जब भारत के नेता प्रतिपक्ष ने सरकार का पक्ष रखा

वो तारीख थी 27 फरवरी 1994, पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC) के जरिए एक प्रस्ताव सामने रखा। पाकिस्तान कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा कर रहा था। भारत के लिए एक बड़ा संकट उजागर हो गया, संकट यह था कि अगर यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत को UNSC के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता।
उस समय केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी। चौतरफा चुनौतियों का सामना कर रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने इस मसले को खुद अपने हाथों में लिया और जीनेवा (Geneva) में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए सावधानीपूर्वक एक टीम बनाई। इस प्रतिनिधि मंडल में तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद, ई. अहमद, नैशनल कॉन्फ़्रेंस प्रमुख फारूक अब्दुल्ला और हामिद अंसारी तो थे ही, इनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे। वाजपेयी उस समय विपक्ष के नेता थे और उन्हें इस टीम में शामिल करना मामूली बात नहीं थी। यही वह समय था जब देश के बचाव में सभी पार्टियों और धर्म के नेता एकसाथ खड़े हो गए थे। शायद राव का यही अंदाज़ उन्हें भारतीय राजनीति का चाणक्य बनाता है।
अटल का स्वभाव
अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा से ही एक ऐसे नेता थे जिन्हें न सिर्फ अपनी पार्टी में बल्कि विपक्षी पार्टियों में भी मान-सम्मान मिला। इसका सटीक उदाहरण था साल 1994 में उन्हें पि.वि नरसिम्हा राव द्वारा, एक विपक्ष के नेता होने के बावजूद उन्हें संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजा गया।
कैसे मिली जीत?
इस फैसले के बाद नरसिम्हा राव और वाजपेयी ने उदार इस्लामिक देशों से संपर्क शुरू किया। राव और वाजपेयी ने ही OIC के प्रभावशाली 6 सदस्य देशों और अन्य पश्चिमी देशों के राजदूतों को नई दिल्ली बुलाने का प्रबंध किया। दूसरी तरफ, अटल बिहारी वाजपेयी ने जीनेवा (Geneva) में भारतीय मूल के व्यापारी हिंदूजा बंधुओं को तेहरान से बातचीत के लिए तैयार किया। वाजपेयी इसमें सफल हुए।
प्रस्ताव पर मतदान वाले दिन जिन देशों के पाकिस्तान के समर्थन में रहने की उम्मीद थी उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। इंडोनेशिया और लीबिया ने OIC द्वारा पारित प्रस्ताव से खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी यह कहकर पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली कि वह इसके रिवाइज्ड ड्राफ्ट पर गौर करेगा। 9 मार्च 1994 को ईरान ने सलाह-मशवरे के बाद संशोधित प्रस्ताव पास करने की मांग की। चीन ने भी भारत का साथ दिया। अपने दो महत्पूर्ण समर्थकों चीन और ईरान को खोने के बाद पाकिस्तान ने शाम 5 बजे प्रस्ताव वापस ले लिया और भारत की जीत हुई।
आखिर राव ने अटल को क्यों चुना?
भारत की जीत हुई, अटल की जीत हुई, राव की जीत हुई। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है की राव द्वारा अटल को संयुक्त राष्ट्र भेजा जाना किसी बड़े राजनीतिक दाव से कम नहीं था। अटल की बात करें तो उनकी आम लोगों में लोकप्रियता पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा। उनकी छवि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में बेदाग रही है। अटल अगर इस प्रस्ताव को रुकवा कर वापिस आते तो इसमें साफ़ तौर पर अटल के साथ-साथ राव की वाह-वाही होती कि, राव का दिल इतना बड़ा है की किसी विपक्ष के नेता को वो इतना सम्मान दे रहे है। लेकिन अगर इस कार्य में अटल सफल नहीं होते तो राव पूरा का पूरा भन्दा अटल के सर फोड़ते। इन दोनों ही स्थितियों में राव कि जीत होती। यानि चित भी उनकी और पट्ट भी उनकी।
जब संसद में बोले थे अटल
इस तथ्य कि जानकारी खुद वाजपेयी ने एक बार सदन में दी थी। उनका कहना था कि जब वह संयुक्तत राष्ट्र में पहुंचे तो हर किसी की ज़ुबान खासतौर पर पाकिस्तान के नेताओं में यह चर्चा खासा जोर पकड़ रही थी कि आखिर भारत सरकार ने नेता प्रतिपक्ष को अपनी बात रखने के लिए क्यों चुना। उन्होंने इस बात पर यह कहते हुए चुटकी भी ली कि कई नेताओं ने उनसे यहां तक कहा कि एक राजनीतिक साजिश के तहत ही उन्हें संयुक्त राष्ट्र भेजा गया है। यदि वहां पर सफलता मिली तो नरसिम्हा अपनी पीठ थपथपाएंगे और यदि हार मिली तो इसका ठीकरा उनके ऊपर फोड़ देंगे। हालांकि उन्होंने कभी इन विचारों को नहीं माना। उनका कहना था कि पाकिस्तान के नेता इस बात को लेकर भी हैरान थे कि उनके यहां पर विपक्ष के नेता का वजूद कुछ नहीं होता है और भारत का नेता प्रतिपक्ष सरकार का पक्ष रखता है।