बुरी आत्माओं को दूर करने के लिए लामा करते है ये नृत्य
हिमाचल के लाहौल स्पीति में हालडा पर्व के समापन पर शशुम के दिन लाहौल घाटी के तिनन खंगसर में असुर नृत्य किया जाता है, जिसे 'छम नृत्य' भी कहा जाता है l छम नृत्य तिब्बती बौद्ध धर्म और बौद्ध त्योहारों के कुछ संप्रदायों से जुड़ा एक नृत्य है जिसमें लामा मखौटे ओर पौशाकें पहन कर नृत्य करते है। छम नृत्य धार्मिक और अन्य त्योहारों के दौरान मठों के प्रांगण में बौद्ध भिक्षुओं त्यानी लामाओं द्वारा किया जाने वाला शानदार नृत्य है l हिमाचल प्रदेश के तिब्बती बस्ती क्षेत्रों जैसे लाहौल और स्पीति, लद्दाख और किन्नौर में ये नृत्य बेहद लोकप्रिय है। ग्रामीण इस शानदार डांस शो को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं, जिसे 'डेविल डांस' के नाम से भी जाना जाता है।
छम नृत्य की उत्पत्ति ऐतिहासिक या धार्मिक पुस्तकों में स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन यह तांत्रिक रहस्यवादी कलाओं के साथ अपनी जड़ें साझा करता है। कहा जाता है कि छम नृत्य की उत्पत्ति हिमालय श्रृंखला में हुई थी l नृत्य के साथ पारंपरिक तिब्बती वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हुए भिक्षुओं द्वारा संगीत बजाया जाता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, छम नृत्य परंपरा की शुरुआत गुरु पद्मसंभव ने आठवीं शताब्दी के अंत में बुराई पर अच्छाई के प्रभुत्व को दर्शाने के लिए की थी। ऐसा माना जाता है कि छम नृत्य बुरी आत्माओं और राक्षसों को भगाने के लिए किया जाता है। इसकी थीम 'ईविल किंग' को मारने के इर्द-गिर्द घूमती है, जो मनुष्यों में दुष्ट प्रवृत्तियों, प्राकृतिक आपदाओं, बीमारियों और महामारी का प्रतीक है। नृत्य में उपयोग किए जाने वाले अजीब भाव और राक्षसी दिखावे के साथ बड़े आकार के मुखौटे लकड़ीऔर प्लास्टर के पतले कोट से बने होते हैं। ये मखौटे मृत्यु के बाद आत्मा की प्रतीक्षा कर रहे ड्रेगन, शैतानों, बुरी आत्माओं और कंकालों के रूप में कई भयानक राक्षसों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
किंवदंती के अनुसार, यह भी माना जाता है कि एक बार तिब्बत के राजा त्रिशोंग देत्सेन ने बुरी आत्माओं से छुटकारा पाने के लिए गुरु पद्मसंभव को बुलाया था, तो उन्होंने भूमि को आशीर्वाद देने और इसे एक बार फिर से पवित्र बनाने के लिए नृत्य अनुष्ठान किया। समय के साथ वही अनुष्ठान विस्तृत छम नृत्य बन गया, जो महायान बौद्ध धर्म के संप्रदाय के लिए विशिष्ट अभ्यास था l मान्यता ये भी है कि प्राचीन काल में मानव सिर्फ देवी देवताओं की पूजा करते थे, इस बात से क्रोधित होकर असुर मानव बस्ती की ओर क्षति पहुंचाने के लिए आते थे l मानव जाति को बचाने के लिए लाहौल घाटी के तिनन खांगसर गांव के चार लोग अपने चेहरे पर मुखौटा लगाकर असुरों का छद्म रूप धारण करके असुरों सा नृत्य करके असुरों के साथ घुलमिल जाते थे, और सांड को मारकर उसके मांस खाने का अभिनय करते थे। असुर नृत्य और मांस खाकर तृप्त होकर यह भूल जाते थे कि वह किस लिए आए थे और बिना किसी मानव को क्षति पहुंचाए वापस चले जाते थे। स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि तब से लेकर आज तक तिनन खांगसर गांव के चार लोग यह नृत्य करते-करते गांव से देवता नाग राजा के मंदिर तक जाते हैं और आखिर में नाग देवता के पूजा के बाद इस रस्म को समाप्त करते है ।