शकील बदायूनी..जो लिखा बेमिसाल लिखा,पढ़े 5 खूबसूरत ग़ज़लें
उत्तर प्रदेश का बदायूं जिला तीन चीजों के लिए मशहूर है- पीर, पेड़े और कवि। इसी बदायूं से ताल्लुख रखते हैं शकील बदायूनी। आप उर्दू के बड़े नामों में से एक हैं, साथ ही विख्यात फ़िल्म गीतकार भी है। चौदहवीं का चांद, प्यार किया तो डरना क्या, न जाओ सैंया छुड़ा के बैयां कसम तुम्हारी, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं और सुहानी रात ढल चुकी जैसे न जाने कितने ही गाने हैं, जो शकील बदायूनी ने लिखे हैं।
शकील बदायूनी की लिखी कई गजलें बेमिसाल हैं, सब एक से बढ़कर एक और नायाब। पेश हैं उनकी लिखी पांच खूबसूरत ग़ज़लें...
चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
चाँदनी में रुख़-ए-ज़ेबा नहीं देखा जाता
माह ओ ख़ुर्शीद को यकजा नहीं देखा जाता
यूँ तो उन आँखों से क्या क्या नहीं देखा जाता
हाँ मगर अपना ही जल्वा नहीं देखा जाता
दीदा-ओ-दिल की तबाही मुझे मंज़ूर मगर
उन का उतरा हुआ चेहरा नहीं देखा जाता
ज़ब्त-ए-ग़म हाँ वही अश्कों का तलातुम इक बार
अब तो सूखा हुआ दरिया नहीं देखा जाता
ज़िंदगी आ तुझे क़ातिल के हवाले कर दूँ
मुझ से अब ख़ून-ए-तमन्ना नहीं देखा जाता
अब तो झूटी भी तसल्ली ब-सर-ओ-चश्म क़ुबूल
दिल का रह रह के तड़पना नहीं देखा जाता
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
वो क्या गए कि बहारों में जी नहीं लगता
शब-ए-फ़िराक़ को ऐ चाँद आ के चमका दे
नज़र उदास है तारों में जी नहीं लगता
ग़म-ए-हयात के मारे तो हम भी हैं लेकिन
ग़म-ए-हयात के मारों में जी नहीं लगता
न पूछ मुझ से तिरे ग़म में क्या गुज़रती है
यही कहूँगा हज़ारों में जी नहीं लगता
कुछ इस क़दर है ग़म-ए-ज़िंदगी से दिल मायूस
ख़िज़ाँ गई तो बहारों में जी नहीं लगता
फ़साना-ए-शब-ए-ग़म ख़त्म होने वाला है
'शकील' चाँद सितारों में जी नहीं लगता
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
ज़मीं की ख़ाक हो कर आसमाँ से दिल लगा बैठे
हुआ ख़ून-ए-तमन्ना उस का शिकवा क्या करें तुम से
न कुछ सोचा न कुछ समझा जिगर पर तीर खा बैठे
ख़बर की थी गुलिस्तान-ए-मोहब्बत में भी ख़तरे हैं
जहाँ गिरती है बिजली हम उसी डाली पे जा बैठे
न क्यूँ अंजाम-ए-उल्फ़त देख कर आँसू निकल आएँ
जहाँ को लूटने वाले ख़ुद अपना घर लुटा बैठे
कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे
कहीं हुस्न का तक़ाज़ा कहीं वक़्त के इशारे
न बचा सकेंगे दामन ग़म-ए-ज़िंदगी के मारे
शब-ए-ग़म की तीरगी में मिरी आह के शरारे
कभी बन गए हैं आँसू कभी बन गए हैं तारे
न ख़लिश रही वो मुझ में न कशिश रही वो मुझ में
जिसे ज़ो'म-ए-आशिक़ी हो वही अब तुझे पुकारे
जिन्हें हो सका न हासिल कभी कैफ़-ए-क़ुर्ब-ए-मंज़िल
वही दो-क़दम हैं मुझ को तिरी जुस्तुजू से प्यारे
मैं 'शकील' उन का हो कर भी न पा सका हूँ उन को
मिरी तरह ज़िंदगी में कोई जीत कर न हारे
मेरी दीवानगी नहीं जाती
मेरी दीवानगी नहीं जाती
रो रहा हूँ हँसी नहीं जाती
तेरे जल्वों से आश्कारा हूँ
चाँद की चाँदनी नहीं जाती
तर्क-ए-मय ही समझ ले ऐ नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
जब से देखा है उन को बे-पर्दा
नख़वत-ए-आगही नहीं जाती
शोख़ी-ए-हुस्न-ए-बे-अमाँ की क़सम
हुस्न की सादगी नहीं जाती
उन की दरिया-दिली को क्या कहिए
मेरी तिश्ना-लबी नहीं जाती