परंपरा,अटूट आस्था और अलौकिक अनुभूति का समागम है कुल्लू दशहरा
'कुल्लू दशहरा' अपनी अनोखी परंपरा के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। लाखों की तादाद में लोग अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू फेयर में शिरकत करने आते हैं। ख़ास बात ये है कि इस दशहरे में न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही कोई रामलीला होती है। अपनी परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से कुल्लू दशहरा उत्सव विशिष्ट है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। बाकी जगहों की तरह यहां एक दिन का दशहरा नहीं होता बल्कि 7 दिनों तक उत्सव मनाया जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 16 वीं शताब्दी में, राजा जगत सिंह ने कुल्लू के समृद्ध और सुंदर राज्य पर शासन किया। शासक के रूप में, राजा को दुर्गादत्त नाम के एक किसान के बारे में पता चला, जो जाहिर तौर पर कई सुंदर मोती रखते थे। राजा ने सोचा कि उसके पास ये क़ीमती मोती होने चाहिए। दरअसल, दुर्गादत्त के पास ज्ञान के मोती थे। राजा ने अपने लालच में दुर्गादत्त को अपने मोती सौंपने या फांसी देने का आदेश दिया। राजा के हाथों अपने अपरिहार्य भाग्य को जानकर, दुर्गादत्त ने खुद को अग्नि के हवाले कर दिया और राजा को श्राप दिया, "जब भी तुम खाओगे, तुम्हारा चावल कीड़े के रूप में दिखाई देगा, और पानी खून के रूप में दिखाई देगा। "अपने भाग्य से निराश होकर, राजा ने एकांत की मांग की और एक ब्राह्मण से सलाह ली। ब्राह्मण ने उससे कहा कि श्राप को मिटाने के लिए, उसे राम के राज्य से रघुनाथ देवता को पुनः प्राप्त करना होगा। हताश, राजा ने एक ब्राह्मण को अयोध्या भेज दिया। आयोध्या पहुंचकर ब्राह्मण ने देवता को चुरा लिया और वापस कुल्लू की यात्रा पर निकल पड़ा। अयोध्या के लोग, अपने प्रिय रघुनाथ को लापता पाते हुए, ब्राह्मण की खोज में कुल्लू निकल पड़े। सरयू नदी के तट पर, वे ब्राह्मण के पास पहुँचे और उनसे पूछा कि वे रघुनाथ जी को क्यों ले गए हैं। तब ब्राह्मण ने उन्हें कुल्लू राजा की कहानी सुनाई। इसके बाद अयोध्या के लोगों ने रघुनाथ को उठाने का प्रयास किया, लेकिन अयोध्या की ओर वापस जाते समय उनका देवता अविश्वसनीय रूप से भारी हो गया, और कुल्लू की ओर जाते समय बहुत हल्का हो गया। इसके बाद अयोध्या वासियों ने भगवान रघुनाथ को कुल्लू जाने दिया। कुल्लू पहुँचने पर श्री रघुनाथ को कुल्लू के राज्य देवता के रूप में स्थापित किया गया। श्री रघुनाथ जी के देवता को स्थापित करने के बाद, राजा जगत सिंह ने देवता के चरण का अमृत पिया और श्राप हटा लिया। तब से जगत सिंह और कुल्लू राज घराना भगवान रघुनाथ के प्रतिनिधि बन गए।
- रथयात्रा के लिए माता भुवनेश्वरी की अनुमति जरूरी
कुल्लू दशहरा में भगवान रघुनाथ की रथयात्रा निकालने से पहले माता भुवनेश्वरी की अनुमति ली जाती है। उनके इशारे के बाद यात्रा शुरू होती है। इसके पीछे एक मान्यता है कि कुल्लू के राजा ने एक बार जबरदस्ती भेखली मंदिर से माता का रथ मंगाने की कोशिश की, वे आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि तभी राजमहल में सांप निकलने लगे। राजा ने जब पता किया तो पता चला कि मां भुवनेश्वरी का प्रकोप है। इसके बाद कभी उनकी मर्जी के बिना उन्हें मंदिर से नहीं लाया गया। इसी के बाद यात्रा के लिए उनकी अनुमति लेने की परंपरा बन गई ।
- लंका दहन की परंपरा
कुल्लू दशहरे में रावण दहन नहीं, बल्कि लंका दहन की परंपरा है। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी ‘मनाली की मां हिडिंबा’ कुल्लू आती हैं और राजघराने के सभी सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं। इस दौरान एक भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है। रथ में रघुनाथ जी, माता सीता व मां हिडिंबा की प्रतिमाओं को रखा जाता है। इन रथों को एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाया जाता है। ये रथ यात्रा 6 दिनों तक चलती है। उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवताओं की पालकियों को इकट्ठा एक जगह लाया जाता है। कहा जाता है ये सभी छठे दिन एक-दूसरे मिलते हैं। इसके बाद 7वें दिन रघुनाथ जी के रथ को लंका दहन के लिए ब्यास नदी के पास लेकर जाया जाता है, जहां लंका दहन किया जाता है। लंका दहन के बाद रथ को वापस उसके स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुन:स्थापित किया जाता है।
-पीएम मोदी भी हुए थे कुल्लू दशहरा में शामिल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुल्लू दशहरा उत्सव में शामिल होने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। इस दौरान उन्होंने लगभग डेढ़ घंटे तक तुरही और ढोल की थाप के बीच रथ यात्रा को देखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रघुनाथ जी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद भी लिया।