भगवान बद्री विशाल के दर्शन बिना सब तीर्थ अधूरे
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भारत के उत्तराखण्ड राज्य में चमोली जनपद नामक स्थान पर हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ बद्रीनाथ मंदिर हिन्दू धर्म का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उनके ‘बद्रीनारायण‘ रूप की पूजा होती है। यह स्थान हिन्दू धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों, चार धामों, में से एक प्राचीन मंदिर है। बद्रीनाथ की यात्रा के बिना सारे तीर्थ अधूरे माने जाते है। समुद्र तल से लगभग 10,279 फुट की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के समीप गढ़वाल पहड़ी पर यह पुनः भूमि स्थित है। इस क्षेत्र में अधिक हिमपात होने के कारण मंदिर के कपाट साल में केवल 6 मन यानि अप्रैल माह से सितम्बर तक ही खुलते है।
बद्रीनाथ मन्दिर में देवता विष्णु के रूप बद्रीनारायण की एक मीटर लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि चीन ने भारत पर आक्रमण कर इस मंदिर को तबाह कर दिया था और मंदिर में स्थित मूर्ति को नारद कुण्ड में डाल दिया था, जिसे जगत गुरु आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी मे वहां से निकालकर गरुड़ गुफा में पुनः स्थापित किया। विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण जैसे कई प्राचीन ग्रन्थों में इस मन्दिर का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी से पहले आलवार सन्तों द्वारा रचित नालयिर दिव्य प्रबन्ध में भी इसकी महिमा का वर्णन है। बद्रीनाथ नगर, जहां ये मन्दिर स्थित है, हिन्दुओं के पवित्र चार धामों के अतिरिक्त छोटे चार धामों में भी गिना जाता है और यह विष्णु को समर्पित 108 दिव्य देशों में से भी एक है। एक अन्य संकल्पना अनुसार इस मन्दिर को बद्री-विशाल के नाम से पुकारते हैं और श्री विष्णु को ही समर्पित निकटस्थ चार अन्य मंदिरों – योगध्यान-बद्री, भविष्य-बद्री, वृद्ध-बद्री और आदि बद्री के साथ जोड़कर पूरे समूह को "पंच-बद्री" के रूप में जाना जाता है।
बद्रीनाथ मंदिर ऋषिकेश से 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई और यहां पर बद्रीनाथ के रूप में भगवान विष्णु का निवास बना। भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आठवीं शताब्दी के आदि शंकराचार्य ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर की ऊंचाई 7,138 मीटर है। मंदिर में एक विष्णु की एक वेदी भी है।
ये है मंदिर का इतिहास
बद्रीनाथ मन्दिर की उत्पत्ति के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, यह मन्दिर आठवीं शताब्दी तक एक बौद्ध मठ था, जिसे आदि शंकराचार्य ने एक हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित कर दिया। इस तर्क के पीछे मंदिर की वास्तुकला एक प्रमुख कारण है, जो किसी बौद्ध मंदिर के समान है। इसका चमकीला तथा चित्रित मुख-भाग भी किसी बौद्ध मंदिर के समान ही प्रतीत होता है। अन्य स्रोत बताते हैं कि इस मन्दिर को नौवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा एक तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया गया था। एक अन्य मान्यता यह भी है कि शंकराचार्य छः वर्षों यानि 814 से 820 ई वीं तक इसी स्थान पर रहे थे। इस स्थान में अपने निवास के दौरान वह छह महीने के लिए बद्रीनाथ में, और फिर शेष वर्ष केदारनाथ में रहते थे। हिंदू अनुयायियों का कहना है कि बद्रीनाथ की मूर्ति देवताओं ने स्थापित की थी। जब भारत में बौद्धों की पराजय हुई तो उन्होंने मंदिर की मूर्ति को अलकनंदा नदी में फेंक दिया। शंकराचार्य ने ही अलकनंदा नदी में से बद्रीनाथ की इस मूर्ति की खोज की, और इसे तप्त कुंड नामक गर्म चश्मे के पास स्थित एक गुफा में स्थापित किया। उसके बाद मूर्ति फिर से स्थानांतरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।
एक अन्य मान्यता के अनुसार अनुसार शंकराचार्य ने परमार शासक राजा कनक पाल की सहायता से इस क्षेत्र से सभी बौद्धों को निष्कासित कर दिया था। इसके बाद कनकपाल, और उनके उत्तराधिकारियों ने ही इस मंदिर की प्रबंध व्यवस्था संभाली। गढ़वाल के राजाओं ने मन्दिर प्रबन्धन के खर्चों को पूरा करने के लिए ग्रामीणों के एक समूह की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मन्दिर की ओर आने वाले रास्ते पर भी कई ग्राम बसाये गए, जिनसे हुई आय का उपयोग तीर्थयात्रियों के खाने और ठहरने की व्यवस्था करने के लिए किया जाता था। समय के साथ-साथ, परमार शासकों ने "बोलांद बद्रीनाथ" नाम अपना लिया, जिसका अर्थ बोलते हुए बद्रीनाथ है। इस समय तक गढ़वाल राज्य के सिंहासन को "बद्रीनाथ की गद्दी" कहा जाने लगा था, और मंदिर में जाने से पहले भक्त राजा को श्रद्धा अर्पित करते थे। यह प्रथा उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक जारी रही। बताया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में गढ़वाल के तत्कालीन राजा ने बद्रीनाथ की मूर्ति को गुफा से लाकर वर्तमान मंदिर में स्थापित किया। मंदिर के बन जाने के बाद इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यहां स्वर्ण कलश छत्री चढ़ाई थी। बीसवीं शताब्दी में जब गढ़वाल राज्य को दो भागों में बांटा गया, तो बद्रीनाथ मन्दिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया, हालांकि मन्दिर की प्रबंधन समिति का अध्यक्ष तब भी गढ़वाल का राजा ही होता था।
कई बार हुआ मंदिर का नवीनीकरण
मन्दिर की आयु, और क्षेत्र में निरंतर आने वाले हिमस्खलनों के कारण होने वाली क्षति के फलस्वरूप मन्दिर का कई बार नवीनीकरण हुआ है। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल के राजाओं द्वारा मंदिर का विस्तार करवाया गया था। 1803 में इस हिमालयी क्षेत्र में आये एक भूकम्प ने मन्दिर को भारी क्षति पहुंचाई थी, जिसके बाद यह मन्दिर जयपुर के राजा द्वारा पुनर्निर्माण करवाया गया था। यह मंदिर प्रथम विश्व युद्ध के समय तक बनकर पूरी तरह से तैयार हो गया था। इस समय तक मन्दिर के आस पास एक छोटा सा नगर भी बसने लगा था, जिसमें मंदिर के कर्मचारियों के आवास के रूप में 20 झोपड़ियां थी। मन्दिर को विभिन्न राजाओं द्वारा दान दिए गए कई ग्रामों से भी राजस्व प्राप्ति होती थी। 2003 में राज्य सरकार ने अवैध अतिक्रमण पर रोक लगाने के लिए बद्रीनाथ के आसपास के क्षेत्र को नो-कंस्ट्रक्शन जोन घोषित कर दिया।
ऐसे पड़ा नाम बद्रीनाथ
पौराणिक कथाओं के अनुसार मुनि नारद एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने खुद भगवान विष्णु के पास खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के पेड़ का रूप ले लिया और सारी बर्फ को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मी, भगवान विष्णु को धूप, बारिश और बर्फ से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गई। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूरा किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं, तब उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है, इसलिए आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ पड़ा। जिस स्थान पर भगवान ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।
वही हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्द पुराण में बद्री क्षेत्र को "मुक्तिप्रदा" के नाम से जाना जाता था, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सतयुग में यही इस क्षेत्र का नाम भी था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को योग सिद्ध , और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे मणिभद्र आश्रम या विशाला तीर्थ कहा गया है। कलियुग में इस धाम को बद्रिकाश्रम अथवा "बद्रीनाथ" के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि स्थान का यह नाम इस क्षेत्र में अधिक मात्रा में पाए जाने वाले बद्री यानी बेर के वृक्षों के कारण पड़ा था। एडविन टी॰ एटकिंसन ने अपनी पुस्तक, "द हिमालयन गजेटियर" में इस बात का उल्लेख किया है कि इस स्थान पर पहले बद्री के घने वन पाए जाते थे, हालांकि अब उनका कोई निशान नहीं बचा है।
कई प्राचीन ग्रन्थों में वर्णन
बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। कई वैदिक ग्रंथों में भी मंदिर के प्रधान देवता, बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है। स्कन्द पुराण में इस मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया है: "बहुनि सन्ति तीर्थानि दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः॥", अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा। मंदिर के आसपास के क्षेत्र को पद्म पुराण में आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण कहा गया है। भागवत पुराण के अनुसार बद्रिकाश्रम में भगवान विष्णु सभी जीवित इकाइयों के उद्धार हेतु नर तथा नारायण के रूप में अनंत काल से तपस्या में लीन हैं। महाभारत में बद्रीनाथ का उल्लेख करते हुए लिखा गया है- "अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात। बदरी दर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥" अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधि पूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है।
मंदिर में जलती है अखंड ज्योति
ये स्थान पंच-बदरी में से एक बद्री है। उत्तराखंड के पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञान ज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। यहां पर ठंड के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यंत ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं और यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। यहां वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
बद्रीनाथ मंदिर को लेकर कई मान्यताएं है प्रचलित
- बद्रीनाथ मंदिर की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हो रही थी , तो गंगा नदी 12 धाराओं में बंट गयी। इसलिए इस जगह पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस जगह को भगवान विष्णु ने अपना निवास स्थान बनाया और यह स्थान बाद में “बद्रीनाथ” कहलाया।- बद्रीनाथ मंदिर की मान्यता यह भी है कि प्राचीन काल मे यह स्थान बेर के पेड़ो से भरा हुआ करता था। इसलिए इस जगह का नाम बद्री वन पड़ गया। यह भी कहा जाता है की इसी गुफा में वेदव्यास ने महाभारत लिखी थी और पांडवो के स्वर्ग जाने से पहले यह जगह उनका अंतिम पड़ाव था, जहां वे रुके थे।
- बद्रीनाथ मंदिर के बारे में एक मुख्य कहावत है ” जो जाऐ बद्री, वो ना आये ओदरी “ अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है। उसे माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है। मतलब दर्शन करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।
- बद्रीनाथ धाम की मान्यता यह है कि बद्रीनाथ में भगवान शिव जी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली थी।इस घटना को “ब्रह्मकपाल” नाम से जाना जाता है। ब्रह्मकपाल एक ऊँची शिला है, जहां पितरों का तर्पण,श्राद्ध किया जाता है। माना जाता है कि यहां श्राद्ध करने से पितरों को मुक्ति मिल जाती है।
- इस जगह के बारे में यह भी कहते है कि इस जगह पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी। नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्री कृष्ण के रूप में जन्मे थे ।
- बद्रीनाथ के बारे में कहा जाता है कि यहां पहले भगवान भोलेनाथ का निवास हुआ करता था लेकिन बाद में भगवान विष्णु ने इस स्थान को भगवान शिव से मांग लिया था।
- मान्यता है कि केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर में जलने वाले दीपक के दर्शन का खास महत्व होता है। ऐसा माना जाता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर देवता इस दीपक को जलाए रखते हैं।- बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज होते हैं। कहा जाता है कि जब तक यह लोग रावल पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है। इन लोगों के लिए स्त्रियों का स्पर्श वर्जित माना जाता है।
- केदारनाथ के कपाट खुलने की तिथि केदारनाथ के रावल के निर्देशन में उखीमठ में पंडितों द्वारा तय की जाती है। इसमें सामान्य सुविधाओं के अलावा परंपराओं का ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि कई बार ऐसे भी मुहूर्त भी आए हैं जिससे बद्रीनाथ के कपाट केदारनाथ से पहले खोले गए हैं। जबकि आमतौर पर केदारनाथ के कपाट पहले खोले जाते है।