तीनो गुटों में संतुलन ही समाधान !

** किसी एक की भी नाराज़गी पड़ सकती है भारी
** पाटिल की रिपोर्ट पर क्या होगा आलाकमान का फरमान?
हिमाचल कांग्रेस... दूर से एक दिखने वाली यह नदी असल में तीन धाराओं में विभाजित है। ये तीन धाराएं बह तो एक ही दिशा में रही हैं, मगर एक नहीं हैं। पहली धारा है मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उनके खासमखास नेताओं की, जिन्हें प्यार से "फ्रेंड्स लॉबी" भी कहा जाता है। दूसरी धारा है हॉली लॉज—जहाँ प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह समेत वीरभद्र सिंह के वे वफादार बसे हैं, जिनकी निष्ठा तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज भी अडिग है। और तीसरी धारा—डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री और उनके युवा साथी... जो धीरे-धीरे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि सत्ता की इस बंटी-बंटाई गंगा में उनकी नैया किस ओर खेनी है। अब प्रदेश में भाजपा के सामने कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक प्रवाह बनाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन गुटों में संतुलन बना रहे—और ज़रूरी यह भी है कि यही संतुलन हाल ही में बनाई जा रही संगठन की कार्यकारिणी में भी दिखे। इस कार्यकारिणी का जो भी स्वरूप बनकर आएगा, उसमें इन तीनों में से किसी एक की भी नाराजगी भारी पड़ सकती है, और शायद इसीलिए कांग्रेस संगठन का गठन जितना आसान दिख रहा है, उतना है नहीं। यही एक कारण है कि कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल ने सिर्फ सबके साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग भी मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के साथ बैठकें की हैं। अब पाटिल की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस आलाकमान यह संतुलन कैसे बैठाता है, इंतज़ार इसी का है।
देखा जाए तो सत्ता में आने के बाद से ही यह हिमाचल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या रही है। पहले मुख्यमंत्री पद को लेकर इन तीनों गुटों में संघर्ष रहा, फिर मंत्रियों की कुर्सी को लेकर। हालाँकि, मंत्रियों की कुर्सियां अधिकतम उसी ओर गईं जिधर मुख्यमंत्री की... खैर, जीते हुए विधायकों की संख्या भी उधर ही अधिक थी, तो मामला जायज लगा। फिर जब सीपीएस के पदों पर नियुक्तियां की गईं, तो संतुलन थोड़ा और बैठ गया। मगर क्या सब संतुष्ट थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। कुछ ही दिनों में पार्टी में तालमेल की कमी उभर आई। मंत्री पद से चूक गए पार्टी के वरिष्ठ नेता भी नाराज़गी ज़ाहिर करने लगे और वे कार्यकर्ता भी, जो बोर्ड-निगमों के पदों पर अपनी एडजस्टमेंट चाहते थे। खूब हो-हल्ला हुआ, पर जब बात न बनी तो इनमें से कुछ पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। जैसे-तैसे सरकार बची... और फिर जो बच गए, उन्हें खुश करने की कोशिश की गई। एक-दो पद और बांटे गए, मगर अधिकतम चाहवानों के हाथ तो आज भी खाली हैं... ख़ास तौर पर कार्यकर्ताओं के... और ये कार्यकर्ता आज भी अपने खेमों के वरिष्ठ नेताओं की ओर तक रहे हैं। फिर कुछ दिनों बाद तो सीपीएस के पद भी चले गए, तो संतुलन और डगमगा गया। यानी मोटे तौर पर कहा जाए तो सरकार में पूरी तरह संतुलन नहीं बैठा l हालांकि, अब बारी संगठन की है। अगर यहाँ भी किसी एक का पलड़ा भारी रहा, तो ज़रा सोचिए कि कांग्रेस का क्या होगा।
खैर, कांग्रेस की समस्या महज़ ये तीन गुट और कार्यकर्ताओं की नाराज़गी ही नहीं, वे वरिष्ठ नेता भी हैं, जो हाशिए पर हैं। वरिष्ठ नेता जैसे—आशा कुमारी, कौल सिंह ठाकुर और राम लाल ठाकुर। ये नेता विधायक न बन सके और इसीलिए सरकार से भी दूर हैं, मगर क्या पार्टी इन्हें संगठन में भी जगह नहीं देगी? कांग्रेस चाहे भी तो ऐसा करना उसके लिए आसान नहीं। ये नेता चुनाव भले ही हारे हों, मगर इनके क्षेत्रों में इनकी पकड़ पर कोई सवाल नहीं l न ही इनका कोई विकल्प कांग्रेस के पास है। न चाहते हुए भी पार्टी को इन्हें एडजस्ट करना होगा। एडजस्टमेंट की उम्मीद तो कांग्रेस के फ्रंटल संगठनों के उन अध्यक्षों को भी है, जो विपक्ष में रहते कांग्रेस के मज़बूत स्तंभ बने रहे।
बहरहाल, दो दिनों के मंथन के बाद फीडबैक की रिपोर्ट पार्टी की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल दिल्ली में हाईकमान को सौंप चुकी हैं। सूत्रों की मानें तो पाटिल अपनी ओर से पूरा आश्वासन देकर गई हैं कि तीनों गुटों में संतुलन भी बैठाया जाएगा और कार्यकर्ताओं व वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी भी दूर होगी। क्षेत्रीय संतुलन भी बैठाया जाएगा और जातीय भी, कार्यकारिणी छोटी भी होगी और संतुलित भी। अब इंतज़ार है उनकी रिपोर्ट पर आलाकमान की प्रतिक्रिया का। यह निर्णय न केवल संगठन की भावी रणनीति तय करेगा, बल्कि हिमाचल में कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति को भी मज़बूत या कमज़ोर करेगा। कांग्रेस यदि सही संतुलन साधने में सफल होती है, तो वह भाजपा को सशक्त चुनौती देगी, और अगर नहीं होती, तो भाजपा से बड़ी चुनौती कांग्रेस के लिए आंतरिक असंतोष ही रहेगा।