माता सत्ती का यहां गिरा था कपाल
हिमाचल देव भूमि है। यहां चप्पे-चप्पे पर आस्था का सैलाब है। यही कारण है कि हिमाचल का ख्याल जहन में आते ही सबसे पहले मानसिक पटल पर देवी-देवताओं की तस्वीर घूमने लगती है और अनायास ही श्रद्धा हिलोरे मारने लगती है। हालांकि बहुत सारे ऐसे देव स्थल हैं जिन्हें अभी पहचान नहीं मिल पाई है, मगर यहां आस्था और चमत्कार भरपूर हैं। जरूरत है तो बस इनको पहचान दिलवाने की। आइए आज एक ऐसे ही धर्मशाला में चाय के बागानों में स्थित धार्मिक स्थल कुनाल पत्थरी के बारे में जानते हैं।
कुनाल पत्थर से हुआ नामकरण..........
हालांकि इस मंदिर का नाम कपालेश्वर भी है मगर यह मंदिर ज्यादातर कुनाल पत्थरी के नाम से ही विख्यात है। इसका कारण यह है कि मां के कपाल के ऊपर एक बड़ा सा पत्थर कुनाल की तरह विराजमान है। यही कारण है कि यह मंदिर कुनाल पत्थरी के नाम से विख्यात हो गया।
सत्ती का गिरा था यहां कपाल............
यह मंदिर भी 51 शक्तिपीठों में से एक है। बताया जाता है कि पिता की ओर से शिव के अपमान से मां सत्ती इतनी कुपित हो गई कि राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में कूद कर अपनी जान दे दी। तब क्रोधित शिव सत्ती की पावन देह को लेकर सारी सृष्टि में घूमे। इस पर भगवान विष्णू ने शिव का क्रोध शांत करने के लिए सत्ती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस प्रक्रिया के तहत जहां भी सत्ती के पावन शरीर के अंग गिरे वहीं शक्तिपीठ स्थापित हो गए। ऐसा माना जाता है कि यहां मां सत्ती का कपाल गिरा था और यहां मां के कपाल की पूजा होती है। मां के कपाल के ऊपर स्थित कुनाल सदैव पानी से भरा रहता है और यही भक्तों की आस्था का केंद्र भी है। कुनाल में भरे पानी को भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है और उनकी सुख-स्मृद्धि की कामना की जाती है। कुनाल पत्थरी नाम के पीछे भी एक कहानी है कि इस पत्थर का आकार आटा गूथने वाले बर्तन परात के जैसा है। परात को पहाड़ की कांगड़ी बोली में कुनाल कहा जाता है। इस कुन्ड़ ने नीचे देवी की पिन्ड़ी रुपी शिला है। इस कुन्ड़ में हर समय पानी भरा रहता है। इस पानी में कोई कीड़ा या जाला नहीं लगता है। इस मन्दिर में रात्रि विश्राम हेतू सराय और धर्मशाला भी बनायी गयी है। यह मन्दिर ज्वालामुखी, बज्रेश्वरी, चामुन्ड़ा, भागसूनाग, अघंजर महादेव (मैंने नहीं देखा), तपोवन आदि मन्दिरों की परिक्रमा में आता है।
पयर्टन की दृष्टि से भी है विहंगम स्थल
यहां आस्था ही नहीं बल्कि पर्यटन भी अपने चरम पर है। धर्मशाला से ठीक तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर चाय के बागानों अपनी मनोरम छटा लिए हुए है। यहां आकर हर कोई एक आनंद की दुनिया में खो जाता है। क्योंकि चारों हरियाली ही हरियाली दिखती है। चाय के बागान ऐसे लगते हैं जैसे मानों हरियाली और आस्था में एक वृहद तारतम्य हो। जहां भी नजर डालो एक विहंगम परिदृश्य नजर आता है। हर आगंतुक को यहां आकर मानसिक सुकून मिलता है। यही कारण है कि यहां विदेशी पर्यटक भी अकसर आते रहते हैं। वहीं मान्यता है कि यहां आने वाले हर भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
नवरात्रों में लगती है भक्तों की भीड़
नवरात्र में इस मंदिर में भक्तों की भीड़ जुटती है और सारा वातावरण धार्मिक हो जाता है। हालांकि यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है, फिर इस मंदिर को इतनी पहचान नहीं मिल पाई है। इस मंदिर को धार्मिक पर्यटन के रूप में उभारा जाना चाहिए। इससे प्रदेश का भी गौरव बढ़ेगा वहीं ऐसा करने से दूर-दराज के पर्यटक भी आएंगे, जिससे प्रदेश की आर्थिकी को संबल मिलेगा। हिमाचल में अभी ऐसे कई धार्मिक स्थान हैं जिन को अभी पहचान की जरूरत है। फस्र्ट वर्डिक्ट का यही मकसद है कि ऐसे धार्मिक स्थानों को पहचान दिलवाई जाए जो भरपूर आस्था से लबालब हैं। जरूरत बस उन्हें उभारने की है।
कैसे पहुंचे मंदिर
यह धार्मिक मंदिर कांगड़ा से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, वहीं धर्मशाला से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पठानकोट-जोगिंद्र रेलमार्ग का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।इसके कांगड़ा मंदिर रेलवे स्टेशन पर उतरना पड़ता है। वहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त वायुमार्ग से भी पहुंचा जा सकता है, जिसके लिए गग्गल एयरपोर्ट पर उतरना पड़ेगा, जहां से किसी अन्य वाहन का सहारा लेना पड़ता है। इसी तरह इस मंंदिर में अन्य वाहनों के माध्यम से भी पहुंचा जा सकता है। दूर-दराज के लोग रात को धर्मशाला में ठहर सकते हैं, क्योंकि यहां रात्रि ठहराव के लिए होटलों की समुचित व्यवस्था है। वहीं यहां आने पर भक्त अन्य धार्मिक स्थलों और पर्यटन स्थलों का भी दीदार कर सकते हैं। चूंकि कांगड़ा एक धार्मिक स्थान है तो यहां अन्य मंदिर जैसे बज्रेश्वरी, चामुंडा, भागसूनाग, जयंती माता, कालका माता और अन्य धार्मिक स्थल भी हैं।