बाबा भलकू : कहते है वो छड़ी से नपाई कर सिक्के रखते और अंग्रेज निशान लगाते थे
हिमाचल के पहाड़ों में कई रहस्य, कई कहानियां छुपी हुई है। कुछ कहानियां लोगों तक आसानी से पहुँच जाती है और कुछ की तस्वीरें अब भी धुंधली सी है। एक ऐसी ही कहानी है बाबा भलकू की। बाबा भलकू वो प्रतिभावान व्यक्ति थे जिन्होंने अनपढ़ होने के बावजूद भारत - तिब्बत सड़क और कालका - शिमला रेलवे लाइन के निर्माण में अपना अमिट योगदान दिया। बाबा भलकू को कोई इंजीनियर कहता है, कोई संत, तो कोई चरवाहा। कहते है बाबा भलकू का जन्म चायल के पास स्थित झाझा गांव के मामूली किसान माठु के घर हुआ था। भलकू बचपन से ही थोड़े अलग थे। उनकी हरकतें आम तौर पर लोगो को समझ नहीं आती थी इसीलिए उनके पिता ने उनका बाल विवाह करवा दिया कि शायद वो उसके बाद ठीक हो जाए। पर विवाह के बाद जो सोचा था, हुआ उसके बिलकुल विपरीत। सुधरने की बजाए बाबा भलकू घर छोड़ कर चले गए और कभी नहीं लौटे। भलकू का एक भाई भी था, जावलिया जिनकी सातवीं पीढ़ी आज भी झाझा गांव में रहती है।
ब्रिटिश अधिकारीयों ने माना, भलकू की देन है भारत-तिब्बत सड़क
बताया जाता है कि घर से भागने के बाद भलकू दर - दर भटकता रहा कभी साधु संतों के साथ तो कभी चरानियों के साथ। कुछ साल बाद भलकू ने पटियाला रियासत के लोक निर्माण विभाग में बतौर मज़दूर काम करना शुरू किया। भलकू ठेठ अनपढ़ होने के बावजूद भी सड़क निर्माण कार्य में बेहद निपुण थे। अंग्रेज़ भलकू से इतना अधिक प्रभावित थे की भारत तिब्बत सड़क निर्माण में भी उनकी सहायता ली गई थी। बाबा भलकू के मार्ग निर्देशन में न केवल सर्वे हुआ बल्कि सतलुज नदी पर कई पुलों का निर्माण भी हुआ था। इसके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार के लोक निर्माण विभाग द्वारा ओवरसियर की उपाधि से नवाजा गया था। कहा जाता है की भलकू अपनी एक छड़ी से नपाई करता और जगह-जगह सिक्के रख देता और उसके पीछे चलते हुए अंग्रेज सर्वे का निशान लगाते चलते। टापरी फारेस्ट रेस्ट हाउस की इंस्पेक्शन बुक में एस. डी. ओ. अम्बाला सर्किल बी.एन.आर ने लिखा है कि, भारत-तिब्बत सड़क भलकू जमादार की देन है।
भारत -तिब्बत सड़क निर्माण में भलकू के योगदान के बारे में तत्कालीन हिन्दुस्तान तिब्बत रोड के मुख्य अभियंता मेजर ए.एम. लांग ने 18 अक्टूबर 1875 में फागु बंगले में एक प्रमाण पत्र में लिखा है " भलकू पिछले 25 वर्षों से हिन्दुस्तान तिब्बत रोड निर्माण कार्य में लगा है। बिना उसके ये कार्य संभव नहीं था। भलकू जैसा प्रतिभावान शायद ही कोई अन्य इस देश में होगा। ऐसी कोई चोटी नहीं जिसे उसने पार नहीं किया। उसके पास नैसर्गिक शक्ति है, जिससे वह सर्वे करते वक्त सही दिशा जान लेता है। इसके साथ ही उसके व्यक्तित्व में न जाने क्या आकर्षण है, मज़दूर उसके इशारे पर जितना काम करते है उतना कार्य उनसे कोई नहीं करवा सकता। मेरे हिसाब से भलकू को उनकी सेवा और उनके नायाब उत्साह, बुद्धि और विशेष शक्तिओं के लिए विभाग के प्रथम श्रेणी के ओवरसियर के साथ -साथ एक पहाड़ी-सड़क-निर्माता की उपाधि दी जानी चाहिए "।
बिन भलकू संभव नहीं था कालका - शिमला रेलमार्ग निर्माण :
- क्या आधिकारिक ब्रिटिश दस्तावेजों में भी है भलकू के योगदान का ज़िक्र !
बताया जाता है कि लोक निर्माण विभाग में सेवाएं देने के बाद भलकू की सेवाएं रेलवे में भी ली गई। बाबा भलकू ने कालका - शिमला रेल मार्ग के निर्माण में भी ब्रिटिश इंजीनियर की सहायता की। कालका-शिमला रेल लाइन को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया गया है। ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए 1896 में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। कहते है की ब्रिटिश काल के कई बड़े बड़े इंजीनियर्ज ने इसे बनाया है। पर जब इस रेल मार्ग को बनाते हुए बड़े-बड़े इंजीनियर्ज फंस गए तो उन्हें राह दिखाई बाबा भलकू ने। मनमोहक वादियों से गुज़रती देश की सबसे संकरी रेल लाइन बेजोड़ इंजीनियरिंग का जीता जागता उदाहरण है। इस रेलवे लाइन पर सबसे बड़ी सुरंग नंबर 33, बड़ोग में है जो एक किलोमीटर लंबी है। बड़ोग सुरंग का नाम कर्नल एस. बड़ोग के नाम पर रखा गया है। कालका-शिमला रेल खंड के निर्माण के समय सुरंग संख्या 33 बनाते वक्त अंग्रेजी इंजीनियर कर्नल बड़ोग सुरंग के छोर मिलाने में असफल हो गए थे। उन दिनों सर्वे का कार्य ज़ोरो पर था, कई दिनों तक लगातार खुदाई करने के बाद जब सुरंग के छोर मिलने का दिन आया तो पता चला कि 200 मीटर का फासला रह गया है। बड़ोग इस बात से बहुत हताश थे। इस गलती के लिए अंग्रेजी हकूमत ने कर्नल बड़ोग पर सुरंग के गलत अलाइनमेंट की वजह से हुए नुकसान के लिए एक रुपए का जुर्माना लगाया था। इससे आहत होकर उन्होंने इस सुरंग में आत्महत्या कर ली। बड़ोग सुरंग में गए और अपनी ही रिवाल्वर से खुद को शूट कर लिया। कर्नल बड़ोग की मौत के बाद निर्माण की ज़िम्मेदारी मुख्य अभियंता एच. एस. हैरिंगटन को दी गई। बताया जाता है की एच. एस. हैरिंगटन भी ये कार्य बाबा भलकू की सहायता के बिना पूरा नहीं कर पाते। बता दें की बड़ोग टनल के बाहर, शिमला में बने बाबा भलकू रेल म्यूजियम, बड़ोग स्टेशन और कुछ किताबों में तो बाबा भलकू के रेलवे निर्माण में योगदान का ज़िक्र है, परन्तु ब्रिटिश काल के आधिकारिक दस्तावेज़ में बड़ोग टनल के निर्माण का श्रेय बाबा भलकू दिया गया है या नहीं, इसे लेकर स्पष्टता नहीं है। ऐसा भी कहा जाता है की बाबा भलकू ने ही अंगेज़ सरकार से ये दरख्वास्त की थी की स्टेशन का नाम कर्नल बरोग के नाम पर रखा जाए। कहते है की सिर्फ सुरंग नंबर 33 ही नहीं बल्कि सुरंग से आगे पूल और सुरंग और सुरंगें बनी उसमें भी बाबा भलकू ने विशिष्ट योगदान दिया। सिर्फ सुरंग ही नहीं बल्कि सुरंग से आगे कई पल और सुरंगें भी बाबा भलकू ने ही बनाई है।
कई रोचक कहानियां प्रचलित
बाबा भलकू के जीवन को करीब से जानने वाले बी आर मेहता बताते है कि बाबा भलकू के बचपन की कई कहानियां है, जो आज भी प्रचलित है। बाबा भलकू के बचपन का एक किस्सा ये है कि जब बाबा भलकू मुश्किल से 6 -7 वर्ष के थे तो उनके पिता जी उन्हें खेत में बिठा कर बंदरों से मक्की की रखवाली का काम देते थे। पर बाबा भलकू मक्की के खेत की रखवाली करने के बजाए बंदरों को बुला बुला वो मक्की उन्हें खिला देते थे। पिता को जब ये बात मालूम हुई तो भलकू की खूब पिटाई हुई। भलकू ने कहा की अगर खेत की किसी भी मक्की को नुकसान पहुंचा हो तो मुझे मरना। जब दूसरे दिन खेत का निरीक्षण किया गया तो सब कुछ ठीक था। इसके बाद लोगों को लगने लगा की भलकू कोई आम बालक नहीं है। ऐसी है कई अन्य कहानियां भी है। पर इनमें कितनी सत्यता है, ये किसी को नहीं पता। स्थानीय लोग बड़े - बुजुर्गों से ऐसी कई कहानियां सुनते आ रहे है।
गुमनामी में खो गई महान विभूति : मेहता
बी आर मेहता बताते है की बाबा भलकू वो महान विभूति थे जो आज गुमनामी के अँधेरे में कहीं खो गए है। इतिहास के पन्नो में बाबा भलकू का ज्यादा ज़िक्र नहीं है। ऐसा हो सकता है की अंग्रेज़ हुकूमत ये चाहती ही नहीं थी की उन्हें याद ही ना किया जाए। वो कहते है की अंग्रेज़ सरकार ही नहीं अपितु , आज़ादी के बाद भी सरकारों ने भी बाबा भलकू व उनके द्वारा किये गए कृत्यों का कहीं उल्लेख नहीं किया।
तीर्थ पर निकले और फिर लौट कर नहीं आये !
बाबा भलकू की सातवीं पीढ़ी से गगनदीप बताते है कि बाबा भलकू जिस मकान में रहते थे वो आज भी उनके गांव झाझा में मौजूद है। वे बताते है की भलकू से अंग्रेज़ों का लगाव बेजोड़ था, वे उन्हें विलायत ले जाना चाहते थे ताकि भलकू की सेवाएं अन्य देशों में भी ली जा सके। कई बार भलकू के विदेश जाने का प्रबंध भी किया गया लेकिन वे टालते रहे। अंत में वे मान गए लेकिन उन्होंने ये इच्छा प्रकट की कि वे विलायत जाने से पहले तीर्थ करना चाहते है। अंग्रेजी अधिकारियों ने उन्हें जाने की अनुमति दे दी। गगनदीप कहते है कि हमारे बुज़ुर्गों ने बताया था भलकू तीर्थ पर जाने से पहले सालों बाद अपने पैतृक गांव लौटे। वो गांव तो आये थे पर अपने घर नहीं गए, बल्कि घर के नज़दीक एक पेड़ के नीचे अपना डेरा जमा लिया। कुछ समय वहां रहने के बाद वे तीर्थ के लिए निकल गए। तीर्थ पर जाने के बाद वे कहां गायब हो गए किसी को नहीं मालूम। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि बाबा भलकू के किस्से केवल किवदंतियों में ही हैं। उत्तर रेलवे भी बाबा भलकू की असल कहानी को सही-सही नहीं जानता। शिमला में बाबा भलकू के नाम से एकमात्र संग्रहालय बना हुआ है। इसमें उनका स्पष्ट विवरण ही अंकित नहीं है।