1857 में कसौली में धधकी थी क्रांति की ज्वाला
देशभर में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जब 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दौर चल रहा था तो पहाड़ों की शांत वादियों में भी भारतीय सैनिकों व लोगों में क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। इस ज्वाला की शुरुआत हुई अंग्रेजों की पहली छावनी कसौली में। यहां 20 अप्रैल 1857 को अंबाला राइफल डिपो के छह देशी सैनिकों ने कसौली पुलिस चौकी को आग लगा दी। भारतीय सैनिकों की इस बगावत से अंग्रेज अधिकारियों ने अन्य छावनी क्षेत्रों व कंपनी सरकार के कार्यालयों की सुरक्षा कड़ी कर दी। इसके बाद डगशाई छावनी, सुबाथू, कालका व जतोग में तैनात देशी सेना हथियार उठाने को उतावली हो गई। उधर कांगड़ा, नूरपुर, धर्मशाला, कुल्लू-लाहुल, सिरमौर व अन्य रियासतों में भी विद्रोही भावना प्रबल हो गई। बुशहर के राजा शमशेर सिंह, कुल्लू-सिराज के युवराज प्रताप सिंह, सुजानपुर के राजा प्रताप चंद गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की गतिविधियों में संलिप्त हो गए।
11 मई को मेरठ के विद्रोह की सूचना मिलते ही यहां अंग्रेज विरोधी मुहिम शुरू हुई जिसे बंदूकों के दम पर कुचला जाने लगा। अंबाला व दिल्ली में विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने कसौली, सुबाथू, डगशाई व जतोग की छावनियों को अंबाला कूच का आदेश दिया, लेकिन कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी के कारण देशी सैनिकों ने इसका पालन नहीं किया। जतोग में गोरखा रेजिमेंट ने सूबेदार भीम सिंह के नेतृत्व में छावनी व खजाने पर कब्जा कर लिया। इसी बीच एक गोरखा सैनिक ने अपनी खुखरी से शिमला बाजार में एक अंग्रेज अधिकारी की गर्दन उड़ा दी। फिरंगी सब कुछ छोड़कर भागने लगे। इंग्लैंड के समाचार पत्रों में इस घटना का जिक्र 'शिमला आतंक' के तौर पर किया। इसके बाद अंग्रेज अफसरों को परिवार सहित सुरक्षित छावनी क्षेत्रों व राजाओं के महलों में शरण लेनी पड़ी। उधर, बुशहर के राजा ने कंपनी को नजराना सहित अन्य सहायता बंद कर दी और क्रांतिकारियों का सहयोग किया। सिरमौर में नाबालिग राजा होने के कारण सहायक प्रशासकों ने अंग्रेजों की सहायता की, लेकिन वहां की बटालियन विद्रोही रही और बिलासुपर, बाघत सहित कुछ अन्य शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया।
16 मई को कसौली की नसीरी सेना ने विद्रोह की घोषणा कर दी और ब्रिटिश सेना पर धावा बोल दिया। देशी सेना ने सूबेदार भीम सिंह की अध्यक्षता में कसौली ट्रेजरी को लूटा और जतोग की तरफ बढ़ने लगे। स्थानीय पुलिस गार्ड के दरोगा बुद्धि सिंह ने क्रांति की बागडोर संभाली और जतोग पर कब्जे के लिए रवाना हो गए, लेकिन रास्ते में अंग्रेजी सेना ने कुछ को पकड़ लिया तो कुछ मारे गए, जबकि बुद्धि सिंह ने खुद को गोली मार ली।
नालागढ़ में भी क्रांतिकारियों ने मलौण किले से अंग्रेजों के हथियार कब्जे में ले लिए और 10 जून को जालंधर के दस्ते ने नालागढ़ पहुंचकर वहां के खजाने को लूट लिया। बाद में शिमला हिल्स की सभी छावनियों में विद्रोह लगभग शांत हो गया था और अगस्त 1857 तक बाहरी क्षेत्रों से आई अंग्रेज टुकड़ियों ने चौकियों व कार्यालयों को कब्जे में लेकर यथावत कर लिया था। इसमें कुछ देशी रियासत के शासकों व महाराजा पटियाला तक ने अंग्रेजों का साथ दिया, जिससे यहां क्रांति मंद पड़ी। पहाड़ी रियासतों की यह क्राति योजनाबद्ध तरीके से हो रही थी, जिसके लिए एक गुप्त संगठन बना हुआ था, जिसके सदस्य सूचनाओं को यहां-वहां पहुंचाया करते थे। इस संगठन के मुखिया सुबाथू में मंदिर के पुजारी रामप्रसाद वैरागी थे, 12 जून को इनका एक पत्र अंबाला के कमिश्नर को मिला, जिससे सारा भेद खुल गया और वैरागी को बंदी बनाकर अंबाला जेल में फांसी दे दी गई।
कांगड़ा, कुल्लू, चंबा व मंडी में भी हुआ विद्रोह
1857 की पहली क्रांति का विद्रोह कांगड़ा, कुल्लू-सिराज, चंबा व मंडी-सुकेत तक में हुआ। 11-12 मई के मेरठ व दिल्ली विद्रोह की सूचना कांगड़ा सहित आसपास के पूरे क्षेत्र में फैल गई थी, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने क्षेत्रों की सुरक्षा के उपाय कर लिए। कांगड़ा किले को उत्तर भारत, खासकर पहाड़ों का सबसे सुरक्षित दुर्ग माना जाता था, जिसे अंग्रेजों ने देशी सैनिकों को निशस्त्र करके अपने कब्जे में ले लिया और धर्मशाला से मुख्यालय भी यहीं शिफ्ट कर दिया गया। इससे सैनिक तो चुप हो गए, लेकिन अंदर ही अंदर ज्वाला भड़कती रही और रात के समय स्थानीय लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के कार्यालय, घरों व कचहरी, कोतवाली पर पथराव करना शुरू कर दिया। 19 मई को ऊना-होशियारपुर में क्रांतिकारियों व देशी पुलिस ने भयानक विद्रोह कर दिया। सुजानपुर टीहरा के राजा प्रताप चंद अपने किले में क्रांति की तैयारियां करते रहे, लेकिन इसकी भनक अंग्रेजों को हो गई और महल में ही नजरबंद कर दिया गया। उधर, जसवां, गुलेर, हरिपुर, नूरपुर, पठानकोट सहित अन्य क्षेत्र के लोग भी कंपनी के खिलाफ हो गए।
30 जुलाई को कांगड़ा में विभिन्न स्थानों पर देशी सैनिकों व क्रांतिकारियों की अंग्रेजों के साथ मुठभेड़ हुई और कई ने सुरक्षा के बावजूद शहर में प्रवेश कर लिया। क्रांतिकारी ब्रिगेडियर रमजान को नूरपुर में फांसी दे दी गई, कांगड़ा में पांच व धर्मशाला में छह देशभक्त व क्रांतिकारी फांसी पर चढ़ाए गए।
कुल्लू के युवराज प्रताप सिंह ने भी अंग्रेजों के खिलाफ खूब लोहा लिया, लेकिन अपने कुछ साथियों के पकड़े जाने के बाद वह भी गिरफ्तार कर लिए गए और तीन अगस्त को उन्हें व उनके साथी बीर सिंह को फांसी दी गई। यहां की प्रजा में भारी असंतोष था और जगह-जगह पर विद्रोह किया गया, जिसमें तीन देशभक्त भागसू जेल में शहीद हो गए। चंबा के राजा श्रीसिंह ब्रिटिश सरकार के वफादार बने रहे, लेकिन उनकी प्रजा व देशी सैनिकों ने विरोध किया। मंडी के राजा विजय सेन केवल 10 वर्ष के थे और सुकेत रियासत में आपसी गृहयुद्ध के कारण क्रांतिकारियों ने यहां अधिक सहयोग नहीं मिल पाया, लेकिन जनता में देशभक्ति की भावना प्रबल थी। ऐसे में अगस्त 1857 तक पहाड़ों में फैले विद्रोह को शांत कर लिया गया था, लेकिन इन चार महीने में देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के लिए लगभग 50 देशभक्त फांसी के फंदे में झूल गए थे।