कहानी देश के उस रियल हीरो की जिससे डरती थी पाक आर्मी
"या तो मैं लहराते तिरंगे के पीछे आऊंगा, या तिरंगे में लिपटा हुआ आऊंगा। पर मैं आऊंगा जरूर।"
भले ही कारगिल युद्ध को 25 वर्ष का वक्त बीत चूका हो लेकिन शहीद कप्तान विक्रम बत्रा की ये पंक्तियाँ आज भी हर हिंदुस्तानी के ज़हन में जीवित है। 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस है और 7 जुलाई वो तारीख है जब कारगिल के हीरो शहीद कप्तान विक्रम बत्रा ने शाहदत का जाम पिया। वहीँ कैप्टेन विक्रम बत्रा जिनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता।
पालमपुर में हुई प्रारंभिक शिक्षा
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर जिले के घुग्गर में हुआ। शहीद बत्रा की मां जय कमल बत्रा एक प्राइमरी स्कूल में टीचर थीं और ऐसे में कैप्टन बत्रा की प्राइमरी शिक्षा घर पर ही हुई थी। शुरुआती शिक्षा पालमपुर में हासिल करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वह चंडीगढ़ चले गए।
शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा के स्कूल के पास आर्मी का बेस कैम्प था। स्कूल आते-जाते समय वहां चलने वाली गतिविधियों को देखते रहते थे। सेना की कदमताल और ड्रमबीट की आवाज से उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे।
शायद यही वो वक्त था जब वे सेना में शामिल होने का मन बन चुके थे।
"मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना, मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूं"
चंडीगढ़ में पढ़ते वक्त शहीद कैप्टेन विक्रम बत्रा ने मर्चेंट नेवी में जाने के लिए परीक्षा दी। परिणाम आया तो वह परीक्षा पास के चुके थे। कुछ ही दिनों में उनका नियुक्ति पत्र भी आ गया। जाने की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। पर उनके मन में कुछ और ही चल रह था। इस बीच एक दिन वह मां की गोद में सिर रखकर बोले, मां मुझे मर्चेंट नेवी में नहीं जाना। मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूँ। इसके बाद वही हुआ जो वह चाहते थे।
18 महीने की नौकरी के बाद ही जंग
विक्रम बत्रा की 13 JAK रायफल्स में 6 दिसम्बर 1997 को लेफ्टिनेंट के पोस्ट पर जॉइनिंग हुई थी।
महज 18 महीने की नौकरी के बाद 1999 में उन्हें कारगिल की लड़ाई में जाना पड़ा। वह बहादुरी से लड़े और सबसे पहले उन्होंने हम्प व राकी नाब पर भारत का झंड़ा फहराया। युद्ध के बीच में ही उन्हें कैप्टन बना दिया गया।
जब कहा, 'ये दिल मांगे मोर'
20 जून 1999 को कैप्टन बत्रा को कारगिल की प्वाइंट 5140 को दुश्मनों से मुक्त करवाने का ज़िम्मा दिया गया। युद्ध रणनीति के लिहाज से ये चोटी भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। कैप्टेन बत्रा ने इस चोटी को मुक्त करवाने के लिए अभियान छेड़ा और कई घंटों की गोलीबारी के बाद आखिरकार वह अपने मिशन में कामयाब हो गए। इस जीत के बाद जब उनकी प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने जवाब दिया, 'ये दिल मांगे मोर,' बस इसी पल से ये पंक्तियाँ अमर हो गई।
पाक ने दिया कोडनेम शेरशाह
कारगिल वॉर में कैप्टन विक्रम बत्रा दुश्मनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुके थे। ऐसे में पाकिस्तान की ओर से उनके लिए एक कोडनेम रखा गया और यह कोडनेम कुछ और नहीं बल्कि उनका निकनेम शेरशाह था। इस बात का खुलासा खुद कैप्टन बत्रा ने युद्ध के दौरान ही दिए गए एक इंटरव्यू में दी थी।
साथी को बचाते हुए शहीद हुए शेरशाह
प्वाइंट 5140 पर कब्जे के बाद कैप्टेन विक्रम बत्रा अगले प्वांइट 4875 को जीतने के लिए चल दिए। ये चोटी समुद्री तट से 17 हजार फीट की ऊंचाई पर है और इस पर कब्जे के लिए 80 डिग्री की चढ़ाई पर चढ़ना था। पहला ऑपरेशन द्रास में हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा अपने साथियों के साथ पत्थरों का कवर ले कर दुश्मन पर फ़ायर कर रहे थे, तभी उनके एक साथी को गोली लगी और वो उनके सामने ही गिर गया। वो सिपाही खुले में पड़ा हुआ था। कैप्टेन विक्रम बत्रा और उनके एक साथी चट्टानों के पीछे बैठे थे। हालाँकि उस घायल सिपाही के बचने के आसार बेहद कम थे लेकिन कैप्टेन विक्रम बत्रा ने फैसला लिया की वे उस घायल सिपाही को रेस्क्यू करेंगे। जैसे ही उनके साथी चट्टान के बाहर कदम रखने वाले थे, विक्रम ने उन्हें कॉलर से पकड़ कर कहा, "आपके तो परिवार और बच्चे हैं। मेरी अभी शादी नहीं हुई है। सिर की तरफ़ से मैं उठाउंगा। आप पैर की तरफ़ से पकड़िएगा।' ये कह कर विक्रम आगे चले गए और जैसे ही वो उनको उठा रहे थे, उनको गोली लगी और वो वहीं गिर गए और शहीद हो गए।
मरणोपरांत मिला परमवीर चक्र
कैप्टेन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को उनके पिता गिरधारीलाल बत्रा ने हज़ारों लोगों के सामने उस समय के राष्ट्रपति के आर नाराणयन से वो सम्मान हासिल किया।