क्या सच में भगवान भरोसे सुक्खू सरकार की योजनाएं?

मंदिरों से पैसा मांगना, कितना गलत कितना सही?
आदेश नहीं आग्रह: फिर क्यों बरपा हंगामा?
पिछले कुछ दिनों से हिमाचल प्रदेश में इस बात को लेकर खूब बवाल मच रहा है कि प्रदेश सरकार की नज़र मंदिरों के चढ़ावे पर है। सरकार पर धुआंधार आरोप लग रहे हैं। विपक्ष कह रहा है कि सुक्खू सरकार मंदिरों के सोने-चांदी और पैसों से अपनी सरकार को बचाना और चलाना चाहती है। प्रदेश सरकार की मंशा मंदिरों के चढ़ावे से सरकारी खज़ाना भरने की है। विपक्ष कह रहा है कि जो पार्टी सनातन का विरोध करती है, वह मंदिरों से पैसा कैसे ले सकती है? प्रदेश की खराब आर्थिक हालत पर भी खूब टिप्पणियां हो रही हैं। एक तरफ विपक्ष सरकार पर हमले बोल रहा है तो वहीं सरकार इस दावे को सिरे से खारिज कर रही है। उपमुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मंदिरों से सरकार चलाने के लिए कोई पैसा न अब तक लिया गया, न आगे लिया जाएगा। मंत्री हर्षवर्धन चौहान का भी यही कहना है कि सरकार चलाने के लिए पैसा नहीं मांगा गया। अन्य मंत्रियों के भी कुछ ऐसे ही विचार हैं। तो फिर बात आखिर है क्या?
सुक्खू सरकार ने प्रदेश के मंदिरों को एक आधिकारिक पत्र जारी किया है, जिसमें 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' के लिए योगदान देने का अनुरोध किया गया है। यह पत्र भाषा एवं संस्कृति विभाग के सचिव राकेश कंवर द्वारा जारी किया गया है, जो कि मंदिरों के प्रशासनिक प्रमुख (चीफ कमिश्नर) भी हैं। पत्र के मुताबिक, हिमाचल के 10 जिलों के मंदिरों से इन योजनाओं में अंशदान की अपील की गई है। यानी यह बिल्कुल सच है कि सरकार ने अपनी योजनाओं के लिए मंदिरों से पैसा मांगा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह गलत है? सवाल यह भी है कि क्या कोई राज्य सरकार मंदिर ट्रस्ट से मिलने वाले पैसे को सरकारी योजनाओं पर खर्च कर सकती है?
बता दें कि कानूनी रूप से राज्य सरकार को अपनी विकास योजनाओं के लिए मंदिरों से धन लेने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन समाज कल्याण से जुड़ी योजनाओं के लिए योगदान मांगना गलत नहीं कहा जा सकता। 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' समाज के कमजोर वर्गों के लिए शुरू की गई कल्याणकारी योजनाएं हैं। सुख आश्रय योजना के तहत सरकार ने बिना माता-पिता के बच्चों को गोद लिया है, जिनकी देखभाल का जिम्मा अब सरकार के कंधों पर है। इसी तरह से सरकार ने विधवाओं, निराश्रित महिलाओं, तलाकशुदा महिलाओं और विकलांग माता-पिता के बच्चों की शिक्षा और कल्याण के लिए मंदिरों से योगदान मांगा है। अगर मंदिर के चढ़ावे का इस्तेमाल किसी अनाथ बच्चे की शिक्षा में हो तो क्या वह गलत होगा?
वहीं, चिट्ठी को गौर से देखें तो इन योजनाओं के योगदान के लिए कहीं पर भी आदेशों का ज़िक्र नहीं है। सरकार की तरफ से केवल कल्याण की इन योजनाओं में योगदान देने के लिए मंदिरों से अंशदान की अपील की गई है। यह आग्रह है, आदेश नहीं। अब यह मंदिर ट्रस्ट पर निर्भर करता है कि वे इन योजनाओं में सहयोग करते हैं या नहीं। वैसे भी मंदिर पहले भी धन की उपलब्धता के हिसाब से समाज कल्याण के कार्य करते आए हैं। मंदिर गरीब बेटियों की शादियों, अस्पताल निर्माण और गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए हमेशा सहयोग करते रहे हैं। ऐसे में इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं के लिए मंदिरों से अंशदान के लिए आग्रह करना गलत नहीं है, बशर्ते सरकार इसे वहीं इस्तेमाल करे, जहां के लिए यह पैसा मांगा जा रहा है।
जयराम ठाकुर ने इस मसले पर कहा कि अगर प्रदेश पर कभी आपदा का संकट आए, कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए या फिर कोई महामारी फैल जाए, तो ऐसी स्थिति में मंदिरों और ट्रस्टों से मदद ली जा सकती है। लेकिन प्रदेश में अभी ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है। एक लेटर और भी वायरल हो रहा है जो अगस्त 2018 का है l इसमें हिमाचल प्रदेश सरकार के भाषा, कला और संस्कृति विभाग द्वारा यह आदेश दिए गए हैं कि मंदिर ट्रस्ट की कुल आय का 15% भाग गौशालाओं के लिए उपयोग किया जाए। यदि किसी जिले के मंदिर अपनी स्वयं की गौशाला नहीं चला रहे हैं, तो यह धनराशि उनके आसपास की पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा संचालित गौशालाओं को आवंटित की जा सकती है। इसके अलावा, यदि इस 15% राशि में से कोई भी शेष बचती है, तो सरकार की जांच और जरूरत के आकलन के बाद इसे अन्य पात्र गौशालाओं को अनुदान के रूप में दिया जा सकता है।
इस मामले का निष्कर्ष सीधा नहीं, बल्कि दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सरकार ने मंदिरों से धन जबरन नहीं लिया, बल्कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए सहयोग की अपील की है, जो पूरी तरह स्वैच्छिक है। विपक्ष इसे सरकार की आर्थिक बदहाली और धार्मिक भावनाओं से जोड़कर देख रहा है, जबकि सरकार इसे सामाजिक कल्याण का प्रयास बता रही है।