जिला शिमला ने दिया है 9 बार मुख्यमंत्री, कांग्रेस रही है इक्कीस
हिमाचल की राजनीति में शिमला जिले का खूब दबदबा रहा है। प्रदेश को नौ बार मुख्यमंत्री देने वाला शिमला जिला सरकार बनाने और गिराने में अहम भूमिका निभाता आया है। इसी जिला शिमला से चुनाव जीतकर छ बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने तो तीन बार ठाकुर रामलाल की ताजपोशी हुई। जिला शिमला हमेशा कांग्रेस का गढ़ रहा है और आंकड़े बताते है कि शिमला जिले के आठ विधानसभा क्षेत्र किसी भी चुनाव में कांग्रेस के लिए एक मज़बूत कड़ी साबित होते आए है। इस चुनाव में भी कुछ ऐसा ही होता हुआ दिखाई दे रहा है। कांग्रेस की सत्ता वापसी के लिए फिर पार्टी की निगाहें इसी शिमला पर है। उधर, भाजपा साल दर साल शिमला में मजबूत जरूर होती आ रही है, लेकिन कांग्रेस के मुकाबले अब भी उन्नीस ही है। इसका बहुत बड़ा कारण स्व वीरभद्र सिंह रहे है जिनके रहते कांग्रेस का परचम हमेशा यहां लहराया। अब वीरभद्र सिंह के बाद भी होलीलॉज का रसूख बरकरार है, जो भाजपा के लिए यहां सबसे बड़ी चुनौती है। दिलचस्प बात ये है कि इस जिला की शिमला ग्रामीण सीट पर जहाँ पहले वीरभद्र सिंह और अब विक्रमादित्य सिंह मैदान में उतरते है, तो रामपुर और रोहड़ू में चेहरा कोई भी हो लेकिन वोट होलीलॉज के नाम पर ही मिलते है। अन्य पांच सीटों पर भी होलीलॉज का विशेष प्रभाव है जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। इस चुनाव में जहाँ कांग्रेस शिमला जिला में की हुई अपनी गलतियों को सुधारती नज़र आई है, वहीं भाजपा ने टिकट आवंटन के दौरान कुछ ऐसे बदलाव किये जो माहिरों को भी सोचने पर मजबूर कर गए। भाजपा ने इस जिले में भी मंत्री का टिकट बदला है और कई नए चेहरों पर भी दांव खेला है। भाजपा के गठन के बाद 1982 से 2017 तक हुए नौ विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डाले तो आठ बार शिमला जिला में कांग्रेस आगे रही है। सिर्फ 1990 के चुनाव में कांग्रेस को तीन और भाजपा-जनता दल गठबंधन को पांच सीटें मिली थी। दिलचस्प बात ये है कि तब पूरे प्रदेश में कांग्रेस को नौ सीटें मिली थी, जिनमें से तीन जिला शिमला से थी। 1982 में कांग्रेस को 6, 1985 में 8, 1993 और 1998 में 6 सीटें मिली। वहीं 2003 में कांग्रेस पांच और पार्टी के खिलाफ निर्दलीय लड़ने वाले दो कांग्रेस नेता चुनाव जीतने में कामयाब रहे। इसके बाद 2007 में कांग्रेस को पांच और 2012 में छ सीटें मिली। 2017 में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें जीत पाई, हालांकि जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भी कांग्रेस ने भाजपा से एक सीट हथिया ली।
जुब्बल कोटखाई : शांगटा ने बदले समीकरण, कुछ भी मुमकिन
जुब्बल कोटखाई वो निर्वाचन क्षेत्र है जहाँ सियासत सेब के इर्द गिर्द घूमती है। पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का अभेद किला रही जुब्बल कोटखाई सीट पर पिछले पांच चुनाव में कांग्रेस व भाजपा दोनों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर जीते, तो 2007 में पूर्व बागवानी मंत्री रहे नरेंद्र बरागटा ने इस सीट पर कब्ज़ा किया। 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर जनता ने कांग्रेस के रोहित ठाकुर को जुब्बल कोटखाई की सीट पर विजय बनाया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र बरागटा ने जीत हासिल की। नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद अक्टूबर 2021 में हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर को फिर जीत मिली। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में भी ये सिलसिला बरकरार रहता है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वर्तमान स्थिति की बात करें तो कांग्रेस से रोहित ठाकुर मैदान में है और चेतन बरागटा भी भाजपा में वापसी कर चुके है। भाजपा ने वापसी के बाद चेतन पर ही दांव खेला है। इस बार माकपा से विशाल शांगटा भी मैदान में है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने श्रीकांत चौहान को मैदान में उतारा है। बीते उपचुनाव में जुब्बल कोटखाई में जो करारी शिकस्त भाजपा को मिली है उसके चर्चे अब तक ठंडे नहीं हुए। उपचुनाव में सत्ता में होने के बावजूद भाजपा की जमानत जब्त हुई थी। दरअसल भाजपा ने चेतन बरागटा को टिकट नहीं दिया था और नाराज होकर चेतन ने समर्थकों सहित पार्टी से मुखालफत कर दी थी। नतीजन, वो नतीजा आया जो भाजपा भुलाना चाहती है। फिर भाजपा में चेतन की वापसी हुई और निसंदेह चेतन के आने से भाजपा में भी चेतना लौट आई है। इस बार जुब्बल कोटखाई में भाजपा एकजुट होकर चुनाव लड़ी है। अब देखना होगा क्या जुब्बल कोटखाई की जनता नरेंद्र बरागटा की तरह चेतन बरागटा पर भी भरोसा जताती है या नहीं। उधर, कांग्रेस ने इस बार भी रोहित ठाकुर को मैदान में उतारा है और रोहित ठाकुर फिर जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। लेकिन माकपा ने विशाल शांगटा को मैदान में उतार कर इस चुनाव को रोचक कर दिया है। माना जा रहा है कि अगर सरकार से खफा वोट में शांगटा ने सेंध लगाई है, तो ये चुनाव रोहित के लिए उतना आसान नहीं होने वाला। बहरहाल जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद रोचक होता दिख रहा है। इस कांटे के मुकाबले में कौन जीतता है ये तो आठ दिसंबर को तय होगा।
शिमला ग्रामीण : विक्रमादित्य आश्वस्त, भाजपा के लिए चुनौती
शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र साल 2008 में हुए पुनर्सीमांकन के बाद अस्तित्व में आया है। इसके बाद हुए दोनों चुनावों में यहां कांग्रेस की ही जीत हुई है। कहते है शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस से ज्यादा वीरभद्र परिवार का गढ़ रहा है। इस क्षेत्र में होलीलॉज का वर्चस्व खुलकर दिखाई देता है। साल 2012 में इस विधानसभा क्षेत्र से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में वीरभद्र सिंह ने भाजपा प्रत्याशी ईश्वर रोहाल को करीब 20 हजार वोटों से हराया था। इस आंकड़े से स्पष्ट होता है कि यहां वीरभद्र नाम पर ही वोट डाले जाते है। साल 2017 के चुनाव में वीरभद्र ने इस क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ा, कारण था विक्रमादित्य सिंह की चुनावी राजनीति में एंट्री करवाना। वीरभद्र जानते थे कि विक्रमादित्य को पहली बार चुनाव लड़वाने के लिए सबसे सुरक्षित सीट शिमला ग्रामीण ही होगी, इसलिए उन्होंने स्वयं इस सीट को विक्रमादित्य के लिए छोड़ा और स्वयं अर्की विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। विक्रमादित्य के सर पर पिता का आशीर्वाद तो था, मगर अपनी ही पार्टी की ओर से आ रही कड़ी चुनौतियां भी थी। परिवारवाद के नाम पर खड़े हो रहे सवाल और बढ़ता कलह उनके लिए समस्याएं खड़ी कर रहा था। इसके बावजूद भी वे चुनाव जीत गए। शिमला ग्रामीण सीट से पहली बार चुनाव लड़े 28 साल के विक्रमादित्य ने भाजपा के अनुभवी डॉ. प्रमोद शर्मा को करारी शिकस्त दी। विक्रमादित्य सिंह ने 28275 वोट मिले जबकि प्रमोद शर्मा को 23395 वोट मिले। इस बार भी विक्रमादित्य सिंह ही शिमला ग्रामीण से चुनाव लड़े है जबकि भाजपा ने टिकट बदल कर इस बार रवि मेहता को मैदान में उतारा है। रवि मेहता शोघी से संम्बंध रखते है और इस क्षेत्र में उनका होल्ड भी दिखाई देता है मगर अन्य क्षेत्रों में वो उतने सहज नहीं दिखाई देते। दरअसल शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र तीन दिशाओं में स्थित क्षेत्रों सुन्नी, धामी और शोघी में बंटा है। चुनाव जीतने के लिए हर क्षेत्र पर फोकस करना बेहद ज़रूरी है। शिमला ग्रामीण में भाजपा कितनी टक्कर दे पाती है ये तो 8 दिसंबर को ही स्पष्ट होगा, मगर दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव को बेहद रोचक बनाए रखा। पूरे प्रचार के दौरान दोनों हीप्र त्याशियों के बीच लगातार ज़ुबानी जंग छिड़ी रही।
शिमला शहरी : जनारथा दिख रहे मजबूत, भाजपा ने चाय वाले को बनाया उम्मीदवार
शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र वर्तमान शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज का गढ़ था। भारद्वाज इस क्षेत्र से चार बार चुनाव जीत चुके है। मगर इस बार भाजपा ने भारद्वाज का टिकट बदल कर उन्हें कसुम्पटी विधानसभा क्षेत्र भेज दिया। भारद्वाज ने कसुम्पटी से चुनाव लड़ा और शिमला शहरी से भाजपा ने एक नए चेहरे संजय सूद को मैदान में उतार दिया। "चाय वाला" यानी भाजपा प्रत्याशी संजय सूद के मैदान में होने से शिमला शहरी सीट के चर्चे प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में हुए। वहीं कांग्रेस ने भी पिछली बार की अपनी गलती को सुधारा और हरीश जनारथा को मैदान में उतारा। वहीं इस बार माकपा ने इस विधानसभा क्षेत्र से टिकेंद्र पंवार को मैदान में उतारा है। बीते विधानसभा चुनाव में इस विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने आनंद शर्मा के करीबी हरभजन भज्जी को टिकट दिया था। इस बात से नाराज़ होकर वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कांग्रेस नेता हरीश जनारथा ने बगावत की और जनारथा निर्दलीय तौर पर मैदान में उतर गए। केवल हरीश जनारथा ही इस टिकट आवंटन से असंतुष्ट नहीं थे, बल्कि कई पार्षद ओर कांग्रेस के कई कायकर्ता भी उनके साथ खड़े हो गए थे। इसके अलावा माकपा की ओर से शिमला नगर पालिका के पूर्व महापौर संजय चौहान भी मैदान में थे। इस चुनाव में जीत बीजेपी प्रत्याशी सुरेश भारद्वाज की हुई, हालांकि वे मामूली अंतर से जीते, जबकि दूसरे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी हरीश जनारथा रहे। सुरेश भारद्वाज को कुल 14,012 मत मिले, जबकि जनार्था को 12,109 मत मिले। तीसरे स्थान पर माकपा के संजय चौहान जबकि कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी सिर्फ 2680 मत पाकर चौथे स्थान पर रहे थे। बीते चुनाव में यहां कांग्रेस अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाई थी, मगर इस बार हालत बदले हुए है।
भाजपा के लिए जीत की हैट्रिक लगा चुके है भारद्वाज
शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का खासा प्रभाव देखने को मिला है। इस क्षेत्र में साल 1967 से 1982 तक चार बार दौलत राम विधायक रहे। इसके बाद 1985 में हुए चुनाव में इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी विधायक बने। साल 1990 में इस क्षेत्र से सुरेश भारद्वाज बतौर भाजपा प्रत्याशी पहली बार विधायक बने। साल 1993 में माकपा के तेज़तर्रार नेता राकेश सिंघा भी शिमला से विधायक रह चुके है। 1996 में हुए उपचुनाव में इस क्षेत्र में कांग्रेस की जीत हुई और आदर्श कुमार विधायक बने। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में भाजपा से नरेंद्र बरागटा की जीत हुई। साल 2003 में कांग्रेस ने एक बार फिर हरभजन सिंह भज्जी को टिकट दिया और वे ये चुनाव जीत गए। इसके बाद 2007 , 2012 और 2017 के चुनाव में लगातार भाजपा से सुरेश भारद्वाज ही विधायक चुन कर आते रहे है।
रामपुर : राजपरिवार का जलवा बरकरार, कौल नेगी जीते तो रचेंगे इतिहास
इस चुनाव में भाजपा ने रामपुर विधानसभा क्षेत्र में टिकट बदल युवा चेहरे कौल सिंह नेगी को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस ने भारी विरोध के बावजूद वर्तमान विधायक नंदलाल पर ही दांव खेला। नंदलाल को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी दिखी है, मगर उनके प्रचार का ज़िम्मा खुद राज परिवार ने संभाला था। वहीं कौल नेगी का प्रचार भी ज़बरदस्त रहा। आज तक भाजपा यहाँ नहीं जीती है और अगर कौल नेगी ये चुनाव जीतते तो इतिहास रचेंगे। दरअसल, रामपुर निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस का अभेद गढ़ रहा है। देश में आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाएं, तो यहां हमेशा कांग्रेस का परचम लहराया है। वहीं भाजपा की बात करें तो 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद से 9 चुनाव हुए है, लेकिन पार्टी को कभी यहां जीत का सुख नहीं मिला। पर बीते कुछ चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो कांग्रेस और वीरभद्र परिवार के इस गढ़ में पार्टी की जीत का अंतर कम जरूर हुआ है। 1990 की शांता लहर में भी कांग्रेस के सिंघीराम यहाँ से 11856 वोट से जीते थे, लेकिन 2017 आते -आते ये अंतर 4037 वोटों का रह गया। 1993 में कांग्रेस यहाँ 14478 वोट से जीती तो 1998 में जीत का अंतर 14565 वोट था। जबकि 2003 के चुनाव में ये अंतर बढ़कर 17247 हो गया। तीनों मर्तबा यहाँ से सिंघी राम ही पार्टी प्रत्याशी थे। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 4037 वोट का रहा।
रामपुर में राजपरिवार ही कांग्रेस का चेहरा
रामपुर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह का गृह क्षेत्र है। वीरभद्र सिंह यहां के राजा थे और राज परिवार के प्रति रामपुर की जनता हमेशा निष्ठावान रही है। उनके निधन के बाद उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह को भी जनता का उतना ही प्यार मिलता रहा है, जैसा वीरभद्र सिंह को मिलता था। यहाँ से चेहरा कोई भी हो पर यहाँ प्रभाव राजपरिवार का ही है। अलबत्ता ये क्षेत्र आरक्षित होने के चलते यहाँ से कभी भी राज परिवार खुद चुनाव नहीं लड़ सका, लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि वोट उन्हीं के चेहरे पर पड़ते है। 6 बार यहाँ से चुनाव जीत चुके सिंघीराम भी कभी वीरभद्र सिंह के करीबी थे, लेकिन दोनों में दूरियां बढ़ी तो राज परिवार का आशीर्वाद नंदलाल को मिला। इस बार भी कांग्रेस यहां से नंदलाल को मौका मिला है, जो राजपरिवार के करीबी माने जाते है और चुनाव में उन्हें राज परिवार का पूरा साथ भी मिलता दिखा है।
चौपाल : बगावत ने बिगड़े कांग्रेस के समीकरण
चौपाल सीट के पिछले चार चुनावों के नतीजों का आंकलन किया जाए तो इस सीट पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला रहा है। कभी यहां बीजेपी की उम्मीदवार की जीत हुई तो कभी कांग्रेस की। चौपाल एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जहाँ निर्दलीय नेताओं का भी खूब प्रभाव देखने को मिला है। यहां जातिगत या दलगत राजनीति के बजाये व्यक्तित्व खास मायने रखता है। साल 1993 के बाद से हुए हर चुनाव में यहां एक बार निर्दलीय तो एक बार किसी पार्टी प्रत्याशी को जीत मिली है। साल 1993 में इस सीट से कांग्रेस नेता योगेंद्र चंद ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गए। उसके बाद 1998 में योगेंद्र चंद्र की कांग्रेस में वापसी हुई और वे ही बतौर कांग्रेस प्रत्याशी ये चुनाव जीते। वर्ष 2003 में चौपाल से निर्दलीय प्रत्याशी सुभाष चंद मंगलेट ने कांग्रेस प्रत्याशी योगेंद्र चंद्र शिकस्त दी। 2007 में सुभाष की कांग्रेस में एंट्री हुई और उन्होंने भाजपा के दिग्गज डा. शास्त्री को पटकनी देकर चुनाव जीत लिया। 2012 के चुनावों में भाजपा ने टिकट बदल कर एडवोकेट सीमा मेहता को दिया, जबकि कांग्रेस ने एक बार फिर से मंगलेट पर ही दांव खेला। इसके बाद दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों के समीकरण को ठियोग के पूर्व विधायक राकेश वर्मा के चचेरे भाई बलवीर वर्मा ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर बिगाड़ के रख दिया व कांग्रेस प्रत्याशी डा. मंगलेट को पटकनी दे दी। साढ़े चार साल तक कांग्रेस का एसोसिएट सदस्य रहने के बाद वर्मा ने पलटी मारकर चुनावों से ठीक पहले भाजपा का दामन थाम लिया व 2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा का टिकट भी हासिल कर चुनाव जीत लिया। अब इस बार यहाँ कांग्रेस ने रजनीश खिमटा को मैदान में उतारा है तो भाजपा ने बलवीर वर्मा को। वहीं कांग्रेस से टिकट न मिलने पर नाराज़ हुए पूर्व विधायक सुभाष मंगलेट भी मैदान में है। कांग्रेस टिकट न मिलने पर मंगलेट ने सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी जमकर जाहिर की है। मंगलेट ने कांग्रेस पर टिकटों की खरीद फरोख्त का भी इल्जाम लगाया। टिकट काटने के चलते मंगलेट को चौपाल में खूब सहानुभूति मिलती दिखी है, लेकिन कांग्रेस का बागी मैदान में होने के चलते यहां भाजपा सहज दिखाई देती है।
ठियोग : बहुकोणीय मुकाबले में भाजपा की प्रतिष्ठता दाव पर
ठियोग कांग्रेस की दिग्गज नेता विद्या स्टोक्स का निर्वाचन क्षेत्र रहा है। हिमाचल प्रदेश में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बहू विद्या स्टोक्स को ठियोग ही नहीं, बल्कि पूरे हिमाचल प्रदेश की राजनीति में सम्मान की नजर से देखा जाता रहा है। शिमला जिला में अगर आज सेब की पैदावार होती है, तो यह स्टोक्स परिवार की ही देन है। ठियोग में हुए 1952 से अब तक के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 10 दफा जीत हासिल की है, जबकि भारतीय जनता पार्टी ने एक बार, जनता पार्टी ने एक बार और तीन बार निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव में बाजी मारी है। ठियोग में कांग्रेस की कद्दावर नेता रहीं विद्या स्टोक्स को क्षेत्रीय राजनीति में अपनी पकड़ के लिए जाना जाता है। उन्होंने यहां से 1982, 1985, 1990, 1998 और 2012 में पांच बार चुनाव जीता है। हालाँकि साल 2017 का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा। दरअसल कांग्रेस ने तो विद्या को टिकट दिया मगर उनका नामांकन पत्र अधूरा होने के कारण उसे रद्द कर दिया गया था। विद्या स्वयं ही चुनाव लड़ने के मूड में नहीं थी जिसका कारण उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य को बताया। विद्या का नाम कटने के बाद कांग्रेस ने दीपक राठौड़ को चुनावी मैदान में उतारा, जिन्हे राहुल गांधी के करीबी माना जाता है। इस चुनाव में माकपा के राकेश सिंघा ने भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों को पछाड़ कर जीत हासिल की और विधानसभा में एकलौते माकपा विधायक बन पहुंचे। इस चुनाव में भी ये सीट प्रदेश की वीआईपी सीटों में से एक रही। यहां कांग्रेस ने पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर को मैदान में उतारा जबकि कुछ समय पहले कांग्रेस में शामिल हुई भाजपा के पूर्व प्रत्याशी स्वर्गीय राकेश वर्मा की पत्नी इंदु वर्मा बतौर निर्दलीय मैदान में उतरी है। दरअसल इंदु वर्मा ने चुनाव से कुछ समय पहले ही कांग्रेस ज्वाइन की और उन्हें उम्मीद थी की पार्टी टिकट उन्हें ही मिलेगा, मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके बाद इंदु बतौर निर्दलीय मैदान में उतरी। यहां भाजपा ने नए चेहरे अजय श्याम पर दांव खेला है तो माकपा से एक बार फिर राकेश सिंघा ही मैदान में है। यहाँ बहुकोणीय मुकाबला है, पर रिवाज बदलने का दावा कर रही भाजपा के सामने यहाँ चुनौती ये है कि नतीजा जो भी हो सम्मानजनक हो।
रोहड़ू : मोहन लाल की नजर हैट्रिक पर
हिमाचल प्रदेश की रोहड़ू सीट को वीरभद्र सिंह की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है। इस सीट के आरक्षित होने के बाद वीरभद्र खुद तो इस सीट पर चुनाव नहीं लड़ पाए, लेकिन उनका प्रभाव हमेशा रोहड़ू पर बरकरार रहा। शिमला जिले के रोहड़ू ने हिमाचल को दो बार मुख्यमंत्री दिए हैं। वीरभद्र सिंह ने वर्ष 1990 से लेकर 2007 तक लगातार पांच बार इस सीट पर जीत दर्ज की थी। इसके बाद ये सीट आरक्षित हो गई और वीरभद्र ने 2012 का चुनाव शिमला ग्रामीण से लड़ा। रोहड़ू विधानसभा क्षेत्र आरक्षित होने के बाद कांग्रेस ने यहां मोहन लाल ब्राक्टा को टिकट दिया और वे रिकार्ड मत लेकर जीते। साल 2017 में भी रोहड़ू से मोहन लाल ब्राक्टा की ही जीत हुई। बीते चालीस साल में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी 2009 के उपचुनाव में। वर्तमान परिस्थिति की बात करें तो इस बार इस विधानसभा क्षेत्र से कुल 6 प्रत्याशी मैदान में है। कांग्रेस से मोहन लाल ब्राक्टा एक बार फिर मैदान में है। ब्राक्टा होलीलॉज के करीबी है और क्षेत्र में उनको लेकर कोई ख़ास एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिखती। वहीं भाजपा ने इस बार फिर से शशि बाला पर भरोसा जताया है। बता दें की शशि बाला पिछले चुनाव करीब दस हज़ार मतों से हारी थी। यहां बसपा प्रत्याशी प्रकाश, आप प्रत्याशी अश्वनी कुमार और आरडीपी प्रत्याशी नरेंद्र सिंह भी मैदान में है। इनके अलावा निर्दलीय प्रत्याशी राजेंद्र धीरटा भी मैदान में है। इस क्षेत्र में मुख्य मुकाबला कांग्रेस, भाजपा और निर्दलीय प्रत्याशी के बीच दिखाई दे रहा है।
कुसुम्पटी : सहज दिख रही कांग्रेस, भारद्वाज के लिए प्रतिष्ठता का सवाल !
कुसुम्पटी में लगातार चार चुनाव हार चुकी भाजपा ने इस बार अपने दिग्गज नेता सुरेश भारद्वाज को मैदान में उतारा है। भाजपा के इस बड़े बदलाव ने सभी को चौका कर रख दिए था। दरअसल इस क्षेत्र में पार्टी के पास किसी दमदार चेहरे का अभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था। आखिरी बार रूप दास कश्यप ने यहां 1998 में भाजपा को जीत दिलाई थी, लेकिन 2003 में रूप दास कश्यप करीब तीन हजार वोट के अंतर से हार गए। तब निर्दलीय सोहन लाल ने जीत दर्ज की थी। ये आखिरी मौका था जब भाजपा कुसुम्पटी में मुकाबले में दिखी। इसके बाद हुए तीन चुनाव में भाजपा तीन उम्मीदवार बदल चुकी है और तीनों बार पार्टी को शिकस्त मिली है। 2007 में पार्टी ने तरसेम भारती को टिकट दिया लेकिन भारती करीब साढ़े सात हजार के अंतर से हारे। 2012 में भाजपा ने प्रेम सिंह को और 2017 में विजय ज्योति को मैदान में उतारा और दोनों करीब दस हजार के अंतर से हारे। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस ने अनिरुद्ध सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया। इस बार भी विजय ज्योति सेन को यहां से टिकट मिलने की उम्मीद थी मगर भाजपा ने सुरेश भाद्वाज को मैदान में उतारा है। भारद्वाज भाजपा के वरिष्ठ नेता है और चार बार विधायक रह चुके है। उनके कसुम्पटी शिफ्ट होने पर कुछ कार्यकर्ताओं में नाराज़गी जरूर थी, मगर सभी को मना लिया गया। अब भारद्वाज यहां कैसा परफॉर्म करते है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर से अनिरुद्ध सिंह को ही मैदान में उतारा है। अनिरुद्ध सिंह का सरल स्वभाव भी लोगों को पसंद है और वे लगातार जनता के बीच भी रहे है। अनिरुद्ध ने इस बार भी चुनाव पूरे दमखम से लड़ा है और कांग्रेस इस क्षेत्र में सहज दिखाई दे रही है।