तवा फाड़ कर निकली ज्वाला, अकबर शीश नवाया
देवभूमि हिमाचल में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिसके आगे विज्ञान भी फैल है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा में स्थित श्री ज्वालामुखी मंन्दिर। इस मंदिर को ज्योता वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में काफी अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है, बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। ज्वाला देवी मंदिर में बिना तेल और बाती के नौ ज्वालाएं दिन रात जलती रहती है। इन्हें माता के नौ स्वरूपों का प्रतीक माना जाता हैं। मंदिर में जल रही सबसे बड़ी ज्वाला को माता ज्वाला माना जाता है और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, मां विध्यवासिनी, मां चण्डी देवी, मां महालक्ष्मी, मां हिंगलाज, मां सरस्वती, मां अम्बिका देवी एवं मां अंजी देवी स्थापित हैं।
कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने भी इस ज्वाला को बुझाने की कोशिश की थी, लेकिन वो नाकाम रहे थे। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने भी इस ज्वाला के लगातार जलने का कारण खोजने की कोशिश की लेकिन वे भी इसके पीछे का रहस्य नहीं जान पाए हैं। यह सब बातें सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं, चमत्कारी रूप से भी निकलती है।
पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। ज्वाला देवी मंदिर इन शक्तिपीठ मंदिरों में से एक है। इन सभी शक्तिपीठों की उत्पत्ति की कथा एक ही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंथ के अनुसार इन सभी स्थानों पर देवी सती के अंग गिरे थे। दरअसल भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नही किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। इस कारण सारे ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी में माता सती की जीभ गिरी थी।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर को जब ज्वालामुखी में माता के इस चमत्कार के बारे में पता चला तो उसने नई ज्योतियों को बुझाने का प्रयास किया था। अकबर ने ज्योति को बुझाने के लिए नहर का निर्माण किया और सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया, लेकिन नहर के पानी से मां की ज्योतियां नहीं बुझीं। इसके बाद अकबर ने मां से माफी मांगी और पूजा कर सोने का सवा मन का छत्र चढ़ाया । कहा जाता है कि घमंड में चढ़ाया हुआ ये सवा मन भारी शुद्ध सोने का छत्र खंडित हो गया था। माता ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया था। यह छत्र सोने का न रहकर किसी दूसरी धातु में बदल गया था। इसके बाद वह कई दिन तक मंदिर में रहकर क्षमा मांगता रहा, लेकिन माता ने उसकी क्षमा स्वीकार नहीं की। कहते हैं कि इस घटना के बाद ही अकबर के मन में हिंदू देवी-देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई थी। अकबर का चढ़ाया गया छत्र किस धातु में बदल गया, इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का दल पहुंचा। छत्र के एक हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया। जो भी श्रद्धालु शक्तिपीठ में आते हैं, वे अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर यात्रा को अधूरा मानते हैं। आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ भवन में रखा हुआ है। मंदिर के साथ नहर के अवशेष भी देखने को मिलते हैं।
नगरकोट में तुम्हीं विराजत, तिहूं लोक में डंका बाजत...
दुर्गा स्तुति में जिस नगरकोट का वर्णन किया गया है, वो हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित है। कांगड़ा स्थित ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों की हर दुख-तकलीफ मां की एक झलक मात्र से ही दूर हो जाती है। ब्रजेश्वरी धाम माता के शक्तिपीठों में से एक है। यहाँ माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था। ब्रजेश्वरी धाम इसलिए भी खास है क्यूंकि यहाँ तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है।
कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। फिर यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि माँ ब्रजेश्वरी ने पांडवों को सपने में दर्शन दिए थे। उन्होंने पांडवों को बताया कि वाहन कांगड़ा जिला में विराजमान है। फिर पाडंवों ने काँगड़ा जाकर माता के मंदिर का निर्माण किया था।
तीन धर्मों के प्रतीक है ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद
माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है, यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं नवाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के लोग भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है, जिसकी आकृति मंदिर जैसी है, तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है।
मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां के दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा, मां ब्रजेश्वरी अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं।
नैना देवी में गिरे थे देवी सती के नैन
हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में नैना देवी मंदिर स्थित है। यह शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियों पर स्थित एक भव्य मंदिर है। यह देवी के 51 शक्तिपीठों में शामिल है। यह तीर्थ स्थल हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकर्षण का केंद्र है जो शताब्दियों पुराना है। मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान की मूर्ति है। मंदिर के गर्भगृह में मुख्य तीन मूर्तियां हैं। दाई तरफ माता काली की, मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। यहां एक पवित्र जल का तालाब है, जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है।
श्री नैना देवी मंदिर महिशपीठ नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहां पर मां श्री नैना देवी जी ने महिषासुर का वध किया था। किंवदंतियों के अनुसार महिषासुर एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसे श्री ब्रह्मा द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त था और शर्त यह थी कि वह एक अविवाहित महिला द्वारा ही परास्त हो सकता था। इस वरदान के कारण, महिषासुर ने पृथ्वी और देवताओं पर आतंक मचाना शुरू कर दिया। राक्षस का सामना करने के लिए सभी देवताओं ने अपनी शक्तियों को संयुक्त किया और एक देवी को बनाया जो उसे हरा सके। देवी को सभी देवताओं द्वारा अलग-अलग प्रकार के शस्त्रों की भेंट प्राप्त हुई। महिषासुर देवी की असीम सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया और उसने शादी का प्रस्ताव देवी के समक्ष रखा। देवी ने उसे कहा कि अगर वह उसे हरा देगा तो वह उससे शादी कर लेगी। लड़ाई के दौरान, देवी ने दानव को परास्त किया और उसकी दोनों आंखें निकाल दी।
हिमाचलियों की श्रद्धा का केंद्र है माँ तारा का ये मंदिर
देवी देवताओं की भूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में स्वर्ग की देवी माँ तारा का वास है। शिमला के अंतरगर्त शोघी की तारब पहाड़ी पर स्थित तारा देवी मंदिर अपनी दिव्य सुंदरता और आध्यात्मिक शांति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माता तारा के दर्शन करने के लिए दूर दूर से लोग आते है। कहते है कि जो भी माता तारा के दरबार में आता है, मां उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटने देती। हिमाचल के लोगों की मां तारा के ऊपर अटूट आस्था व विश्वास है।
तारा देवी मंदिर का इतिहास करीब 250 साल पुराना है। मान्यता है कि मां तारा देवी को पश्चिम बंगाल से हिमाचल लाया गया था। बंगाल के सेन राजवंश के एक राजा एक बार हिमाचल आए। एक दिन जुग्गर के अँधेरे और घने जंगलों में शिकार खेलते हुए राजा भूपेन्द्र सेन को नींद आ गई और उन्हें एक सपना आया। सपने में उन्होंने मां तारा और उनके द्वारपाल श्री भैरव और भगवान हनुमान को आम और आर्थिक रूप से अक्षम आबादी के सामने उनका अनावरण करने का अनुरोध करते देखा। उनके सपने से प्रेरित होकर, राजा भूपेंद्र सेन ने 50 बीघा जमीन दान की और भूमि में एक मंदिर के निर्माण को प्रायोजित किया। मां की पहली मूर्ति लकड़ी की बनी थी जिसे वैष्णव परंपराओं के अनुसार स्थापित किया गया था। सेन राजवंश की बाद की पीढ़ियों ने धीरे-धीरे संरचना में सुधार किया। कहते है कि भूपेंद्र सेन के बाद उनके वंशज बलवीर सेन को भी माता के दर्शन हुए, जिसके फलस्वरूप बलवीर सिंह ने माता के मंदिर का पूर्ण रूप से निर्माण करवाया था और मंदिर में मां तारा देवी के अष्टधातु की मूर्ति स्थापित करवाई थी।
पुराणों के अनुसार भगवान शिव की पत्नी मां पार्वती ने मां सती के रूप में दूसरा जन्म लिया था। माता सती राजा दक्ष की पुत्री थी। उनकी बहन थी देवी तारा। तारा एक महान देवी है जिनकी पूजा हिंदू और बौद्ध दोनों धर्म में होती हौ। तारने वाली कहने के कारण भी माता तारा को तारा देवी के नाम से जाना जाता है।
माँ दुर्गा की नौ बहनों में से एक है माँ तारा :
माना जाता है कि माता तारा देवी दुर्गा की नौ बहनों में से नौवीं बहन थी। माता तारा के तीन स्वरूप है। तारा, एकजुट और नीलसरस्वती। बृहन्नील ग्रंथ में माता तारा के तीन स्वरूपों की विशेष चर्चा है। साल के दोनों नवरात्रों में माता के दरबार में खूब भीड़ देखी जाती हैं। यहां पर माता पर श्रद्धा रखने वाले लोग नवरात्र में माता की दिव्य मूर्ति के दर्शन पाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। यहां पर ज्योति कलश का भी अपना एक खास महत्व है। यह मंदिर कई मायनों में खास है। प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र के समय पर यहां पर मेले का आयोजन किया जाता है। नवरात्रों के समय यहां भक्तों का तांता लगा रहता है।
अलौकिक अहसास करवाती है शिव कुटिया :
तारा देवी मंदिर के साथ ही कुछ दूरी पर शिव कुटिया मौजूद हैं। घने जंगल में स्थित भगवान शिव का यह छोटा सा मंदिर भगवान शिव के वास्तव में कैलाश में रहने का आभास कराता है। जंगल के अन्य हिस्सों की तुलना में इस मंदिर का तापमान स्वाभाविक रूप से कम है। ऐसा माना जाता है कि कई साल पहले एक संत यहां ध्यान किया करते थे, वे सबसे खराब तापमान में भी यहां रहते थे। बहुत ठंड में भी वह केवल लंगोट में ही यहाँ तपस्या करते थे। माना जाता है कि वह दक्षिण भारत से थे और मर्चेंट नेवी के एक योग्य इंजीनियर थे। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा कमरा है जहाँ एक लकड़ी का लट्ठा लगातार जलता हुआ दिखाई देगा, इसे बाबा जी का धूना कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि बाबाजी यहां ध्यान में हैं, और धुने की राख को उनके अनुयायियों के लिए प्रसाद माना जाता है।
महिषासुर मर्दिनी के रूप में है मां हाटकोटी
शिमला के जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र में मां हाटेश्वरी का पुराना मंदिर है। माता हाटकोटी का मंदिर लाखों भक्तों के लिए आस्था का केंद्र हैं। माना जाता है कि मां हाटेश्वरी मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था। मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी। जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राई नाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है। माता हाटकोटी का यह मंदिर पहले शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था, लेकिन बाद में इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मां हाटकोटी मंदिर के गर्भगृह में महिषासुर मर्दिनी का स्वरूप है। मां की प्रतिमा किस धातु की है. इसका भी पता लगाना मुश्किल है। गाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्मण परिवार में दो सगी बहनें थीं। उन्होंने अल्प आयु में ही संन्यास ले लिया और घर से निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। एक बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है,उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस अलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा। राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय ले लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा।
यह मंदिर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर स्थित है। कहा जाता है मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी, जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मूल स्थान ऊपर पहाड़ों में घने जंगल के मध्य खरशाली नामक जगह पर है। मन्दिर के बिल्कुल बायी ओर बड़े-छोटे पत्थरों को तराश कर, छोटे-छोटे पांच कलात्मक मंदिर बनाए गये है। इन मंदिरों का निर्माण पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया है। यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं। मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है। इसके साथ ही शिव मंदिर है। मंदिर द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजा का आयोजन होता हैं।
यहाँ मूर्ति नहीं होती है माता के चरणों की पूजा
हिडिम्बा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के मनाली में स्थित है। यह एक प्राचीन गुफा मंदिर है, हिडिम्बा मंदिर पांडवों के दूसरे भाई भीम की पत्नी हिडिम्बा को समर्पित है। इसे डूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर एक चार मंजिला संरचना है, जो जंगल के बीच में स्थित है। स्थानीय लोगों ने मंदिर का नाम आसपास के वन क्षेत्र के नाम पर रखा है। हिल स्टेशन में स्थित होने के कारण बर्फबारी के दौरान इस मंदिर को देखने के लिए भारी संख्या में सैलानी यहां जाते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति स्थापित नहीं है बल्कि हिडिम्बा देवी मंदिर में हिडिम्बा देवी के पदचिन्हों की पूजा की जाती है।’
माता हिडिम्बा अपने भाई हिडिम्ब के साथ इस क्षेत्र में रहती थी। उसने कसम खाई थी कि जो कोई उसके भाई हिडिम्ब को लड़ाई में हरा देगा, वह उसी के साथ अपना विवाह करेगी। उस दौरान जब पांडव निर्वासन में थे, तब पांडवों के दूसरे भाई भीम ने हिडिम्ब की यातनाओं और अत्याचारों से ग्रामीणों को बचाने के लिए उसे मार डाला और इस तरह महाबली भीम के साथ हिडिम्बा का विवाह हो गया। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र घटोत्कच हुआ, जो कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों के लिए लड़ते हुए मारा गया था। देवी हिडिम्बा को समर्पित यह मंदिर हडिम्बा मंदिर के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि भीम और पांडव मनाली से चले जाने के बाद हिडिम्बा राज्य की देखभाल के लिए वापस आ गए थे। ऐसा कहा जाता है कि हिडिम्बा बहुत दयालु और न्यायप्रिय शासिका थी। जब उसका बेटा घटोत्कच बड़ा हुआ तो हिडिम्बा ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और अपना शेष जीवन बिताने के लिए ध्यान करने जंगल में चली गयी। हिडिम्बा अपनी दानवता या राक्षसी पहचान मिटाने के लिए एक चट्टान पर बैठकर कठिन तपस्या करती रही। कई वर्षों के ध्यान के बाद उसकी प्रार्थना सफल हुई और उसे देवी होने का गौरव प्राप्त हुआ। हिडिम्बा देवी की तपस्या और उसके ध्यान के सम्मान में इसी चट्टान के ऊपर इस मंदिर का निर्माण 1553 में महाराजा बहादुर सिंह ने करवाया था। मंदिर एक गुफा के चारों ओर बनाया गया है। मंदिर बनने के बाद यहां श्रद्धालु हिडिम्बा देवी के दर्शन पूजन के लिए आने लगे।
पगोडा शैली में किया गया है मंदिर का निर्माण
हिडिम्बा देवी मंदिर की खासियत यह है कि इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली में कराया गया है जिसके कारण यह सामान्य मंदिर के काफी अलग और लोगों के आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर लकड़ी से बनाया गया है और इसमें चार छतें हैं। मंदिर के नीचे की तीन छतें देवदार की लकड़ी के तख्तों से बनी हैं और चौथी या सबसे ऊपर की छत का निर्माण तांबे एवं पीतल से किया गया है। मंदिर के नीचे की छत यानि पहली छत सबसे बड़ी, उसके ऊपर यानी दूसरी छत पहले से छोटी, तीसरी छत दूसरे छत से छोटी और चौथी या ऊपरी छत सबसे छोटी है, जो कि दूर से देखने पर एक कलश के आकार की नजर आती है। हिडिम्बा देवी मंदिर 40 मीटर ऊंचे शंकु के आकार का है और मंदिर की दीवारें पत्थरों की बनी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर में एक लकड़ी का दरवाजा लगा है जिसके ऊपर देवी, जानवरों आदि की छोटी-छोटी पेंटिंग हैं। चौखट के बीम में भगवान कृष्ण की एक कहानी के नवग्रह और महिला नर्तक हैं। मंदिर में देवी की मूर्ति नहीं है लेकिन उनके पदचिन्ह पर एक विशाल पत्थर रखा हुआ है जिसे देवी का विग्रह रूप मानकर पूजा की जाती है। मंदिर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर देवी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित एक मंदिर है।