स्वतंत्र सोच का चेहरा, अमृता प्रीतम
आज अमृता प्रीतम के 101 वें जन्म दिवस पर महान कवियित्री अमृता प्रीतम के साहित्य में योगदान की एवं उनकी जीवनी की बात करते हैं। अमृता का साहित्यिक सफर जितनी बुलंदियों में रहा उनकी नीजि ज़िन्दगी भी उतनी ही दिलचस्प रही।
अमृता बन पाना भी कहाँ आसान है , किसी को पा लेने की चाहत भी नहीं और फिर भी मोहब्बत की बे-इन्तेहाई, यक़ीनन अमृता साधारन तो नहीं थी। कुछ तो था जो उसे सब से अलग बनाता था। मोहब्बत लिखती तो सातों आसमान छू लेती और दर्द लिखती तो समुन्दर की गहराई नाप लेती। अमृता जो थी वो तो बस अमृता ही थी।
-जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े, समझ लेना वही मेरा घर है।
-अमृता प्रीतम
यदि स्वतंत्र सोच का कोई चेहरा होता तो वह अमृता का ही होता। ख्यालों की ऐसी उड़ान आपने शायद ही कहीं देखी होगी। अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 में पंजाब के गुजरांवाला ( पकिस्तान ) में हुआ। अमृता पंजाबी और हिंदी दोनों ही भाषाओँ में लिखा करती थी , व उनका पहला संकलन महज़ 16 साल की उम्र में 'अज्ज आखां वारिस शाह नू' ,प्रकाशित हुआ।
- उन्होंने भारत-पकिस्तान के विभाजन पर लिखा -
उठ धर्मांदा दे दरदिया ,उठ तक्क अपना पंजाब
आज बेले लाशां विछियां ,ते लहू दी भरी चेनाब
किसे ने पंजां पानियाँ विच दित्ती ज़हर रला
ते उना पानियाँ धरत नू दित्ता पानी ला
1947 में अमृता ने विभाजन को बहुत ही क़रीब से देखा जिसके चलते अमृता ने अपनी कई रचनाओं में वही दर्द उकेरा। जल्द ही प्रोग्रेसिव राइटर्स मोमेंट का हिस्सा बनी अमृता को साहित्य जगत में पहचाना जाने लगा। साथ ही पंजाब रत्न अवार्ड पाने वाली वे पहली शख्सियत थी और साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ी जाने वाली पहली महिला भी थी। उनके द्वारा रचित उपन्यास पिंजर एवं रसीदी टिकट की भी एक अलग पहचान है। उनके बारे में अद्भुत बात तो यह है किउन्हें जितना प्रेम हिन्दुस्तान में मिला उतनी ही चाहत से उन्हें पकिस्तान में भी पढ़ा जाता है। इसका कारण यह भी है कि वे दोनों देशों के मुद्दे को ले कर हमेशा निष्पक्ष रहीं। कुल जीवन-काल में उन्होंने तक़रीबन 100 किताबें लिखी जिनका बाद में कई भाषाओं में अनुवाद हुआ, व अमृता को देश भर में ही नहीं , दुनिया भर में पढ़ा गया। अमृता विभाजन से पहले गुजरांवाला में लाहौर रेडियो स्टेशन में काम किया करती थी , विभाजन के समय हिन्दुस्तान आने के बाद अमृता ने आल इंडिया रेडियो में काम किया।
अमृता की शादी 16 साल की उम्र में ही प्रीतम से हुई जो कुछ समय बाद ही टूट गई। प्रीतम उनकी ज़िन्दगी का बड़ा सच था जिसे अमृता सिंह ने अमृता प्रीतम बन कर स्वीकार किया और उम्र भर अपने साथ ही रखा।
प्रीतम के बाद अमृता का नाम साहिर के साथ जोड़ा जाने लगा। साहिर लुधयानवी और अमृता की मुलाक़ात एक कवि सम्मेलन के दौरान हुई व कहा जाता है दोनों का प्रेम किसी फ़िल्मी कहानी की तरह परवान भी चढ़ा। इस रिश्ते को कोई नाम न देने के बाद दोनों ने एक दूसरे से मुँह फेर लिया परन्तु अमृता सदैव साहिर का नाम दोहराती रहीं। कहा जाता है, साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे। कुछ नहीं कहते. बस एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। उनके जाने के बाद अमृता उनकी सिगरेट की बटों को उनके होंठों के निशान के हिसाब से दोबारा पिया करती थीं। इस तरह उन्हें भी सिगरेट पीने की लत लग गई। अमृता साहिर से बेहद प्यार करती थीं, मगर वो साथ न हो सके।
अमृता कहती थी- "मुझे नहीं मालूम कि साहिर के लफ्जों की जादूगरी थी या कि उनकी खामोश नज़र का कमाल था लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ़ खींच लिया। आज जब उस रात को मुड़कर देखती हूं तो ऐसा समझ आता है कि तक़दीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया।"
अमृता की मोहब्बत के क़िस्सों में एक नाम और शुमार है , "इमरोज़" जो निष्छल प्रेम की मिसाल थे। इमरोज़ से अमृता की पहली मुलाक़ात में ही इमरोज़ ने उन्हें अपना दिल दिया , इमरोज़ बिलकुल ख्वाबों के किसी राजकुमार जैसे थे जैसा अमृता या कोई भी लड़की चाहती हो मगर अमृता साहिर को मन में बसा चुकी थी। अमृता इमरोज़ के साथ एक छत के नीचे रहने लगी , कहा जाता है अमृता ने ही लिव इन रिलेशनशिप की शुरुआत की जिसके चलते वे हँसी का पात्र भी बनी मगर अमृता को लोगों की परवाह न थी। इमरोज़ और साहिर से अपने रिश्ते पर अमृता ने कहा
- साहिर मेरा आसमान हैं और, इमरोज़ मेरे घर की छत।
साहिर और अमृता के रिश्ते पर पूछे जाने वाले एक सवाल पर इमरोज़ ने कहा "मेरा और अमृता का रिश्ता स्वतंत्र है , न वो मुझे कभी बांधती हैं न ही मैं उन्हें ,‘एक बार अमृता ने मुझसे कहा था कि अगर वह साहिर को पा लेतीं, तो मैं उसको नहीं मिलता। तो मैंने उसको जवाब दिया था कि तुम तो मुझे जरूर मिलती चाहे मुझे तुम्हें साहिर के घर से निकाल के लाना पड़ता. जब हम किसी को प्यार करते हैं तो रास्ते की मुश्किल को नहीं गिनते. मुझे मालूम था कि अमृता साहिर को कितना चाहती थीं।लेकिन मुझे यह भी बखूबी मालूम था कि मैं अमृता को कितना चाहता था।"
इमरोज़ के साथ स्कूटर पर जाते-जाते इमरोज़ की पीठ पर उँगलियों से अमृता अक्सर साहिर का नाम लिख दिया करती थी। लगभग 40 सालों तक अमृता की देर रात बैठने की आदत को देख कर इमरोज़ हर रात उनके लिए आधी रात में उठ कर चाय बनाया करते थे। इमरोज़ और अमृता ने एक दूसरे से कभी ये नहीं कहा की वो एक दूसरे से पेम करते हैं मगर कभी न किये गए वादों को निभाते हुए वे ता-उम्र साथ रहे।
अमृता ने एक बार इमरोज़ से कहा
"सारी दुनिया घूम आओ , फिर भी अगर तुम मुझे चुनोगे तो मान लुंगी तुम्हे "इस पर इमरोज़ ने कमरे का एक चक्कर लगाया और कहा
"तुम्हारे आस पास ही मेरी दुनिया है , लो घूम आया दुनिया , मुझे अब भी तुमसे प्रेम है "
अमृता ने अपनी आखिरी कविता इमरोज़ के नाम लिखी और कहा -
" मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहाँ, कैसे, पता नहीं
शायद तेरी कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरूंगी
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमई लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
मैं तुझे फिर मिलूंगी।इमरोज़ के नाम। "
इमरोज़ ने अमृता के निधन के बाद कहा -
"उसने जिस्म छोड़ा है, साथ नही। वो अब भी मिलती है, कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं…"