अवस्थी बने अर्की के लाल, जनता ने क्यों नकारे रतन पाल ?
3219 वोट से कांग्रेस प्रत्याशी संजय अवस्थी अर्की उपचुनाव जीतने में कामयाब रहे। उन्हें राजेंद्र ठाकुर की बगावत से भी झूझना पड़ा और भीतरघात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, इस पर संजय अवस्थी ने चुनाव भी बेहद कमजोर तरीके से लड़ा। ऐसा लचर चुनाव प्रबंधन कम ही देखने को मिलता है, बावजूद इसके अवस्थी जीत गए। इसमें कोई संदेह नहीं है की अगर अवस्थी ने मजबूती से ये चुनाव लड़ा होता तो उनकी जीत का अंतर कहीं ज्यादा होता। पर जीत तो आखिर जीत है। वहीं भाजपा के लिए शायद ये हार पचाना अधिक मुश्किल नहीं रहा होगा क्योंकि जमीनी स्थिति कभी भाजपा के पक्ष में दिखी ही नहीं। बल्कि कांग्रेस की कमजोरी की वजह से पार्टी का प्रदर्शन अनुमान से बेहतर ही रहा है। दरअसल पार्टी प्रत्याशी रतन पाल के खिलाफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के एक गुट खुलकर मुखालफत करता रहा है जिसकी अगुवाई पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा करते रहे। हालांकि चुनाव से पहले गोविन्द राम शर्मा को मना लिया गया लेकिन तब तक उनके समर्थकों में रतन पाल विरोधी माहौल चरम पर था। ये लोग भाजपा के साथ होने का तो दावा करते रहे लेकिन रतन पाल इन्हे मंजूर नहीं थे। 2017 में जयराम राज आने के बाद से अर्की में भाजपा ने सिर्फ रतन पाल को ही तव्वज्जो दी और जमीनी पकड़ रखने वाले कई मजबूत नेता दरकिनार कर दिए गए। इस पर रतन पाल से पार्टी का एक बड़ा तबका कभी खुश नहीं दिखा, इनमें आम कार्यकर्त्ता भी शामिल है। जब कार्यकर्त्ता ही रतन पाल के पक्ष में एकजुट नहीं था तो जीत सिर्फ चमत्कार से ही हो सकती थी। इस जमीनी स्थिति से पार्टी यदि वाकिफ नहीं थी तो ये संगठन की बड़ी नाकामयाबी है। और यदि इससे वाकिफ होने के बावजूद उचित कदम नहीं उठाये गए तो बड़ा सवाल ये है कि क्या पार्टी चुनाव हारने के लिए लड़ रही थी ?
जिला परिषद चुनाव के बाद लामबंद हुए रतन पाल विरोधी
रतन सिंह पाल के खिलाफ अर्की में इस साल की शुरुआत से ही खुलकर विरोध के स्वर उठने लगे थे। तब जिला परिषद् चुनाव में पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं के टिकट काटे गए। कुनिहार वार्ड से अमर सिंह ठाकुर और डुमहेर वार्ड से आशा परिहार का टिकट काटा गया। इन्होंने इसके पीछे रतन पाल का हाथ बताया। इन दोनों नेताओं ने चुनाव लड़ा भी और जीता भी। जिला परिषद् पर कब्जे के लिए भाजपा को इन दोनों की जरुरत पड़ी और दोनों ने पार्टी का साथ भी दिया। पर अर्की में जमीनी स्तिथि नहीं बदली। अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी पार्टी को करारी हार झेलनी पड़ी थी।
जब अनदेखी से आहत गोविंद राम ने खोला मोर्चा !
1993 से 2003 तक भाजपा की लगातार तीन शिकस्त के बाद लगातार दो बार पार्टी को जीत दिलाने वाले पूर्व विधायक गोविन्द राम शर्मा का 2017 में टिकट काटा गया था। उस चुनाव में गोविंदराम शर्मा पूरी तरह पार्टी के लिए प्रचार करते दिखे थे और भाजपा एकजुट थी। तब रतन पाल तो चुनाव हार गए लेकिन प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। उम्मीद थी गोविन्द राम को या किसी बोर्ड निगम में ज़िम्मेदारी मिलेगी या संगठन में अहम दायित्व मिलेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नतीजन उनके समर्थकों की नाराजगी बढ़ती रही और इस वर्ष पंचायत चुनाव के बाद उन्होंने खुलकर मोर्चा खोल दिया।
2022 में नोटा भी बड़ी चुनौती !
अर्की उपचुनाव में 1626 लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया, जबकि 2017 में ये आंकड़ा 530 था। सवर्ण आयोग के गठन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे देवभूमि क्षत्रिय संगठन ने नोटा दबाने का आग्रह किया था जिसके बाद इसकी संख्या में करीब तीन गुना बढ़ोतरी हुई। यदि मुकाबला नजदीकी होता तो ये जीत हार का कारण बन सकता था। माहिर मानते है कि इसमें से अधिक हिस्सा सत्ता के विरोध में जा सकता था। ऐसे में 2022 में नोटा को सभी प्रत्याशियों को ध्यान में रखना होगा।
2022 में नहीं होगी गलती की गुंजाइश !
संजय अवस्थी ने 2012 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था और नजदीकी मुकाबले में हार गए थे। पर उसके बाद से ही अवस्थी लगातार अर्की में सक्रीय थे। नौ साल की ये मेहनत ही अवस्थी को बचा गई अन्यथा जिस लचर तरीके से कांग्रेस ने ये उपचुनाव लड़ा है वो चौकाने वाला रहा। बंटी हुई भाजपा और रतन पाल को लेकर पार्टी के एक तबके में विरोध ने भी उनकी स्थिति बेहतर की। अगर 2022 में भाजपा इन गलतियों से सबक लेकर लड़ती है तो कांग्रेस को भी मजबूती से चुनाव लड़ना होगा। तब गलती की शायद कोई गुंजाइश नहीं रहे। कांग्रेस को जहाँ में रखना होगा कि जीत का जो अंतर आठ से दस हज़ार का हो सकता था वो महज तीन हज़ार ही रहा है।
क्या नया चेहरा लाना ही विकल्प है ?
अर्की में भाजपा की वर्तमान स्थिति बेहद पेचीदा है। रत्न पाल और गोविन्द राम, ये दोनों ही चेहरे आगे भी क्या पार्टी को जीत दिला सकते है इस पर अभी से मंथन करना होगा। ये तय है कि दोनों के चलते पार्टी बंट चुकी है और इस स्थिति में 2022 में भी परिणाम अनुकूल आना मुश्किल होगा। ऐसे में मुमकिन है कि कोई नया चेहरा लाकर पार्टी सबको एक साथ ला सकती है? दो चुनाव हारने के बाद रतन पाल पर फिर दांव खेलना मुश्किल ही लगता है। बाकी सियासत में सब संभव है।