कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में कोई सुरक्षित नहीं
कांगड़ा वो जिला है जो सिर्फ सत्ता तक पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि नेताओं की खाट खड़ी करने की भी कुव्वत रखता है। इतिहास गवाह है कि ये वो जिला है जिसने खुद मुख्यमंत्री को भी नहीं बक्शा। कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में बड़े-बड़ो के नाक से धुंआ निकल जाता है। जो काँगड़ा को न भाया, उसका प्रदेश की सत्ता से पांच साल का वनवास तय समझो। आबादी के हिसाब से सबसे बड़े जिले काँगड़ा से चुनकर आए 15 विधायक सरकार बनाने और गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माना जाता है कि कांगड़ा से जिस दल की जितनी ज्यादा सीटें, उतनी ही उसके सत्ता में आने की गारंटी पक्की। वर्ष 1998 से चुनाव-दर-चुनाव हिमाचल की सियासत में यह ट्रेंड चलता आ रहा है। बारी-बारी प्रदेश की सत्ता संभालते आए भाजपा और कांग्रेस इस जिले से 9 से लेकर 11 सीटें जीतकर ही उस मुकाम तक पहुंचे है। काँगड़ा की सियासी एहमियत राजनीतिक दल बखूबी जानते है और इसीलिए इस बार भी शुरुआत से लेकर ही काँगड़ा की सियासी रणभूमि में सेंधमारी की जा रही थी। काँगड़ा में सत्ता वापसी के लिए कांग्रेस प्रयासरत थी, तो भाजपा सत्ता को अनवरत रखने के लिए। वहीं आम आदमी पार्टी भी शुरुआत में भरपूर प्रयास करती दिखी मगर अंत तक वो प्रयास फीके पड़ गए। अब ये चुनावी जंग निपट चुकी है और इंतजार आठ दिसंबर को आने वाले नतीजों का है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार कांगड़ा जिला किस पार्टी के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करता है।
1982 अपवाद, बाकी जिसके ज्यादा विधायक उसी की सरकार
जिसके कांगड़ा में ज्यादा विधायक, उसी की सरकार। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा जिले से भाजपा ने 10 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज की। कांग्रेस पार्टी को पांच सीटें मिली थीं। एक निर्दलीय प्रत्याशी को जीत मिली थी। कांगड़ा ने सत्ता की राह तैयार की और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा से कांग्रेस को 11 और भाजपा को चार सीटों पर विजय मिली। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की। कांगड़ा में आगे रहने वाली कांग्रेस के पास सत्ता की चाबी आ गई। 2007 में भाजपा के नौ और कांग्रेस के चार प्रत्याशी जीते। बसपा का एक और एक निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। तब सरकार भाजपा की बनी। 2012 में फिर कांग्रेस की सरकार बनी, उस दौरान भी कांगड़ा जिले से 10 सीटें कांग्रेस, भाजपा की तीन और दो निर्दलीय की रहीं। पिछले यानी 2017 चुनाव की बात करें तो जिला की 15 में से 11 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया था। कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटें मिली थी और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी।कांगड़ा किसी को नहीं बक्शता, यहां दिग्गज धराशाई होते है !
जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा - जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चुका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा।भारी पड़ा था माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा :
2012 में भाजपा की प्रेम कुमार धूमल सरकार के मिशन रिपीट में कांगड़ा बाधा बना था। तब भाजपा तीन सीटें ही जीत पाई थी। तब प्रो धूमल ने माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा किया था, जो बड़ी चूक साबित हुई। तब भाजपा को प्रदेश में 26 सीटें मिली थी और कांगड़ा में बेहतर कर कांग्रेस का आंकड़ा 36 पर पहुंचा था।
पालमपुर : क्या भाजपा भेद पाएगी बुटेल परिवार का बुलेटप्रूफ किला
पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर मौजूदा समय में यहां भाजपा की स्थिति सहज नहीं दिखती।1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया पर, अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। इस चुनाव में भाजपा ने बुटेल परिवार के इस गढ़ को भेदने के लिए वूल फेडरेशन के चेयरमैन और प्रदेश महासचिव त्रिलोक कपूर को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस की तरफ से आशीष बुटेल फिर मैदान में है। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो आशीष बुटेल को लेकर इस क्षेत्र में कोई नाराजगी नहीं दिखती। वहीं सत्ता विरोधी लहर और ओपीएस जैसे मुद्दे भी कांग्रेस को मजबूत करते है। सम्भवतः ये ही कारण है कि आशीष जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर, त्रिलोक कपूर की बात करें तो निसंदेह उन्होंने दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है। पर उनकी ये कोशिश क्या रंग लाती है, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा।
बैजनाथ : पंडित संतराम के गढ़ में वापसी की जद्दोजहद में कांग्रेस
90 के दशक में कांगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2012 ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने धर्मशाला का रुख किया। 2012 में कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने, पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्खराज विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने यहाँ किशोरी लाल और भाजपा ने फिर से मुल्खराज प्रेमी को मैदान में उतारा है। अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस फिर से एक बार अपने गढ़ पर कब्जा जमा पाएगी या जनता दोबारा से भाजपा के प्रत्याशी पर अपना वोट रूपी आशीर्वाद बरसाएगी।
सुलह : यहां की जनता को परिवर्तन पसंद , इस बार क्या होगा ?
1998 के बाद से सुलह विधानसभा क्षेत्र की सत्ता भी प्रदेश की सत्ता के साथ बदलती रही है। 1998 के बाद से अब तक सुलह में हर पांच साल में परिवर्तन हुआ है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी पूर्व कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। इस बार यहां भाजपा ने फिर से विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार को मैदान में उतारा है। पर कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए पूर्व विधायक जगजीवन पाल का टिकट काटकर जगदीश सिपहिया पर दांव खेला है। इसके बाद वो ही हुआ जिसकी आशंका थी, जगजीवन पाल ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी सुलह में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा एकजुट दिखी। जाहिर है कांग्रेस की इस बगावत के बीच भाजपा यहाँ रिवाज़ बदलने को लेकर आश्वस्त है। पर दिलचस्प बात ये है कि जगजीवन पाल के पक्ष में जहाँ इस क्षेत्र में सहानुभूति भी दिखी है, वहीं कांग्रेस का एक खेमा भी उनके साथ चला है। ऐसे में निर्दलीय होने के बावजूद उनका दावा कमतर नहीं है।
नगरोटा बगवां : क्या कुक्का को पटखनी दे पाएंगे रघुबीर बाली ?
'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। इस बार अरुण कुमार कुक्का के सामने स्वर्गीय जीएस बाली के पुत्र आरएस बाली कांग्रेस की ओर से मैदान में है। नगरोटा बगवां सीट पर हमेशा कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। अब तक के चुनाव में यहां कांग्रेस को 6 तो भाजपा को 4 बार जीत प्राप्त हुई है। यहां कांग्रेस के कद्दावर नेता जीएस बाली 1998 से लेकर 2012 तक लगातार विधायक बनते रहे है। पर 2017 में बाली चुनाव हार गए। अब उनके पुत्र उनकी हार का हिसाब बराबर करने के इरादे से मैदान में है। इस विधानसभा क्षेत्र में जहाँ अरुण कुमार कुक्का लगातार भाजपा सरकार और अपने द्वारा करवाए गए कार्यों पर वोट मांगते रहे है तो वहीं दूसरी ओर आरएस बाली को अपने पिता द्वारा करवाए गए क्षेत्र के विकास का सहारा रहा है। अब जनता ने आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है।
कांगड़ा : काजल जीते तो बनेगा इतिहास
काँगड़ा विधानसभा क्षेत्र में इस बार गजब की सियासत देखने को मिली है। यहां कौन भाजपाई है और कौन कांग्रेसी, समझना बड़ा मुश्किल हो गया। चुनाव से पहले नेताओं ने पार्टियां भी बदली और विचारधाराएं भी। यहां कांग्रेस के दिग्गज पवन काजल चुनाव से पहले भाजपा के हो गए और पूर्व भाजपाई चौधरी सुरेंदर काकू कांग्रेस में शामिल हो गए। पवन काजल काँगड़ा से दो बार विधायक रहे है। 2012 में काजल निर्दलीय चुनाव जीत कर विधायक बने और 2017 में काजल कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचे। इस बार कांग्रेस ने काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और काजल ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। काजल भाजपा में शामिल हुए और चुनाव भी भाजपा टिकट पर ही लड़ा। कांग्रेस से आए काजल को टिकट देने पर भाजपा मंडल ने उनका कड़ा विरोध किया, कुछ नेताओं को मना लिया गया लेकिन कुछ नेता आखिर तक नही माने। भाजपा से नाराज़ होकर कुलभाष चौधरी ने आजाद नामांकन भरा और चुनाव लड़ा। वहीं कांग्रेस ने इस बार भाजपा से कांग्रेस में आए और पूर्व में विधायक रहे चौधरी सुरेंद्र काकू को टिकट दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजा बेशक आठ दिसम्बर को आएगा लेकिन विरोध के बावजूद काजल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अगर काजल जीते तो वे तीसरी बार विधायक बनेंगे और दिलचस्प बात ये है वे अलग- अलग सिंबल से चुनाव जीत हैट्रिक लगाने वाले विधायक होंगे। ऐसा करने वाले वे कांगड़ा के पहले विधायक होंगे, हालांकि प्रदेश में महेंद्र सिंह ठाकुर ये कारनामा कर चुके है।
देहरा : 2017 में हुई थी जमानत जब्त, क्या इस बार वापसी कर रही है कांग्रेस ?
चुनाव से पहले देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह भाजपा में शामिल हुए। इसे भाजपा की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और लग रहा था मानों इस बार देहरा से होशियार सिंह ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे। मगर भाजपा के टिकट आवंटन ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने होशियार सिंह नहीं बल्कि ज्वालामुखी के विधायक और पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश ध्वाला को टिकट दिया और होशियार सिंह को एक बार फिर से बतौर निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा। इस सीट पर कांग्रेस ने भी टिकट बदला और पूर्व में काँगड़ा से चुनाव लड़ चुके डॉ राजेश शर्मा को टिकट दिया गया। होशियार सिंह इस बार भी दोनों ही राजनैतिक दलों को कड़ी टक्कर देते हुए दिखाई दे रहें है और देहरा में मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है। कहते है, देहरा कोई नहीं तेरा। पर सियासत इस बार अच्छे अच्छों को देहरा खींच कर ले गई। भाजपा प्रत्याशी रमेश ध्वाला जहाँ ज्वालामुखी निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर देहरा पहुंचे। हालाँकि ध्वाला का घर देहरा निर्वाचन क्षेत्र में आता है लेकिन उनकी कर्म भूमि ज्वालामुखी ही रही है। ऐसे में बेशक ध्वाला वापस घाट लौट आये हो लेकिन घरवालों ने भी क्या वोटों से उनका स्वागत किया है, ये बड़ा सवाल है। वहीं कांगड़ा में किस्मत आजमाने के बाद कांग्रेस नेता डॉ राजेश शर्मा ने तो देहरा में घर भी बना लिया। पिछले चुनाव कांग्रेस के तरफ से देहरा में वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर ने चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत जब्त हुई थी। हालांकि इस बार ऐसे हाल नहीं है और राजेश शर्मा की दावेदारी दमदार दिख रही है। संभव है कि आठ दिसंबर को देहरा में कांग्रेस की वापसी हो। वहीं होशियार सिंह के साथ भाजपा ने जो किया उसके चलते क्या उन्हें वोटों की सहानुभूति मिली, ये भी बड़ा सवाल है। हालांकि बतौर विधायक उनके कामकाज को लेकर कोई ख़ास नाराजगी नहीं दिखती और ऐसे में इस बार भी उनकी दावेदारी मजबूत है।
शाहपुर: केवल अब भी हारे तो राजनैतिक भविष्य पर उठेंगे सवाल
शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। कांग्रेस से पहले यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता था। मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल पठानिया की कांग्रेस में एंट्री हुई। कहते है कि यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाजी हर बार सरवीन जीतते रही है। हर बार एक दूसरे के लिए ध्रुमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल, सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं। मगर अब मेजर विजय सिंह मनकोटिया भाजपाई हो चुके है। माहिर मानते है कि मेजर के चुनाव लड़ने का लाभ सरवीन को मिलता रहा है, पर इस बार मेजर मैदान में नहीं है। बल्कि भाजपा से एक बागी उम्मीदवार सरवीन को चुनौती दे रहे है। ऐसे में कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया क्या इस बार जीत का स्वाद चख पाएंगे, इस पर सभी की नजरें है। पर अगर केवल अभी भी नहीं जीते तो ये उनकी लगातार तीसरी हार होगी और ऐसे में उनके राजनैतिक भविष्य पर सवाल उठना भी लाजमी होगा। जमीनी स्थिति की बात करें तो मंत्री सरवीन चौधरी को लेकर इस क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। हालांकि ऐसा पिछले दो चुनाव में भी था लेकिन बावजूद इसके सरवीन आसानी से जीती। ऐसे में अब आठ दिसम्बर को क्या नतीजा आता है, इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है।
फतेहपुर : युवा भवानी के सामने तीन दिग्गज
फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले चार चुनाव कांग्रेस यहां जीत चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया या उनके बेटे पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा जोर लगा दिया, मगर भाजपा जीत नहीं पाई। इस बार कांग्रेस के इस गढ़ को भेदने के भाजपा ने वन मंत्री राकेश पठानिया को मैदान में उतारा है। राकेश पठानिया का टिकट नूरपुर से बदल कर फतेहपुर कर दिया गया। पठानिया के आने से ये मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है। यहां पांच बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले राजन सुशांत भी अब आम आदमी पार्टी में वापसी कर चुनावी मैदान में है। उधर, भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है, भाजपा नेता कृपाल परमार भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। अब कृपाल की दौड़ विधानसभा की दहलीज लांघ पाती है या नहीं, इस पर सबकी निगाह है। दरअसल, कृपाल को मनाने के लिए खुद पीएम मोदी का फोन आया था जो वायरल हुआ। पीएम के मनाने पर भी कृपाल माने नहीं, और ऐसे में अब भी अगर कृपाल हारे तो उनके राजनैतिक भविष्य को लेकर सवाल खड़े होना तो लाजमी होगा। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर भवानी सिंह पठानिया को मैदान में उतारा है। कांग्रेस में भवानी के नाम को लेकर कोई अंतर्कलह नहीं दिखी। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। पिछले चुनाव जीत कर भवानी ने ये साबित कर दिया था की वे राजनीति के लिए नए नहीं है। बहरहाल कांग्रेस में 'जय भवानी' का नारा बुलंद है और समर्थक तो उन्हें भावी मंत्री भी बताने लगे है। जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और भवानी भी ये चुनाव जीतते है तो उन्हें मंत्री पद या कोई अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। बहरहाल, भवानी और विधानसभा के बीच भाजपा के बड़े नेता और मंत्री राकेश पठानिया, कृपाल परमार और राजन सुशांत जैसे दिग्गज है। अब फतेहपुर में युवा जोश की जीत होती है या अनुभव की, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है।
ज्वाली : चौधरी चंद्र कुमार जीत को लेकर आश्वस्त
2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। 2017 में फिर चौधरी चंद्र कुमार ने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इस बार फिर से चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस की ओर से मैदान में है। जबकि भाजपा ने समाजसेवी संजय गुलेरिया को टिकट दिया है। ज्वाली उन विधानसभा क्षेत्रों में से है जहां भाजपा द्वारा सिटिंग विधायक का टिकट काटा गया है। यहां भी भाजपा को विरोध का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन अर्जुन ठाकुर जो भाजपा के सिटिंग विधायक थे उन्हें आखिरकार मना लिया गया। इसके बाद लड़ाई चौधरी चंद्र कुमार बनाम संजय गुलेरिया रही है। जानकर मानते है कि संजय गुलेरिया को कांग्रेस अंडर एस्टीमेट नहीं कर सकती, क्षेत्र में उनकी पकड़ काफी मजबूत है, लेकिन चुनौती कड़ी है क्यूंकि उनके सामने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व में मंत्री रहे चौधरी चंद्र कुमार है। यहाँ कौन जीतेगा ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन प्रदेश में एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों के बुते कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है। पवन काजल के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने चौधरी चंद्र कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। चंद्र कुमार बड़ा ओबीसी चेहरा है और यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनी तो चंद्र कुमार को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जानकार मानते है कि ये फैक्टर भी सम्भवतः चंद्र कुमार के पक्ष में गया हो।
धर्मशाला : क्या काम कर गया 'सुधीर ही सुधार है' का नारा ?
धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। इस चुनाव में भी धर्मशाला हॉट सीट बनी हुई है। ये कांग्रेस के दिग्गज सुधीर शर्मा की सीट है और यहाँ इस बार भी सुधीर शर्मा ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं दूसरी ओर इस बार धर्मशाला में भाजपा ने सिटींग विधायक का टिकट काट कई दलों में रहे और हाल ही में आम आदमी पार्टी से भाजपा में लौटे राकेश चौधरी को दिया। इस टिकट के बदलाव से भाजपा ने यहां विरोध का सामना भी किया। पार्टी ने यहां विशाल नेहरिया को तो मना लिया लेकिन पार्टी विपिन नेहरिया को नहीं मना पाई। विपिन नेहरिया भाजपा जनजातीय मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है परन्तु टिकट न मिलने पर उन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। यूँ तो कांग्रेस सुधीर शर्मा के टिकट मिलने से कई लोग नाराज थे लेकिन उन्होंने खुल कर अपनी नाराज़गी जाहिर नहीं की। जानकर मानते है कि जितनी नाराजगी भाजपा में राकेश चौधरी को लेकर रही, उतनी ही नाराजगी कांग्रेस में सुधीर शर्मा को लेकर भी रही, बस फर्क रहा कि भाजपा की नाराजगी खुले तौर पर सामने आई और कांग्रेस की नाराजगी अंदर ही अंदर चलती रही। फिर भी यहाँ सुधीर शर्मा 2012 से 2017 के अपने कार्यकाल में करवाएं गए विकास कार्यों को लेकर दमखम से चुनाव लड़े है। उनका नारा 'सुधीर ही सुधार है' भी चर्चा में रहा और वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। सुधीर का दावा है कि धर्मशाला की जनता सुधार कर चुकी है और आठ दिसम्बर को वे फिर धर्मशाला के विधायक होंगे।
इंदौरा : त्रिकोणीय मुकाबले में निर्दलीय मनोहर पर निगाह
इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। भाजपा ने इस बार भी टिकट रीता धीमान को ही दिया जिससे नाराज़ हो कर मनोहर धीमान बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे। वहीं कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। बतौर निर्दलीय उतर कर भी इस विधानसभा क्षेत्र में मनोहर धीमान ने भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के प्रत्याशियों की धुकधुकी बढ़ा कर रखी है। यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला है और किसी को कम नहीं आँका जा सकता।
जसवां परागपुर : बहुकोणीय मुकाबले में संभव है अंतर बेहद कम हो
जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ है। बिक्रम ठाकुर यहां से तीन बार विधायक बने है। इस बार भी यहां भाजपा से बिक्रम सिंह ठाकुर ही प्रत्याशी है, जबकि कांग्रेस ने पूर्व विधायक सिंह मनकोटिया को मैदान में उतारा है। जसवां परागपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे कैप्टेन संजय पराशर ने यहाँ मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर और सुरेंद्र मनकोटिया के लिए मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। कभी बिक्रम सिंह ठाकुर के करीबी रहे मुकेश ठाकुर अब यहाँ से कांग्रेस के बागी है। वोटों के ध्रुवीकरण के फेर में फंसी इस सीट पर बिक्रम ठाकुर का कड़ा इम्तिहान है। क्या कांग्रेस के सुरेंद्र मनकोटिया को इसका लाभ मिल सकता है, ये ही बड़ा और अहम सवाल है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजे तक स्वाभाविक है सभी नेता अपनी -अपनी जीत के दावे करेंगे। जानकारों की माने तो यहाँ बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है और जो भी जीते मुमकिन है अंतर बेहद कम हो।
ज्वालामुखी : सीट बदलना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक या भूल ?
हिमाचल प्रदेश की ज्वालामुखी विधानसभा सीट उन सीटों में शुमार है जहां पर किसी राजनीतिक दल के साथ-साथ निर्दलीय प्रत्याशियों पर भी जनता ने खूब भरोसा जताया है। इस सीट पर 2017 में भाजपा के रमेश चंद ध्वाला ने कांग्रेस के सीटिंग विधायक संजय रतन को 6464 वोटों के अंतराल से शिकस्त देकर जीत दर्ज की थी। ज्वालामुखी भी उन विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहाँ इस चुनाव में भाजपा ने बड़े बदलाव किये है। भाजपा ने जवालामुखी के सिटींग विधायक रमेश चंद ध्वाला का टिकट बदल कर उन्हें देहरा भेजा और ज्वालामुखी से रविंद्र रवि को मैदान में उतारा। वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने चेहरे संजय रतन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से होशियार सिंह भी यहां मैदान में है। ज्वालामुखी और देहरा के नेताओं की सीट बदलने का निर्णय भाजपा का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होता है या बड़ी भूल, ये तो आठ तारीख को ही तय होगा। फिलवक्त कांग्रेस जरूर यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त दिख रही है। यदि कांग्रेस सरकार बनती है और संजय रतन भी जीत जाते है तो मुमकिन है इस बार ज्वालामुखी को मंत्री पद भी मिल जाएँ। इसी तरह अगर भाजपा सरकार बनी और रविंद्र रवि विधायक बने तो रवि भी मंत्रिपद के प्रबल दावेदार होंगे। यानी अगर ज्वालामुखी सत्ता के साथ गया है तो बड़ा ओहदा लगभग तय है।
नूरपुर : निक्का ने दी बड़ी चुनौती, पर भीतरघात हुआ तो कांग्रेस को लाभ
नूरपुर में संभावित अंतर्कलह की स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने यहां मंत्री राकेश पठानिया का टिकट बदल कर रणबीर सिंह निक्का को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर अजय महाजन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा यहां बसपा प्रत्याशी साली राम, आप प्रत्याशी मनीषा कुमारी एवं सुभाष सिंह डडवाल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में नूरपुर विधानसभा सीट पर रणबीर सिंह निक्का निर्दलीय मैदान में थे और तब भाजपा की बगावत का फायदा कांग्रेस के अजय महाजन को मिला। इस बार बेशक भाजपा ने बगावत साधने के लिए राकेश पठानिया को नूरपुर भेजा हो लेकिन ये जहन में रखना होगा कि नूरपुर में भाजपा में भीतरघात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इसका लाभ एक बार फिर कांग्रेस को मिलना लाजमी है। हालांकि निक्का ने मजबूती से चुनाव लड़ अजय महाजन को बड़ी चुनौती दी है, पर नूरपुर में टिकट बदलना भाजपा के लिए कारगर साबित होता है या नहीं, ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा।
जयसिंहपुर : कांटे का मुकाबला अपेक्षित, क्या वापसी करेंगे गोमा ?
2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया ये विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यादविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार यहां कांग्रेस ने यादविंदर गोमा को ही मैदान में उतारा है, जबकि भाजपा की ओर से रविंदर धीमान मैदान में है। दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है और यहां मुकाबला टक्कर का दिखाई दे रहा है। 2017 के चुनाव में रविंदर धीमान यहां करीब 10,000 मतों से जीते थे, मगर इस बार जिस भी प्रत्याशी की जीत होगी अंतर बहुत कम रहने की संभावना है। शुरूआती दौर में यहाँ सीटिंग विधायक रविंद्र धीमान की राह थोड़ी आसान दिख रही थी। दरअसल कांग्रेस में टिकट के दो दावेदार थे, गोमा और सुशील कौल। इसके चलते कांग्रेस के टिकट आवंटन में काफी देरी हुई। पर आखिरकार कांग्रेस ने गोमा पर ही भरोसा जिताया। पर टिकट मिलने के बाद गोमा का प्रचार काफी आक्रामक रहा। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने के कांग्रेस के वादों का भी यहाँ जमीनी असर दिखा। नतीजन अब कांग्रेस यहाँ जीत के दावे कर रही है। उधर, कांग्रेस से मौका न मिलने के बाद सुशील कौल ने राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी का दामन थामा और चुनाव लड़ा। अब कौल कितने वोट ले जाते है और किसको कितना नुक्सान पहुंचाते है,इस पर भी सबकी निगाह है। बहरहाल नतीजा आठ तारीख को आएगा और यहाँ कांटे का मुकाबला अपेक्षित है।
कांगड़ा वो जिला है जो सिर्फ सत्ता तक पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि नेताओं की खाट खड़ी करने की भी कुव्वत रखता है। इतिहास गवाह है कि ये वो जिला है जिसने खुद मुख्यमंत्री को भी नहीं बक्शा। कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में बड़े-बड़ो के नाक से धुंआ निकल जाता है। जो काँगड़ा को न भाया, उसका प्रदेश की सत्ता से पांच साल का वनवास तय समझो। आबादी के हिसाब से सबसे बड़े जिले काँगड़ा से चुनकर आए 15 विधायक सरकार बनाने और गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माना जाता है कि कांगड़ा से जिस दल की जितनी ज्यादा सीटें, उतनी ही उसके सत्ता में आने की गारंटी पक्की। वर्ष 1998 से चुनाव-दर-चुनाव हिमाचल की सियासत में यह ट्रेंड चलता आ रहा है। बारी-बारी प्रदेश की सत्ता संभालते आए भाजपा और कांग्रेस इस जिले से 9 से लेकर 11 सीटें जीतकर ही उस मुकाम तक पहुंचे है। काँगड़ा की सियासी एहमियत राजनीतिक दल बखूबी जानते है और इसीलिए इस बार भी शुरुआत से लेकर ही काँगड़ा की सियासी रणभूमि में सेंधमारी की जा रही थी। काँगड़ा में सत्ता वापसी के लिए कांग्रेस प्रयासरत थी, तो भाजपा सत्ता को अनवरत रखने के लिए। वहीं आम आदमी पार्टी भी शुरुआत में भरपूर प्रयास करती दिखी मगर अंत तक वो प्रयास फीके पड़ गए। अब ये चुनावी जंग निपट चुकी है और इंतजार आठ दिसंबर को आने वाले नतीजों का है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार कांगड़ा जिला किस पार्टी के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करता है।
1982 अपवाद, बाकी जिसके ज्यादा विधायक उसी की सरकार
जिसके कांगड़ा में ज्यादा विधायक, उसी की सरकार। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा जिले से भाजपा ने 10 सीटों के साथ बड़ी जीत दर्ज की। कांग्रेस पार्टी को पांच सीटें मिली थीं। एक निर्दलीय प्रत्याशी को जीत मिली थी। कांगड़ा ने सत्ता की राह तैयार की और प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में कांगड़ा से कांग्रेस को 11 और भाजपा को चार सीटों पर विजय मिली। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की। कांगड़ा में आगे रहने वाली कांग्रेस के पास सत्ता की चाबी आ गई। 2007 में भाजपा के नौ और कांग्रेस के चार प्रत्याशी जीते। बसपा का एक और एक निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। तब सरकार भाजपा की बनी। 2012 में फिर कांग्रेस की सरकार बनी, उस दौरान भी कांगड़ा जिले से 10 सीटें कांग्रेस, भाजपा की तीन और दो निर्दलीय की रहीं। पिछले यानी 2017 चुनाव की बात करें तो जिला की 15 में से 11 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया था। कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटें मिली थी और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी।कांगड़ा किसी को नहीं बक्शता, यहां दिग्गज धराशाई होते है !
जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा - जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चुका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा।भारी पड़ा था माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा :
2012 में भाजपा की प्रेम कुमार धूमल सरकार के मिशन रिपीट में कांगड़ा बाधा बना था। तब भाजपा तीन सीटें ही जीत पाई थी। तब प्रो धूमल ने माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा किया था, जो बड़ी चूक साबित हुई। तब भाजपा को प्रदेश में 26 सीटें मिली थी और कांगड़ा में बेहतर कर कांग्रेस का आंकड़ा 36 पर पहुंचा था।
पालमपुर : क्या भाजपा भेद पाएगी बुटेल परिवार का बुलेटप्रूफ किला
पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर मौजूदा समय में यहां भाजपा की स्थिति सहज नहीं दिखती।1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया पर, अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। इस चुनाव में भाजपा ने बुटेल परिवार के इस गढ़ को भेदने के लिए वूल फेडरेशन के चेयरमैन और प्रदेश महासचिव त्रिलोक कपूर को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस की तरफ से आशीष बुटेल फिर मैदान में है। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो आशीष बुटेल को लेकर इस क्षेत्र में कोई नाराजगी नहीं दिखती। वहीं सत्ता विरोधी लहर और ओपीएस जैसे मुद्दे भी कांग्रेस को मजबूत करते है। सम्भवतः ये ही कारण है कि आशीष जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। उधर, त्रिलोक कपूर की बात करें तो निसंदेह उन्होंने दमदार तरीके से चुनाव लड़ा है। पर उनकी ये कोशिश क्या रंग लाती है, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा।
बैजनाथ : पंडित संतराम के गढ़ में वापसी की जद्दोजहद में कांग्रेस
90 के दशक में कांगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2012 ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने धर्मशाला का रुख किया। 2012 में कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने, पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्खराज विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने यहाँ किशोरी लाल और भाजपा ने फिर से मुल्खराज प्रेमी को मैदान में उतारा है। अब देखना ये है कि क्या कांग्रेस फिर से एक बार अपने गढ़ पर कब्जा जमा पाएगी या जनता दोबारा से भाजपा के प्रत्याशी पर अपना वोट रूपी आशीर्वाद बरसाएगी।
सुलह : यहां की जनता को परिवर्तन पसंद , इस बार क्या होगा ?
1998 के बाद से सुलह विधानसभा क्षेत्र की सत्ता भी प्रदेश की सत्ता के साथ बदलती रही है। 1998 के बाद से अब तक सुलह में हर पांच साल में परिवर्तन हुआ है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी पूर्व कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। इस बार यहां भाजपा ने फिर से विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार को मैदान में उतारा है। पर कांग्रेस ने सबको चौंकाते हुए पूर्व विधायक जगजीवन पाल का टिकट काटकर जगदीश सिपहिया पर दांव खेला है। इसके बाद वो ही हुआ जिसकी आशंका थी, जगजीवन पाल ने निर्दलीय ताल ठोक दी। यानी सुलह में कांग्रेस को बगावत का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा एकजुट दिखी। जाहिर है कांग्रेस की इस बगावत के बीच भाजपा यहाँ रिवाज़ बदलने को लेकर आश्वस्त है। पर दिलचस्प बात ये है कि जगजीवन पाल के पक्ष में जहाँ इस क्षेत्र में सहानुभूति भी दिखी है, वहीं कांग्रेस का एक खेमा भी उनके साथ चला है। ऐसे में निर्दलीय होने के बावजूद उनका दावा कमतर नहीं है।
नगरोटा बगवां : क्या कुक्का को पटखनी दे पाएंगे रघुबीर बाली ?
'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। इस बार अरुण कुमार कुक्का के सामने स्वर्गीय जीएस बाली के पुत्र आरएस बाली कांग्रेस की ओर से मैदान में है। नगरोटा बगवां सीट पर हमेशा कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। अब तक के चुनाव में यहां कांग्रेस को 6 तो भाजपा को 4 बार जीत प्राप्त हुई है। यहां कांग्रेस के कद्दावर नेता जीएस बाली 1998 से लेकर 2012 तक लगातार विधायक बनते रहे है। पर 2017 में बाली चुनाव हार गए। अब उनके पुत्र उनकी हार का हिसाब बराबर करने के इरादे से मैदान में है। इस विधानसभा क्षेत्र में जहाँ अरुण कुमार कुक्का लगातार भाजपा सरकार और अपने द्वारा करवाए गए कार्यों पर वोट मांगते रहे है तो वहीं दूसरी ओर आरएस बाली को अपने पिता द्वारा करवाए गए क्षेत्र के विकास का सहारा रहा है। अब जनता ने आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है।
कांगड़ा : काजल जीते तो बनेगा इतिहास
काँगड़ा विधानसभा क्षेत्र में इस बार गजब की सियासत देखने को मिली है। यहां कौन भाजपाई है और कौन कांग्रेसी, समझना बड़ा मुश्किल हो गया। चुनाव से पहले नेताओं ने पार्टियां भी बदली और विचारधाराएं भी। यहां कांग्रेस के दिग्गज पवन काजल चुनाव से पहले भाजपा के हो गए और पूर्व भाजपाई चौधरी सुरेंदर काकू कांग्रेस में शामिल हो गए। पवन काजल काँगड़ा से दो बार विधायक रहे है। 2012 में काजल निर्दलीय चुनाव जीत कर विधायक बने और 2017 में काजल कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचे। इस बार कांग्रेस ने काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया और काजल ने चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। काजल भाजपा में शामिल हुए और चुनाव भी भाजपा टिकट पर ही लड़ा। कांग्रेस से आए काजल को टिकट देने पर भाजपा मंडल ने उनका कड़ा विरोध किया, कुछ नेताओं को मना लिया गया लेकिन कुछ नेता आखिर तक नही माने। भाजपा से नाराज़ होकर कुलभाष चौधरी ने आजाद नामांकन भरा और चुनाव लड़ा। वहीं कांग्रेस ने इस बार भाजपा से कांग्रेस में आए और पूर्व में विधायक रहे चौधरी सुरेंद्र काकू को टिकट दिया। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजा बेशक आठ दिसम्बर को आएगा लेकिन विरोध के बावजूद काजल अपनी जीत को लेकर आश्वस्त है। अगर काजल जीते तो वे तीसरी बार विधायक बनेंगे और दिलचस्प बात ये है वे अलग- अलग सिंबल से चुनाव जीत हैट्रिक लगाने वाले विधायक होंगे। ऐसा करने वाले वे कांगड़ा के पहले विधायक होंगे, हालांकि प्रदेश में महेंद्र सिंह ठाकुर ये कारनामा कर चुके है।
देहरा : 2017 में हुई थी जमानत जब्त, क्या इस बार वापसी कर रही है कांग्रेस ?
चुनाव से पहले देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह भाजपा में शामिल हुए। इसे भाजपा की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और लग रहा था मानों इस बार देहरा से होशियार सिंह ही भाजपा के प्रत्याशी होंगे। मगर भाजपा के टिकट आवंटन ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने होशियार सिंह नहीं बल्कि ज्वालामुखी के विधायक और पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश ध्वाला को टिकट दिया और होशियार सिंह को एक बार फिर से बतौर निर्दलीय मैदान में उतरना पड़ा। इस सीट पर कांग्रेस ने भी टिकट बदला और पूर्व में काँगड़ा से चुनाव लड़ चुके डॉ राजेश शर्मा को टिकट दिया गया। होशियार सिंह इस बार भी दोनों ही राजनैतिक दलों को कड़ी टक्कर देते हुए दिखाई दे रहें है और देहरा में मुकाबला त्रिकोणीय हो चुका है। कहते है, देहरा कोई नहीं तेरा। पर सियासत इस बार अच्छे अच्छों को देहरा खींच कर ले गई। भाजपा प्रत्याशी रमेश ध्वाला जहाँ ज्वालामुखी निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर देहरा पहुंचे। हालाँकि ध्वाला का घर देहरा निर्वाचन क्षेत्र में आता है लेकिन उनकी कर्म भूमि ज्वालामुखी ही रही है। ऐसे में बेशक ध्वाला वापस घाट लौट आये हो लेकिन घरवालों ने भी क्या वोटों से उनका स्वागत किया है, ये बड़ा सवाल है। वहीं कांगड़ा में किस्मत आजमाने के बाद कांग्रेस नेता डॉ राजेश शर्मा ने तो देहरा में घर भी बना लिया। पिछले चुनाव कांग्रेस के तरफ से देहरा में वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर ने चुनाव लड़ा था और उनकी जमानत जब्त हुई थी। हालांकि इस बार ऐसे हाल नहीं है और राजेश शर्मा की दावेदारी दमदार दिख रही है। संभव है कि आठ दिसंबर को देहरा में कांग्रेस की वापसी हो। वहीं होशियार सिंह के साथ भाजपा ने जो किया उसके चलते क्या उन्हें वोटों की सहानुभूति मिली, ये भी बड़ा सवाल है। हालांकि बतौर विधायक उनके कामकाज को लेकर कोई ख़ास नाराजगी नहीं दिखती और ऐसे में इस बार भी उनकी दावेदारी मजबूत है।
शाहपुर: केवल अब भी हारे तो राजनैतिक भविष्य पर उठेंगे सवाल
शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। कांग्रेस से पहले यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता था। मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल पठानिया की कांग्रेस में एंट्री हुई। कहते है कि यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाजी हर बार सरवीन जीतते रही है। हर बार एक दूसरे के लिए ध्रुमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल, सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं। मगर अब मेजर विजय सिंह मनकोटिया भाजपाई हो चुके है। माहिर मानते है कि मेजर के चुनाव लड़ने का लाभ सरवीन को मिलता रहा है, पर इस बार मेजर मैदान में नहीं है। बल्कि भाजपा से एक बागी उम्मीदवार सरवीन को चुनौती दे रहे है। ऐसे में कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया क्या इस बार जीत का स्वाद चख पाएंगे, इस पर सभी की नजरें है। पर अगर केवल अभी भी नहीं जीते तो ये उनकी लगातार तीसरी हार होगी और ऐसे में उनके राजनैतिक भविष्य पर सवाल उठना भी लाजमी होगा। जमीनी स्थिति की बात करें तो मंत्री सरवीन चौधरी को लेकर इस क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी जरूर दिखी है। हालांकि ऐसा पिछले दो चुनाव में भी था लेकिन बावजूद इसके सरवीन आसानी से जीती। ऐसे में अब आठ दिसम्बर को क्या नतीजा आता है, इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है।
फतेहपुर : युवा भवानी के सामने तीन दिग्गज
फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले चार चुनाव कांग्रेस यहां जीत चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया या उनके बेटे पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा जोर लगा दिया, मगर भाजपा जीत नहीं पाई। इस बार कांग्रेस के इस गढ़ को भेदने के भाजपा ने वन मंत्री राकेश पठानिया को मैदान में उतारा है। राकेश पठानिया का टिकट नूरपुर से बदल कर फतेहपुर कर दिया गया। पठानिया के आने से ये मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया है। यहां पांच बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले राजन सुशांत भी अब आम आदमी पार्टी में वापसी कर चुनावी मैदान में है। उधर, भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ा है, भाजपा नेता कृपाल परमार भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। अब कृपाल की दौड़ विधानसभा की दहलीज लांघ पाती है या नहीं, इस पर सबकी निगाह है। दरअसल, कृपाल को मनाने के लिए खुद पीएम मोदी का फोन आया था जो वायरल हुआ। पीएम के मनाने पर भी कृपाल माने नहीं, और ऐसे में अब भी अगर कृपाल हारे तो उनके राजनैतिक भविष्य को लेकर सवाल खड़े होना तो लाजमी होगा। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर भवानी सिंह पठानिया को मैदान में उतारा है। कांग्रेस में भवानी के नाम को लेकर कोई अंतर्कलह नहीं दिखी। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। पिछले चुनाव जीत कर भवानी ने ये साबित कर दिया था की वे राजनीति के लिए नए नहीं है। बहरहाल कांग्रेस में 'जय भवानी' का नारा बुलंद है और समर्थक तो उन्हें भावी मंत्री भी बताने लगे है। जानकारों का मानना है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और भवानी भी ये चुनाव जीतते है तो उन्हें मंत्री पद या कोई अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। बहरहाल, भवानी और विधानसभा के बीच भाजपा के बड़े नेता और मंत्री राकेश पठानिया, कृपाल परमार और राजन सुशांत जैसे दिग्गज है। अब फतेहपुर में युवा जोश की जीत होती है या अनुभव की, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है।
ज्वाली : चौधरी चंद्र कुमार जीत को लेकर आश्वस्त
2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। 2017 में फिर चौधरी चंद्र कुमार ने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। इस बार फिर से चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस की ओर से मैदान में है। जबकि भाजपा ने समाजसेवी संजय गुलेरिया को टिकट दिया है। ज्वाली उन विधानसभा क्षेत्रों में से है जहां भाजपा द्वारा सिटिंग विधायक का टिकट काटा गया है। यहां भी भाजपा को विरोध का सामना भी करना पड़ा था, लेकिन अर्जुन ठाकुर जो भाजपा के सिटिंग विधायक थे उन्हें आखिरकार मना लिया गया। इसके बाद लड़ाई चौधरी चंद्र कुमार बनाम संजय गुलेरिया रही है। जानकर मानते है कि संजय गुलेरिया को कांग्रेस अंडर एस्टीमेट नहीं कर सकती, क्षेत्र में उनकी पकड़ काफी मजबूत है, लेकिन चुनौती कड़ी है क्यूंकि उनके सामने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व में मंत्री रहे चौधरी चंद्र कुमार है। यहाँ कौन जीतेगा ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन प्रदेश में एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों के बुते कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त जरूर दिख रही है। पवन काजल के भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने चौधरी चंद्र कुमार को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है। चंद्र कुमार बड़ा ओबीसी चेहरा है और यदि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनी तो चंद्र कुमार को अहम जिम्मा मिलना लगभग तय है। जानकार मानते है कि ये फैक्टर भी सम्भवतः चंद्र कुमार के पक्ष में गया हो।
धर्मशाला : क्या काम कर गया 'सुधीर ही सुधार है' का नारा ?
धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। इस चुनाव में भी धर्मशाला हॉट सीट बनी हुई है। ये कांग्रेस के दिग्गज सुधीर शर्मा की सीट है और यहाँ इस बार भी सुधीर शर्मा ने पूरे दमखम से चुनाव लड़ा है। वहीं दूसरी ओर इस बार धर्मशाला में भाजपा ने सिटींग विधायक का टिकट काट कई दलों में रहे और हाल ही में आम आदमी पार्टी से भाजपा में लौटे राकेश चौधरी को दिया। इस टिकट के बदलाव से भाजपा ने यहां विरोध का सामना भी किया। पार्टी ने यहां विशाल नेहरिया को तो मना लिया लेकिन पार्टी विपिन नेहरिया को नहीं मना पाई। विपिन नेहरिया भाजपा जनजातीय मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे है परन्तु टिकट न मिलने पर उन्होंने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। यूँ तो कांग्रेस सुधीर शर्मा के टिकट मिलने से कई लोग नाराज थे लेकिन उन्होंने खुल कर अपनी नाराज़गी जाहिर नहीं की। जानकर मानते है कि जितनी नाराजगी भाजपा में राकेश चौधरी को लेकर रही, उतनी ही नाराजगी कांग्रेस में सुधीर शर्मा को लेकर भी रही, बस फर्क रहा कि भाजपा की नाराजगी खुले तौर पर सामने आई और कांग्रेस की नाराजगी अंदर ही अंदर चलती रही। फिर भी यहाँ सुधीर शर्मा 2012 से 2017 के अपने कार्यकाल में करवाएं गए विकास कार्यों को लेकर दमखम से चुनाव लड़े है। उनका नारा 'सुधीर ही सुधार है' भी चर्चा में रहा और वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। सुधीर का दावा है कि धर्मशाला की जनता सुधार कर चुकी है और आठ दिसम्बर को वे फिर धर्मशाला के विधायक होंगे।
इंदौरा : त्रिकोणीय मुकाबले में निर्दलीय मनोहर पर निगाह
इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। भाजपा ने इस बार भी टिकट रीता धीमान को ही दिया जिससे नाराज़ हो कर मनोहर धीमान बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे। वहीं कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। बतौर निर्दलीय उतर कर भी इस विधानसभा क्षेत्र में मनोहर धीमान ने भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों के प्रत्याशियों की धुकधुकी बढ़ा कर रखी है। यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला है और किसी को कम नहीं आँका जा सकता।
जसवां परागपुर : बहुकोणीय मुकाबले में संभव है अंतर बेहद कम हो
जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ है। बिक्रम ठाकुर यहां से तीन बार विधायक बने है। इस बार भी यहां भाजपा से बिक्रम सिंह ठाकुर ही प्रत्याशी है, जबकि कांग्रेस ने पूर्व विधायक सिंह मनकोटिया को मैदान में उतारा है। जसवां परागपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे कैप्टेन संजय पराशर ने यहाँ मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर और सुरेंद्र मनकोटिया के लिए मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। कभी बिक्रम सिंह ठाकुर के करीबी रहे मुकेश ठाकुर अब यहाँ से कांग्रेस के बागी है। वोटों के ध्रुवीकरण के फेर में फंसी इस सीट पर बिक्रम ठाकुर का कड़ा इम्तिहान है। क्या कांग्रेस के सुरेंद्र मनकोटिया को इसका लाभ मिल सकता है, ये ही बड़ा और अहम सवाल है। बहरहाल मतदान हो चुका है और नतीजे तक स्वाभाविक है सभी नेता अपनी -अपनी जीत के दावे करेंगे। जानकारों की माने तो यहाँ बहुकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है और जो भी जीते मुमकिन है अंतर बेहद कम हो।
ज्वालामुखी : सीट बदलना भाजपा का मास्टर स्ट्रोक या भूल ?
हिमाचल प्रदेश की ज्वालामुखी विधानसभा सीट उन सीटों में शुमार है जहां पर किसी राजनीतिक दल के साथ-साथ निर्दलीय प्रत्याशियों पर भी जनता ने खूब भरोसा जताया है। इस सीट पर 2017 में भाजपा के रमेश चंद ध्वाला ने कांग्रेस के सीटिंग विधायक संजय रतन को 6464 वोटों के अंतराल से शिकस्त देकर जीत दर्ज की थी। ज्वालामुखी भी उन विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहाँ इस चुनाव में भाजपा ने बड़े बदलाव किये है। भाजपा ने जवालामुखी के सिटींग विधायक रमेश चंद ध्वाला का टिकट बदल कर उन्हें देहरा भेजा और ज्वालामुखी से रविंद्र रवि को मैदान में उतारा। वहीं कांग्रेस ने अपने पुराने चेहरे संजय रतन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा आम आदमी पार्टी की ओर से होशियार सिंह भी यहां मैदान में है। ज्वालामुखी और देहरा के नेताओं की सीट बदलने का निर्णय भाजपा का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होता है या बड़ी भूल, ये तो आठ तारीख को ही तय होगा। फिलवक्त कांग्रेस जरूर यहाँ जीत को लेकर आश्वस्त दिख रही है। यदि कांग्रेस सरकार बनती है और संजय रतन भी जीत जाते है तो मुमकिन है इस बार ज्वालामुखी को मंत्री पद भी मिल जाएँ। इसी तरह अगर भाजपा सरकार बनी और रविंद्र रवि विधायक बने तो रवि भी मंत्रिपद के प्रबल दावेदार होंगे। यानी अगर ज्वालामुखी सत्ता के साथ गया है तो बड़ा ओहदा लगभग तय है।
नूरपुर : निक्का ने दी बड़ी चुनौती, पर भीतरघात हुआ तो कांग्रेस को लाभ
नूरपुर में संभावित अंतर्कलह की स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने यहां मंत्री राकेश पठानिया का टिकट बदल कर रणबीर सिंह निक्का को मैदान में उतारा है। वहीं कांग्रेस ने एक बार फिर अजय महाजन पर ही भरोसा जताया है। इनके अलावा यहां बसपा प्रत्याशी साली राम, आप प्रत्याशी मनीषा कुमारी एवं सुभाष सिंह डडवाल ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में नूरपुर विधानसभा सीट पर रणबीर सिंह निक्का निर्दलीय मैदान में थे और तब भाजपा की बगावत का फायदा कांग्रेस के अजय महाजन को मिला। इस बार बेशक भाजपा ने बगावत साधने के लिए राकेश पठानिया को नूरपुर भेजा हो लेकिन ये जहन में रखना होगा कि नूरपुर में भाजपा में भीतरघात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इसका लाभ एक बार फिर कांग्रेस को मिलना लाजमी है। हालांकि निक्का ने मजबूती से चुनाव लड़ अजय महाजन को बड़ी चुनौती दी है, पर नूरपुर में टिकट बदलना भाजपा के लिए कारगर साबित होता है या नहीं, ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा।
जयसिंहपुर : कांटे का मुकाबला अपेक्षित, क्या वापसी करेंगे गोमा ?
2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया ये विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यादविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। इस बार यहां कांग्रेस ने यादविंदर गोमा को ही मैदान में उतारा है, जबकि भाजपा की ओर से रविंदर धीमान मैदान में है। दोनों ही प्रत्याशियों ने इस चुनाव ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया है और यहां मुकाबला टक्कर का दिखाई दे रहा है। 2017 के चुनाव में रविंदर धीमान यहां करीब 10,000 मतों से जीते थे, मगर इस बार जिस भी प्रत्याशी की जीत होगी अंतर बहुत कम रहने की संभावना है। शुरूआती दौर में यहाँ सीटिंग विधायक रविंद्र धीमान की राह थोड़ी आसान दिख रही थी। दरअसल कांग्रेस में टिकट के दो दावेदार थे, गोमा और सुशील कौल। इसके चलते कांग्रेस के टिकट आवंटन में काफी देरी हुई। पर आखिरकार कांग्रेस ने गोमा पर ही भरोसा जिताया। पर टिकट मिलने के बाद गोमा का प्रचार काफी आक्रामक रहा। इसके अलावा ओपीएस और महिलाओं को पंद्रह सौ रुपये देने के कांग्रेस के वादों का भी यहाँ जमीनी असर दिखा। नतीजन अब कांग्रेस यहाँ जीत के दावे कर रही है। उधर, कांग्रेस से मौका न मिलने के बाद सुशील कौल ने राष्ट्रीय देवभूमि पार्टी का दामन थामा और चुनाव लड़ा। अब कौल कितने वोट ले जाते है और किसको कितना नुक्सान पहुंचाते है,इस पर भी सबकी निगाह है। बहरहाल नतीजा आठ तारीख को आएगा और यहाँ कांटे का मुकाबला अपेक्षित है।