पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी, समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं
भारत का एक ऐसा कवि जिसे स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि की ख्याति प्राप्त हुई। ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति। एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है रामधारी सिंह दिनकर की। उनकी ही लिखी कविता 'परिचय' की इन पंक्तियों से बेहतर भला उनका परिचय क्या हो सकता है ' मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का,चिता का धूलिकण हूँ , शार हूँ मैं ,पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी, समा जिसमें चूका सौ बार हूँ मैं ' 23 सितम्बर को राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती होती है। पूरा देश अपने राष्ट्रकवि को याद करता है, नमन करता है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' वो कवि है जिनकी रचनाओं में ओज, शौर्य, प्रेम और सौंदर्य सब एक साथ आकार पाते हैं। वे आंदोलित भी करते हैं और आह्लादित भी। वे 'परशुराम की प्रतीक्षा' भी लिखते है और 'उर्वशी' भी। दिनकर द्वंद्वात्मक ऐक्य के कवि हैं। उन्हें समय को साधने वाला कवि गया। पर दिनकर ‘राष्ट्रकवि’ ही नहीं 'जनकवि' भी थे। वे उन चंद कवियों में शुमार रहे है जिनके द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ आज भी आम जनमानस द्वारा पढ़ी और दोहराई जाती है। दिनकर वो कवि थे जिन्होंने देश के क्रांतिकारी आंदोलन को अपनी कविता से स्वर दिया। दिनकर वो कवि थे जिनके द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ 'सिंहासन खाली करो की जनता आती है' आज भी देश के जान आंदोलनों की आवाज है। रामधारी सिंह दिनकर जितने सुगढ़ कवि थे, उतने ही सचेत गद्य लेखक भी रहे। आज़ादी के बाद वे पंडित नेहरू और सत्ता के क़रीब भी रहे, कांग्रेस ने उन्हे राज्यसभा भी भेजा लेकिन राष्ट्रकवि का दायित्व उन्होंने हमेशा निभाया। दिनकर सारी उम्र सियासत से लोहा लेते रहे। उन्होंने कभी किसी नेता की जय-जयकार नहीं की, हमेशा उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि रहा। एक वाकिया ऐसा ही है जब लालकिले की सीढ़ियों से उतरते हुए नेहरू लड़खड़ा गए..तभी दिनकर ने उनको सहारा दिया। इसपर नेहरू ने कहा- शुक्रिया.., दिनकर तुरंत बोले-''जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा।'' उनके ये तेवर ताउम्र बरकरार रहे।
11 वर्षों की नौकरी में 23 बार हुआ था स्थानांतरण
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की राष्ट्रभक्ति ब्रिटिश हुकूमत को रास नहीं आती थी। 11 वर्षों की नौकरी में उनका 23 बार स्थानांतरण किया गया, पर उन्होंने अंग्रेजी अत्याचार के विरूद्ध लिखना नहीं छोड़ा। 23 सितंबर,1908 को बेगूसराय के सिमरिया गांव में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर जब दो वर्ष के थे तब उनके पिता रवि सिंह का देहांत हो गया था। मां मनरूप देवी ने ही उनका पालन-पोषण किया। पटना कॉलेज से हिन्दी में स्नातक की डिग्री लेने के बाद 1928 में साइमन कमीशन के भारत आगमन के विरोध में गांधी मैदान में हुए आंदोलन में वे शामिल हो गए। इसके उपरांत वर्ष 1934 में उन्होंने पटना निबंधन कार्यालय में सब रजिस्ट्रार के पद पर सरकारी नौकरी शुरू कर दी।1945 तक उन्होंने यह नौकरी की। फिर 1945 में उन्हें प्रचार निदेशालय में उप निदेशक बना दिया गया। 1947 में देश की आजादी मिलने तक उन्होंने नौकरी की। इस बीच दिनकर ने जब वर्ष 1935 में जब 'रेणुका' नामक कविता संग्रह की रचना की तो उनका तबादला पटना निबंधन कार्यालय से बाढ़ कार्यालय कर दिया गया। फिर वर्ष 1938 आया और उनका कविता संग्रह 'हुंकार' प्रकाशित हुआ, तब फिर उनपर ब्रिटिश सरकार विरोधी होने के आरोप लगे और उनका तबादला नरकटियागंज कर दिया गया। जब-जब उनकी कोई नई पुस्तक प्रकाशित होती, उनका तबादला भी साथ-साथ होता रहता। पर दिनकर की कलम की धार कम नहीं हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होते ही ब्रिटिश हुकूमत की आँखों में दिनकर और ज्यादा अखरने लगे और उन्हें नौकरी छोड़ने को बाध्य किया जाने लगा। तब ब्रिटिश हुकूमत ने उनका तबादला 1945 में प्रचार विभाग में उप निदेशक के पद पर कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत को उनसे शिकायत रहती थी कि उनकी रचनाओं से क्रांतिकारी आंदोलन को हवा मिलती थी, और ये सच भी था।
'उर्वशी' के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार
दिनकर ने 'रेणुका', 'हुंकार', 'रसवंती', 'द्वंद्व गीत', 'कुरुक्षेत्र', 'धूपछांह', 'समधनी', 'बापू' आदि महत्वपूर्ण कविता संग्रहों की रचना की थी। दिनकर को उनकी रचना 'उर्वशी' के लिए 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1959 में भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान एवं 1959 में ही 'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ये उनकी तठस्तता ही थी कि उनको सत्ता का विरोध करने के बावजूद साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मविभूषण आदि तमाम बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया।
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है "
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
"कलम, आज उनकी जय बोल "
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल
" कृष्ण की चेतावनी "
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
” परशुराम की प्रतीक्षा ”
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
” हमारे कृषक ”
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं
पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना
विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है
दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं
दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे
दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं
” समर शेष है ”
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान ।
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है ।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार ।
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में ।
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा ।
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं।
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे।
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो,
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे,
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं,
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल,
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना,
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।