों पर कम और डबल इंजन पर अधिक केंद्रित दिखाई दिया। वहीं, इस चुनाव में कांग्रेस की बात करें तो पार्टी करीब चार दशक बाद बिना वीरभद्र सिंह के विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरी थी। माना जा रहा था कि अब वीरभद्र के बाद कांग्रेस के किसी भी नेता में न तो प्रदेश के हर कोने की जनता को अपनी और खींचने का तिलिस्म है और न कांग्रेस को एकजुट रखने की रणनीति। तमाम सियासी माहिर मान रहे थे कि बिना वीरभद्र प्रदेश में कांग्रेस बिखर जाएगी। परन्तु इस चुनाव में कांग्रेस ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला लिया और ऐसा करके भी दिखाया। मतदान तक ना तो कांग्रेस के आला नेताओं में कोई कलेश दिखा, न मुख्यमंत्री पद की जंग। हालांकि अब जरूर मुख्यमंत्री पद के लिए लॉबिंग शुरू हो गई है। मगर मतदान सम्पन्न हो चुका है और कांग्रेस अनअपेक्षित तौर पर पूरा चुनाव एकजुटता के साथ लड़ी है। कांग्रेस का स्टार प्रचार मुख्य तौर पर कांग्रेस के दो राष्ट्रीय नेताओं के जिम्मे दिखा। प्रियंका गाँधी और सचिन पायलट, इन दोनों ही नेताओं ने प्रदेश के ताबड़तोड़ दौरे किए और कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया। हालांकि राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी दोनों ही हिमाचल नहीं पहुंचे। इनके अलावा प्रदेश के स्थानीय नेतृत्व ने भी मोर्चा जमकर संभाले रखा। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह समेत स्वयं चुनाव लड़ रहे अन्य नेता जैसे चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, कौल सिंह ठाकुर, विक्रमादित्य सिंह ने भी प्रचार का जिम्मा बखूबी निभाया। ये नेता अपने विधानसभा क्षेत्र से बाहर भी निकले और कांग्रेस प्रत्याशियों के लिए जमकर प्रचार भी किया। कांग्रेस मैनिफेस्टो में सबको साधने का प्रयास प्रचार के दौरान कांग्रेस ने भाजपा की हर दुखती रग पर हाथ रखा। कांग्रेस ने महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा तो भुनाया ही, पुरानी पेंशन बहाल करने की गारंटी भी दी। पार्टी के मैनिफेस्टो में लगभग वो तमाम मांगें शामिल थी जो प्रदेश के किसी भी वर्ग ने सामने रखी हो। अब सरकार बनने पर ये वादे पूरे होते है या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा मगर कांग्रेस ने प्रदेश के हर वर्ग को इस घोषणा पत्र के ज़रिये साधने का प्रयास किया। उधर, भाजपा के मैनिफेस्टो में न पुरानी पेंशन बहाली का वादा दिखा और न ही बागवानों को साधने के लिए कोई बड़ा मास्टर स्ट्रोक। हालांकि भाजपा ने स्कूल जाने वाली बच्चियों को साइकिल और कॉलेज की छात्राओं के लिए स्कूटी की घोषणा जरूर की। मिशन रिपीट में बगावत की बाधा ! इस चुनाव में भाजपा कई मसलों के कारण भी बैकफुट पर आती दिखी है, इनमें सबसे पहले नंबर पर भाजपा का टिकट आवंटन रहा। हर बार की तरह पार्टी विद डिसिप्लिन इस बार प्रदेश में डिसिप्लिन मेंटेन नहीं कर पाई। प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों में से करीब एक तिहाई पर भाजपा के बागी मौजूद थे। इनके अलावा भी पार्टी के कई निष्ठावान टिकट आवंटन से नाराज़ हुए जिसका पार्टी को नुक्सान भुगतना पड़ सकता है। आज कल खूब ऑडियो भी वायरल होने लगे है जिसमें भाजपा के नाराज़ नेता भाजपा के नेतृत्व पर स्थानीय नेताओं की अनदेखी का आरोप भी लगा रहे है और कांग्रेस की सरकार बनने का दावा भी कर रहे है। उधर, कांग्रेस के टिकट आवंटन पर गौर करें ये तो कई सालों में पार्टी का सबसे सटीक आवंटन लगता है। एक दो सीटों को छोड़ दिया जाए तो पार्टी कहीं भी किसी तरह का कोम्प्रोमाईज़ करती नहीं दिखी। हालाँकि टिकट आवंटन को लेकर पार्टी पर खूब आरोप भी लगे। खूब चर्चा हुई की कांग्रेस में टिकट बेचे जा रहे है। अब इसका प्रभाव चुनाव पर पड़ा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। कांग्रेस में बगावत भी भाजपा की बनिस्पत बेहद कम दिखी। कांग्रेस ने किया ओपीएस का वादा कर्मचारियों के मुख्य मुद्दे पुरानी पेंशन बहाली ने भी पूरे चुनाव के दौरान भाजपा की मुश्किलें बढ़ाए रखी। महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों का तोड़ तो भाजपा ज्यूँ त्यूं निकाल ही लेती, पर पुरानी पेंशन का कोई तोड़ भाजपा के पास नहीं था। यूँ तो जयराम सरकार ने कर्मचारियों को भी साधने का हर संभव प्रयत्न किया, मगर जयराम चाह कर भी पुरानी पेंशन के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए। कर्मचारियों का वोट फॉर ओपीएस अभियान भाजपा के लिए खतरा सिद्ध हो सकता है। उधर कांग्रेस ने सरकार गठन के दस दिन के भीतर ओपीएस बहाली का वादा किया है। धूमल का चुनाव न लड़ना क्या टर्निंग पॉइंट ? पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के चुनावी मैदान में न होने से धूमल समर्थकों का मनोबल भी टूट सा गया था। साथ ही इससे मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर रहा सहा संशय भी खत्म हो गया। जाहिर है इससे धूमल निष्ठावानों का मनोबल जरूर टूटा। क्या भाजपा आलाकमान को धूमल को चुनाव लड़वाना चाहिए था, क्या धूमल को चुनावी मैदान में न उतारना बड़ी चूक साबित होगा, ये फिलवक्त बड़ा सवाल है। निर्दलियों पर निगाह, कितने पहुंचेंगे विधानसभा ? मतदान हो चुका है और आठ दिसम्बर को मतगणना होगी। तब तक सभी दल, सभी प्रत्याशी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे है। कहते है सियासत महाठगिनी होती है, कई बार जो दिखता है वो होता नहीं, और जो होना होता है उसकी भनक बड़े बड़े सियासी सूरमाओं को नहीं लगती। ये ही तो सियासत का मिजाज है। इस चुनाव में निर्दलीयों की भूमिका बेहद अहम हो सकती है। करीब तीस सीटें ऐसी है जहाँ दोनों दलों के बागी या अन्य निर्दलियों ने समीकरण प्रभावित किये है। इनमें से कितने जीतकर विधानसभा पहुँचते है, ये बहुत कुछ तय करेगा। सो दावे के साथ कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज **आखिरी बार 1985 में सरकार रिपीट हुई थी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। उनके बाद कोई रिपीट नहीं कर पाया। अगर जयराम ठाकुर रिपीट करते है तो इतिहास बनाएंगे। वर्ष पार्टी मुख्यमंत्री 1985 कांग्रेस वीरभद्र सिंह 1990 भाजपा शांता कुमार 1993 कांग्रेस वीरभद्र सिंह 1998 भाजपा प्रेम कुमार धूमल 2003 कांग्रेस वीरभद्र सिंह 2007 भाजपा प्रेम कुमार धूमल 2012 कांग्रेस वीरभद्र सिंह 2017 भाजपा जयराम ठाकुर
1977 के विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस एकछत्र राज था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 53 सीटें जीती थी और यशवंत सिंह परमार फिर मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन 1977 आते-आते हालात बदल चुके थे। देश में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस को लेकर पूरे देश में गुस्सा था और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था। इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया था। 21 महीने तक लगे इस आपातकाल को 21 मार्च 1977 को खत्म किया गया था और इसके बाद हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव हुए। कई मायनों में साल 1977 का ये विधानसभा चुनाव खास था। दरअसल इस चुनाव के बाद पहली बार प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और मुख्यमंत्री बने थे शांता कुमार। शांता कुमार के सीएम पद तक पहुंचने का किस्सा भी काफी रोचक है। 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पंहुचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। पर 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। दरअसल फरवरी 1980 में जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलीयों ने पूरी कर दी। तब दल-बदल कानून नहीं हुआ करता था। सो ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार के उसूल नहीं टिके। शांता कुमार ने भी इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था जुगनू। बताते है कि अगले दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने शांता कुमार को फ़ोन किया और पूछा कौन सी फील देखी। शांता ने जवाब दिया जुगनू, साथ ही फिल्म का रिव्यु भी दे दिया। बोले, 'बहुत अच्छी फिल्म है आप भी देखकर आइये।'
प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार जिला सिरमौर से ताल्लुक रखते थे और इसलिए हिमाचल प्रदेश की सियासत में जिला सिरमौर का हमेशा खास स्थान रहा है। इस जिले की पांचों सीटों पर कभी कांग्रेस का दबदबा रहता था, लेकिन वक्त के साथ समीकरण बदले और अब भाजपा भी यहाँ कमतर नहीं है। सिरमौर की पांच सीटों में से तीन पर 2017 में भाजपा को जीत मिली थी। इनमें नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीटें शामिल थी। जबकि शिलाई और रेणुकाजी सीटें कांग्रेस के खाते में गई थी। इस बार भी यहाँ करीबी मुकाबला देखने को मिल सकता है। हालांकि सिरमौर में हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने का मुद्दा खूब गर्माया है और इसकी बिसात पर भाजपा यहां करिश्माई प्रदर्शन करने की उम्मीद में है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और शिमला सांसद सुरेश कश्यप इसी जिला से है, यहाँ से जयराम सरकार में एक कैबिनेट मंत्री भी है और दिग्गज नेता डॉ राजीव बिंदल भी अब सिरमौर को कर्मभूमि बना चुके है। इस पर हाटी फैक्टर भी है। जाहिर है ऐसे में भाजपा यहाँ बेहतर करने की आशा है। उधर, कांग्रेस भी सिरमौर में बेहतर कर सत्ता वापसी की जुगत में है। पार्टी ने यहां मौजूदा दोनों विधायकों को ही अहम दायित्व दिए है। कुछ माह पूर्व शिलाई विधायक हर्षवर्धन चौहान को उप नेता प्रतिपक्ष बनाया गया, तो रेणुका विधायक विनय कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष। भाजपा ने भुनाया हाटी का मुद्दा हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के फैसले से चार विधानसभा क्षेत्रों में सीधा असर है। इस फैसले से पच्छाद की 33 पंचायतों और एक नगर पंचायत के 141 गांवों के कुल 27,261 लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 21,594 लोग एसटी में नहीं होंगे। रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के 40,317 संबंधित लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 29,990 लोग बाहर होंगे। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोग इसमें शामिल होंगे। 30,450 एससी के लोग इससे बाहर रहेेंगे। शिलाई में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोगों को यह लाभ मिलेगा। एससी के 30,450 लोग यहां एसटी में नहीं होंगे। पांवटा में 18 पंचायतों के 31 गांवों के 25,323 लोग शामिल होंगे। यहां एससी के 9,406 लोग एसटी के दायरे से बाहर रहेंगे। इस मुद्दे को भाजपा ने चुनाव में जमकर भुनाने की कोशिश की है। बाकायदा सतौन में गृह मंत्री अमित शाह का कार्यक्रम आयोजित करवाया गया। पर इसका कितना चुनावी लाभ भाजपा को मिला है, ये तो नतीजे ही तय करेंगे। ये है मौजूदा स्थिति सिरमौर की सियासत में हाटी फैक्टर का कितना इम्पैक्ट रहता है, ये तो 8 दिसम्बर को ही तय होगा। बहरहाल इतना ज़रूर है कि इस बार जिला कि पाँचों विधानसभा सीटों पर मुकाबला रोचक होना तय है। शिलाई में भाजपा ने कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान के मुकाबले एक बार फिर बलदेव तोमर पर दाव खेला है। यहाँ नजदीकी मुकाबला तय है। उधर रेणुकाजी में भाजपा ने विनय कुमार के सामने नारायण सिंह को मैदान में उतारा है। यहाँ विनय कुमार को लेकर कुछ एंटी इंकम्बेंसी जरूर है और हाटी फैक्टर भी यहाँ असरदार हो सकता है। वहीं नाहन में भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ राजीव बिंदल इस बार फंसे दिख रहे है। कांग्रेस के अजय सोलंकी यहाँ उलटफेर कर सकते है। नतीजा जो भी रहे नाहन में जीत -हार का अंतर बेहद कम रह सकता है। पावंटा साहिब में भाजपा के सुखराम चौधरी और कांग्रेस के किरनेश जंग के समीकरण आप के मनीष ठाकुर सहित निर्दलीय उम्मीदवार बिगाड़ रहे है। इस बहुकोणीय मुकाबले में कुछ भी संभव है। उधर पच्छाद में सात बार विधायक रहे गंगूराम मुसाफिर ने बगावत कर कांग्रेस की चिंता बढ़ाई है। कांग्रेस ने यहाँ दयाल प्यारी को टिकट दिया है। कांग्रेस की इसी लड़ाई में भाजपा की रीना कश्यप फिर विधानसभा पहुंचने की उम्मीद में है। पर यहाँ राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी हर तरफ सेंध लगाईं है। ऐसे में यहाँ नतीजे की भविष्यवाणी करना बेहद कठिन है।
काँगड़ा के बाद मंडी प्रदेश का वो जिला है जो सबसे अधिक सियासी वजन रखता है। मंडी जिला के 10 विधानसभा क्षेत्र हिमाचल की सत्ता का रास्ता प्रशस्त करते है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 68 में से 44 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। तब जिला मंडी की दस में से नौ सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी, जबकि एक सीट जोगिन्दर नगर में निर्दलीय प्रत्याशी प्रकाश राणा जीते थे। प्रकाश राणा भी अब भाजपाई हो चुके है। तब भाजपा का जिला मंडी में ये शानदार प्रदर्शन ही जयराम ठाकुर की ताजपोशी का एक अहम् कारण माना जाता है। दरअसल तब पार्टी के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए थे जिसके बाद भाजपा ने जयराम ठाकुर को सीएम बनाया। जिला मंडी ने दिल खोलकर भाजपा का साथ दिया था और बदले में मंडी को सीएम पद मिला। इसके बाद 2019 में लोकसभा चुनाव में भी मंडी वालों का झुकाव भाजपा की तरफ ही रहा। जयराम ठाकुर भी ये दोहराते रहे कि " मंडी हमारी है" और मंडी भाजपा की ही रही। इसके बाद पिछले साल हुए स्थानीय निकाय, पंचायत और जिला परिषद् चुनाव में भी भाजपा हावी रही। दिलचस्प बात ये है कि पिछले वर्ष हुआ मंडी संसदीय उपचुनाव भले ही भाजपा हारी हो लेकिन जिला मंडी में पार्टी ने लीड ली थी। दरअसल संसदीय क्षेत्र के तहत जिला के नौ निर्वाचन क्षेत्र आते है, जिनमें से आठ में भाजपा को लीड मिली थी। यानी जिला मंडी में भाजपा के लिए 2017 से सब कुछ अच्छा ही बीता है। अब विधानसभा चुनाव में फिर भाजपा जिला मंडी में इसी प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश में है। उधर 2017 में जिला मंडी में बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस वापसी की उम्मीद में है। पार्टी इस बात से भलीभांति वाकिफ है कि यदि मंडी में ठीक ठाक प्रदर्शन भी नहीं रहा तो सत्ता वापसी मुश्किल होगी। हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं लगता की मंडी में कांग्रेस की परिस्थिति आज भी 2017 वाली है। मंडी मुख्यमंत्री का गृह क्षेत्र ज़रूर है मगर कांग्रेस ने भी लगातार यहां रिकवर किया है। मंडी कर्मचारियों का भी गढ़ है और ये वोट भी कांग्रेस की तरफ जाता हुआ दिखाई दे रहा है। इस पर ठाकुर कौल सिंह द्वारा लगातार किये जा रहे मंडी से मुख्यमंत्री होने के दावे को पूरा करने के लिए भी ये बेहद ज़रूरी है कि पार्टी बेहतर करें। पर कौल सिंह के दावे को पंख तब ही लगेंगे जब कांग्रेस मंडी में बेहतर करती है। 2017 में ऐसे बदली थी मंडी की सियासी हवा 2017 के विधानसभा चुनाव पर निगान डाले तो चुनाव से चंद दिन पहले पंडित सुखराम का परिवार कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गया था। इससे पूरे जिला में भाजपा के पक्ष में माहौल बना था। साथ जिला मंडी में कर्मचारियों का भी बड़ा प्रभाव रहता है और तब माना जाता है कर्मचारी वोट भी भाजपा को पड़ा था। इसके चलते वीरभद्र सरकार में मंडी से मंत्री रहे ठाकुर कौल सिंह और प्रकाश चौधरी भी अपनी सीटें नहीं बचा पाएं थे। पर अब हाल और हालात दोनों बदले -बदले दिख रहे है। 5 विधायकों में से 3 मंत्री, फिर भी खाता नहीं खुला ख़ास बात ये है कि 2012 में मंडी जिला में कांग्रेस पांच सीट जीती थी। इन पांच विधायकों में से तीन को वीरभद्र कैबिनेट में स्थान मिला था। यानी कांग्रेस ने भी मंडी को तवज्जो दी थी। बावजूद इसके अगले चुनाव में कांग्रेस का खाता नहीं खुला। इसीलिए कहते है मंडी की सियासत को समझना मुश्किल है। इससे समझा जा सकता है कि मंडी में भाजपा की राह क्यों आसान है नहीं, जितना दिखती है। ये है मौजूदा स्थिति बहरहाल मंडी में शानदार प्रदर्शन करती आ रही भाजपा के पास यहाँ खोने के लिए बहुत कुछ है। जयराम ठाकुर को रिवाज बदलना है तो भाजपा को यहाँ 2017 जैसा प्रदर्शन दोहराना होगा। जाहिर है इसका दबाव भी उन पर है। उधर कांग्रेस को आठ दिसम्बर को जिला मंडी से जो भी मिलेगा, उसके लिए लाभ ही होगा। मंडी की दस सीटों में से सिर्फ मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सराज सीट ही ऐसी है जहाँ तस्वीर लगभग पूरी तरह साफ है। धर्मपुर और नाचन में भी भाजपा जीत को लेकर आश्वस्त दिख रही है। किन्तु शेष सात सीटों पर कांटे का मुकाबला दिख रहा है। अर्से से पंडित सुखराम के वर्चस्व वाली मंडी सदर सीट पर भी बगावत ने भाजपा की चिंता बढ़ाई है। बगावत का असर सुंदरनगर पर ही साफ दिख रहा है। जोगिन्दरनगर में भाजपा की अंतर्कलह किसी से छिपी नहीं है। द्रंग और बल्ह में कांग्रेस पूरी तरह आश्वस्त दिख रही है। उधर करसोग और सरकाघाट में भी इस बार भाजपा की राह मुश्किल है। ऐसे में जयराम ठाकुर के गृह जिला मंडी में भी अगर भाजपा कुछ ठंडी रही, तो मिशन रिपीट मुश्किल होगा।
कांगड़ा वो जिला है जो सिर्फ सत्ता तक पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि नेताओं की खाट खड़ी करने की भी कुव्वत रखता है। इतिहास गवाह है कि ये वो जिला है जिसने खुद मुख्यमंत्री को भी नहीं बक्शा। कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में बड़े-बड़ो के नाक से धुंआ निकल जाता है। जो काँगड़ा को न भाया, उसका प्रदेश की सत्ता से पांच साल का वनवास तय समझो। आबादी के हिसाब से सबसे बड़े जिले काँगड़ा से चुनकर आए 15 विधायक सरकार बनाने और गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माना जाता है कि कांगड़ा से जिस दल की जितनी ज्यादा सीटें, उतनी ही उसके सत्ता में आने की गारंटी पक्की। वर्ष 1998 से चुनाव-दर-चुनाव हिमाचल की सियासत में यह ट्रेंड चलता आ रहा है। बारी-बारी प्रदेश की सत्ता संभालते आए भाजपा और कांग्रेस इस जिले से 9 से लेकर 11 सीटें जीतकर ही उस मुकाम तक पहुंचे है। काँगड़ा की सियासी एहमियत राजनीतिक दल बखूबी जानते है और इसीलिए इस बार भी शुरुआत से लेकर ही काँगड़ा की सियासी रणभूमि में सेंधमारी की जा रही थी। काँगड़ा में सत्ता वापसी के लिए कांग्रेस प्रयासरत थी, तो भाजपा सत्ता को अनवरत रखने के लिए। वहीं आम आदमी पार्टी भी शुरुआत में भरपूर प्रयास करती दिखी मगर अंत तक वो प्रयास फीके पड़ गए। अब ये चुनावी जंग निपट चुकी है और इंतजार आठ दिसंबर को आने वाले नतीजों का है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार कांगड़ा जिला किस पार्टी के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करता है। 1982 अपवाद, बाकी जिसके ज्यादा विधायक उसी की सरकार जिसके कांगड़ा में ज्यादा विधायक, उसी की सरकार। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा जिले से भाजपा ने 10 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज की। कांग्रेस पार्टी को पांच सीटें मिली थीं। एक निर्दलीय प्रत्याशी को जीत मिली थी। कांगड़ा ने सत्ता की राह तैयार की और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा से कांग्रेस को 11 और भाजपा को चार सीटों पर विजय मिली। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की। कांगड़ा में आगे रहने वाली कांग्रेस के पास सत्ता की चाबी आ गई। 2007 में भाजपा के नौ और कांग्रेस के चार प्रत्याशी जीते। बसपा का एक और एक निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। तब सरकार भाजपा की बनी। 2012 में फिर कांग्रेस की सरकार बनी, उस दौरान भी कांगड़ा जिले से 10 सीटें कांग्रेस, भाजपा की तीन और दो निर्दलीय की रहीं। पिछले यानी 2017 चुनाव की बात करें तो जिला की 15 में से 11 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया था। कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटें मिली थी और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी। कांगड़ा किसी को नहीं बक्शता, यहां दिग्गज धराशाई होते है ! जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा - जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चुका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा। भारी पड़ा था माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा : 2012 में भाजपा की प्रेम कुमार धूमल सरकार के मिशन रिपीट में कांगड़ा बाधा बना था। तब भाजपा तीन सीटें ही जीत पाई थी। तब प्रो धूमल ने माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा किया था, जो बड़ी चूक साबित हुई। तब भाजपा को प्रदेश में 26 सीटें मिली थी और कांगड़ा में बेहतर कर कांग्रेस का आंकड़ा 36 पर पहुंचा था। पालमपुर : क्या भाजपा भेद पाएगी बुटेल परिवार का बुलेटप्रूफ किला पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर मौजूदा समय में यहां भाजपा की स्थिति सहज नहीं दिखती।1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया पर, अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। इस चुनाव में भाजपा ने बुटेल परिवार के इस गढ़ को भेदने के लिए वूल फेडरेशन के चेयरमैन और प्रदेश महासचिव त्रिलोक कपूर को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस की तरफ से आशीष बुटेल फिर मैदान में है। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो आशीष बुटेल को लेकर इस क्षेत्र में कोई नाराजगी नहीं दिखती। वहीं सत्ता विरोधी लहर और ओपीएस जैसे मुद्दे भी कांग्रेस को मजबूत करते है। सम्भवतः ये ही कारण है कि आशीष जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर, त्रिलोक कपूर की बात करें तो निसंदेह उन्होंने दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है। पर उनकी ये कोशिश क्या रंग लाती है, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा। बैजनाथ : पंडित संतराम के गढ़ में वापसी की जद्दोजहद में कांग्रेस 90 के दशक में कांगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2012 ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने धर्मशाला का रुख किया। 2012 में कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने, पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्खराज विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने यहाँ किशोरी लाल और भाजपा ने फिर से मुल्खराज प्रेमी को मैदान में उतारा है। अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस फिर से एक बार अपने गढ़ पर कब्जा जमा पाएगी या जनता दोबारा से भाजपा के प्रत्याशी पर अपना वोट रूपी आशीर्वाद बरसाएगी। सुलह : यहां की जनता को परिवर्तन पसंद , इस बार क्या होगा ? 1998 के बाद से सुलह विधानसभा क्षेत्र की सत्ता भी प्रदेश की सत्ता के साथ बदलती रही है। 1998 के बाद से अब तक सुलह में हर पांच साल में परिवर्तन हुआ है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी पूर्व कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। इस बार यहां भाजपा ने फिर से विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार को मैदान में उतारा है। पर कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए पूर्व विधायक जगजीवन पाल का टिकट काटकर जगदीश सिपहिया पर दांव खेला है। इसके बाद वो ही हुआ जिसकी आशंका थी, जगजीवन पाल ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी सुलह में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा एकजुट दिखी। जाहिर है कांग्रेस की इस बगावत के बीच भाजपा यहाँ रिवाज़ बदलने को लेकर आश्वस्त है। पर दिलचस्प बात ये है कि जगजीवन पाल के पक्ष में जहाँ इस क्षेत्र में सहानुभूति भी दिखी है, वहीं कांग्रेस का एक खेमा भी उनके साथ चला है। ऐसे में निर्दलीय होने के बावजूद उनका दावा कमतर नहीं है। नगरोटा बगवां : क्या कुक्का को पटखनी दे पाएंगे रघुबीर बाली ? 'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। इस बार अरुण कुमार कुक्का के सामने स्वर्गीय जीएस बाली के पुत्र आरएस बाली कांग्रेस की ओर से मैदान में है। नगरोटा बगवां सीट पर हमेशा कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। अब तक के चुनाव में यहां कांग्रेस को 6 तो भाजपा को 4 बार जीत प्राप्त हुई है। यहां कांग्रेस के कद्दावर नेता जीएस बाली 1998 से लेकर 2012 तक लगातार विधायक बनते रहे है। पर 2017 में बाली चुनाव हार गए। अब उनके पुत्र उनकी हार का हिसाब बराबर करने के इरादे से मैदान में है। इस विधानसभा क्षेत्र में जहाँ अरुण कुमार कुक्का लगातार भाजपा सरकार और अपने द्वारा करवाए गए कार्यों पर वोट मांगते रहे है तो वहीं दूसरी ओर आरएस बाली को अपने पिता द्वारा करवाए गए क्षेत्र के विकास का सहारा रहा है। अब जनता ने आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है। कांगड़ा : काजल जीते तो बनेगा इतिहास काँगड़ा विधानसभा क्षेत्र में इस बार गजब की सियासत देखने को मिली है। यहां कौन भाजपाई है और कौन कांग्रेसी, समझना बड़ा मुश्किल हो गया। चुनाव से पहले नेताओं ने पार्टियां भी बदली और विचारधाराएं भी। यहां कांग्रेस के दिग्गज पवन काजल चुनाव से पहले भाजपा के हो गए और पूर्व भाजपाई चौधरी सुरेंदर काकू कांग्रेस में शामिल हो गए। पवन काजल काँगड़ा से दो बार विधायक रहे है। 2012 में काजल निर्दलीय चुनाव जीत कर विधायक बने और 2017 में काजल कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचे। इस बार कांग्रेस ने काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और काजल ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। काजल भाजपा में शामिल हुए और चुनाव भी भाजपा टिकट पर ही लड़ा। कांग्रेस से आए काजल को टिकट देने पर भाजपा मंडल ने उनका कड़ा विरोध किया, कुछ नेताओं को मना लिया गया लेकिन कुछ नेता आखिर तक नही माने। भाजपा से नाराज़ होकर कुलभाष चौधरी ने आजाद नामांकन भरा और चुनाव लड़ा। वहीं कांग्रेस ने इस बार भाजपा से कांग्रेस में आए और पूर्व में विधायक रहे चौधरी सुरेंद्र काकू को टिकट दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजा बेशक आठ दिसम्बर को आएगा लेकिन विरोध के बावजूद काजल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अगर काजल जीते तो वे तीसरी बार विधायक बनेंगे और दिलचस्प बात ये है वे अलग- अलग सिंबल से चुनाव जीत हैट्रिक लगाने वाले विधायक होंगे। ऐसा करने वाले वे कांगड़ा के पहले विधायक होंगे, हालांकि प्रदेश में महेंद्र सिंह ठाकुर ये कारनामा कर चुके है। देहरा : 2017 में हुई थी जमानत जब्त, क्या इस बार वापसी कर रही है कांग्रेस ? चुनाव से पहले देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह भाजपा में शामिल हुए। इसे भाजपा की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और लग रहा था मानों इस बार देहरा से होशियार सिंह ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे। मगर भाजपा के टिकट आवंटन ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने होशियार सिंह नहीं बल्कि ज्वालामुखी के विधायक और पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश ध्वाला को टिकट दिया और होशियार सिंह को एक बार फिर से बतौर निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा। इस सीट पर कांग्रेस ने भी टिकट बदला और पूर्व में काँगड़ा से चुनाव लड़ चुके डॉ राजेश शर्मा को टिकट दिया गया। होशियार सिंह इस बार भी दोनों ही राजनैतिक दलों को कड़ी टक्कर देते हुए दिखाई दे रहें है और देहरा में मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है। कहते है, देहरा कोई नहीं तेरा। पर सियासत इस बार अच्छे अच्छों को देहरा खींच कर ले गई। भाजपा प्रत्याशी रमेश ध्वाला जहाँ ज्वालामुखी निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर देहरा पहुंचे। हालाँकि ध्वाला का घर देहरा निर्वाचन क्षेत्र में आता है लेकिन उनकी कर्म भूमि ज्वालामुखी ही रही है। ऐसे में बेशक ध्वाला वापस घाट लौट आये हो लेकिन घरवालों ने भी क्या वोटों से उनका स्वागत किया है, ये बड़ा सवाल है। वहीं कांगड़ा में किस्मत आजमाने के बाद कांग्रेस नेता डॉ राजेश शर्मा ने तो देहरा में घर भी बना लिया। पिछले चुनाव कांग्रेस के तरफ से देहरा में वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर ने चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत जब्त हुई थी। हालांकि इस बार ऐसे हाल नहीं है और राजेश शर्मा की दावेदारी दमदार दिख रही है। संभव है कि आठ दिसंबर को देहरा में कांग्रेस की वापसी हो। वहीं होशियार सिंह के साथ भाजपा ने जो किया उसके चलते क्या उन्हें वोटों की सहानुभूति मिली, ये भी बड़ा सवाल है। हालांकि बतौर विधायक उनके कामकाज को लेकर कोई ख़ास नाराजगी नहीं दिखती और ऐसे में इस बार भी उनकी दावेदारी मजबूत है। शाहपुर: केवल अब भी हारे तो राजनैतिक भविष्य पर उठेंगे सवाल शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। कांग्रेस से पहले यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता था। मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल पठानिया की कांग्रेस में एंट्री हुई। कहते है कि यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाजी हर बार सरवीन जीतते रही है। हर बार एक दूसरे के लिए ध्रुमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल, सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं। मगर अब मेजर विजय सिंह मनकोटिया भाजपाई हो चुके है। माहिर मानते है कि मेजर के चुनाव लड़ने का लाभ सरवीन को मिलता रहा है, पर इस बार मेजर मैदान में नहीं है। बल्कि भाजपा से एक बागी उम्मीदवार सरवीन को चुनौती दे रहे है। ऐसे में कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया क्या इस बार जीत का स्वाद चख पाएंगे, इस पर सभी की नजरें है। पर अगर केवल अभी भी नहीं जीते तो ये उनकी लगातार तीसरी हार होगी और ऐसे में उनके राजनैतिक भविष्य पर सवाल उठना भी लाजमी होगा। जमीनी स्थिति की बात करें तो मंत्री सरवीन चौधरी को लेकर इस क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। हालांकि ऐसा पिछले दो चुनाव में भी था लेकिन बावजूद इसके सरवीन आसानी से जीती। ऐसे में अब आठ दिसम्बर को क्या नतीजा आता है, इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है। फतेहपुर : युवा भवानी के सामने तीन दिग्गज फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले चार चुनाव कांग्रेस यहां जीत चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया या उनके बेटे पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा जोर लगा दिया, मगर भाजपा जीत नहीं पाई। इस बार कांग्रेस के इस गढ़ को भेदने के भाजपा ने वन मंत्री राकेश पठानिया को मैदान में उतारा है। राकेश पठानिया का टिकट नूरपुर से बदल कर फतेहपुर कर दिया गया। पठानिया के आने से ये मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है। यहां पांच बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले राजन सुशांत भी अब आम आदमी पार्टी में वापसी कर चुनावी मैदान में है। उधर, भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है, भाजपा नेता कृपाल परमार भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। अब कृपाल की दौड़ विधानसभा की दहलीज लांघ पाती है या नहीं, इस पर सबकी निगाह है। दरअसल, कृपाल को मनाने के लिए खुद पीएम मोदी का फोन आया था जो वायरल हुआ। पीएम के मनाने पर भी कृपाल माने नहीं, और ऐसे में अब भी अगर कृपाल हारे तो उनके राजनैतिक भविष्य को लेकर सवाल खड़े होना तो लाजमी होगा। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर भवानी सिंह पठानिया को मैदान में उतारा है। कांग्रेस में भवानी के नाम को लेकर कोई अंतर्कलह नहीं दिखी। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। पिछले चुनाव जीत कर भवानी ने ये साबित कर दिया था की वे राजनीति के लिए नए नहीं है। बहरहाल कांग्रेस में 'जय भवानी' का नारा बुलंद है और समर्थक तो उन्हें भावी मंत्री भी बताने लगे है। जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और भवानी भी ये चुनाव जीतते है तो उन्हें मंत्री पद या कोई अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। बहरहाल, भवानी और विधानसभा के बीच भाजपा के बड़े नेता और मंत्री राकेश पठानिया, कृपाल परमार और राजन सुशांत जैसे दिग्गज है। अब फतेहपुर में युवा जोश की जीत होती है या अनुभव की, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। ज्वाली : चौधरी चंद्र कुमार जीत को लेकर आश्वस्त 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। 2017 में फिर चौधरी चंद्र कुमार ने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इस बार फिर से चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस की ओर से मैदान में है। जबकि भाजपा ने समाजसेवी संजय गुलेरिया को टिकट दिया है। ज्वाली उन विधानसभा क्षेत्रों में से है जहां भाजपा द्वारा सिटिंग विधायक का टिकट काटा गया है। यहां भी भाजपा को विरोध का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन अर्जुन ठाकुर जो भाजपा के सिटिंग विधायक थे उन्हें आखिरकार मना लिया गया। इसके बाद लड़ाई चौधरी चंद्र कुमार बनाम संजय गुलेरिया रही है। जानकर मानते है कि संजय गुलेरिया को कांग्रेस अंडर एस्टीमेट नहीं कर सकती, क्षेत्र में उनकी पकड़ काफी मजबूत है, लेकिन चुनौती कड़ी है क्यूंकि उनके सामने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व में मंत्री रहे चौधरी चंद्र कुमार है। यहाँ कौन जीतेगा ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन प्रदेश में एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों के बुते कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है। पवन काजल के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने चौधरी चंद्र कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। चंद्र कुमार बड़ा ओबीसी चेहरा है और यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनी तो चंद्र कुमार को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जानकार मानते है कि ये फैक्टर भी सम्भवतः चंद्र कुमार के पक्ष में गया हो। धर्मशाला : क्या काम कर गया 'सुधीर ही सुधार है' का नारा ? धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। इस चुनाव में भी धर्मशाला हॉट सीट बनी हुई है। ये कांग्रेस के दिग्गज सुधीर शर्मा की सीट है और यहाँ इस बार भी सुधीर शर्मा ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं दूसरी ओर इस बार धर्मशाला में भाजपा ने सिटींग विधायक का टिकट काट कई दलों में रहे और हाल ही में आम आदमी पार्टी से भाजपा में लौटे राकेश चौधरी को दिया। इस टिकट के बदलाव से भाजपा ने यहां विरोध का सामना भी किया। पार्टी ने यहां विशाल नेहरिया को तो मना लिया लेकिन पार्टी विपिन नेहरिया को नहीं मना पाई। विपिन नेहरिया भाजपा जनजातीय मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है परन्तु टिकट न मिलने पर उन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। यूँ तो कांग्रेस सुधीर शर्मा के टिकट मिलने से कई लोग नाराज थे लेकिन उन्होंने खुल कर अपनी नाराज़गी जाहिर नहीं की। जानकर मानते है कि जितनी नाराजगी भाजपा में राकेश चौधरी को लेकर रही, उतनी ही नाराजगी कांग्रेस में सुधीर शर्मा को लेकर भी रही, बस फर्क रहा कि भाजपा की नाराजगी खुले तौर पर सामने आई और कांग्रेस की नाराजगी अंदर ही अंदर चलती रही। फिर भी यहाँ सुधीर शर्मा 2012 से 2017 के अपने कार्यकाल में करवाएं गए विकास कार्यों को लेकर दमखम से चुनाव लड़े है। उनका नारा 'सुधीर ही सुधार है' भी चर्चा में रहा और वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। सुधीर का दावा है कि धर्मशाला की जनता सुधार कर चुकी है और आठ दिसम्बर को वे फिर धर्मशाला के विधायक होंगे। इंदौरा : त्रिकोणीय मुकाबले में निर्दलीय मनोहर पर निगाह इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। भाजपा ने इस बार भी टिकट रीता धीमान को ही दिया जिससे नाराज़ हो कर मनोहर धीमान बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे। वहीं कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। बतौर निर्दलीय उतर कर भी इस विधानसभा क्षेत्र में मनोहर धीमान ने भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के प्रत्याशियों की धुकधुकी बढ़ा कर रखी है। यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला है और किसी को कम नहीं आँका जा सकता। जसवां परागपुर : बहुकोणीय मुकाबले में संभव है अंतर बेहद कम हो जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ है। बिक्रम ठाकुर यहां से तीन बार विधायक बने है। इस बार भी यहां भाजपा से बिक्रम सिंह ठाकुर ही प्रत्याशी है, जबकि कांग्रेस ने पूर्व विधायक सिंह मनकोटिया को मैदान में उतारा है। जसवां परागपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे कैप्टेन संजय पराशर ने यहाँ मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर और सुरेंद्र मनकोटिया के लिए मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। कभी बिक्रम सिंह ठाकुर के करीबी रहे मुकेश ठाकुर अब यहाँ से कांग्रेस के बागी है। वोटों के ध्रुवीकरण के फेर में फंसी इस सीट पर बिक्रम ठाकुर का कड़ा इम्तिहान है। क्या कांग्रेस के सुरेंद्र मनकोटिया को इसका लाभ मिल सकता है, ये ही बड़ा और अहम सवाल है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजे तक स्वाभाविक है सभी नेता अपनी -अपनी जीत के दावे करेंगे। जानकारों की माने तो यहाँ बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है और जो भी जीते मुमकिन है अंतर बेहद कम हो। ज्वालामुखी : सीट बदलना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक या भूल ? हिमाचल प्रदेश की ज्वालामुखी विधानसभा सीट उन सीटों में शुमार है जहां पर किसी राजनीतिक दल के साथ-साथ निर्दलीय प्रत्याशियों पर भी जनता ने खूब भरोसा जताया है। इस सीट पर 2017 में भाजपा के रमेश चंद ध्वाला ने कांग्रेस के सीटिंग विधायक संजय रतन को 6464 वोटों के अंतराल से शिकस्त देकर जीत दर्ज की थी। ज्वालामुखी भी उन विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहाँ इस चुनाव में भाजपा ने बड़े बदलाव किये है। भाजपा ने जवालामुखी के सिटींग विधायक रमेश चंद ध्वाला का टिकट बदल कर उन्हें देहरा भेजा और ज्वालामुखी से रविंद्र रवि को मैदान में उतारा। वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने चेहरे संजय रतन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से होशियार सिंह भी यहां मैदान में है। ज्वालामुखी और देहरा के नेताओं की सीट बदलने का निर्णय भाजपा का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होता है या बड़ी भूल, ये तो आठ तारीख को ही तय होगा। फिलवक्त कांग्रेस जरूर यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त दिख रही है। यदि कांग्रेस सरकार बनती है और संजय रतन भी जीत जाते है तो मुमकिन है इस बार ज्वालामुखी को मंत्री पद भी मिल जाएँ। इसी तरह अगर भाजपा सरकार बनी और रविंद्र रवि विधायक बने तो रवि भी मंत्रिपद के प्रबल दावेदार होंगे। यानी अगर ज्वालामुखी सत्ता के साथ गया है तो बड़ा ओहदा लगभग तय है। नूरपुर : निक्का ने दी बड़ी चुनौती, पर भीतरघात हुआ तो कांग्रेस को लाभ नूरपुर में संभावित अंतर्कलह की स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने यहां मंत्री राकेश पठानिया का टिकट बदल कर रणबीर सिंह निक्का को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर अजय महाजन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा यहां बसपा प्रत्याशी साली राम, आप प्रत्याशी मनीषा कुमारी एवं सुभाष सिंह डडवाल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में नूरपुर विधानसभा सीट पर रणबीर सिंह निक्का निर्दलीय मैदान में थे और तब भाजपा की बगावत का फायदा कांग्रेस के अजय महाजन को मिला। इस बार बेशक भाजपा ने बगावत साधने के लिए राकेश पठानिया को नूरपुर भेजा हो लेकिन ये जहन में रखना होगा कि नूरपुर में भाजपा में भीतरघात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इसका लाभ एक बार फिर कांग्रेस को मिलना लाजमी है। हालांकि निक्का ने मजबूती से चुनाव लड़ अजय महाजन को बड़ी चुनौती दी है, पर नूरपुर में टिकट बदलना भाजपा के लिए कारगर साबित होता है या नहीं, ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा। जयसिंहपुर : कांटे का मुकाबला अपेक्षित, क्या वापसी करेंगे गोमा ? 2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया ये विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यादविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार यहां कांग्रेस ने यादविंदर गोमा को ही मैदान में उतारा है, जबकि भाजपा की ओर से रविंदर धीमान मैदान में है। दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है और यहां मुकाबला टक्कर का दिखाई दे रहा है। 2017 के चुनाव में रविंदर धीमान यहां करीब 10,000 मतों से जीते थे, मगर इस बार जिस भी प्रत्याशी की जीत होगी अंतर बहुत कम रहने की संभावना है। शुरूआती दौर में यहाँ सीटिंग विधायक रविंद्र धीमान की राह थोड़ी आसान दिख रही थी। दरअसल कांग्रेस में टिकट के दो दावेदार थे, गोमा और सुशील कौल। इसके चलते कांग्रेस के टिकट आवंटन में काफी देरी हुई। पर आखिरकार कांग्रेस ने गोमा पर ही भरोसा जिताया। पर टिकट मिलने के बाद गोमा का प्रचार काफी आक्रामक रहा। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने के कांग्रेस के वादों का भी यहाँ जमीनी असर दिखा। नतीजन अब कांग्रेस यहाँ जीत के दावे कर रही है। उधर, कांग्रेस से मौका न मिलने के बाद सुशील कौल ने राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी का दामन थामा और चुनाव लड़ा। अब कौल कितने वोट ले जाते है और किसको कितना नुक्सान पहुंचाते है,इस पर भी सबकी निगाह है। बहरहाल नतीजा आठ तारीख को आएगा और यहाँ कांटे का मुकाबला अपेक्षित है। कांगड़ा वो जिला है जो सिर्फ सत्ता तक पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि नेताओं की खाट खड़ी करने की भी कुव्वत रखता है। इतिहास गवाह है कि ये वो जिला है जिसने खुद मुख्यमंत्री को भी नहीं बक्शा। कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में बड़े-बड़ो के नाक से धुंआ निकल जाता है। जो काँगड़ा को न भाया, उसका प्रदेश की सत्ता से पांच साल का वनवास तय समझो। आबादी के हिसाब से सबसे बड़े जिले काँगड़ा से चुनकर आए 15 विधायक सरकार बनाने और गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माना जाता है कि कांगड़ा से जिस दल की जितनी ज्यादा सीटें, उतनी ही उसके सत्ता में आने की गारंटी पक्की। वर्ष 1998 से चुनाव-दर-चुनाव हिमाचल की सियासत में यह ट्रेंड चलता आ रहा है। बारी-बारी प्रदेश की सत्ता संभालते आए भाजपा और कांग्रेस इस जिले से 9 से लेकर 11 सीटें जीतकर ही उस मुकाम तक पहुंचे है। काँगड़ा की सियासी एहमियत राजनीतिक दल बखूबी जानते है और इसीलिए इस बार भी शुरुआत से लेकर ही काँगड़ा की सियासी रणभूमि में सेंधमारी की जा रही थी। काँगड़ा में सत्ता वापसी के लिए कांग्रेस प्रयासरत थी, तो भाजपा सत्ता को अनवरत रखने के लिए। वहीं आम आदमी पार्टी भी शुरुआत में भरपूर प्रयास करती दिखी मगर अंत तक वो प्रयास फीके पड़ गए। अब ये चुनावी जंग निपट चुकी है और इंतजार आठ दिसंबर को आने वाले नतीजों का है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार कांगड़ा जिला किस पार्टी के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करता है। 1982 अपवाद, बाकी जिसके ज्यादा विधायक उसी की सरकार जिसके कांगड़ा में ज्यादा विधायक, उसी की सरकार। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा जिले से भाजपा ने 10 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज की। कांग्रेस पार्टी को पांच सीटें मिली थीं। एक निर्दलीय प्रत्याशी को जीत मिली थी। कांगड़ा ने सत्ता की राह तैयार की और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा से कांग्रेस को 11 और भाजपा को चार सीटों पर विजय मिली। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की। कांगड़ा में आगे रहने वाली कांग्रेस के पास सत्ता की चाबी आ गई। 2007 में भाजपा के नौ और कांग्रेस के चार प्रत्याशी जीते। बसपा का एक और एक निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। तब सरकार भाजपा की बनी। 2012 में फिर कांग्रेस की सरकार बनी, उस दौरान भी कांगड़ा जिले से 10 सीटें कांग्रेस, भाजपा की तीन और दो निर्दलीय की रहीं। पिछले यानी 2017 चुनाव की बात करें तो जिला की 15 में से 11 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया था। कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटें मिली थी और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी। कांगड़ा किसी को नहीं बक्शता, यहां दिग्गज धराशाई होते है ! जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा - जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चुका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा। भारी पड़ा था माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा : 2012 में भाजपा की प्रेम कुमार धूमल सरकार के मिशन रिपीट में कांगड़ा बाधा बना था। तब भाजपा तीन सीटें ही जीत पाई थी। तब प्रो धूमल ने माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा किया था, जो बड़ी चूक साबित हुई। तब भाजपा को प्रदेश में 26 सीटें मिली थी और कांगड़ा में बेहतर कर कांग्रेस का आंकड़ा 36 पर पहुंचा था। पालमपुर : क्या भाजपा भेद पाएगी बुटेल परिवार का बुलेटप्रूफ किला पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर मौजूदा समय में यहां भाजपा की स्थिति सहज नहीं दिखती।1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया पर, अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। इस चुनाव में भाजपा ने बुटेल परिवार के इस गढ़ को भेदने के लिए वूल फेडरेशन के चेयरमैन और प्रदेश महासचिव त्रिलोक कपूर को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस की तरफ से आशीष बुटेल फिर मैदान में है। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो आशीष बुटेल को लेकर इस क्षेत्र में कोई नाराजगी नहीं दिखती। वहीं सत्ता विरोधी लहर और ओपीएस जैसे मुद्दे भी कांग्रेस को मजबूत करते है। सम्भवतः ये ही कारण है कि आशीष जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर, त्रिलोक कपूर की बात करें तो निसंदेह उन्होंने दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है। पर उनकी ये कोशिश क्या रंग लाती है, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा। बैजनाथ : पंडित संतराम के गढ़ में वापसी की जद्दोजहद में कांग्रेस 90 के दशक में कांगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2012 ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने धर्मशाला का रुख किया। 2012 में कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने, पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्खराज विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने यहाँ किशोरी लाल और भाजपा ने फिर से मुल्खराज प्रेमी को मैदान में उतारा है। अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस फिर से एक बार अपने गढ़ पर कब्जा जमा पाएगी या जनता दोबारा से भाजपा के प्रत्याशी पर अपना वोट रूपी आशीर्वाद बरसाएगी। सुलह : यहां की जनता को परिवर्तन पसंद , इस बार क्या होगा ? 1998 के बाद से सुलह विधानसभा क्षेत्र की सत्ता भी प्रदेश की सत्ता के साथ बदलती रही है। 1998 के बाद से अब तक सुलह में हर पांच साल में परिवर्तन हुआ है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी पूर्व कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। इस बार यहां भाजपा ने फिर से विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार को मैदान में उतारा है। पर कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए पूर्व विधायक जगजीवन पाल का टिकट काटकर जगदीश सिपहिया पर दांव खेला है। इसके बाद वो ही हुआ जिसकी आशंका थी, जगजीवन पाल ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी सुलह में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा एकजुट दिखी। जाहिर है कांग्रेस की इस बगावत के बीच भाजपा यहाँ रिवाज़ बदलने को लेकर आश्वस्त है। पर दिलचस्प बात ये है कि जगजीवन पाल के पक्ष में जहाँ इस क्षेत्र में सहानुभूति भी दिखी है, वहीं कांग्रेस का एक खेमा भी उनके साथ चला है। ऐसे में निर्दलीय होने के बावजूद उनका दावा कमतर नहीं है। नगरोटा बगवां : क्या कुक्का को पटखनी दे पाएंगे रघुबीर बाली ? 'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। इस बार अरुण कुमार कुक्का के सामने स्वर्गीय जीएस बाली के पुत्र आरएस बाली कांग्रेस की ओर से मैदान में है। नगरोटा बगवां सीट पर हमेशा कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। अब तक के चुनाव में यहां कांग्रेस को 6 तो भाजपा को 4 बार जीत प्राप्त हुई है। यहां कांग्रेस के कद्दावर नेता जीएस बाली 1998 से लेकर 2012 तक लगातार विधायक बनते रहे है। पर 2017 में बाली चुनाव हार गए। अब उनके पुत्र उनकी हार का हिसाब बराबर करने के इरादे से मैदान में है। इस विधानसभा क्षेत्र में जहाँ अरुण कुमार कुक्का लगातार भाजपा सरकार और अपने द्वारा करवाए गए कार्यों पर वोट मांगते रहे है तो वहीं दूसरी ओर आरएस बाली को अपने पिता द्वारा करवाए गए क्षेत्र के विकास का सहारा रहा है। अब जनता ने आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है। कांगड़ा : काजल जीते तो बनेगा इतिहास काँगड़ा विधानसभा क्षेत्र में इस बार गजब की सियासत देखने को मिली है। यहां कौन भाजपाई है और कौन कांग्रेसी, समझना बड़ा मुश्किल हो गया। चुनाव से पहले नेताओं ने पार्टियां भी बदली और विचारधाराएं भी। यहां कांग्रेस के दिग्गज पवन काजल चुनाव से पहले भाजपा के हो गए और पूर्व भाजपाई चौधरी सुरेंदर काकू कांग्रेस में शामिल हो गए। पवन काजल काँगड़ा से दो बार विधायक रहे है। 2012 में काजल निर्दलीय चुनाव जीत कर विधायक बने और 2017 में काजल कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचे। इस बार कांग्रेस ने काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और काजल ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। काजल भाजपा में शामिल हुए और चुनाव भी भाजपा टिकट पर ही लड़ा। कांग्रेस से आए काजल को टिकट देने पर भाजपा मंडल ने उनका कड़ा विरोध किया, कुछ नेताओं को मना लिया गया लेकिन कुछ नेता आखिर तक नही माने। भाजपा से नाराज़ होकर कुलभाष चौधरी ने आजाद नामांकन भरा और चुनाव लड़ा। वहीं कांग्रेस ने इस बार भाजपा से कांग्रेस में आए और पूर्व में विधायक रहे चौधरी सुरेंद्र काकू को टिकट दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजा बेशक आठ दिसम्बर को आएगा लेकिन विरोध के बावजूद काजल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अगर काजल जीते तो वे तीसरी बार विधायक बनेंगे और दिलचस्प बात ये है वे अलग- अलग सिंबल से चुनाव जीत हैट्रिक लगाने वाले विधायक होंगे। ऐसा करने वाले वे कांगड़ा के पहले विधायक होंगे, हालांकि प्रदेश में महेंद्र सिंह ठाकुर ये कारनामा कर चुके है। देहरा : 2017 में हुई थी जमानत जब्त, क्या इस बार वापसी कर रही है कांग्रेस ? चुनाव से पहले देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह भाजपा में शामिल हुए। इसे भाजपा की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और लग रहा था मानों इस बार देहरा से होशियार सिंह ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे। मगर भाजपा के टिकट आवंटन ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने होशियार सिंह नहीं बल्कि ज्वालामुखी के विधायक और पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश ध्वाला को टिकट दिया और होशियार सिंह को एक बार फिर से बतौर निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा। इस सीट पर कांग्रेस ने भी टिकट बदला और पूर्व में काँगड़ा से चुनाव लड़ चुके डॉ राजेश शर्मा को टिकट दिया गया। होशियार सिंह इस बार भी दोनों ही राजनैतिक दलों को कड़ी टक्कर देते हुए दिखाई दे रहें है और देहरा में मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है। कहते है, देहरा कोई नहीं तेरा। पर सियासत इस बार अच्छे अच्छों को देहरा खींच कर ले गई। भाजपा प्रत्याशी रमेश ध्वाला जहाँ ज्वालामुखी निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर देहरा पहुंचे। हालाँकि ध्वाला का घर देहरा निर्वाचन क्षेत्र में आता है लेकिन उनकी कर्म भूमि ज्वालामुखी ही रही है। ऐसे में बेशक ध्वाला वापस घाट लौट आये हो लेकिन घरवालों ने भी क्या वोटों से उनका स्वागत किया है, ये बड़ा सवाल है। वहीं कांगड़ा में किस्मत आजमाने के बाद कांग्रेस नेता डॉ राजेश शर्मा ने तो देहरा में घर भी बना लिया। पिछले चुनाव कांग्रेस के तरफ से देहरा में वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर ने चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत जब्त हुई थी। हालांकि इस बार ऐसे हाल नहीं है और राजेश शर्मा की दावेदारी दमदार दिख रही है। संभव है कि आठ दिसंबर को देहरा में कांग्रेस की वापसी हो। वहीं होशियार सिंह के साथ भाजपा ने जो किया उसके चलते क्या उन्हें वोटों की सहानुभूति मिली, ये भी बड़ा सवाल है। हालांकि बतौर विधायक उनके कामकाज को लेकर कोई ख़ास नाराजगी नहीं दिखती और ऐसे में इस बार भी उनकी दावेदारी मजबूत है। शाहपुर: केवल अब भी हारे तो राजनैतिक भविष्य पर उठेंगे सवाल शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। कांग्रेस से पहले यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता था। मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल पठानिया की कांग्रेस में एंट्री हुई। कहते है कि यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाजी हर बार सरवीन जीतते रही है। हर बार एक दूसरे के लिए ध्रुमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल, सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं। मगर अब मेजर विजय सिंह मनकोटिया भाजपाई हो चुके है। माहिर मानते है कि मेजर के चुनाव लड़ने का लाभ सरवीन को मिलता रहा है, पर इस बार मेजर मैदान में नहीं है। बल्कि भाजपा से एक बागी उम्मीदवार सरवीन को चुनौती दे रहे है। ऐसे में कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया क्या इस बार जीत का स्वाद चख पाएंगे, इस पर सभी की नजरें है। पर अगर केवल अभी भी नहीं जीते तो ये उनकी लगातार तीसरी हार होगी और ऐसे में उनके राजनैतिक भविष्य पर सवाल उठना भी लाजमी होगा। जमीनी स्थिति की बात करें तो मंत्री सरवीन चौधरी को लेकर इस क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। हालांकि ऐसा पिछले दो चुनाव में भी था लेकिन बावजूद इसके सरवीन आसानी से जीती। ऐसे में अब आठ दिसम्बर को क्या नतीजा आता है, इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है। फतेहपुर : युवा भवानी के सामने तीन दिग्गज फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले चार चुनाव कांग्रेस यहां जीत चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया या उनके बेटे पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा जोर लगा दिया, मगर भाजपा जीत नहीं पाई। इस बार कांग्रेस के इस गढ़ को भेदने के भाजपा ने वन मंत्री राकेश पठानिया को मैदान में उतारा है। राकेश पठानिया का टिकट नूरपुर से बदल कर फतेहपुर कर दिया गया। पठानिया के आने से ये मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है। यहां पांच बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले राजन सुशांत भी अब आम आदमी पार्टी में वापसी कर चुनावी मैदान में है। उधर, भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है, भाजपा नेता कृपाल परमार भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। अब कृपाल की दौड़ विधानसभा की दहलीज लांघ पाती है या नहीं, इस पर सबकी निगाह है। दरअसल, कृपाल को मनाने के लिए खुद पीएम मोदी का फोन आया था जो वायरल हुआ। पीएम के मनाने पर भी कृपाल माने नहीं, और ऐसे में अब भी अगर कृपाल हारे तो उनके राजनैतिक भविष्य को लेकर सवाल खड़े होना तो लाजमी होगा। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर भवानी सिंह पठानिया को मैदान में उतारा है। कांग्रेस में भवानी के नाम को लेकर कोई अंतर्कलह नहीं दिखी। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। पिछले चुनाव जीत कर भवानी ने ये साबित कर दिया था की वे राजनीति के लिए नए नहीं है। बहरहाल कांग्रेस में 'जय भवानी' का नारा बुलंद है और समर्थक तो उन्हें भावी मंत्री भी बताने लगे है। जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और भवानी भी ये चुनाव जीतते है तो उन्हें मंत्री पद या कोई अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। बहरहाल, भवानी और विधानसभा के बीच भाजपा के बड़े नेता और मंत्री राकेश पठानिया, कृपाल परमार और राजन सुशांत जैसे दिग्गज है। अब फतेहपुर में युवा जोश की जीत होती है या अनुभव की, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। ज्वाली : चौधरी चंद्र कुमार जीत को लेकर आश्वस्त 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। 2017 में फिर चौधरी चंद्र कुमार ने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इस बार फिर से चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस की ओर से मैदान में है। जबकि भाजपा ने समाजसेवी संजय गुलेरिया को टिकट दिया है। ज्वाली उन विधानसभा क्षेत्रों में से है जहां भाजपा द्वारा सिटिंग विधायक का टिकट काटा गया है। यहां भी भाजपा को विरोध का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन अर्जुन ठाकुर जो भाजपा के सिटिंग विधायक थे उन्हें आखिरकार मना लिया गया। इसके बाद लड़ाई चौधरी चंद्र कुमार बनाम संजय गुलेरिया रही है। जानकर मानते है कि संजय गुलेरिया को कांग्रेस अंडर एस्टीमेट नहीं कर सकती, क्षेत्र में उनकी पकड़ काफी मजबूत है, लेकिन चुनौती कड़ी है क्यूंकि उनके सामने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व में मंत्री रहे चौधरी चंद्र कुमार है। यहाँ कौन जीतेगा ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन प्रदेश में एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों के बुते कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है। पवन काजल के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने चौधरी चंद्र कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। चंद्र कुमार बड़ा ओबीसी चेहरा है और यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनी तो चंद्र कुमार को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जानकार मानते है कि ये फैक्टर भी सम्भवतः चंद्र कुमार के पक्ष में गया हो। धर्मशाला : क्या काम कर गया 'सुधीर ही सुधार है' का नारा ? धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। इस चुनाव में भी धर्मशाला हॉट सीट बनी हुई है। ये कांग्रेस के दिग्गज सुधीर शर्मा की सीट है और यहाँ इस बार भी सुधीर शर्मा ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं दूसरी ओर इस बार धर्मशाला में भाजपा ने सिटींग विधायक का टिकट काट कई दलों में रहे और हाल ही में आम आदमी पार्टी से भाजपा में लौटे राकेश चौधरी को दिया। इस टिकट के बदलाव से भाजपा ने यहां विरोध का सामना भी किया। पार्टी ने यहां विशाल नेहरिया को तो मना लिया लेकिन पार्टी विपिन नेहरिया को नहीं मना पाई। विपिन नेहरिया भाजपा जनजातीय मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है परन्तु टिकट न मिलने पर उन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। यूँ तो कांग्रेस सुधीर शर्मा के टिकट मिलने से कई लोग नाराज थे लेकिन उन्होंने खुल कर अपनी नाराज़गी जाहिर नहीं की। जानकर मानते है कि जितनी नाराजगी भाजपा में राकेश चौधरी को लेकर रही, उतनी ही नाराजगी कांग्रेस में सुधीर शर्मा को लेकर भी रही, बस फर्क रहा कि भाजपा की नाराजगी खुले तौर पर सामने आई और कांग्रेस की नाराजगी अंदर ही अंदर चलती रही। फिर भी यहाँ सुधीर शर्मा 2012 से 2017 के अपने कार्यकाल में करवाएं गए विकास कार्यों को लेकर दमखम से चुनाव लड़े है। उनका नारा 'सुधीर ही सुधार है' भी चर्चा में रहा और वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। सुधीर का दावा है कि धर्मशाला की जनता सुधार कर चुकी है और आठ दिसम्बर को वे फिर धर्मशाला के विधायक होंगे। इंदौरा : त्रिकोणीय मुकाबले में निर्दलीय मनोहर पर निगाह इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। भाजपा ने इस बार भी टिकट रीता धीमान को ही दिया जिससे नाराज़ हो कर मनोहर धीमान बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे। वहीं कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। बतौर निर्दलीय उतर कर भी इस विधानसभा क्षेत्र में मनोहर धीमान ने भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के प्रत्याशियों की धुकधुकी बढ़ा कर रखी है। यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला है और किसी को कम नहीं आँका जा सकता। जसवां परागपुर : बहुकोणीय मुकाबले में संभव है अंतर बेहद कम हो जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ है। बिक्रम ठाकुर यहां से तीन बार विधायक बने है। इस बार भी यहां भाजपा से बिक्रम सिंह ठाकुर ही प्रत्याशी है, जबकि कांग्रेस ने पूर्व विधायक सिंह मनकोटिया को मैदान में उतारा है। जसवां परागपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे कैप्टेन संजय पराशर ने यहाँ मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर और सुरेंद्र मनकोटिया के लिए मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। कभी बिक्रम सिंह ठाकुर के करीबी रहे मुकेश ठाकुर अब यहाँ से कांग्रेस के बागी है। वोटों के ध्रुवीकरण के फेर में फंसी इस सीट पर बिक्रम ठाकुर का कड़ा इम्तिहान है। क्या कांग्रेस के सुरेंद्र मनकोटिया को इसका लाभ मिल सकता है, ये ही बड़ा और अहम सवाल है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजे तक स्वाभाविक है सभी नेता अपनी -अपनी जीत के दावे करेंगे। जानकारों की माने तो यहाँ बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है और जो भी जीते मुमकिन है अंतर बेहद कम हो। ज्वालामुखी : सीट बदलना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक या भूल ? हिमाचल प्रदेश की ज्वालामुखी विधानसभा सीट उन सीटों में शुमार है जहां पर किसी राजनीतिक दल के साथ-साथ निर्दलीय प्रत्याशियों पर भी जनता ने खूब भरोसा जताया है। इस सीट पर 2017 में भाजपा के रमेश चंद ध्वाला ने कांग्रेस के सीटिंग विधायक संजय रतन को 6464 वोटों के अंतराल से शिकस्त देकर जीत दर्ज की थी। ज्वालामुखी भी उन विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहाँ इस चुनाव में भाजपा ने बड़े बदलाव किये है। भाजपा ने जवालामुखी के सिटींग विधायक रमेश चंद ध्वाला का टिकट बदल कर उन्हें देहरा भेजा और ज्वालामुखी से रविंद्र रवि को मैदान में उतारा। वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने चेहरे संजय रतन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से होशियार सिंह भी यहां मैदान में है। ज्वालामुखी और देहरा के नेताओं की सीट बदलने का निर्णय भाजपा का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होता है या बड़ी भूल, ये तो आठ तारीख को ही तय होगा। फिलवक्त कांग्रेस जरूर यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त दिख रही है। यदि कांग्रेस सरकार बनती है और संजय रतन भी जीत जाते है तो मुमकिन है इस बार ज्वालामुखी को मंत्री पद भी मिल जाएँ। इसी तरह अगर भाजपा सरकार बनी और रविंद्र रवि विधायक बने तो रवि भी मंत्रिपद के प्रबल दावेदार होंगे। यानी अगर ज्वालामुखी सत्ता के साथ गया है तो बड़ा ओहदा लगभग तय है। नूरपुर : निक्का ने दी बड़ी चुनौती, पर भीतरघात हुआ तो कांग्रेस को लाभ नूरपुर में संभावित अंतर्कलह की स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने यहां मंत्री राकेश पठानिया का टिकट बदल कर रणबीर सिंह निक्का को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर अजय महाजन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा यहां बसपा प्रत्याशी साली राम, आप प्रत्याशी मनीषा कुमारी एवं सुभाष सिंह डडवाल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में नूरपुर विधानसभा सीट पर रणबीर सिंह निक्का निर्दलीय मैदान में थे और तब भाजपा की बगावत का फायदा कांग्रेस के अजय महाजन को मिला। इस बार बेशक भाजपा ने बगावत साधने के लिए राकेश पठानिया को नूरपुर भेजा हो लेकिन ये जहन में रखना होगा कि नूरपुर में भाजपा में भीतरघात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इसका लाभ एक बार फिर कांग्रेस को मिलना लाजमी है। हालांकि निक्का ने मजबूती से चुनाव लड़ अजय महाजन को बड़ी चुनौती दी है, पर नूरपुर में टिकट बदलना भाजपा के लिए कारगर साबित होता है या नहीं, ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा। जयसिंहपुर : कांटे का मुकाबला अपेक्षित, क्या वापसी करेंगे गोमा ? 2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया ये विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यादविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार यहां कांग्रेस ने यादविंदर गोमा को ही मैदान में उतारा है, जबकि भाजपा की ओर से रविंदर धीमान मैदान में है। दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है और यहां मुकाबला टक्कर का दिखाई दे रहा है। 2017 के चुनाव में रविंदर धीमान यहां करीब 10,000 मतों से जीते थे, मगर इस बार जिस भी प्रत्याशी की जीत होगी अंतर बहुत कम रहने की संभावना है। शुरूआती दौर में यहाँ सीटिंग विधायक रविंद्र धीमान की राह थोड़ी आसान दिख रही थी। दरअसल कांग्रेस में टिकट के दो दावेदार थे, गोमा और सुशील कौल। इसके चलते कांग्रेस के टिकट आवंटन में काफी देरी हुई। पर आखिरकार कांग्रेस ने गोमा पर ही भरोसा जिताया। पर टिकट मिलने के बाद गोमा का प्रचार काफी आक्रामक रहा। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने के कांग्रेस के वादों का भी यहाँ जमीनी असर दिखा। नतीजन अब कांग्रेस यहाँ जीत के दावे कर रही है। उधर, कांग्रेस से मौका न मिलने के बाद सुशील कौल ने राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी का दामन थामा और चुनाव लड़ा। अब कौल कितने वोट ले जाते है और किसको कितना नुक्सान पहुंचाते है,इस पर भी सबकी निगाह है। बहरहाल नतीजा आठ तारीख को आएगा और यहाँ कांटे का मुकाबला अपेक्षित है।
कहीं बदलते समीकरण, तो कहीं बदलती निष्ठाएं। कहीं अंतर्कलह, तो कहीं हावी निजी महत्वकांक्षाएं। कमोबेश जिला सोलन की पांचों विधानसभा सीटों का ये ही सूरत-ए-हाल है। कई सीटों पर इस कदर कांटे का मुकाबला है कि बड़े-बड़े माहिर भी भविष्यवाणी करने से बचते दिख रहे है। बहरहाल मतदान हो चुका है और अब आठ दिसंबर को नतीजों का इन्तजार है। दोनों मुख्य दल अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है और आम आदमी पार्टी भी उपस्थिति दर्ज करवाने की आशा में होगी। वहीँ जिला की दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने सियासी दिग्गजों की धुकधुकी बढ़ाई है। 2017 के नतीजों पर निगाह डालें तो भाजपा को पांच में से दो सीटें मिली थी, बावजूद इसके जयराम कैबिनेट में जिला सोलन को स्थान मिला। कसौली विधायक डॉ राजीव सैजल को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। डॉ सैजल पहले सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री रहे और फिर 2020 के कैबिनेट विस्तार में उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय मिला। अब भाजपा जिला सोलन में बेहतर करने की उम्मीद में है। वहीं कांग्रेस आश्वस्त है कि इस बार भी जिला में वो ही इक्कीस रहेगी। पर भाजपा-कांग्रेस के दावों के बीच निगाहें नालागढ़ और अर्की सीट पर रहेगी जहाँ निर्दलियों ने चुनावी समीकरण बदल कर रख दिए है। नालागढ़ : केएल पर निगाह, बावा पर दबाव लाजमी कुछ माह पहले नालागढ़ भाजपा में केएल ठाकुर के समकक्ष कोई चेहरा नहीं दिखता था, लेकिन हालात ऐसे बने कि केएल ठाकुर को बगावत करके चुनाव लड़ना पड़ा। दरअसल, कांग्रेस विधायक लखविंद्र राणा भाजपा में शामिल हो गए और भाजपा ने उन्हें ही टिकट दिया। ऐसे में जो भाजपा नालागढ़ में लगभग एकजुट थी वो बगावत के व्यूह में फंस गई। अब नतीजे अगर भाजपा के पक्ष में नहीं आये तो सवाल तो उठेंगे ही। बहरहाल, माहिर मानते है कि नालागढ़ में इन दोनों के बीच ही मुख्य मुकाबला है। अब बात कांग्रेस की करें तो कांग्रेस ने हरदीप बावा को टिकट दिया, वहीं बावा जो 2017 में बागी थे। पर लखविंदर के जाने के बाद कांग्रेस के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे, सो बावा को टिकट रुपी आशीर्वाद मिल गया। पर अगर भाजपा की बगावत के बावजूद बावा नहीं जीत पाते है या तीसरे स्थान पर चले जाते है तो जाहिर है उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर भी सवाल जरूर उठेंगे। वहीँ आम आदमी पार्टी ने यहाँ से कांग्रेस छोड़कर गए पूर्व जिला परिषद् अध्यक्ष धर्मपाल चौहान को टिकट दिया। अब धर्मपाल का निर्णय कितना सही साबित होता है, ये तो नतीजे ही बताएँगे। बहरहाल नालगढ़ में केएल ठाकुर पर निगाह टिकी है। दिलचस्प बात ये है कि केएल ऐलान कर चुके है कि उनका समर्थन उसी दल को होगा जो पुरानी पेंशन बहाल करेगा, यानी अगर कांग्रेस सरकार बनती है और केएल ठाकुर भी जीत जाते है तो वे कांग्रेस के खेमे में भी दिख सकते है। कसौली : अपेक्षाओं का बोझ कहीं सैजल की क्लीन इमेज पर भारी न पड़ गया हो कसौली निर्वाचन क्षेत्र में एक तरफ मिस्टर क्लीन इमेज वाले वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के साथ भाजपा की पूरी टीम जीत का चौका लगाने के लिए मैदान में है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस और विनोद सुल्तानपुरी जीत का सूखा खत्म करने की फिराक में। वहीं इन दोनों का खेल बिगाड़ने की जुगत में मैदान में आम आदमी पार्टी के हरमेल धीमान भी आठ दिसम्बर के इन्तजार में है। कोशिश राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी की है, पर कोशिश कितना रंग लाती है इसके लिए फ़िलहाल तो इन्तजार करना होगा। अतीत पर गौर करें तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। 2003 में प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सरकार में रघुराज मंत्री बने। मंत्री बनने के बाद कसौली के लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी और शायद इसी का खामियाजा रघुराज को 2007 में उठाना पड़ा, जब वे चुनाव हार गए। तब जमीनी स्तर पर रघुराज के खिलाफ नाराजगी दिखी थी। उन्हें हराने वाले थे भाजपा के डॉ राजीव सैजल। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था, पर कसौली की जनता ने रघुराज पर युवा सैजल को वरीयता दी और वे चुनाव जीत गए। तब पहला चुनाव जीतने वाले सैजल वर्तमान में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री है। अब तक सैजल जीत की हैट्रिक लगा चुके है और अब जीत का चौका लगाने की तैयारी में है। हालांकि अब मंत्री बनने के बाद उनकी राह भी रघुराज की तरह जरा भी आसान नहीं दिख रही। भाजपा की मुश्किलें बढ़ाने के पीछे हरमेल धीमान का भी बड़ा हाथ है। कसौली भाजपा के वरिष्ठ नेता व भाजपा एससी मोर्चा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रहे हरमेल धीमान ने भाजपा छोड़ आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया और दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं लगातार दो चुनाव मामूली अंतर से हारने के बाद कांग्रेस के विनोद सुल्तानपुरी लगातार प्रो एक्टिव दिखे है और इस बार उनका चुनाव प्रबंधन भी बेहतर दिखा है। ऐसे में इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सुल्तानपुरी कसौली के अगले सुल्तान बन सकते है। सोलन : दामाद को मिलेगा जीत का शगुन, या ससुर अब भी दमदार सोलन निर्वाचन क्षेत्र में वर्ष 2000 में उपचुनाव हुआ था। तब अप्रत्याशित तौर पर पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत का टिकट काट कर भाजपा ने डॉ राजीव बिंदल को टिकट दिया था, और पहली बार बिंदल विधायक बने थे। इसके बाद डॉ बिंदल ने 2003 और 2007 में भी जीत दर्ज की। 2007 से 2012 तक बिंदल मंत्री भी रहे और सोलन की राजनीति में उनका खूब डंका बजा। किन्तु 2012 में सोलन सीट आरक्षित हो गई तो डॉ राजीव बिंदल नाहन चले गए। इसके बाद से सोलन में भाजपा दो चुनाव हार चुकी है और दोनों बार कांग्रेस के कर्नल धनीराम शांडिल विधायक बने। 2012 में उन्होंने भाजपा की कुमारी शीला को हराया, तो 2017 में अपने दामाद और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजेश कश्यप को। इस बार फिर ससुर- दामाद में मुकाबला हुआ है और कांटे की टक्कर में कुछ भी मुमकिन है। सोलन भाजपा में गुट विशेष और डॉ राजेश कश्यप के बीच के मतभेद जगजाहिर है लेकिन बाहरी तौर पर चुनाव में पार्टी एकजुट दिखी है। अब अगर ज्यादा भीतरघात नहीं हुआ है तो भाजपा यहाँ जीत का सूखा समाप्त कर सकती है। यहाँ डॉ राजेश कश्यप के लगातार पांच साल फील्ड में सक्रिय रहने का लाभ भी भाजपा को मिल सकता है। वहीं कांग्रेस में भी कमोबेश ये ही स्थिति है। हालांकि ओपीएस और कर्नल की क्लीन इमेज के बूते पार्टी फिर जीत को लेकर आश्वस्त है। बहरहाल नतीजा जो भी हो लेकिन कड़ा मुकाबला तय है। दून: परंपरागत सीट को फिर जीतने की कवायद में राम कुमार बीते तीन दशक में दून निर्वाचन हलके की राजनीति बेहद दिलचस्प रही है। 1990 की शांता लहर में जनता दल के टिकट पर चौधरी लज्जा राम विधायक चुन कर आये थे। पर 1993 आते -आते चौधरी लज्जा राम ने पार्टी बदल ली और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1993, 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में चौधरी लज्जा राम यहाँ से विधायक रहे। पर 2007 के चुनाव में उन्हें भाजपा की विनोद चंदेल ने परास्त कर पहली बार कमल खिलाया। फिर आया 2012 का बेहद रोचक चुनाव। कांग्रेस ने चौधरी लज्जा राम के पुत्र राम कुमार को मैदान में उतारा, तो वहीँ भाजपा ने विनोद चंदेल को ही टिकट थमाया। इस मुकाबले में विजय राम कुमार चौधरी की हुई, पर दिलचस्प बात ये रही कि भाजपा चौथे पायदान पर रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों से बागी उम्मीदवार भी मैदान में थे। भाजपा के बागी दर्शन सिंह जहाँ 11 हज़ार से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे, तो कांग्रेस के बागी परमजीत सिंह पम्मी भी 10 हज़ार से ज्यादा वोट ले गए और तीसरे स्थान पर रहे।इस बीच अगला चुनाव आते -आते समीकरण बदल गए। राम कुमार के रहते परमजीत सिंह पम्मी को कांग्रेस में भविष्य नहीं दिख रहा था, सो पम्मी ने भाजपा का दामन थाम लिया। जैसा अपेक्षित था 2017 में भाजपा ने पम्मी को मैदान में उतारा और कांग्रेस से एक बार फिर राम कुमार चौधरी मैदान में थे। इस मुकाबले में पम्मी ने जीत दर्ज की। अब फिर दून में ये दोनों आमने -सामने है। चुनावी विश्लेषण की बात करें तो यहाँ राम कुमार करीब एक साल से चुनावी मोड में दिखे है जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। बहरहाल आठ दिसंबर तक कांग्रेस-भाजपा, दोनों यहाँ आशावान जरूर है। अर्की : ठाकुर ने उड़ाई कांग्रेस-भाजपा की नींद अर्की में राजा वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत पिछले वर्ष हुए उपचुनाव में कांग्रेस के संजय अवस्थी ने जीत हासिल की थी। हालांकि तब अवस्थी की उम्मीदवारी से नाराज होकर होलीलॉज के करीबी रहे राजेंद्र ठाकुर ने अपने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दी थी। उपचुनाव में तो ठाकुर ने बतौर निर्दलीय ताल नहीं ठोकी लेकिन तब से ही विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए। अब इन्हीं राजेंद्र ठाकुर ने निर्दलीय चुनाव लड़कर कांग्रेस-भाजपा की नींद उड़ाई है। वहीं भाजपा ने इस बार दो चुनाव हार चुके रतन पाल का टिकट काटकर दो बार विधायक रहे गोविंदराम शर्मा को मैदान में उतारा है। बाहरी तौर पर तो भाजपा एकजुट दिखी है लेकिन भीतरघात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में भाजपा की राह यहाँ आसां तो बिलकुल नहीं लगती। उधर, कांग्रेस ने अपेक्षा के मुताबिक संजय अवस्थी को ही टिकट दिया। बहरहाल, राजेंद्र ठाकुर ने अर्की की जंग रोचक कर दी है और यहाँ किसी की जीत की कोई गारंटी नहीं। यहाँ ये भी गौर करना होगा कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, साथ ही ये भी सम्भावना है कि ठाकुर ने दोनों के काडर में भी कुछ सेंध लगाई हो। हालांकि अर्की में कर्मचारियों की खासी तादाद है और ओपीएस फैक्टर के भरोसे कांग्रेस नैया पार लगाने को आश्वस्त जरूर है।
बिलासपुर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह जिला है। इसी जिला की बिलासपुर सदर सीट से खुद नड्डा तीन बार विधायक रहे है। यहीं से सियासत की बारीकियां सीखते-सीखते नड्डा आज भाजपा के शीर्ष स्थान तक पहुंचे है। जाहिर है ऐसे में ये जिला बेहद ख़ास है। यहाँ भाजपा की जीत- हार को सीधे नड्डा की राजनैतिक प्रतिष्ठता से जोड़े जाना भी स्वाभाविक है। 2017 में यहाँ चार में से तीन सीटों पर भाजपा का परचम लहराया था। बिलासपुर सदर, घुमारवीं और झंडूता में भाजपा को जीत मिली थी, तो श्री नैना देवी सीट पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राम लाल ठाकुर जीते थे। अब रिवाज बदलने का दावा कर रही भाजपा के लिए यहाँ प्रदर्शन दोहराना जरूरी है। हालांकि भाजपा की चुनौतियां यहाँ जरा भी कम नहीं दिखती। बहरहाल मतदान के बाद अब सबकी निगाहें नतीजे पर है और आठ दिसंबर का इंतजार है। टिकट आवंटन की बात करें तो भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने यहाँ चार में से तीन पुराने उम्मीदवारों पर भरोसा जताया। भाजपा ने बिलासपुर सदर से सीटिंग विधायक सुभाष ठाकुर का टिकट काटकर प्रदेश महामंत्री त्रिलोक जम्वाल को दिया, तो कांग्रेस ने झंडूता से पूर्व प्रत्याशी बीरु राम किशोर की जगह विवेक कुमार को आजमाया। बाकी सभी पुराने चेहरे मैदान में है। वहीं बगावत की बात करें तो कांग्रेस चारों सीटों पर बगावत थामने में कामयाब हुई जबकि बिलासपुर सदर और झंडूता सीट पर भाजपा के बागियों ने पार्टी की चिंता बढ़ाई है। अब ये बगावत क्या रंग लाती है ये तो आठ दिसम्बर को साफ होगा लेकिन नतीजा जो भी रहे, रोचक होना तय है। बिलासपुर : भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के घर में बगावत, कांग्रेस आशावान ! भाजपा ने यहाँ से त्रिलोक जम्वाल को टिकट दिया है। सीटिंग विधायक सुभाष ठाकुर का टिकट काटा गया है। भाजपा सुभाष ठाकुर को मनाने में तो कामयाब रही, लेकिन टिकट के एक अन्य दावेदार सुभाष शर्मा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। भाजपा की ये बगावत कांग्रेस प्रत्याशी बम्बर ठाकुर के लिए कितनी फायदेमंद सिद्ध होती है, ये तो नतीजे तय करेंगे। पर फिलहाल यहाँ का चुनावी मुकाबला करीबी होना तय है। बिलासपुर सीट पर जीतना भाजपा के लिए इसलिए भी जरूरी है क्यों कि इसी सीट से जगत प्रकाश नड्डा तीन बार विधानसभा पहुंचे है। साथ ही इस बार यहाँ से भाजपा के प्रदेश महासचिव त्रिलोक जम्वाल मैदान में है। दरअसल त्रिलोक जम्वाल के खुद चुनाव लड़ने का असर भाजपा के चुनाव प्रबंधन पर दिखा है। जम्वाल खुद चुनाव लड़ने में मशगूल रहे और निसंदेह संगठन में उनकी कमी पूरी करना आसान नहीं रहा। जाहिर है ऐसे में नतीजे प्रतिकूल रहे तो सवाल तो उठेंगे ही। झंडूता : बगावत के बावजूद कमतर नहीं भाजपा झंडूता भाजपा ने मौजूदा विधायक जीतराम कटवाल को ही फिर टिकट दिया है। वहीं नाराज होकर पूर्व विधायक रिखी राम कौंडल के बेटे राजकुमार कौंडल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। ये बगावत भाजपा के लिए खतरे की घंटी जरूर है, हालांकि इसके बावजूद यहाँ भाजपा कमतर बिलकुल नहीं है। उधर, कांग्रेस ने इस सीट से बीरु राम किशोर की जगह विवेक कुमार को मैदान में उतारा है। कांग्रेस को जहाँ नए चेहरे से आस है, वहीं ओपीएस और सत्ता विरोधी लहर भी कांग्रेस की आस बढ़ा रहे है। श्री नैना देवी : जीत को लेकर रामलाल ठाकुर आश्वस्त श्री नैना देवी सीट पर एक बार फिर दो पुराने प्रतिद्वंदी आमने-सामने है, वरिष्ठ कांग्रेस नेता राम लाल ठाकुर और भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता रणधीर शर्मा। 2012 में इस सीट से रणधीर शर्मा जीते थे तो 2017 में फिर राम लाल ठाकुर। इस बार भी यहाँ करीबी मुकाबला संभव है। रामलाल ठाकुर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है और प्रदेश में यदि कांग्रेस सरकार बनती है तो ठाकुर सीएम पद के दावेदारों में से एक होंगे। यदि सीएम पद की दौड़ में पिछड़ भी गए तो भी ठाकुर को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जाहिर है मतदाता भी इस बात को समझता है और सम्भवतः इसका लाभ ठाकुर को मिला हो। इसके अलावा ओपीएस और महिला सम्मान राशि जैसे कांग्रेस के वादे भी लाभदायक सिद्ध हो सकते है। ऐसे में रामलाल ठाकुर अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर, भाजपा भी जीत का दावा कर रही है। बहरहाल नतीजों के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा। घुमारवीं : गर्ग की डगर कठिन, धर्माणी आश्वस्त 2017 में पहली बार विधायक बने राजेंद्र गर्ग 2020 में कैबिनेट विस्तार में मंत्री भी बन गए। मंत्री बने तो जाहिर है लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी। इन्हीं अपेक्षाओं के बोझ तले क्या राजेंद्र गर्ग के दोबारा विधानसभा पहुँचने के अरमान कुचले जायेंगे, ये फिलवक्त बड़ा सवाल है और इसका जवाब तो आठ दिसम्बर को ही मिलेगा। बहरहाल इतना तय है कि नतीजा जो भी रहे राजेंद्र गर्ग की डगर कठिन जरूर है। कांग्रेस की बात करें तो पार्टी ने यहाँ से दो बार विधायक रहे राजेश धर्माणी को फिर मौका दिया है और धर्माणी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। इस सीट पर आम आदमी पार्टी का जिक्र भी जरूरी है क्योंकि आप पार्टी प्रत्याशी राकेश चोपड़ा ने यहाँ दमखम से चुनाव लड़ा है। माहिर मान रहे है कि चोपड़ा यहाँ ज्यादा नुक्सान गर्ग को पहुंचा गए है जिसका लाभ धर्माणी को मिल सकता है। बहरहाल नतीजा जो भी हो, इस त्रिकोणीय मुकाबले में सभी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे है और फिलहाल हकीकत से पर्दा उठाने के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा।
इतिहास तस्दीक करता है कि प्रदेश में जिसकी सरकार बनती है वो ही पार्टी चंबा में भी बाजी मारती है। आंकड़ों पर निगाह डाले तो भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद 1982 से 2017 तक हिमाचल प्रदेश में 9 विधानसभा चुनाव हुए है। इनमें से आठ बार प्रदेश में उसी दल या गठबंधन की सरकार बनी है जिसने जिला चंबा में बढ़त हासिल की है। सिर्फ 2012 का विधानसभा चुनाव अपवाद है, जब भाजपा ने चंबा में तीन सीटें जीती लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। पिछले चुनाव की बात करे तो भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए चार सीटें जीती थी, जबकि केवल एक सीट पर कांग्रेस को जीत मिली। इस बार चम्बा जिला में चार सीटिंग विधायकों में से भाजपा ने दो नए चेहरों को मौका दिया है। तो कांग्रेस ने चार पुराने प्रत्याशी उतारे है और एक नए चेहरे को मौका दिया है। अब देखना ये होगा कि क्या पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा चम्बा में अपने शानदार प्रदर्शन को बरकरार रख पाएगी या फिर कांग्रेस यहाँ सत्ता का सुख पायेगी। हंसराज, पवन नय्यर, जिया लाल और विक्रम जरियाल, 2017 में जिला चम्बा से भाजपा टिकट पर जीत कर ये चार विधायक शिमला विधानसभा तक पहुंचे थे। पर इस बार इनमें से दो का रास्ता भाजपा ने टिकट आवंटन के साथ ही रोक दिया है। चुराह से हंसराज और भटियात से विक्रम जरियाल को तो भाजपा ने टिकट दिया, लेकिन चम्बा सदर से सीटिंग विधायक पवन नैय्यर और भरमौर से सीटिंग विधायक जियालाल का टिकट काट दिया। भरमौर से पार्टी ने डॉ जनकराज को मैदान में उतारा है तो सदर सीट पर नाटकीय घटनाक्रम के बाद निवर्तमान विधायक की पत्नी नीलम नय्यर को टिकट दिया है। वहीँ डलहौजी से भाजपा ने एक बार फिर आशा कुमारी के खिलाफ डीएस ठाकुर को मैदान में उतारा है। उधर, कांग्रेस में डलहौज़ी से सीटिंग विधायक आशा कुमारी सहित 2017 के चार उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें सदर सीट से नीरज नय्यर, भरमौर से ठाकुर सिंह भरमौरी, भटियात से कुलदीप सिंह पठानिया शामिल है। जबकि चुराह सीट से पार्टी ने यशवंत खन्ना को मौका दिया है। भरमौर : डॉ जनकराज ने बढ़ाई अनुभवी भरमौरी की परेशानी ! मंडी संसदीय उपचुनाव में भरमौर विधानसभा सीट पर कांग्रेस को लीड मिली और भाजपा पिछड़ी, जिसका खामियाज़ा सिटींग विधायक जियालाल को भुगतना पड़ा है। इस बार भाजपा ने यहाँ जियालाल का टिकट काट कर नए चेहरे के तौर पर आईजीएमसी के एमएस रहे डॉ जनकराज को टिकट दिया है, तो उधर कांग्रेस ने अपने अनुभवी चेहरे ठाकुर सिंह भरमौरी को ही मैदान में उतारा है। इस सीट पर सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच है। निसंदेह 2017 में इस सीट पर भाजपा को जीत मिली लेकिन इतिहास पर नज़र डाले तो 1985 के बाद यहाँ हर पांच वर्ष बाद सत्ता परिवर्तन का रिवाज़ बरकरार रहा है। इस बार भी यहाँ कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच कांटे का मुकाबला दिख रहा है। डलहौज़ी : कांटे के मुकाबले में उलझी आशा कुमारी की सीट 2017 में जब जिला चम्बा की चार विधानसभा सीटों पर भाजपा ने फतेह हासिल की थी ,तब डलहौज़ी विधानसभा सीट एक मात्र ऐसी सीट थी जहाँ कांग्रेस को जीत मिली। परिसीमन बदलने से पहले डलहौज़ी विधानसभा सीट बनीखेत के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर कांग्रेस की दिग्गज आशा कुमारी का दबदबा रहा है। 1985 से अब तक आशा कुमारी यहाँ पांच बार विधायक रही है।1990 और 2007 में भाजपा इस सीट पर कमल खिलाने में कामयाब रही है। इस बार भी कांग्रेस ने आशा कुमारी को फिर मैदान में उतारा है जबकि भाजपा से डीएस ठाकुर मैदान में है। पिछले चुनाव के नतीजों पर यदि नजर डाले तो आशा कुमारी बेशक जीतने में कामयाब रही हो लेकिन जीत का अंतर बेहद कम रहा था। आशा कुमारी केवल 556 मतों से जीती थी। इस बार भी मुकाबला कांटे की टक्कर का माना जा रहा है। दिलचस्प बात ये है कि आशा कुमारी वो नाम है जो कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद के दावेदारों में से एक है। ऐसे में जाहिर है आशा कुमारी की सीट पर सबकी निगाहें टिकी है। बहरहाल नतीजा आठ दिसम्बर को आएगा और आशा कुमारी अपनी जीत को लेकर आशावान जरूर दिख रही है। चुराह : हंसराज के लिए मुश्किल हो सकती है विधानसभा की राह ! चुराह विधानसभा सीट पर इस बार कांग्रेस ने एक नए चेहरे यशवंत सिंह खन्ना को मैदान में उतारा है। जबकि अपने बयानों से चर्चा में रहने वाले विधानसभा उपाध्यक्ष और चुराह के सिटींग विधायक हंसराज भाजपा से एक बार फिर मैदान में है। परिसीमन बदलने से पहले चुराह विधानसभा सीट राजनगर के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को जनता का बराबर प्यार मिला है। 2012 में हंसराज पहली दफा मैदान में उतरे और जीत गए। 2017 में भी हंसराज ने ही रिपीट किया, लेकिन इस बार जीत की हैट्रिक लगती है या नहीं ये तो 8 दिसम्बर को ही पता चलेगा। बहरहाल जानकार मान रहे है कि पिछले दो चुनावों के उलट इस मर्तबा चुराह से विधानसभा की राह हंसराज के लिए मुश्किल हो सकती है। चम्बा : क्या पंद्रह साल बाद होगी कांग्रेस की वापसी ? चम्बा सदर सीट में इस बार बड़ा सियासी उलटफेर देखने को मिला है। कभी वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी रहे हर्ष महाजन अब भाजपा में शामिल हो चुके है। हर्ष महाजन 1993 से 2007 तक तीन बार चंबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे है। तीन दफा जीत की हैट्रिक लगाने के बाद महाजन ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के चुनावों का जिम्मा संभाला। तब से महाजन चुनावी राजनीति से दूर ही दिखे है तबसे अब तक चम्बा सदर सीट पर कांग्रेस को लगातार हार का सामना ही करना पड़ा है। अब चम्बा सदर सीट पर भाजपा का कब्ज़ा बरकरार रखना महाजन के लिए भी प्रतिष्ठता का सवाल है, लेकिन टिकट आवंटन के बाद भाजपा यहाँ बगावत को साधने में असफल साबित हुई है। इस बार भाजपा से नीलम नय्यर मैदान में है तो कांग्रेस से नीरज नय्यर तो उधर भाजपा की बागी इंदिरा कपूर भी मैदान में डटी है। भाजपा में लगे बगावती सुरो के बीच नीरज नय्यर को इसका लाभ मिलता दिख रहा है। हालांकि असल नतीजा आठ दिसम्बर को ही सामने आएगा। भटियात : जरियाल या कुलदीप, संशय बरकरार भटियात विधानसभा सीट पर पुराने प्रतिद्वंदी एक बार फिर आमने-सामने है। भाजपा से यहाँ विक्रम जरियाल मैदान में है, तो कांग्रेस से कुलदीप पठानिया। पिछले दो चुनावों के नतीजों पर गौर करे तो यहाँ विक्रम जरियाल कमल खिलाने में सफल रहे है। कुलदीप 2012 में सिर्फ 112 वोट से हारे थे, जबकि 2017 में ये अंतर सात हजार के करीब था। 2017 में चुनाव जीतने के बाद भाजपा विधायक विक्रम जरियाल को मंत्री पद का दावेदार भी माना जा रहा था, लेकिन भाजपा ने जिला से चुराह विधायक हंसराज को डिप्टी स्पीकर बनाया और जरियाल के हाथ खाली रहे। अब फिर जरियाल जीत की हैट्रिक लगाने को मैदान में है। इस बार भी यहाँ नजदीकी मुकाबला देखने को मिल रहा है। विक्रम जरियाल और कुलदीप पठानिया के बीच कांटे का मुकाबला हो सकता है।
हिमाचल की राजनीति में शिमला जिले का खूब दबदबा रहा है। प्रदेश को नौ बार मुख्यमंत्री देने वाला शिमला जिला सरकार बनाने और गिराने में अहम भूमिका निभाता आया है। इसी जिला शिमला से चुनाव जीतकर छ बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने तो तीन बार ठाकुर रामलाल की ताजपोशी हुई। जिला शिमला हमेशा कांग्रेस का गढ़ रहा है और आंकड़े बताते है कि शिमला जिले के आठ विधानसभा क्षेत्र किसी भी चुनाव में कांग्रेस के लिए एक मज़बूत कड़ी साबित होते आए है। इस चुनाव में भी कुछ ऐसा ही होता हुआ दिखाई दे रहा है। कांग्रेस की सत्ता वापसी के लिए फिर पार्टी की निगाहें इसी शिमला पर है। उधर, भाजपा साल दर साल शिमला में मजबूत जरूर होती आ रही है, लेकिन कांग्रेस के मुकाबले अब भी उन्नीस ही है। इसका बहुत बड़ा कारण स्व वीरभद्र सिंह रहे है जिनके रहते कांग्रेस का परचम हमेशा यहां लहराया। अब वीरभद्र सिंह के बाद भी होलीलॉज का रसूख बरकरार है, जो भाजपा के लिए यहां सबसे बड़ी चुनौती है। दिलचस्प बात ये है कि इस जिला की शिमला ग्रामीण सीट पर जहाँ पहले वीरभद्र सिंह और अब विक्रमादित्य सिंह मैदान में उतरते है, तो रामपुर और रोहड़ू में चेहरा कोई भी हो लेकिन वोट होलीलॉज के नाम पर ही मिलते है। अन्य पांच सीटों पर भी होलीलॉज का विशेष प्रभाव है जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। इस चुनाव में जहाँ कांग्रेस शिमला जिला में की हुई अपनी गलतियों को सुधारती नज़र आई है, वहीं भाजपा ने टिकट आवंटन के दौरान कुछ ऐसे बदलाव किये जो माहिरों को भी सोचने पर मजबूर कर गए। भाजपा ने इस जिले में भी मंत्री का टिकट बदला है और कई नए चेहरों पर भी दांव खेला है। भाजपा के गठन के बाद 1982 से 2017 तक हुए नौ विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डाले तो आठ बार शिमला जिला में कांग्रेस आगे रही है। सिर्फ 1990 के चुनाव में कांग्रेस को तीन और भाजपा-जनता दल गठबंधन को पांच सीटें मिली थी। दिलचस्प बात ये है कि तब पूरे प्रदेश में कांग्रेस को नौ सीटें मिली थी, जिनमें से तीन जिला शिमला से थी। 1982 में कांग्रेस को 6, 1985 में 8, 1993 और 1998 में 6 सीटें मिली। वहीं 2003 में कांग्रेस पांच और पार्टी के खिलाफ निर्दलीय लड़ने वाले दो कांग्रेस नेता चुनाव जीतने में कामयाब रहे। इसके बाद 2007 में कांग्रेस को पांच और 2012 में छ सीटें मिली। 2017 में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें जीत पाई, हालांकि जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भी कांग्रेस ने भाजपा से एक सीट हथिया ली। जुब्बल कोटखाई : शांगटा ने बदले समीकरण, कुछ भी मुमकिन जुब्बल कोटखाई वो निर्वाचन क्षेत्र है जहाँ सियासत सेब के इर्द गिर्द घूमती है। पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का अभेद किला रही जुब्बल कोटखाई सीट पर पिछले पांच चुनाव में कांग्रेस व भाजपा दोनों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर जीते, तो 2007 में पूर्व बागवानी मंत्री रहे नरेंद्र बरागटा ने इस सीट पर कब्ज़ा किया। 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर जनता ने कांग्रेस के रोहित ठाकुर को जुब्बल कोटखाई की सीट पर विजय बनाया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र बरागटा ने जीत हासिल की। नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद अक्टूबर 2021 में हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर को फिर जीत मिली। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में भी ये सिलसिला बरकरार रहता है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वर्तमान स्थिति की बात करें तो कांग्रेस से रोहित ठाकुर मैदान में है और चेतन बरागटा भी भाजपा में वापसी कर चुके है। भाजपा ने वापसी के बाद चेतन पर ही दांव खेला है। इस बार माकपा से विशाल शांगटा भी मैदान में है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने श्रीकांत चौहान को मैदान में उतारा है। बीते उपचुनाव में जुब्बल कोटखाई में जो करारी शिकस्त भाजपा को मिली है उसके चर्चे अब तक ठंडे नहीं हुए। उपचुनाव में सत्ता में होने के बावजूद भाजपा की जमानत जब्त हुई थी। दरअसल भाजपा ने चेतन बरागटा को टिकट नहीं दिया था और नाराज होकर चेतन ने समर्थकों सहित पार्टी से मुखालफत कर दी थी। नतीजन, वो नतीजा आया जो भाजपा भुलाना चाहती है। फिर भाजपा में चेतन की वापसी हुई और निसंदेह चेतन के आने से भाजपा में भी चेतना लौट आई है। इस बार जुब्बल कोटखाई में भाजपा एकजुट होकर चुनाव लड़ी है। अब देखना होगा क्या जुब्बल कोटखाई की जनता नरेंद्र बरागटा की तरह चेतन बरागटा पर भी भरोसा जताती है या नहीं। उधर, कांग्रेस ने इस बार भी रोहित ठाकुर को मैदान में उतारा है और रोहित ठाकुर फिर जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। लेकिन माकपा ने विशाल शांगटा को मैदान में उतार कर इस चुनाव को रोचक कर दिया है। माना जा रहा है कि अगर सरकार से खफा वोट में शांगटा ने सेंध लगाई है, तो ये चुनाव रोहित के लिए उतना आसान नहीं होने वाला। बहरहाल जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद रोचक होता दिख रहा है। इस कांटे के मुकाबले में कौन जीतता है ये तो आठ दिसंबर को तय होगा। शिमला ग्रामीण : विक्रमादित्य आश्वस्त, भाजपा के लिए चुनौती शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र साल 2008 में हुए पुनर्सीमांकन के बाद अस्तित्व में आया है। इसके बाद हुए दोनों चुनावों में यहां कांग्रेस की ही जीत हुई है। कहते है शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस से ज्यादा वीरभद्र परिवार का गढ़ रहा है। इस क्षेत्र में होलीलॉज का वर्चस्व खुलकर दिखाई देता है। साल 2012 में इस विधानसभा क्षेत्र से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में वीरभद्र सिंह ने भाजपा प्रत्याशी ईश्वर रोहाल को करीब 20 हजार वोटों से हराया था। इस आंकड़े से स्पष्ट होता है कि यहां वीरभद्र नाम पर ही वोट डाले जाते है। साल 2017 के चुनाव में वीरभद्र ने इस क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ा, कारण था विक्रमादित्य सिंह की चुनावी राजनीति में एंट्री करवाना। वीरभद्र जानते थे कि विक्रमादित्य को पहली बार चुनाव लड़वाने के लिए सबसे सुरक्षित सीट शिमला ग्रामीण ही होगी, इसलिए उन्होंने स्वयं इस सीट को विक्रमादित्य के लिए छोड़ा और स्वयं अर्की विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। विक्रमादित्य के सर पर पिता का आशीर्वाद तो था, मगर अपनी ही पार्टी की ओर से आ रही कड़ी चुनौतियां भी थी। परिवारवाद के नाम पर खड़े हो रहे सवाल और बढ़ता कलह उनके लिए समस्याएं खड़ी कर रहा था। इसके बावजूद भी वे चुनाव जीत गए। शिमला ग्रामीण सीट से पहली बार चुनाव लड़े 28 साल के विक्रमादित्य ने भाजपा के अनुभवी डॉ. प्रमोद शर्मा को करारी शिकस्त दी। विक्रमादित्य सिंह ने 28275 वोट मिले जबकि प्रमोद शर्मा को 23395 वोट मिले। इस बार भी विक्रमादित्य सिंह ही शिमला ग्रामीण से चुनाव लड़े है जबकि भाजपा ने टिकट बदल कर इस बार रवि मेहता को मैदान में उतारा है। रवि मेहता शोघी से संम्बंध रखते है और इस क्षेत्र में उनका होल्ड भी दिखाई देता है मगर अन्य क्षेत्रों में वो उतने सहज नहीं दिखाई देते। दरअसल शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र तीन दिशाओं में स्थित क्षेत्रों सुन्नी, धामी और शोघी में बंटा है। चुनाव जीतने के लिए हर क्षेत्र पर फोकस करना बेहद ज़रूरी है। शिमला ग्रामीण में भाजपा कितनी टक्कर दे पाती है ये तो 8 दिसंबर को ही स्पष्ट होगा, मगर दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव को बेहद रोचक बनाए रखा। पूरे प्रचार के दौरान दोनों हीप्र त्याशियों के बीच लगातार ज़ुबानी जंग छिड़ी रही। शिमला शहरी : जनारथा दिख रहे मजबूत, भाजपा ने चाय वाले को बनाया उम्मीदवार शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र वर्तमान शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज का गढ़ था। भारद्वाज इस क्षेत्र से चार बार चुनाव जीत चुके है। मगर इस बार भाजपा ने भारद्वाज का टिकट बदल कर उन्हें कसुम्पटी विधानसभा क्षेत्र भेज दिया। भारद्वाज ने कसुम्पटी से चुनाव लड़ा और शिमला शहरी से भाजपा ने एक नए चेहरे संजय सूद को मैदान में उतार दिया। "चाय वाला" यानी भाजपा प्रत्याशी संजय सूद के मैदान में होने से शिमला शहरी सीट के चर्चे प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में हुए। वहीं कांग्रेस ने भी पिछली बार की अपनी गलती को सुधारा और हरीश जनारथा को मैदान में उतारा। वहीं इस बार माकपा ने इस विधानसभा क्षेत्र से टिकेंद्र पंवार को मैदान में उतारा है। बीते विधानसभा चुनाव में इस विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने आनंद शर्मा के करीबी हरभजन भज्जी को टिकट दिया था। इस बात से नाराज़ होकर वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कांग्रेस नेता हरीश जनारथा ने बगावत की और जनारथा निर्दलीय तौर पर मैदान में उतर गए। केवल हरीश जनारथा ही इस टिकट आवंटन से असंतुष्ट नहीं थे, बल्कि कई पार्षद ओर कांग्रेस के कई कायकर्ता भी उनके साथ खड़े हो गए थे। इसके अलावा माकपा की ओर से शिमला नगर पालिका के पूर्व महापौर संजय चौहान भी मैदान में थे। इस चुनाव में जीत बीजेपी प्रत्याशी सुरेश भारद्वाज की हुई, हालांकि वे मामूली अंतर से जीते, जबकि दूसरे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी हरीश जनारथा रहे। सुरेश भारद्वाज को कुल 14,012 मत मिले, जबकि जनार्था को 12,109 मत मिले। तीसरे स्थान पर माकपा के संजय चौहान जबकि कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी सिर्फ 2680 मत पाकर चौथे स्थान पर रहे थे। बीते चुनाव में यहां कांग्रेस अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाई थी, मगर इस बार हालत बदले हुए है। भाजपा के लिए जीत की हैट्रिक लगा चुके है भारद्वाज शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का खासा प्रभाव देखने को मिला है। इस क्षेत्र में साल 1967 से 1982 तक चार बार दौलत राम विधायक रहे। इसके बाद 1985 में हुए चुनाव में इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी विधायक बने। साल 1990 में इस क्षेत्र से सुरेश भारद्वाज बतौर भाजपा प्रत्याशी पहली बार विधायक बने। साल 1993 में माकपा के तेज़तर्रार नेता राकेश सिंघा भी शिमला से विधायक रह चुके है। 1996 में हुए उपचुनाव में इस क्षेत्र में कांग्रेस की जीत हुई और आदर्श कुमार विधायक बने। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में भाजपा से नरेंद्र बरागटा की जीत हुई। साल 2003 में कांग्रेस ने एक बार फिर हरभजन सिंह भज्जी को टिकट दिया और वे ये चुनाव जीत गए। इसके बाद 2007 , 2012 और 2017 के चुनाव में लगातार भाजपा से सुरेश भारद्वाज ही विधायक चुन कर आते रहे है। रामपुर : राजपरिवार का जलवा बरकरार, कौल नेगी जीते तो रचेंगे इतिहास इस चुनाव में भाजपा ने रामपुर विधानसभा क्षेत्र में टिकट बदल युवा चेहरे कौल सिंह नेगी को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस ने भारी विरोध के बावजूद वर्तमान विधायक नंदलाल पर ही दांव खेला। नंदलाल को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी दिखी है, मगर उनके प्रचार का ज़िम्मा खुद राज परिवार ने संभाला था। वहीं कौल नेगी का प्रचार भी ज़बरदस्त रहा। आज तक भाजपा यहाँ नहीं जीती है और अगर कौल नेगी ये चुनाव जीतते तो इतिहास रचेंगे। दरअसल, रामपुर निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस का अभेद गढ़ रहा है। देश में आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाएं, तो यहां हमेशा कांग्रेस का परचम लहराया है। वहीं भाजपा की बात करें तो 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद से 9 चुनाव हुए है, लेकिन पार्टी को कभी यहां जीत का सुख नहीं मिला। पर बीते कुछ चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो कांग्रेस और वीरभद्र परिवार के इस गढ़ में पार्टी की जीत का अंतर कम जरूर हुआ है। 1990 की शांता लहर में भी कांग्रेस के सिंघीराम यहाँ से 11856 वोट से जीते थे, लेकिन 2017 आते -आते ये अंतर 4037 वोटों का रह गया। 1993 में कांग्रेस यहाँ 14478 वोट से जीती तो 1998 में जीत का अंतर 14565 वोट था। जबकि 2003 के चुनाव में ये अंतर बढ़कर 17247 हो गया। तीनों मर्तबा यहाँ से सिंघी राम ही पार्टी प्रत्याशी थे। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 4037 वोट का रहा। रामपुर में राजपरिवार ही कांग्रेस का चेहरा रामपुर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह का गृह क्षेत्र है। वीरभद्र सिंह यहां के राजा थे और राज परिवार के प्रति रामपुर की जनता हमेशा निष्ठावान रही है। उनके निधन के बाद उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह को भी जनता का उतना ही प्यार मिलता रहा है, जैसा वीरभद्र सिंह को मिलता था। यहाँ से चेहरा कोई भी हो पर यहाँ प्रभाव राजपरिवार का ही है। अलबत्ता ये क्षेत्र आरक्षित होने के चलते यहाँ से कभी भी राज परिवार खुद चुनाव नहीं लड़ सका, लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि वोट उन्हीं के चेहरे पर पड़ते है। 6 बार यहाँ से चुनाव जीत चुके सिंघीराम भी कभी वीरभद्र सिंह के करीबी थे, लेकिन दोनों में दूरियां बढ़ी तो राज परिवार का आशीर्वाद नंदलाल को मिला। इस बार भी कांग्रेस यहां से नंदलाल को मौका मिला है, जो राजपरिवार के करीबी माने जाते है और चुनाव में उन्हें राज परिवार का पूरा साथ भी मिलता दिखा है। चौपाल : बगावत ने बिगड़े कांग्रेस के समीकरण चौपाल सीट के पिछले चार चुनावों के नतीजों का आंकलन किया जाए तो इस सीट पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला रहा है। कभी यहां बीजेपी की उम्मीदवार की जीत हुई तो कभी कांग्रेस की। चौपाल एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जहाँ निर्दलीय नेताओं का भी खूब प्रभाव देखने को मिला है। यहां जातिगत या दलगत राजनीति के बजाये व्यक्तित्व खास मायने रखता है। साल 1993 के बाद से हुए हर चुनाव में यहां एक बार निर्दलीय तो एक बार किसी पार्टी प्रत्याशी को जीत मिली है। साल 1993 में इस सीट से कांग्रेस नेता योगेंद्र चंद ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गए। उसके बाद 1998 में योगेंद्र चंद्र की कांग्रेस में वापसी हुई और वे ही बतौर कांग्रेस प्रत्याशी ये चुनाव जीते। वर्ष 2003 में चौपाल से निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष चंद मंगलेट ने कांग्रेस प्रत्याशी योगेंद्र चंद्र शिकस्त दी। 2007 में सुभाष की कांग्रेस में एंट्री हुई और उन्होंने भाजपा के दिग्गज डा. शास्त्री को पटकनी देकर चुनाव जीत लिया। 2012 के चुनावों में भाजपा ने टिकट बदल कर एडवोकेट सीमा मेहता को दिया, जबकि कांग्रेस ने एक बार फिर से मंगलेट पर ही दांव खेला। इसके बाद दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों के समीकरण को ठियोग के पूर्व विधायक राकेश वर्मा के चचेरे भाई बलवीर वर्मा ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर बिगाड़ के रख दिया व कांग्रेस प्रत्याशी डा. मंगलेट को पटकनी दे दी। साढ़े चार साल तक कांग्रेस का एसोसिएट सदस्य रहने के बाद वर्मा ने पलटी मारकर चुनावों से ठीक पहले भाजपा का दामन थाम लिया व 2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा का टिकट भी हासिल कर चुनाव जीत लिया। अब इस बार यहाँ कांग्रेस ने रजनीश खिमटा को मैदान में उतारा है तो भाजपा ने बलवीर वर्मा को। वहीं कांग्रेस से टिकट न मिलने पर नाराज़ हुए पूर्व विधायक सुभाष मंगलेट भी मैदान में है। कांग्रेस टिकट न मिलने पर मंगलेट ने सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी जमकर जाहिर की है। मंगलेट ने कांग्रेस पर टिकटों की खरीद फरोख्त का भी इल्जाम लगाया। टिकट काटने के चलते मंगलेट को चौपाल में खूब सहानुभूति मिलती दिखी है, लेकिन कांग्रेस का बागी मैदान में होने के चलते यहां भाजपा सहज दिखाई देती है। ठियोग : बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा की प्रतिष्ठता दाव पर ठियोग कांग्रेस की दिग्गज नेता विद्या स्टोक्स का निर्वाचन क्षेत्र रहा है। हिमाचल प्रदेश में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बहू विद्या स्टोक्स को ठियोग ही नहीं, बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सम्मान की नजर से देखा जाता रहा है। शिमला जिला में अगर आज सेब की पैदावार होती है, तो यह स्टोक्स परिवार की ही देन है। ठियोग में हुए 1952 से अब तक के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 10 दफा जीत हासिल की है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने एक बार, जनता पार्टी ने एक बार और तीन बार निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव में बाजी मारी है। ठियोग में कांग्रेस की कद्दावर नेता रहीं विद्या स्टोक्स को क्षेत्रीय राजनीति में अपनी पकड़ के लिए जाना जाता है। उन्होंने यहां से 1982, 1985, 1990, 1998 और 2012 में पांच बार चुनाव जीता है। हालाँकि साल 2017 का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा। दरअसल कांग्रेस ने तो विद्या को टिकट दिया मगर उनका नामांकन पत्र अधूरा होने के कारण उसे रद्द कर दिया गया था। विद्या स्वयं ही चुनाव लड़ने के मूड में नहीं थी जिसका कारण उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य को बताया। विद्या का नाम कटने के बाद कांग्रेस ने दीपक राठौड़ को चुनावी मैदान में उतारा, जिन्हे राहुल गांधी के करीबी माना जाता है। इस चुनाव में माकपा के राकेश सिंघा ने भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों को पछाड़ कर जीत हासिल की और विधानसभा में एकलौते माकपा विधायक बन पहुंचे। इस चुनाव में भी ये सीट प्रदेश की वीआईपी सीटों में से एक रही। यहां कांग्रेस ने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर को मैदान में उतारा जबकि कुछ समय पहले कांग्रेस में शामिल हुई भाजपा के पूर्व प्रत्याशी स्वर्गीय राकेश वर्मा की पत्नी इंदु वर्मा बतौर निर्दलीय मैदान में उतरी है। दरअसल इंदु वर्मा ने चुनाव से कुछ समय पहले ही कांग्रेस ज्वाइन की और उन्हें उम्मीद थी की पार्टी टिकट उन्हें ही मिलेगा, मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके बाद इंदु बतौर निर्दलीय मैदान में उतरी। यहां भाजपा ने नए चेहरे अजय श्याम पर दांव खेला है तो माकपा से एक बार फिर राकेश सिंघा ही मैदान में है। यहाँ बहुकोणीय मुकाबला है, पर रिवाज बदलने का दावा कर रही भाजपा के सामने यहाँ चुनौती ये है कि नतीजा जो भी हो सम्मानजनक हो। रोहड़ू : मोहन लाल की नजर हैट्रिक पर हिमाचल प्रदेश की रोहड़ू सीट को वीरभद्र सिंह की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है। इस सीट के आरक्षित होने के बाद वीरभद्र खुद तो इस सीट पर चुनाव नहीं लड़ पाए, लेकिन उनका प्रभाव हमेशा रोहड़ू पर बरकरार रहा। शिमला जिले के रोहड़ू ने हिमाचल को दो बार मुख्यमंत्री दिए हैं। वीरभद्र सिंह ने वर्ष 1990 से लेकर 2007 तक लगातार पांच बार इस सीट पर जीत दर्ज की थी। इसके बाद ये सीट आरक्षित हो गई और वीरभद्र ने 2012 का चुनाव शिमला ग्रामीण से लड़ा। रोहड़ू विधानसभा क्षेत्र आरक्षित होने के बाद कांग्रेस ने यहां मोहन लाल ब्राक्टा को टिकट दिया और वे रिकार्ड मत लेकर जीते। साल 2017 में भी रोहड़ू से मोहन लाल ब्राक्टा की ही जीत हुई। बीते चालीस साल में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी 2009 के उपचुनाव में। वर्तमान परिस्थिति की बात करें तो इस बार इस विधानसभा क्षेत्र से कुल 6 प्रत्याशी मैदान में है। कांग्रेस से मोहन लाल ब्राक्टा एक बार फिर मैदान में है। ब्राक्टा होलीलॉज के करीबी है और क्षेत्र में उनको लेकर कोई ख़ास एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिखती। वहीं भाजपा ने इस बार फिर से शशि बाला पर भरोसा जताया है। बता दें की शशि बाला पिछले चुनाव करीब दस हज़ार मतों से हारी थी। यहां बसपा प्रत्याशी प्रकाश, आप प्रत्याशी अश्वनी कुमार और आरडीपी प्रत्याशी नरेंद्र सिंह भी मैदान में है। इनके अलावा निर्दलीय प्रत्याशी राजेंद्र धीरटा भी मैदान में है। इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला कांग्रेस, भाजपा और निर्दलीय प्रत्याशी के बीच दिखाई दे रहा है। कुसुम्पटी : सहज दिख रही कांग्रेस, भारद्वाज के लिए प्रतिष्ठता का सवाल ! कुसुम्पटी में लगातार चार चुनाव हार चुकी भाजपा ने इस बार अपने दिग्गज नेता सुरेश भारद्वाज को मैदान में उतारा है। भाजपा के इस बड़े बदलाव ने सभी को चौका कर रख दिए था। दरअसल इस क्षेत्र में पार्टी के पास किसी दमदार चेहरे का अभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था। आखिरी बार रूप दास कश्यप ने यहां 1998 में भाजपा को जीत दिलाई थी, लेकिन 2003 में रूप दास कश्यप करीब तीन हजार वोट के अंतर से हार गए। तब निर्दलीय सोहन लाल ने जीत दर्ज की थी। ये आखिरी मौका था जब भाजपा कुसुम्पटी में मुकाबले में दिखी। इसके बाद हुए तीन चुनाव में भाजपा तीन उम्मीदवार बदल चुकी है और तीनों बार पार्टी को शिकस्त मिली है। 2007 में पार्टी ने तरसेम भारती को टिकट दिया लेकिन भारती करीब साढ़े सात हजार के अंतर से हारे। 2012 में भाजपा ने प्रेम सिंह को और 2017 में विजय ज्योति को मैदान में उतारा और दोनों करीब दस हजार के अंतर से हारे। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस ने अनिरुद्ध सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया। इस बार भी विजय ज्योति सेन को यहां से टिकट मिलने की उम्मीद थी मगर भाजपा ने सुरेश भाद्वाज को मैदान में उतारा है। भारद्वाज भाजपा के वरिष्ठ नेता है और चार बार विधायक रह चुके है। उनके कसुम्पटी शिफ्ट होने पर कुछ कार्यकर्ताओं में नाराज़गी जरूर थी, मगर सभी को मना लिया गया। अब भारद्वाज यहां कैसा परफॉर्म करते है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर से अनिरुद्ध सिंह को ही मैदान में उतारा है। अनिरुद्ध सिंह का सरल स्वभाव भी लोगों को पसंद है और वे लगातार जनता के बीच भी रहे है। अनिरुद्ध ने इस बार भी चुनाव पूरे दमखम से लड़ा है और कांग्रेस इस क्षेत्र में सहज दिखाई दे रही है।
हिमाचल प्रदेश की सियासत में जिला हमीरपुर बेहद ही अहम और खास माना जाता है। इसका बड़ा कारण है कि ये प्रदेश की सियासत में बड़ा कद रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल का गृह जिला है, साथ ही केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का संसदीय क्षेत्र भी है। इसलिए जिला हमीरपुर सियासी मायनों में भाजपा के लिए काफी खास है। पिछले चुनाव में जिला हमीरपुर की पांच सीटों में से तीन पर कांग्रेस का राज रहा, तो दो विधानसभा सीटों पर भाजपा का। इस बार जिला हमीरपुर में भाजपा की परफॉरमेंस भाजपा के दिग्गज नेताओं की साख का सवाल है तो कांग्रेस के लिए भी तख़्त और ताज बदलने के लिहाज़ से हमीरपुर अहम माना जा रहा है क्योंकि कांग्रेस में सीएम फेस की लिस्ट में शामिल सुखविंदर सिंह सुक्खू हमीरपुर जिला से आते है। बहरहाल हमीरपुर की पाँचों सीटों पर किसको सत्ता का सुख मिलता है, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। 2017 के विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी खबर थी भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल का चुनाव हारना। तब धूमल सुजानपुर से चुनाव लड़े थे और राजेंद्र राणा से हार गए थे। हालांकि इससे पिछले चुनाव धूमल हमीरपुर सीट से लड़े थे, लेकिन बावजूद इसके उनकी सीट बदलकर उन्हें सुजानपुर से चुनाव लड़वाया गया। ये भाजपा की रणनीति थी या माजरा कुछ और था, इसे लेकर अब तक कयासबाजी होती है। बहरहाल तब धूमल के हारने से हमीरपुर को तीसरी बार मुख्यमंत्री मिलते-मिलते रह गया। इस बार के चुनाव में बड़ी चर्चा रही प्रो प्रेम कुमार धूमल का चुनाव न लड़ना। धूमल साहब ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया, कारण क्या रहे ये अंदर की बात है। बहरहाल धूमल चुनाव नहीं लड़े, एक जनसभा में अनुराग भावुक हो गए और पुरे चुनाव में धूमल निष्ठावानों के चेहरे उनके मैदान में न होने से लटके रहे। बावजूद इसके अगर भाजपा जिला हमीरपुर में अच्छा प्रदर्शन करती है, तो तारीफ तो करनी होगी। भोरंज : भाजपा की बगावत के बीच कांग्रेस को आस भोरंज विधानसभा क्षेत्र उन विधानसभा क्षेत्रों में शुमार है जहां दशकों से भाजपा का राज रहा है। भोरंज सीट कभी मेवा नाम से जानी जाती थी और परिसीमन बदलने के बाद इस क्षेत्र को भोरंज का नाम दिया गया। इस सीट का इतिहास रहा है कि यहाँ कांग्रेस वर्षों से अपना खाता नहीं खोल पाई है। 1985 में चौधरी धर्मचंद कांग्रेस के विधायक बने थे। तब से अब तक यहां भाजपा का एकछत्र राज रहा। 1990 से लेकर 2012 तक आईडी धीमान ने लगातार जीत दर्ज की। 2016 में धीमान के निधन के बाद यहां उपचुनाव हुआ और उनके बेटे डा.अनिल धीमान को चुनाव लड़वाया गया और लगभग एक साल वे विधायक रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में अनिल धीमान को भाजपा ने टिकट नहीं दिया और यहां से महिला प्रत्याशी कमलेश कुमारी को मैदान में उतारा। कमलेश ने जीत दर्ज कर फिर भोरंज में कमल का फूल खिलाया। इस बार भाजपा ने कमलेश कुमारी का टिकट काटकर एक बार फिर धीमान परिवार को तवज्जो दी है और डॉ अनिल धीमान फिर मैदान में है। कांग्रेस से सुरेश कुमार मैदान में है। सुरेश कुमार तीन बार इस सीट पर चुनाव हार चुके है, लेकिन अगर इस बार परिवारवाद का मुद्दा चलता है तो सुरेश कुमार को इसका लाभ मिल सकता है। वहीं भाजपा के बागी पवन कुमार के मैदान में होने से भी कांग्रेस आशावान है। बहरहाल भोरंज में रिवाज बदलता है या बरकरार रहता है ये तो 8 दिसम्बर को ही पता चलेगा। सुजानपुर : क्या फिर आएगा चौंकाने वाला नतीजा ! परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई सुजानपुर विधानसभा सीट का पिछले चुनाव बेहद रोचक रहा था। 2017 में इस सीट से भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रेम कुमार धूमल मैदान में थे और इस सीट के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले रहे थे। दरअसल, तब मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रेम कुमार धूमल को राजेंद्र राणा से हार का सामना करना पड़ा था। इस बार फिर कांग्रेस से राजेंद्र राणा मैदान में है, लेकिन भाजपा ने इस दफा कैप्टेन रंजीत सिंह राणा को मैदान में उतारा है। रंजीत सिंह राणा के लिए खुद धूमल मोर्चा संभालते हुए नज़र आये है। बेशक धूमल खुद चुनावी दंगल में नहीं उतरे है, लेकिन धूमल का अपना जनाधार है और जाहिर है कि इसका लाभ कैप्टेन को मिल सकता है। उधर, राजेंद्र राणा ने भी दमखम से चुनाव लड़ा है और जाहिर है खुद धूमल को हारने के बाद तो उन्हें हल्का आंकना भूल हो सकती है। ऐसे में जाहिर है कांग्रेस इस सीट पर जीत को लेकर आश्वस्त है। पर खुद धूमल का यहाँ जमकर प्रचार करना क्या रंग लाएगा, ये भी देखना दिलचस्प होगा। ऐसे में जानकार मान रहे है कि इस बार सुजानपुर विधानसभा सीट पर नतीजे फिर चौंकाने वाले हो सकते है। हमीरपुर : कभी नहीं जीते निर्दलीय, क्या इस बार बनेगा इतिहास ? हमीरपुर विधानसभा सीट भाजपा का गढ़ मानी जाती है। भाजपा के गठन के बाद इस विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने केवल दो बार जीत हासिल की है। 1995 के उपचुनाव में और 2003 के विधानसभा चुनाव में अनीता वर्मा ने ये सीट कांग्रेस की झोली में डाली थी। बाकी हर बार भाजपा ने ही जीत का परचम लहराया है। पिछले चुनाव में भाजपा के नरेंद्र ठाकुर ने 25,854 वोट हासिल कर कांग्रेस के कुलदीप सिंह पठानिया को 18,623 वोटों पर सिमटते हुए मात दी थी। अब भाजपा ने एक बार फिर नरेंद्र ठाकुर पर भरोसा जताया है। जबकि कांग्रेस में अंत तक इस सीट पर टिकट को लेकर पेंच फंसा रहा। दरअसल इस बार निर्दलीय मैदान में रहे आशीष शर्मा के मैदान में होने से सियासी समीकरण पूरी तरह से बदल गए है। आशीष शर्मा पहले कांग्रेस में शामिल हुए और दो दिन बाद आशीष ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और फिर कांग्रेस ने पुष्पिंदर वर्मा पर विश्वास जताया। इस दफा हमीरपुर विधानसभा सीट पर फिर कमल खिलता है या कांग्रेस कोई कमाल करती है या फिर निर्दलीय बाज़ी मारते है, ये तो नतीजे आने के बाद ही तय होगा। फिलवक्त इतना जरूर कहा जा सकता है कि हमीरपुर सीट से पहली बार किसी निर्दलीय के चुनाव जीतने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। बड़सर : लखनपाल की निगाह हैट्रिक पर बड़सर विधानसभा सीट वो सीट है जहाँ अक्सर बगावत के कारण राजनितिक दलों को हार का ही सामना करना पड़ा है। इस बार फिर समीकरण ऐसे ही बनते नज़र आ रहे है। इतिहास की बात करे तो बड़सर विधानसभा सीट कभी नदौनता नाम से जानी जाती थी। 1998 से 2007 तक इस सीट पर भाजपा का कब्ज़ा रहा है। 2012 में कांग्रेस के इंद्रदत्त लखनपाल ने लम्बे अंतराल के बाद इस सीट को कांग्रेस के नाम किय। 2017 में फिर इंद्रदत्त लखनपाल ने बड़सर विधानसभा सीट पर जीत हासिल की। इस बार फिर कांग्रेस से इंद्रदत्त लखनपाल मैदान में है। भाजपा से टिकट के प्रबल दावेदार माने जा रहे राकेश बबली के आकस्मिक निधन के बाद भाजपा ने पूर्व विधायक बलदेव शर्मा की पत्नी माया शर्मा को मैदान में उतारा है। जबकि भाजपा से टिकट की मांग कर रहे राकेश बबली के भाई संजीव बबली ने टिकट न मिलने पर इस बार निर्दलीय ताल ठोकी है। निसंदेह बलदेव शर्मा की क्षेत्र में पकड़ है जिसका लाभ माया शर्मा को मिल सकता है, लेकिन संजीव बबली के मैदान में होने से भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है। ऐसे में जाहिर है कि इसका सीधा लाभ कांग्रेस के इंद्रदत्त लखनपाल को मिलता दिख रहा है। इस बार इंद्रदत्त लखनपाल जीत की हैट्रिक लगा पाते है या नहीं ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। नादौन : सुक्खू आश्वस्त, जीते तो चौथी बार पहुंचेंगे विधानसभा नादौन विधानसभा सीट उन चुनिंदा विधानसभा सीटों में से एक है जहाँ के चुनावी नतीजों को लेकर इस बार प्रदेश में सबकी नज़रे टिकी हुई है। दरअसल, नादौन कांग्रेस के दिग्गज नेता सुखविंदर सिंह सुक्खू की विधानसभा सीट है। इस बार सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी सीएम कैंडिडेट के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। भाजपा ने इस बार फिर विजय अग्निहोत्री को ही मैदान में उतारा है, जबकि आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने भी पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। पिछले कुछ चुनावी नतीजों पर नज़र डाले तो 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू जीत तीन बार जीत चुके है, केवल 2012 के विधानसभा चुनाव में विजय अग्निहोत्री ने सुखविंदर सिंह सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हराया था। इस बार फिर सुक्खू जीत को लेकर आश्वस्त है। सनद रहे कि सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है और इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनदेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे है।
प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार सिरमौर से ही ताल्लुख रखते थे और इसीलिए हिमाचल प्रदेश की सियासत में जिला सिरमौर का ख़ास स्थान रहा है। इस बार सिरमौर जिला में हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने का मुद्दा खूब गर्माया है। सिरमौर की सियासत में हाटी फैक्टर का कितना इम्पैक्ट रहता है ये तो 8 दिसम्बर को ही तय होगा। बहरहाल इतना ज़रूर है कि इस बार जिला कि पाँचों विधानसभा सीटों पर मुकाबला रोचक होना तय है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और शिमला सांसद सुरेश कश्यप इसी जिला से है, यहाँ से जयराम सरकार में एक कैबिनेट मंत्री भी है और दिग्गज नेता डॉ राजीव बिंदल भी अब सिरमौर को कर्मभूमि बना चुके है। ऐसे में भाजपा यहाँ बेहतर करने की उम्मीद में है। उधर, कांग्रेस भी सिरमौर में बेहतर कर सत्ता वापसी की जुगत में है। भाजपा ने भुनाया हाटी का मुद्दा हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के फैसले से चार विधानसभा क्षेत्रों में सीधा असर है। इस फैसले से पच्छाद की 33 पंचायतों और एक नगर पंचायत के 141 गांवों के कुल 27,261 लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 21,594 लोग एसटी में नहीं होंगे। रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के 40,317 संबंधित लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 29,990 लोग बाहर होंगे। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोग इसमें शामिल होंगे। 30,450 एससी के लोग इससे बाहर रहेेंगे। शिलाई में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोगों को यह लाभ मिलेगा। एससी के 30,450 लोग यहां एसटी में नहीं होंगे। पांवटा में 18 पंचायतों के 31 गांवों के 25,323 लोग शामिल होंगे। यहां एससी के 9,406 लोग एसटी के दायरे से बाहर रहेंगे। इस मुद्दे को भाजपा ने चुनाव में जमकर भुनाने की कोशिश की है। बाकायदा सतौन में गृह मंत्री अमित शाह का कार्यक्रम आयोजित करवाया गया। पर इसका कितना चुनावी लाभ भाजपा को मिला, ये तो नतीजे ही तय करेंगे। 2017 में तीन सीटें जीती थी भाजपा सिरमौर की पांच सीटों में से तीन पर 2017 में भाजपा को जीत मिली थी। इनमें नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीटें शामिल थी। जबकि शिलाई और रेणुकाजी सीटें कांग्रेस के खाते में गई। इस बार भी यहाँ कड़ा मुकाबला तय है। आम आदमी पार्टी के आने से भी यहाँ रोचक मुकाबला होने की उम्मीद है। नाहन : बिंदल का कड़ा इम्तिहान, नजदीकी मुकाबला तय जिला सिरमौर की नाहन सीट कभी कांग्रेस का गढ़ थी। 2012 से पहले इस सीट पर भाजपा को कभी जीत नहीं मिली थी, हालांकि इसी विचारधारा की श्यामा शर्मा ने 1977 में जनता पार्टी और 1990 में जनता दल के टिकट पर ये सीट जीती, लेकिन भाजपा टिकट पर कोई उम्मीदवार कभी नहीं जीत पाया। डॉ वाईएस परमार के पुत्र कुश परमार यहाँ से 1993 , 1998 और 2007 में तीन बार जीते। 2003 में ये सीट लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में गई। फिर आया वर्ष 2012 और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजीव बिंदल ने पहली बार नाहन में कमल खिलाया। दिलचस्प बात ये रही कि डॉ बिंदल सोलन से तीन बार विधायक रहने के बाद नाहन चुनाव लड़ने आएं क्योंकि सोलन सीट आरक्षित हो गई थी। चुनाव से कुछ दिन पहले ही बिंदल नाहन पहुंचे लेकिन उनकी बेमिसाल चुनाव मैनेजमेंट के आगे कांग्रेस और कुश परमार पस्त हो गए। 2017 में भी बिंदल ही चुनाव जीते और उनका मुकाबला तब अजय सोलंकी से हुआ। सोलंकी ने बिंदल को अच्छी टक्कर जरूर दी लेकिन जीत नहीं पाएं। इस बार फिर बिंदल और कांग्रेस के अजय सोलंकी इस सीट पर आमने -सामने है। मतदान हो चुका है और इस बार किसने बाजी मारी है, ये आठ दिसंबर को पता चलेगा। जानकार मानते है कि इस बार आम आदमी पार्टी और राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी की मौजूदगी ने थोड़ा ही सही लेकिन नाहन के समीकरण प्रभावित जरूर किये है। ऐसे में यहाँ का मुकाबला बेहद कड़ा है। नाहन में अल्पसंख्यक वोट भी खासी तादाद में है और इस बार ये वोट किसके पक्ष में गया है, ये भी नतीजे के लिहाज से निर्णायक होगा। वहीं प्रदेश में सत्ता विरोधी माहौल और कर्मचारी फैक्टर के चलते भी इस बार कांग्रेस आशावान है। हालांकि डॉ राजीव बिंदल के चुनाव मैनेजमेंट को हलके में नहीं लिया जा सकता, पर ये तय है कि इस बार के चुनाव ने संभवतः बिंदल की सबसे कठिन परीक्षा ली है। पच्छाद : जीत -हार की भविष्यवाणी करने से माहिर भी बच रहे है कभी कांग्रेस का गढ़ रही पच्छाद सीट पर इस बार बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है। खास बात ये है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे गंगूराम मुसाफिर इस बार भगावत करके बतौर निर्दलीय मैदान में है। सात बार विधायक रहे गंगूराम पिछले तीन चुनाव हार चुके है जिसके बाद कांग्रेस ने इस बार दयाल प्यारी को टिकट दिया। ये निर्णय गंगूराम को रास नहीं आया और वे निर्दलीय मैदान में कूद पड़े। उधर, भाजपा ने सीटिंग विधायक रीना कश्यप पर ही फिर भरोसा जताया है। वहीं, राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी दमकम से चुनाव लड़ यहाँ के समीकरणों को उलझा दिया है। बहरहाल इस सीट पर कौन जीतेगा इसकी भविष्यवाणी करने से बड़े -बड़े माहिर भी बचते दिख रहे है। नतीजे के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा और इस बहुकोणीय मुकाबले में कोई भी बाजी मार सकता है। अतीत पर निगाह डाले तो 1982 में इस सीट से गंगूराम मुसाफिर पहली बार निर्दलीय चुनाव लड़ विधानसभा पहुंचे थे। तब से 2007 तक गंगूराम लगातार सात चुनाव जीते लेकिन अगले दो विधानसभा चुनाव और 2019 का उपचुनाव हार गए। तब उपचुनाव में भाजपा ने एक युवा महिला नेता को टिकट के काबिल समझा और रीना कश्यप को पच्छाद उपचुनाव में जीत मिली। हालांकि भाजपा से बागी उम्मीदवार दयाल प्यारी भी मैदान में थी, पर वो भी गंगूराम के काम नहीं आई। पर दयाल प्यारी ने 11698 मत लेकर अपनी ताकत का अहसास जरूर करवाया। इसके बाद दयाल प्यारी कांग्रेस में चली गई। तब से ही मुसाफिर और दयाल प्यारी के बीच तल्खियां दिखती रही। अब दोनों चुनावी मैदान में आमने -सामने है और इनके बीच भाजपा की रीना कश्यप फिर विधानसभा पहुंचने की आस में है। पांवटा साहिब : कांग्रेसी और पूर्व कांग्रेसी की खींचतान में सुखराम आश्वस्त 2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आए इस विधानसभा क्षेत्र में फिलवक्त भाजपा का कब्ज़ा है। बीते चुनाव में यहां से भाजपा सरकार में मंत्री सुखराम चौधरी ने कांग्रेस उम्मीदवार किरनेश जंग को करीब 12 हज़ार वोटों से हराया था। इससे पहले साल 2012 में किरनेश जंग बतौर निर्दलीय चुनाव लड़े थे और उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों को पटकनी दी थी। दरअसल 2012 के चुनाव में कांग्रेस से टिकट न मिलने पर उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा था व भाजपा प्रत्याशी सुखराम चौधरी को 790 मतों से हराया था। इस बार भी यहाँ भाजपा ने सुखराम चौधरी और कांग्रेस ने किरनेश जंग को टिकट दिया है। वहीँ कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में गए युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मनीष ठाकुर भी मैदान में है। साथ कई निर्दलीय भी इस सीट के समीकरण उलझा रहे है। जयराम सरकार में ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट पर अपनी जीत का दावा कर रहे है। दरअसल सम्भवतः सुखराम को उम्मीद है कि मनीष ठाकुर फैक्टर यहाँ उनके लिए संजीवनी सिद्ध होगा और वे एक कांग्रेसी और एक पूर्व कांग्रेसी की खींचतान में चुनाव जीत जायेंगे। ये मुमकिन भी है लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि क्षेत्र में उनको लेकर एंटी इंकम्बैंसी भी है। अब कौन से समीकरण किस पर भारी पड़ते है, ये देखना रोचक होने वाला है। शिलाई : हाटी फैक्टर से भाजपा को आस शिलाई विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है।1972 से लेकर 1985 तक यहाँ कांग्रेस का ही कब्ज़ा रहा है। 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता दल के जगत सिंह नेगी ने कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान को हरा कर शिलाई सीट पर कब्ज़ा किया। 1993 से 2007 तक कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान ने इस सीट पर सत्ता का सुख भोगा। 2007 के चुनाव में तो भाजपा के बलदेव तोमर की जमानत तक जब्त हुई। पर 2012 के चुनाव आए तो भाजपा ने फिर बलदेव तोमर पर भरोसा जताया और तोमर ने हर्षवर्धन चौहान को परास्त कर शिलाई सीट पर कमल खिलाया। 2017 में फिर हर्षवर्धन चौहान को जीत मिली। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में दशकों से एक ही परिवार कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहा है। 7 बार हर्षवर्धन चौहान के पिता गुमान सिंह चौहान तथा पांच बार खुद हर्षवर्धन चौहान शिलाई विधानसभा क्षेत्र के विधायक रह चुके हैं। इस बार फिर कांग्रेस से हर्षवर्धन चौहान ही मैदान में है और भाजपा ने बलदेव तोमर को मैदान में उतारा है। इस सीट पर जहां कांग्रेस के लिए जीत बरकरार रखना साख का सवाल है तो भाजपा वापसी करने की हरसंभव कोशिश में है। यहां हाटी फैक्टर को भी जहन में रखना ज़रूरी है क्योंकि शिलाई विधानसभा क्षेत्र का काफी हिस्सा गिरिपार क्षेत्र में आता है। बलदेव तोमर ने इस मुद्दे को प्रचार के दौरान जनता के बीच जोरशोर से भुनाया है। अब देखना ये होगा की क्या कांग्रेस अपनी परंपरागत सीट पर कब्जा बरकरार रख पाती है या 2012 की तरह बलदेव तोमर इस बार कमल खिलाने में कामयाब होते है। इस बार शिलाई विधानसभा सीट पर कांटे का मुकाबला होना तय है। रेणुका जी : हाटी और एंटी इंकम्बैंसी विनय की राह में रोड़ा रेणुका जी विधानसभा सीट के इतिहास की बात करें तो यह सीट 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई। 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विनय कुमार ने बीजेपी के बलवीर सिंह को 5,160 वोटों के मार्जिन से हराया। इससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विनय कुमार ने बीजेपी के हिरादा राम को 655 मतों से हराया था। इस बार भी कांग्रेस ने विनय कुमार को ही मैदान में उतारा है जबकि भाजपा ने इस बार नए चेहरे को मैदान में उतारा है। यहां भाजपा ने बलबीर चौहान का टिकट काटकर नारायण चौहान को टिकट दिया है। हाटी जनजातीय मुद्दे के बाद क्षेत्र के सियासी समीकरण बदले हैं। रेणुका विधानसभा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा गिरिपार क्षेत्र में आता है। गिरीपार क्षेत्र में क्षेत्र को जनजातीय दर्जा देने की मांग कर रही हाटी समिति ने भी इस बार भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार किया है। हालांकि समय-समय पर यहां विरोध के स्वर भी उठते रहे हैं। अब हाटी फैक्टर का कितना असर रेणुका जी में देखने को मिलता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। रेणुका जी विधानसभा सीट में विनय कुमार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी भी दिखी है। ऐसे में यहाँ विनय कुमार की राह मुश्किल हो सकती है।
बेशक जिला किन्नौर में सिर्फ एक ही विधानसभा सीट है लेकिन यहां का सियासी रोमांच किसी अन्य जिला से कमतर बिलकुल नहीं है। इस बार भी विधानसभा चुनाव में यहाँ भरपूर रोमांच देखने को मिला है। कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ जमकर खींचतान दिखी ही। कांग्रेस में जहाँ सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट अंतिम समय तक लटका रहा, तो भाजपा ने पूर्व विधायक तेजवंत नेगी का टिकट काटकर युवा सूरत नेगी को मैदान में उतारा। खफा होकर तेजवंत भी चुनावी समर में कूद गए और इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और किन्नौर सीट पर सबकी निगाह है। युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष निगम भंडारी भी किन्नौर से कांग्रेस का टिकट मांग रहे थे। पर कांग्रेस के लिए सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट काटना आसान नहीं था। जैसा अपेक्षित था वैसा ही हुआ, कांग्रेस ने निगम भंडारी को मना लिया और जगत सिंह फिर मैदान में है। वहीँ भाजपा ने पिछला चुनाव 120 वोट से हारे तेजवंत की जगह इस बार सूरत नेगी को मौका दिया। पर तेजवंत ने निर्दलीय चुनाव लड़कर पार्टी की परेशानी बढ़ा दी। तेजवंत को लेकर सहानुभूति भी दिखी लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि तेजवंत ने सिर्फ भाजपा के वोट में ही सेंध लगाई है। यानी मुकाबला दिलचस्प है। सिर्फ ठाकुर सेन नेगी लगा सके है हैट्रिक किन्नौर के चुनावी इतिहास पर नज़र डाले तो अब तक सिर्फ ठाकुर सेन नेगी ही जीत की हैट्रिक लगा सके है। ठाकुर सेन नेगी 1967 से 1982 तक लगातार चार चुनाव जीते। दिलचस्प बात ये है कि वे तीन बार निर्दलीय और एक बार लोकराज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते। फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और एक बार 1990 में भाजपा टिकट से भी जीतने में कामयाब हुए। ठाकुर सेन नेगी के अलावा जगत सिंह नेगी ही इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने लगातार दो चुनाव जीते हो। इस बार क्या जगत सिंह नेगी हैट्रिक लगा पाएंगे, ये देखना रोचक होगा। कांग्रेस जीती तो जगत नेगी को मिलेगा अहम जिम्मा किन्नौर से यदि जगत सिंह नेगी जीत दर्ज करते है और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है तो नेगी को अहम जिम्मा मिल सकता है। जानकार जगत सिंह नेगी को भावी मंत्री के तौर पर देखते है। इससे पहले नेगी विधानसभा उपाध्यक्ष रह चुके है।
1967 में हीरा सिंह पाल अर्की से निर्दलीय चुनाव जीते थे। इसके बाद से अर्की में कोई निर्दलीय चुनाव नहीं जीता। इस फेहरिस्त में वरिष्ठ कांग्रेस नेता धर्मपाल ठाकुर का नाम भी है जो 2007 में टिकट काटने के बाद दमदार तरीके से निर्दलीय चुनाव तो लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। अब फिर एक निर्दलीय ने अर्की में राजनैतिक दलों की फिरकी ली है और कांग्रेस-भाजपा दोनों की धुकधुकी बढ़ाई हुई है। ये प्रत्याशी है राजू के नाम से प्रसिद्ध राजेंद्र ठाकुर, जो पिछले वर्ष हुए उपचुनाव में संजय अवस्थी को टिकट दिए जाने के बाद कांग्रेस छोड़ चुके है। राजेंद्र ठाकुर वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है और वे बेशक निर्दलीय हो लेकिन वीरभद्र सिंह के चेहरे को आगे रखकर ही आगे बढ़ते रहे है। पिछले वर्ष राजा वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत हुए उपचुनाव में राजेंद्र ठाकुर ने स्थिति भांपते हुए बतौर निर्दलीय ताल नहीं ठोकी थी, लेकिन तब से ही वे विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट गए। इनकी तैयारी का तरीका भी कमाल का रहा। हज़ारों महिलाओं को इन्होंने गंगा स्नान के लिए हरिद्वार भेजा और विधायक बनने पर वृन्दावन भेजने का वचन भी दिया। बदले में महिलाओं ने भी दिल खोलकर आशीर्वाद दिया। अब ये आर्शीवाद अगर फला है तो राजू इस बार विधायक बन सकते है, इसमें कोई संशय नहीं है। वहीं भाजपा ने इस बार दो चुनाव हार चुके रतन पाल का टिकट काटकर इस बार पार्टी ने दो बार विधायक रहे गोविंद राम शर्मा को मैदान में उतारा है। बाहरी तौर पर तो भाजपा एकजुट दिखी है लेकिन भीतरघात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में भाजपा की राह यहाँ आसां तो बिलकुल नहीं लगती। उधर कांग्रेस ने अपेक्षा के मुताबिक संजय अवस्थी को ही टिकट दिया है। पिछले साल उपचुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने संजय अवस्थी को काम करने के लिए चंद माह ही मिले है और ऐसे में जाहिर है उनको लेकर कोई एंटी इंकम्बेंसी भी नहीं दिखती। बहरहाल राजेंद्र ठाकुर ने अर्की की जंग रोचक कर दी है और यहाँ किसी की जीत की कोई गारंटी नहीं। यहाँ ये भी गौर करना होगा कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, साथ ही ये भी सम्भावना है कि ठाकुर ने दोनों के काडर में भी कुछ सेंध लगाई हो। हालांकि अर्की में कर्मचारियों की खासी तादाद है और ओपीएस फैक्टर के भरोसे कांग्रेस नैया पार लगाने को आश्वस्त जरूर है।
कसमें, वादे, निष्ठा, सियासत में सब छलावा है। कब हालात बदल जाए, कब जज़्बात बदल जाए, कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है। कुछ ऐसा ही देखने को मिला है नालागढ़ विधानसभा सीट पर। कांग्रेस के नारे लगाते-लगाते लखविंदर राणा ने कब भाजपा का पटका धारण कर लिया, पता ही नहीं चला। राणा के भाजपा में जाते ही नालागढ़ विधानसभा क्षेत्र के सियासी समीकरण भी पूरी तरह से बदल गए। हालांकि भाजपा और राणा का पुराना नाता है, जिस दौर में पीएम मोदी प्रदेश के प्रभारी हुआ करते थे, उस दौरान राणा ने भाजपा का खूब झंडा लहराया। हरि नारायण सिंह सैनी के रहते राणा को भाजपा में अपना भविष्य नहीं दिखा और राणा कांग्रेस में शामिल हो गए। उस वक्त हरि नारायण सिंह सैनी भाजपा का मुख्य चेहरा रहे थे। 2011 में हरि नारायण सिंह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा ने सैनी की पत्नी को मैदान में उतारा और तब पहली बार कांग्रेस के लखविंदर राणा ने बाजी मारी, लेकिन एक ही साल में जनता का राणा से मोहभंग हो गया और 2012 में राणा को शिकस्त का सामना करना पड़ा। 2012 में भाजपा ने सेवानिवृत्त अधिकारी केएल ठाकुर पर दांव खेला और केएल ठाकुर पहली बार विधायक बने। 2017 में एक बार फिर लखविंदर सिंह राणा और केएल ठाकुर आमने-सामने थे, फिर सत्ता परिवर्तन हुआ और राणा जीतने में कामयाब रहे। इस बार कुछ महीने पहले तक भाजपा में केएल ठाकुर के समकक्ष कोई चेहरा नहीं दिख रहा था, लेकिन हालात ऐसे बने कि केएल ठाकुर को बगावत करके चुनाव लड़ना पड़ा। अब नतीजे अगर भाजपा के पक्ष में नहीं आये तो सवाल तो उठेंगे ही। बहरहाल, माहिर मानते है कि नालागढ़ में इन दोनों के बीच ही मुख्य मुकाबला है। इस बीच कांग्रेस की बात करें तो कांग्रेस ने हरदीप बावा को मैदान में उतारा है, वहीं बावा जो 2017 में कांग्रेस के बागी थे। पर लखविंदर के जाने के बाद कांग्रेस के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे, सो बावा को टिकट रुपी आशीर्वाद मिल गया। हालांकि माहिर मान रहे थे कि कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए पूर्व जिला परिषद् अध्यक्ष धर्मपाल चौहान भी कांग्रेस के प्रबल दावेदारों में शामिल हो सकते थे। खैर, अब अगर भाजपा की बगावत के बावजूद बावा नहीं जीत पाते है या तीसरे स्थान पर चले जाते है तो जाहिर है कि उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर भी सवाल जरूर उठेंगे। इस बीच दिलचस्प बात ये है कि केएल ठाकुर ऐलान कर चुके है कि उनका समर्थन उसी दल को होगा जो पुरानी पेंशन बहाल करेगा, यानी अगर कांग्रेस सरकार बनती है और केएल ठाकुर भी जीत जाते है तो वे कांग्रेस के खेमे में भी दिख सकते है। बहरहाल, नालागढ़ का विधायक कौन बनेगा ये तो जनता ही तय करेगी और जनता का फैसला ईवीएम में कैद हो चुका अब नतीजों के लिए 8 दिसम्बर का इंतज़ार जारी है।
ऊना जिला की पांच विधानसभा सीटों में से जिस पार्टी को 3 सीटें हासिल होती है, प्रदेश में सरकार उसी पार्टी की बनती है। ये सियासी रिवाज 1998 से चला आ रहा है। चुनाव नतीजों पर निगाह डाले तो ऊना जिले की जनता ने जिस पार्टी की झोली में तीन सीटें डाली, प्रदेश में सरकार उसी पार्टी की बनी।1998 में भाजपा ने यहाँ तीन सीटें जीती, चिंतपूर्णी, संतोखगढ़ और कुटलैहड़। जबकि ऊना और गगरेट में कांग्रेस को जीत मिली थी। तब प्रदेश में भाजपा गठबंधन की सरकार बनी। इसके बाद 2003 में गगरेट, संतोखगढ़ और चिंतपूर्णी में कांग्रेस जीती, जबकि ऊना और कुटलैहड़ में भाजपा ने कब्जा जमाया। तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। 2007 में ऊना, गगरेट और कुटलैहड़ में भाजपा जीती और प्रदेश में भाजपा की ही सरकार बनी। इसी तरह 2012 में हरोली, चिंतपूर्णी और गगरेट में कांग्रेस को विजय श्री मिली और सरकार भी कांग्रेस की बनी। तीन सीट और सरकार का ये सिलसिला 2017 में भी कायम रहा जब भाजपा ने गगरेट, चिंतपूर्णी और कुटलैहड़ सीटें जीती और प्रदेश में फिर सत्ता वापसी की। अब इस बार भी मतदान हो चूका है और आठ दिसम्बर को तय होगा कि इस बार भी ऊना में 3-2 का रिवाज़ कायम रहता है या नहीं। इस बार के चुनाव पर निगाह डाले तो ऊना के कुटलैहड़ में भाजपा प्रत्याशी वीरेंद्र कंवर का मुकाबला उन्ही के भांजे कांग्रेस प्रत्याशी देवेंद्र भुट्टो से हुआ है। तो हरोली में कांग्रेस प्रत्याशी और सीएम पद के दावेदार मुकेश अग्निहोत्री के सामने भाजपा के प्रो. रामकुमार हैं। ऊना सदर में भाजपा प्रत्याशी सतपाल सत्ती का मुकाबला कांग्रेस प्रत्याशी सतपाल रायजादा से हुआ है। चिंतपूर्णी में भाजपा के सेटिंग विधायक बलवीर चौधरी और कांग्रेस ने नए प्रत्याशी सुदर्शन बबलू के बीच मुकाबला है। तो गगरेट विधानसभा क्षेत्र में भाजपा विधायक राजेश ठाकुर दूसरी बार चुनाव लड़ रहे हैं और उनका मुकाबला कांग्रेस में कुछ दिन पहले आए चैतन्य शर्मा से है। 1993 के बाद कोई निर्दलीय नहीं जीता जिला ऊना की खास बात ये है कि 1993 के चुनाव में चिंतपूर्णी विधानसभा सीट से जीते निर्दलीय उम्मीदवार हरिदत्त के बाद यहाँ हमेशा से मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों के बीच ही होता आया है। यानी की 1993 के बाद जनता ने कभी निर्दलीय या अन्य पार्टी के प्रत्याशी को मौका नहीं दिया। इस बार भी मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही दिख रहा है। अग्निहोत्री और कंवर, दोनों को पांचवी जीत की तलाश नजदीकी इतिहास पर निगाह डाले तो ऊना जिला की तीन सीटें परिवर्तन की साक्षी रही है। पर दो सीटें ऐसी है जहां राजनीतिक दल खूंटा गाड़ कर बैठे है। हरोली ( पहले संतोखगढ़ ) सीट पर कांग्रेस के मुकेश अग्निहोत्री लगातार चार चुनाव जीत चुके है। इसी तरह कुटलैहड़ में कांग्रेस आखिरी बार 1985 में जीती थी। कुटलैहड़ में पिछले चार चुनाव भाजपा के वीरेंद्र कंवर ने जीते है। यानी मुकेश अग्निहोत्री और वीरेंद्र कंवर दोनों की निगाह इस बार जीत के पंजे पर है।