सिरमौर में हाटी फैक्टर से भाजपा को बड़ी आस
प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार सिरमौर से ही ताल्लुख रखते थे और इसीलिए हिमाचल प्रदेश की सियासत में जिला सिरमौर का ख़ास स्थान रहा है। इस बार सिरमौर जिला में हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने का मुद्दा खूब गर्माया है। सिरमौर की सियासत में हाटी फैक्टर का कितना इम्पैक्ट रहता है ये तो 8 दिसम्बर को ही तय होगा। बहरहाल इतना ज़रूर है कि इस बार जिला कि पाँचों विधानसभा सीटों पर मुकाबला रोचक होना तय है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और शिमला सांसद सुरेश कश्यप इसी जिला से है, यहाँ से जयराम सरकार में एक कैबिनेट मंत्री भी है और दिग्गज नेता डॉ राजीव बिंदल भी अब सिरमौर को कर्मभूमि बना चुके है। ऐसे में भाजपा यहाँ बेहतर करने की उम्मीद में है। उधर, कांग्रेस भी सिरमौर में बेहतर कर सत्ता वापसी की जुगत में है।
भाजपा ने भुनाया हाटी का मुद्दा
हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के फैसले से चार विधानसभा क्षेत्रों में सीधा असर है। इस फैसले से पच्छाद की 33 पंचायतों और एक नगर पंचायत के 141 गांवों के कुल 27,261 लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 21,594 लोग एसटी में नहीं होंगे। रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के 40,317 संबंधित लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 29,990 लोग बाहर होंगे। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोग इसमें शामिल होंगे। 30,450 एससी के लोग इससे बाहर रहेेंगे। शिलाई में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोगों को यह लाभ मिलेगा। एससी के 30,450 लोग यहां एसटी में नहीं होंगे। पांवटा में 18 पंचायतों के 31 गांवों के 25,323 लोग शामिल होंगे। यहां एससी के 9,406 लोग एसटी के दायरे से बाहर रहेंगे। इस मुद्दे को भाजपा ने चुनाव में जमकर भुनाने की कोशिश की है। बाकायदा सतौन में गृह मंत्री अमित शाह का कार्यक्रम आयोजित करवाया गया। पर इसका कितना चुनावी लाभ भाजपा को मिला, ये तो नतीजे ही तय करेंगे।
2017 में तीन सीटें जीती थी भाजपा
सिरमौर की पांच सीटों में से तीन पर 2017 में भाजपा को जीत मिली थी। इनमें नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीटें शामिल थी। जबकि शिलाई और रेणुकाजी सीटें कांग्रेस के खाते में गई। इस बार भी यहाँ कड़ा मुकाबला तय है। आम आदमी पार्टी के आने से भी यहाँ रोचक मुकाबला होने की उम्मीद है।
नाहन : बिंदल का कड़ा इम्तिहान, नजदीकी मुकाबला तय
जिला सिरमौर की नाहन सीट कभी कांग्रेस का गढ़ थी। 2012 से पहले इस सीट पर भाजपा को कभी जीत नहीं मिली थी, हालांकि इसी विचारधारा की श्यामा शर्मा ने 1977 में जनता पार्टी और 1990 में जनता दल के टिकट पर ये सीट जीती, लेकिन भाजपा टिकट पर कोई उम्मीदवार कभी नहीं जीत पाया। डॉ वाईएस परमार के पुत्र कुश परमार यहाँ से 1993 , 1998 और 2007 में तीन बार जीते। 2003 में ये सीट लोकजनशक्ति पार्टी के खाते में गई। फिर आया वर्ष 2012 और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजीव बिंदल ने पहली बार नाहन में कमल खिलाया। दिलचस्प बात ये रही कि डॉ बिंदल सोलन से तीन बार विधायक रहने के बाद नाहन चुनाव लड़ने आएं क्योंकि सोलन सीट आरक्षित हो गई थी। चुनाव से कुछ दिन पहले ही बिंदल नाहन पहुंचे लेकिन उनकी बेमिसाल चुनाव मैनेजमेंट के आगे कांग्रेस और कुश परमार पस्त हो गए। 2017 में भी बिंदल ही चुनाव जीते और उनका मुकाबला तब अजय सोलंकी से हुआ। सोलंकी ने बिंदल को अच्छी टक्कर जरूर दी लेकिन जीत नहीं पाएं। इस बार फिर बिंदल और कांग्रेस के अजय सोलंकी इस सीट पर आमने -सामने है। मतदान हो चुका है और इस बार किसने बाजी मारी है, ये आठ दिसंबर को पता चलेगा। जानकार मानते है कि इस बार आम आदमी पार्टी और राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी की मौजूदगी ने थोड़ा ही सही लेकिन नाहन के समीकरण प्रभावित जरूर किये है। ऐसे में यहाँ का मुकाबला बेहद कड़ा है। नाहन में अल्पसंख्यक वोट भी खासी तादाद में है और इस बार ये वोट किसके पक्ष में गया है, ये भी नतीजे के लिहाज से निर्णायक होगा। वहीं प्रदेश में सत्ता विरोधी माहौल और कर्मचारी फैक्टर के चलते भी इस बार कांग्रेस आशावान है। हालांकि डॉ राजीव बिंदल के चुनाव मैनेजमेंट को हलके में नहीं लिया जा सकता, पर ये तय है कि इस बार के चुनाव ने संभवतः बिंदल की सबसे कठिन परीक्षा ली है।
पच्छाद : जीत -हार की भविष्यवाणी करने से माहिर भी बच रहे है
कभी कांग्रेस का गढ़ रही पच्छाद सीट पर इस बार बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है। खास बात ये है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे गंगूराम मुसाफिर इस बार भगावत करके बतौर निर्दलीय मैदान में है। सात बार विधायक रहे गंगूराम पिछले तीन चुनाव हार चुके है जिसके बाद कांग्रेस ने इस बार दयाल प्यारी को टिकट दिया। ये निर्णय गंगूराम को रास नहीं आया और वे निर्दलीय मैदान में कूद पड़े। उधर, भाजपा ने सीटिंग विधायक रीना कश्यप पर ही फिर भरोसा जताया है। वहीं, राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी ने भी दमकम से चुनाव लड़ यहाँ के समीकरणों को उलझा दिया है। बहरहाल इस सीट पर कौन जीतेगा इसकी भविष्यवाणी करने से बड़े -बड़े माहिर भी बचते दिख रहे है। नतीजे के लिए आठ दिसम्बर का इन्तजार करना होगा और इस बहुकोणीय मुकाबले में कोई भी बाजी मार सकता है। अतीत पर निगाह डाले तो 1982 में इस सीट से गंगूराम मुसाफिर पहली बार निर्दलीय चुनाव लड़ विधानसभा पहुंचे थे। तब से 2007 तक गंगूराम लगातार सात चुनाव जीते लेकिन अगले दो विधानसभा चुनाव और 2019 का उपचुनाव हार गए। तब उपचुनाव में भाजपा ने एक युवा महिला नेता को टिकट के काबिल समझा और रीना कश्यप को पच्छाद उपचुनाव में जीत मिली। हालांकि भाजपा से बागी उम्मीदवार दयाल प्यारी भी मैदान में थी, पर वो भी गंगूराम के काम नहीं आई। पर दयाल प्यारी ने 11698 मत लेकर अपनी ताकत का अहसास जरूर करवाया। इसके बाद दयाल प्यारी कांग्रेस में चली गई। तब से ही मुसाफिर और दयाल प्यारी के बीच तल्खियां दिखती रही। अब दोनों चुनावी मैदान में आमने -सामने है और इनके बीच भाजपा की रीना कश्यप फिर विधानसभा पहुंचने की आस में है।
पांवटा साहिब : कांग्रेसी और पूर्व कांग्रेसी की खींचतान में सुखराम आश्वस्त
2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आए इस विधानसभा क्षेत्र में फिलवक्त भाजपा का कब्ज़ा है। बीते चुनाव में यहां से भाजपा सरकार में मंत्री सुखराम चौधरी ने कांग्रेस उम्मीदवार किरनेश जंग को करीब 12 हज़ार वोटों से हराया था। इससे पहले साल 2012 में किरनेश जंग बतौर निर्दलीय चुनाव लड़े थे और उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों के उम्मीदवारों को पटकनी दी थी। दरअसल 2012 के चुनाव में कांग्रेस से टिकट न मिलने पर उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा था व भाजपा प्रत्याशी सुखराम चौधरी को 790 मतों से हराया था। इस बार भी यहाँ भाजपा ने सुखराम चौधरी और कांग्रेस ने किरनेश जंग को टिकट दिया है। वहीँ कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में गए युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष मनीष ठाकुर भी मैदान में है। साथ कई निर्दलीय भी इस सीट के समीकरण उलझा रहे है। जयराम सरकार में ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट पर अपनी जीत का दावा कर रहे है। दरअसल सम्भवतः सुखराम को उम्मीद है कि मनीष ठाकुर फैक्टर यहाँ उनके लिए संजीवनी सिद्ध होगा और वे एक कांग्रेसी और एक पूर्व कांग्रेसी की खींचतान में चुनाव जीत जायेंगे। ये मुमकिन भी है लेकिन इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि क्षेत्र में उनको लेकर एंटी इंकम्बैंसी भी है। अब कौन से समीकरण किस पर भारी पड़ते है, ये देखना रोचक होने वाला है।
शिलाई : हाटी फैक्टर से भाजपा को आस
शिलाई विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ रहा है।1972 से लेकर 1985 तक यहाँ कांग्रेस का ही कब्ज़ा रहा है। 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता दल के जगत सिंह नेगी ने कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान को हरा कर शिलाई सीट पर कब्ज़ा किया। 1993 से 2007 तक कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान ने इस सीट पर सत्ता का सुख भोगा। 2007 के चुनाव में तो भाजपा के बलदेव तोमर की जमानत तक जब्त हुई। पर 2012 के चुनाव आए तो भाजपा ने फिर बलदेव तोमर पर भरोसा जताया और तोमर ने हर्षवर्धन चौहान को परास्त कर शिलाई सीट पर कमल खिलाया। 2017 में फिर हर्षवर्धन चौहान को जीत मिली। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में दशकों से एक ही परिवार कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहा है। 7 बार हर्षवर्धन चौहान के पिता गुमान सिंह चौहान तथा पांच बार खुद हर्षवर्धन चौहान शिलाई विधानसभा क्षेत्र के विधायक रह चुके हैं। इस बार फिर कांग्रेस से हर्षवर्धन चौहान ही मैदान में है और भाजपा ने बलदेव तोमर को मैदान में उतारा है। इस सीट पर जहां कांग्रेस के लिए जीत बरकरार रखना साख का सवाल है तो भाजपा वापसी करने की हरसंभव कोशिश में है। यहां हाटी फैक्टर को भी जहन में रखना ज़रूरी है क्योंकि शिलाई विधानसभा क्षेत्र का काफी हिस्सा गिरिपार क्षेत्र में आता है। बलदेव तोमर ने इस मुद्दे को प्रचार के दौरान जनता के बीच जोरशोर से भुनाया है। अब देखना ये होगा की क्या कांग्रेस अपनी परंपरागत सीट पर कब्जा बरकरार रख पाती है या 2012 की तरह बलदेव तोमर इस बार कमल खिलाने में कामयाब होते है। इस बार शिलाई विधानसभा सीट पर कांटे का मुकाबला होना तय है।
रेणुका जी : हाटी और एंटी इंकम्बैंसी विनय की राह में रोड़ा
रेणुका जी विधानसभा सीट के इतिहास की बात करें तो यह सीट 2008 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई। 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विनय कुमार ने बीजेपी के बलवीर सिंह को 5,160 वोटों के मार्जिन से हराया। इससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विनय कुमार ने बीजेपी के हिरादा राम को 655 मतों से हराया था। इस बार भी कांग्रेस ने विनय कुमार को ही मैदान में उतारा है जबकि भाजपा ने इस बार नए चेहरे को मैदान में उतारा है। यहां भाजपा ने बलबीर चौहान का टिकट काटकर नारायण चौहान को टिकट दिया है। हाटी जनजातीय मुद्दे के बाद क्षेत्र के सियासी समीकरण बदले हैं। रेणुका विधानसभा क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा गिरिपार क्षेत्र में आता है। गिरीपार क्षेत्र में क्षेत्र को जनजातीय दर्जा देने की मांग कर रही हाटी समिति ने भी इस बार भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार किया है। हालांकि समय-समय पर यहां विरोध के स्वर भी उठते रहे हैं। अब हाटी फैक्टर का कितना असर रेणुका जी में देखने को मिलता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। रेणुका जी विधानसभा सीट में विनय कुमार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी भी दिखी है। ऐसे में यहाँ विनय कुमार की राह मुश्किल हो सकती है।