लचर संगठन कहीं पार्टी को लाचार न बना दे
संगठन ही शक्ति, संगठन ही सर्वोपरि भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी राजैनतिक पार्टी बनाने का मूल आधार ये ही मंत्र रहा है। पर हिमाचल में पार्टी का संगठन लचर नजर आ रहा है जो पार्टी को लाचार बनाता दिख रहा है। हालहीं में हुए उपचुनाव में भाजपा संगठन का नेटवर्क काम नहीं आया। चाहे त्रिदेव हों या बूथ प्रभारी, कोई तंत्र पार्टी की हार नहीं टाल पाया। न मुख्य संगठन में माहिरों का अनुभव दिखा और न ही भाजयुमो की युवा ब्रिगेड में पहले सा जोश। वास्तविक स्थिति ये है कि बूथ स्तर से ऊपर तक यानी बॉटम टू टॉप पार्टी का संगठन कमजोर दिखने लगा है। यूँ तो कागजों में हजारों -लाखों कार्यकर्त्ता है यानी लाखों परिवार पार्टी से जुड़े है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सक्रीय है या फिर महज कागजी आंकड़ा। या फिर नेतृत्व में ही कोई खामी है ? इन सवालों से इस वक्त भाजपा झूझ रही है। 2022 के सत्ता संग्राम से पहले भाजपा को इन सवालों का जवाब तलाशना होगा और खामियों को दूर भी करना होगा। ये ही हाल रहा तो मिशन रिपीट में पार्टी का पीटना तय होगा।
पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष सुरेश कश्यप को 2020 में डॉ राजीव बिंदल के इस्तीफे के बाद पार्टी की कमान सौंपी गई थी। कश्यप युवा और इमानदार चेहरा है और लगातार खुद को साबित भी करते रहे है, पर जब नेतृत्व करने का मौका आया तो ज्यादा प्रभावशाली नहीं दिखे। दिलचस्प बात ये है कि उन्हें कमान मिलने के बाद से अब तक जमीनी स्तर पर पार्टी संगठन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। अधिकांश नियुक्तियां डॉ राजीव बिंदल के अध्यक्ष रहते हुए थी और वे तमाम लोग अब भी संगठन में मौजूद है। इनमें बिंदल के कई खास सिपहसालार भी है। सुरेश कश्यप ने संगठन में न तो ज्यादा बदलाव दिया और न ही जमीनी संगठन को धार देने में अब तक कामयाब दिखे है। मोटे तौर पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा जारी दिशा निर्देश के अनुसार ही एक तरह से संगठन अपना कर्तव्य पूरा करने की औपचारिकता करता दिखा है। भाजपा के लिए एक और बड़ी परेशानी है, अमूमन हर जिले में जमीनी कार्यकर्ता में नाराजगी भी है और इसका कारण है वर्ग विशेष को मिल रही तवज्जो। मसलन कई शहरी निकायों में आम कार्यकर्ता की अनदेखी कर पैराशूट से पार्टी में उतरे लोगों को मनोनीत किया गया। जाहिर है ऐसे में पार्टी का झंडा बुलंद रखने वाला आम कार्यकर्ता हतोत्साहित हुआ है। ऐसे और कई मसले है।
पार्टी के जिला संगठनो की बात करें तो कई जिलों में नेतृत्व ऐसे नेता कर रहे है जिनकी न तो जमीनी पकड़ दिख रही है और न ही वे प्रभावशाली दिख रहे है। कांग्रेस में तो इस तरह चहेतों को पद लाभ देने का रिवाज रहा है लेकिन भाजपा में भी अब स्थिति ऐसी ही है। कॉर्पोरेट कल्चर वाली भाजपा में भी अब नॉन परफॉर्मर्स को लादा जाना सवाल तो खड़े करता ही है। बहरहाल उपचुनाव में क्लीन स्वीप के बाद प्रदेश संगठन में व्यापक फेरबदल की बहस भी छिड़ गई है। एक बड़ा तबका इसका हिमायती दिख रहा है। ये तो तय है की पार्टी इस हार से सबक लेगी और आवश्यक बदलाव भी करेगी। सवाल ये भी है क्या संगठन में व्यापक बदलाव होने जा रहा है ? दरअसल अध्यक्ष पद संभालने के बाद सुरेश कश्यप का पहला बड़ा इम्तिहान पार्टी सिंबल पर हुए नगर निगम चुनाव थे जहाँ पार्टी कांग्रेस के मुकाबले उन्नीस ही दिखी थी। अब उपचुनाव में पार्टी को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सुरेश कश्यप पर भी सबकी निगाहें टिकी है।