साहित्य में सिमटा विभाजन का दर्द
हिंदुस्तान की स्वतंत्रता को करीब 74 वर्ष बीत चुके है और इतना ही वक्त बीत चुका है देश के बंटवारे को। बंटवारे की टीस वक़्त के साथ धुंधली ज़रूर हो सकती हैं, मगर इसे दबा पाना मुमकिन नहीं। देश की हवा में मिट्टी की खुशबू के साथ एक गंध भी उठती है, उन सभी शवों की जिन्हें कोई जलाने, दफ़नाने वाला भी नहीं मिला था। अंग्रेज़ों की कूटनीति ने हमारे मुल्क़ को दो हिस्सों में बाँट कर रख दिया। बंटवारे की त्रासदी में कितने ही लोग बेघर हुए और कितने ही परिवारों के चिराग बुझ गए। उस दर्द की कल्पना भी कर पाना भी मुश्किल है। मगर इसे बेहद करीब से छुआ जा सकता है, उस समय का दर्द बयां करते कुछ साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ कर।
अमृता प्रीतम ने 'पिंजर' में उकेरा है विभाजन का दर्द
जहां बेहतरीन लेखन और स्वतंत्रता की बात हो, वहां अमृता प्रीतम का नाम आना भी लाज़मी है। विद्रोही समझ वाली अमृता, न केवल महिलाओं के लिए बोला करती थी, बल्क़ि बेहतरीन, स्वतंत्र समझ का उदाहरण भी थी। अमृता के कई उपन्यासों में विभाजन का दर्द दिखाई देता है, जिनमें से एक है 'पिंजर '। यूँ तो विभाजन पर कई उपन्यास लिखे गए हैं, परन्तु आज तक लिखे गए सभी उपन्यासों में पिंजर का अपना विशिष्ठ स्थान है। 1947 में हुए विभाजन का दर्द, अमृता ने अपने इस उपन्यास के ज़रिये 1950 के आसपास लिखा। अमृता के इस उपन्यास का अहम किरदार है 'पुरो' जो एक हिन्दू परिवार में जन्म लेती है, परन्तु पारिवारिक रंजिश के चलते, एक मुस्लमान शेख द्वारा, ज़बरदस्ती विवाह सम्बन्ध में बांधी जाती है। इस उपन्यास में अमृता बात करती हैं एक ऐसे गांव की जहां मुसलमानों की आबादी हिन्दू आबादी से कहीं ज़्यादा है और दंगों के चलते सभी हिन्दू एक हवेली में छुप गए, जो भी हिन्दू बाहर आता वह मार दिया जाता था। अमृता लिखती हैं एक रात जब हिन्दू मिलिट्री के ट्रक गाँव में आए तो लोगों ने हवेली में आग लगा दी। मिलिट्री ने आग बुझा कर लोगों को बाहर निकाला। आधे जले हुए तीन आदमी भी निकाले गए, जिनके शरीर से चर्बी बह रही थी, जिनका मांस जलकर हड्डियों से अलग-अलग लटक गया था। कोहनियों और घुटनों पर से जिनका पिंजर बाहर निकल आया था। लोगों के लारियों में बैठते-बैठते उन तीनों ने जान निकाल दी। उन तीनों की लाशों को वही फेंककर लारियाँ चल दीं। उनके घर वाले चीखते-चिल्लाते रह गए, पर मिलिट्री के पास उन्हें जलाने-फूंकने का समय नहीं था। इस सिक्के के दूसरे पहलू पर भी रोशनी डालते हुए अमृता लिखती हैं कि कुछ शहरों में सीमाएं बना दी गई थी जिनकी एक ओर हिन्दू और दूसरी ओर सभी मुसलमान थे। दूसरी ओर से मुसलमान मरते कटते चले आ रहे थे, कुछ वहीँ मार दिए गए और कुछ रास्ते में मारे गए।
मोहन राकेश ने सुनाई बिछड़े अपनों की दास्ताँ
साहित्यकार मोहन राकेश अपने उपन्यास 'मलबे का मालिक' में भी ऐसा ही कुछ दर्द बयां करते नज़र आए जिसमें कहानी के मुख्य किरदार 'गनी मियां' दंगों के समय पाकिस्तान चले जाते हैं और उनके बेटे बहु और दो पोतियां यहीं हिंदुस्तान में रह जाते हैं। विभाजन के 7 साल बाद, जब दोनों देशों में आवाजाही के साधन खुलते हैं, तो हॉकी का मैच देखने के बहाने गनी मियां अमृतसर (भारत) आते हैं, इस आस में कि अपने पुराने घर परिवार को फिर देख सकेंगे, परन्तु यहां आ कर उन्हें पता चलता है कि उनके परिवार की 7 साल पहले ही हत्या हो चुकी है।
पियूष मिश्रा ने 'हुस्ना' (नाटक) में किया अधूरी मोहब्बत का ज़िक्र
बंटवारे के समय हुई ऐसी कई घटनाओं का, कई परिवारों का दर्द साहित्य आज भी ज़िंदा रखे हुए है। पियूष मिश्रा ने एक नाटक किआ है, 'हुस्ना'। पियूष मिश्रा ने न केवल इसे लिखा, बल्क़ि मंच पर बखूबी इसे निभाया भी। इस नाटक में दो मुल्क़ों के बंटवारे में कभी न बँट पाने वाली मोहब्बत की कहानी है। इसमें हिंदुस्तान में रहने वाले प्रेमी का खत है, जो की उसकी विभाजन के बाद सेपाकिस्तान में रह रही प्रेमिका के नाम है। खत को गाने के रूप में पेश किया गया है जिसके बोल हैं,
"लाहौर के उस जिले के दो परांगना में पहुंचे ,
रेशमी गली के दूजे कूचे के चौथे मकां में पहुंचे,
और कहते हैं जिसको दूजा मुल्क़ उस पाकिस्तान में पहुंचे,"गाने की इन पंक्तियों में लेखक खुद के पाकिस्तान में होने की कल्पना करते हैं व कहते हैं
"मुझे लगता है में लाहौर के पहले जिले के दुसरे राज्य में हूँ।"इसी गाने में पियूष मिश्रा ने दोनों मुल्क़ों की समानताओं की ओर इशारा करते हुए यह भी लिखा की
"पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में, वैसे ही जैसे झड़ते हैं यहाँ ओ हुस्ना,
होता क्या उजाला वहां वैसा ही, जैसा होता है हिन्दोस्तान में हाँ ओ हुस्ना।"
जॉन ऐलिया का फ़ारेहा के नाम संदेश
सवाल है जो दर्द इधर हिन्दुस्तान में है क्या वही दर्द वहां दूसरी ओर भी उठता है? इसे समझने के लिए पाकिस्तानी लेखकों की रचनाओं पर भी रोशनी डालना ज़रूरी है। पाकिस्तान के मशहूर लेखक जॉन ऐलिया की ही बात करें तो, जॉन का जन्म 1931 में अमरोहा (भारत) में हुआ और विभाजन के समय वह पाकिस्तान चले गए। जॉन की कई ग़ज़लें उनकी बचपन की मोहब्बत 'फ़ारेहा' के नाम हैं। फ़ारेहा हिंदुस्तान में रहा करती थीं और कहा जाता है विभाजन के बाद जॉन का फ़ारेहा से मिलना कभी नहीं हुआ। मगर जॉन की लिखी एक ग़ज़ल 'फ़ारेहा' में उनका दर्द पढ़ा जा सकता है।
" सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा, था सब कुछ वो इक फ़साना फ़ारेहा,
हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी, अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा "
इन पंक्तियों में जॉन अपनी बचपन की मोहब्बत फ़ारेहा से, सब कुछ भूल जाने को कहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं के दो मुल्क़ों के बीच खिंच चुकी इस लकीर को मिटा पाना, और इस मोहब्बत को अनजाम देना भी अब मुमकिन नही। विभाजन से किसी का घर टूटा तो किसी का दिल, किसी के अपने बिछड़े तो किसी के अपने ही पराए हो गए। इस नुकसान की भरपाई तो अब की नहीं जा सकती, पर इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि नुकसान दोनों ओर बराबर रहा होगा।