भांग के रेशों से बनी है कुल्लू की ये पारंपरिक चप्पल

कुल्लू में भांग के रेशों से बनने वाली पारंपरिक चप्पल, जिन्हें आम भाषा में "पूलें" कहा जाता है, यहाँ की संस्कृति का हिस्सा रही हैं। यहां के ग्रामीण परिवेश में पूलें (चप्पलें) सदियों से शामिल रही हैं। हालांकि, समय के साथ इनका प्रचलन कम हुआ, पर बीते कुछ सालों में इन्हें व्यावसायिक पहचान मिलने लगी है, ठीक वैसे ही जैसे कुल्लू की टोपी, शॉल, मफलर और जुराबों को मिलती रही है। ये पारंपरिक चप्पल ग्रामीण लोगों को सर्दियों में गरम रखती हैं। ग्रामीण इलाकों में पुराने समय से इनका इस्तेमाल आम है।
कुल्लू की पूलें आरामदेह होने के साथ-साथ पवित्र भी हैं। इन्हें भांग के रेशे के साथ-साथ जड़ी-बूटियों से तैयार किया जाता है। भांग के पत्ते के तने के साथ ही ब्यूल के रेशों का भी इसे बनाने में इस्तेमाल होता है। यानी ग्रामीण इलाकों में पुराने समय से ही भांग के रेशों का व्यावसायिक इस्तेमाल होता आ रहा है। ये पूलें काफ़ी मजबूत होती हैं।
शुरुआती दौर में साधारण दिखने वाली पूलें बनाई जाती थीं, जिन्हें सिर्फ भांग के रेशे से बनाया जाता था। समय के साथ इनके डिज़ाइन में रंगीन धागों का भी प्रयोग किया जाने लगा है। इन पूलों का तला भांग के पौधे के रेशों से बनता है, जबकि ऊपर का हिस्सा रंगीन धागों से बनाया जाता है। इसके रंगीन चमकीले धागों से हिमाचली डिज़ाइन शैली की झलक साफ़ दिखती है। एक पूल का जोड़ा बनाने में तीन से चार दिन का समय लगता है।
शुभ कार्यों में किया जाता है इस्तेमाल
आज भी शुभ कार्यों के वक्त ये पूलें इस्तेमाल में लाई जाती हैं। दरअसल, इन्हें पहनकर देव-स्थल के भीतर जाने में कोई पाबंदी नहीं होती। मंदिरों में जहां देवी-देवताओं के आसपास जूते-चप्पल ले जाना निषेध होता है, वहां साफ़ नई पूलें पहनी जाती हैं। कुल्लू में धाम के वक्त वोटी (रसोइया) द्वारा भी पूलें पहनकर खाना बनाया जाता है।
प्रधानमंत्री भी मुरीद
कुल्लू की इस पारंपरिक चप्पल के मुरीद ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हैं। इनकी ख़ासियत को जानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुल्लू की पूलों को काशी विश्वनाथ के पुजारियों, सेवकों और सुरक्षाकर्मियों के लिए खड़ाऊ का बेहतरीन विकल्प माना और इन्हें इस्तेमाल करने की सलाह दी थी। इसके बाद से ही इनकी मांग में तेज़ी भी आई।