तस्वीर में साथ -साथ...बाकी 'तू डाल-डाल मैं पात-पात'
**सरकार रिपीट हुई तो क्या गहलोत को हटा पायेगा आलाकमान ?
**समर्थक विधायकों का संख्याबल तय करेगा गहलोत और पायलट की दावेदारी !
राजस्थान में मचे सियासी घमासान में इस बार मुकाबला कांग्रेस भाजपा में ही नहीं है, एक मुकाबला कांग्रेस और कांग्रेस के बीच है, तो एक भाजपा और भाजपा के बीच। ये है मुख्यमंत्री की कुर्सी का मुकाबला। हालांकि सबकुछ पहले जनता ने तय करना है और जनता 25 नवंबर को तय भी कर देगी। तीन दिसंबर को नतीजा आएगा और उसके बाद सीएम पद की दावेदारी की जंग होगी या हार का ठीकरा फोड़ने की जद्दोजहद, ये देखना रोचक होने वाला है।
2013 में कांग्रेस की हार के बाद अशोक गहलोत केंद्रीय संगठन का रुख कर गए और राजस्थान में मोर्चा संभाला सचिन पायलट ने। पर 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले गहलोत न सिर्फ वापस आएं बल्कि सीएम पद के दावेदार बनकर आएं। खेर कांग्रेस ने बगैर चेहरे के चुनाव लड़ा और सत्ता में भी आ गई पर सीटें उतनी नहीं मिली जितनी उम्मीद थी। आलाकमान ने इस पेचीदा स्थीति में गहलोत को सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बना दिया। यानी सत्ता के जहाज के पायलट गहलोत बने और सचिन पायलट कोपायलट हो गए। सरकार में गहलोत की ही चली और जल्द ही तल्खियां सामने आने लगी। फिर पायलट ने साथी विधायकों के साथ बगावत कर दी लेकिन गहलोत ने सरकार बचाकर अपनी जादूगरी भी दिखाई और पायलट को हाशिये पर भी ला दिया। पायलट न डिप्टी सीएम रहे और न प्रदेश अध्यक्ष। हालांकि आलाकमान के हस्तक्षेप से पायलट पार्टी में बने रहे लेकिन राजस्थान की सत्ता में उनकी एक न चली। सितम्बर 2022 में जब गाँधी परिवार गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर पायलट को सीएम बनाना चाहता था तब भी गहलोत समर्थकों के आगे आलाकमान फेल हो गया और पायलट फिर खाली हाथ रह गए। इसके बाद आलाकमान ने पायलट को सीडब्लूसी में शामिल किया ,लेकिन पायलट ने राजस्थान नहीं छोड़ा। विधानसभा चुनाव से पहले अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। अपनी ही सरकार को घेरने पायलट सड़क पर उतर गए। जैसे तैसे आलाकमान ने गहलोत पायलट की सुलह तो करवाई, लेकिन जिस रस्सी में इतनी गाठें हो वो समतल कैसी होगी ?
बहरहाल माना जा रहा है कि पायलट को आलाकमान से आश्वासन मिला है, लेकिन राजस्थान में फेस भी गहलोत है और चुनाव अभियान भी उनके मन मुताबिक ही चला है। ऐसे में अगर रिपीट करके गहलोत इतिहास रच देते है तो क्या आलाकमान पायलट को एडजस्ट भी कर पायेगा, ये बड़ा सवाल है।
चुनाव की घोषणा के बाद से राजस्थान में प्रत्यक्ष तौर पर गहलोत और पायलट आमने सामने नहीं हुए। कहा जाने लगा की आलकमान ने सब ठीक कर दिया है और नतीजों के बाद ही अगला फैसला होगा। पर गहलोत शायद अपने स्तर पर सबकुछ स्पष्ट कर देने चाहते थे और उन्होंने एक किस्म से कर भी दिया।
"मैं कुर्सी को छोड़ना चाहता हूँ पर कुर्सी मुझे नहीं छोड़ती और छोड़ेगी भी नहीं ".....शब्द कुछ, मतलब कुछ, ये ही अशोक गहलोत की जादूगरी है और ये ही उनका सियासी अंदाज। इसीलिए उन्हें सियासत का जादूगर कहा जाता है। कुछ दिन पहले मौका दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस का था और निशाना भाजपा। पर घूमते घूमते बात कहाँ से कहाँ पहुंच गई और शायद जहाँ पहुंचानी थी वहां पहुंच गई। गहलोत अपने समर्थकों को कुछ न कहकर भी कह गए की जनता मेहरबान रही तो वे ही अगले सीएम होंगे। साथ ही विरोधियों को भी सन्देश दे गए की कुर्सी उन्हें नहीं छोड़ने वाली। सन्देश शायद आलाकमान के लिए भी था कि वो क्यों जादूगर कहलाते है।
बहरहाल बात निकली तो पायलट तक भी पहुंची और जवाब भी आया। नपेतुले शब्दों में बिलकुल उनके सियासी तौर तरीके की तरह, "सीएम तो विधायक और आलाकमान तय करेंगे।"
टिकट आवंटन की बात करें तो दोनों के समर्थकों को टिकट मिले भी है और कटे भी है। 'कौन आलाकमान' कहने वाले शांति धारीवाल को टिकट दिलवाकर गहलोत ने साबित कर दिया कि उनके सियासी पिटारे में कई तरकीबें है। बहरहाल खुलकर कोई कुछ नहीं बोल रहा, लेकिन दोनों ही नेताओं के समर्थक भीतरखाते प्रो एक्टिव है। किसके ज्यादा समर्थक विधानसभा की दहलीज लांघते है इस पर काफी कुछ निर्भर करने वाला है।