मध्य प्रदेश में 'कमल' बनाम 'कमलनाथ'
**कांग्रेस में चेहरा भी कमलनाथ, चाल भी उनकी और चली भी उनकी
**भाजपा को मिला राज तो आधा दर्जन दावेदार
**एमपी में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व और गारण्टी मॉडल पर आगे बढ़ी कांग्रेस
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस बार रणनीति भी बदली है और सियासी तौर तरीका भी। इनमें से तीन राज्यों यानी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। 2018 में ये तीनों राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीन लिए थे। इसके बाद 2020 में मध्य प्रदेश कांग्रेस में हुई बगावत के बाद भाजपा की सत्ता वापसी हुई लेकिन राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा विपक्ष में ही है। अब भाजपा इन तीनों ही राज्यों में सत्ता हासिल करने को जोर लगा रही है। इस बार भाजपा ने तीनों ही राज्यों में सीएम फेस नहीं घोषित किया है। साथ ही कई सांसदों को मैदान में उतार सियासी चौसर को रोचक कर दिया है। अब इसका नतीजा क्या होगा ये तो तीन दिसंबर को पता चलेगा लेकिन मुकाबला कड़ा जरूर दिख रहा है। विशेषकर मध्य प्रदेश में बीते दो दशक में अधिकांश वक्त भाजपा का राज रहा है, ऐसे में भाजपा के इस प्रयोग का असल टेस्ट मध्य प्रदेश में ही होना है। आज सियासतनामा में बात मध्य प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य की।
मध्य प्रदेश के मौजूदा सियासी हाल और चाल को समझने के लिए बात बीस साल पीछे से शुरू करनी होगी।
दिग्विजय सिंह के दस साल के शासन के बाद साल 2003 में मध्य प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई थी। तब एंटी इंकमबैंसी इस कदर हावी थी कि भाजपा 173 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। तब मुख्यमंत्री बनी थी उमा भारती, फिर बाबू लाल गौर कुछ समय सीएम रहे और फिर आया शिवराज का राज। देखते ही देखते शिवराज सिंह चौहान एमपी में भाजपा का चेहरा हो गए। शिवराज अपनी लोकप्रिय योजनों से एमपी की सियासत के मामा बन गए, सबसे लोकप्रिय सियासी चेहरा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा रोड़ा। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा शिवराज का चेहरा आगे रखकर ही मैदान में उतरी और जीती भी। दिलचस्प बात ये है कि इन दो चुनावों में भाजपा ने शिवराज के काम तो गिनाये ही, दिग्विजय का राज भी याद दिलवाया। यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि 2003 की दिग्विजय सरकार की एंटी इंकमबैंसी को भाजपा अगले दो चुनाव में भी भुनाती रही। वहीँ कांग्रेस में दिग्गी राजा के साथ साथ अब 'महाराज' सिंधिया भी बड़ा नाम और चेहरा थे। दोनों की तकरार और रार भी कांग्रेस की हार का कारण बनी रही।
2013 के बाद कांग्रेस को समझ आने लगा था कि दिग्विजय सिंह के चेहरे पर मध्य प्रदेश में वापसी बेहद मुश्किल है। पार्टी की तलाश रुकी कमलनाथ पर जो अर्से से केंद्र की केंद्र की सियासत में बड़ा नाम रहे और उनका कर्म क्षेत्र रहा मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा। 'महाराज' तो दिग्गी राजा को नामंजूर थे लेकिन कमलनाथ वो नाम था जो उन्हें भी स्वीकार्य था। चेहरा बदला तो कांग्रेस की किस्मत भी बदली और 2018 में पार्टी नजदीकी मुकाबल में सरकार भी बना गई। तब सीएम बने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य बन दिए गए डिप्टी सीएम। पर 15 महीने में ही 'ऑपरेशन लोटस' ने कमलनाथ को सत्ता से बाहर किया और शिवराज लौट आएं। तब समर्थकों के साथ कांग्रेस में बगावत करने वाले सिंधियाँ अब भाजपा में है और केंद्रीय मंत्री बना दिए गए है। उधर कांग्रेस में अब कमलनाथ ही इकलौता चेहरा है। दिग्विजय सिंह अब पीछे पीछे ही दीखते हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में चेहरा भी कमलनाथ है, चाल भी उनकी है और चली भी उनकी ही है।
वहीँ भाजपा में अब शिवराज का चेहरा धुंधला पड़ गया है। फिर सत्ता मिली तो शिवराज ही सीएम होंगे ,ये कहना मुश्किल है। दौड़ में कई केंद्रीय मंत्री और सांसद तो है ही, सिंधियाँ भी वेटिंग लिस्ट में है। कैल्श विजयवर्गीय भी रेस में है। पर इसके लिए पहले जरूरी है पार्टी की सत्ता वापसी। पिछले बीस में से करीब 19 साल भाजपा का शासन रहा है और ऐसे में एंटी इंकम्बैंसी होना भी स्वाभविक है। पर कांग्रेस की बगावत में जरूर पार्टी को उम्मीद दिख रही होगी। उम्मीद केंद्रीय राजनीति के उन दिग्गजों से भी होगी जिन्हे आलाकमान ने विधानसभा चुनाव में उतार दिया है। अब पार्टी का फार्मूला कितना हिट होता है, ये तो तीन दिसंबर को ही तय होगा।
उधर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सॉफ्ट हिन्दुस्त्व की राह भी पकड़ी है और हिमाचल -कर्णाटक में सफल रहा गारंटी फार्मूला भी। कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस निसंदेह दमदार विपक्ष की भूमिका में दिखी है। हालांकि असंतोष और बगावत में जरूर रंग में भंग डाला है, बाकि स्थिति नतीजे आने के बाद ही स्पष्ट होगी। पर ये तय है कि अगर सत्ता मिली तो सीएम कमलनाथ ही होंगे।