हिमालय के अजंता’ के रूप में प्रसिद्ध है ताबो मठ
हिमाचल प्रदेश के दूरदराज इलाकों और बर्फ से ढकी चोटियों में कई रहस्य छुपे है। ऐसी ही एक जगह है स्पीति घाटी जो अपने ठंडे रेगिस्तान और जादुई प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अविस्मरणीय अनुभव प्रदान करती है। इसी स्पीति घाटी में करीब 10,000 फीट की ऊंचाई पर मौजूद है मजबूत ताबो मठ। यह मठ भारत के सबसे पुराने मठों में से एक है। यह भारत और हिमालय का सबसे पुराना मठ है जो अपनी स्थापना के बाद से लगातार काम कर रहा है। यह आकर्षक मठ ‘हिमालय के अजंता’ के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्यूंकि इस मठ की दीवारों पर अजंता की गुफाओं की तरह आकर्षक भित्ति और प्राचीन चित्र बने हुए हैं। मिट्टी की मोटी दीवारों से बना ये मठ किले जैसा दिखता है।
बौद्ध संस्कृति के ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण स्थलों में से एक होने के नाते, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसके रखरखाव और संरक्षण की जिम्मेदारी संभाली है। यह मठ 6300 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और बौद्ध समुदाय के लिए एक अनमोल खजाना है। ताबो घाटी के ठंडे रेगिस्तान में और मिट्टी की ईंटों की ऊंची दीवारों से ढका यह समृद्ध विरासत स्थल बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अत्यधिक पूजनीय है और तिब्बत में थोलिंग गोम्पा के बाद दूसरे स्थान पर आता है।
इस गोंपा यानि मठ की स्थापना लोचावा रिंगचेन जंगपो ने 996 ई. में की थी। लोचावा रिंगचेन जंगपो एक प्रसिद्ध विद्वान थे। ताबो मठ परिसर में कुल 9 देवालय हैं, जिनमें से चुकलाखंड, सेरलाखंड एवं गोंखंड प्रमुख है। ये सभी मिट्टी से बने हैं और 1000 से अधिक वर्षों से इसी तरह खड़े हैं। मुख्य मंदिर में एक सभा कक्ष है जहां भिक्षु एक साथ प्रार्थना करते थे। मठ के भीतर सभी दीवारें बौद्ध कथाओं से रंगी हुई हैं। कहते है ताबो भित्ति चित्रों ने बौद्ध धर्म की विरासत को संरक्षित रखा हुआ है। चुकलाखंड (देवालय) की दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्र अंकित हैं। इसमें बुद्ध के संपूर्ण जीवन को चित्रों के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। बुद्ध के आलावा विभिन्न बोधिसत्वों के जीवन की कहानियां भी यहां मौजूद हैं। दिलचस्प बात यह है कि ताबो मठ के चित्र दो अलग-अलग चरणों को दिखाते है। 996 सीई का पहला चरण स्पष्ट स्थानीय और मध्य एशियाई प्रभाव दिखाता है, जबकि 11वीं सदी के दूसरे चरण में स्पष्ट कश्मीरी और पूर्वी भारतीय (पाल वंश) का प्रभाव दिखाई देता है। दीवारों पर बोधिसत्वों की 33 प्लास्टर मूर्तियां भी हैं। गोंपा में बहुत ही पुराने धर्म ग्रंथ ( तिब्बती भाषा में लिखे हुए है) एवं बौद्ध धर्म से संबंधित बहुत पुरानी पांडुलिपि भी मौजूद है। ताबो गोंपा के चित्र अजंता गुफा के चित्रों से मेल खाते हैं इसलिए ताबो गोंपा को हिमालयन अजंता के नाम से भी जाना जाता है।
पुराने मठ परिसर के बगल में, एक नया मठ और एक सभा हॉल है। अन्य मंदिर आमतौर पर बंद रहते हैं, लेकिन भिक्षु आपके अनुरोध पर उन्हें आपके लिए खोल सकते हैं। ये मंदिर तारा और बुद्ध मैत्रेय जैसे बौद्ध देवताओं के हैं। ताबो मठ में चित्रों की कोई फोटोग्राफी की अनुमति नहीं है, हालांकि आप परिसर के बाहर की तस्वीरें ले सकते हैं। इन सुंदर चित्रों के चित्र पोस्टकार्ड भिक्षुओं के पास बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि साल 1975 में आए एक भूकंप ने इस मठ की संरचना को काफी नुकसान पहुंचाया था, लेकिन इसकी इमारत की बेहतर गुणवत्ता ने इसे गिरने नहीं दिया। बाद में साल 1983 में, 14वें दलाई लामा ने इसे फिर बनाने का काम शुरू करवाया था। मठ के ठीक ऊपर पहाड़ी पर कुछ ध्यान गुफाएँ भी दिखाई देती हैं जो अभी भी भिक्षुओं द्वारा उपयोग की जाती हैं।
इस मठ में लगभग 60 से 80 लामा प्रतिदिन बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनकी दैनिक चर्या बौद्ध धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन एवं स्थानीय लोगों के अनुरोध पर उनके घरों में जाकर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना एवं पूजा पाठ करना है। मुख्य मंदिर के मध्य में वेरोकाना की मूर्ति है, जो मुख्य मंदिर को चारों दिशाओं से मुखारबिंद किए हुए है। साथ ही उनके चारों तरफ मंदिर की दीवार के मध्य में दुरयिंग की मूर्तियां हैं। इनमें महाबुद्ध अमिताभ, अक्षोभया, रत्ना सभा की मूर्तियां प्रमुख हैं। यह मोनेस्ट्री भारत में सबसे पुरानी कोब संरचना है। कोब यानि प्राकृतिक चीज़ों से बना एक तरह का मिट्टी का घर। बनाने में मुख्य रूप से कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं, यहां के पारंपरिक घरों की फ्लैट छतों में भी मिट्टी ही इस्तेमाल की गई है।
देवताओं ने एक रात में बनाए थे यहां चित्र !
वर्ष 1983 एवं 1996 में 14वें दलाई लामा ने यहां कालचक्र समारोह का आयोजन किया। इस कालचक्र समारोह में दीक्षा एवं पुनर्जीवन जैसे विषयों पर चर्चा की गई। यहां हर चार वर्ष में एक बार चाहर मेला लगता है, जो अक्टूबर माह में होता है। इस मठ के गर्भगृह में अलौकिक भित्ति चित्र देखने को मिलते हैं। इन्हें लेकर मान्यता है कि यह सभी चित्र देवताओं ने एक ही रात में बनाए थे। शायद यही वजह है कि यहां बने भित्ति चित्रों जैसी भाव-भंगिमाएं विश्वभर में कहीं और देखने को नहीं मिलती।
मठ पर नहीं होता बर्फबारी का असर
आपको यह जानकर हैरानी होगी है कि गोंपा परिसर के सभी मठों की दीवारें, छतें, सब कुछ मिट्टी से निर्मित है। इन्हें बने हुए हजारों वर्षों से अधिक का समय हो चुका है, लेकिन इसकी अनूठी वास्तुकला पर बारिश और बर्फबारी का कोई असर नहीं होता। इसे दैवीय शक्तियों का आशीर्वाद माना जाता है। बता दें कि 1975 के भूकंप के बाद मठ का पुनर्निर्माण किया गया है। ऐतिहासिक धरोहर के रूप में इस मठ का संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंपा गया है। इस मठ का नाम यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। दूर-दूर से लोग इस मठ को देखने आते हैं। सदियों से कोब की मजबूत दीवारों ने अपने भीतर की इस सुंदरता को संभालकर रखा है। हालांकि, आज इस मठ को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पहले की तुलना में अधिक गंभीर हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन। स्पीति घाटी में होने वाली तेज बारिश से मठ की दीवारों पर बनी कलाकृतियां धुंधली होती जा रही हैं। यूएन वर्ल्ड कमीशन ने पर्यावरण और विकास को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने भविष्य में ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करके सस्टेनेबल कंस्ट्रक्शन पर जोर देने की वकालत की है। उनके अनुसार, पुरानी शैली से प्रेरणा लेकर हमें बिना प्रकृति को नुकसान पहुचाएं, मजबूत और अच्छी इमारतें बनाने पर ध्यान देना होगा।
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