जॉन एलिया: आज की पीढ़ी का पसंदीदा शायर, पेश है कुछ चुनिंदा शेर
पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र । जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी, और अर्बी सीखते - सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए।
मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। 1947 में तो सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीँ गुजारी।
जॉन एलिया के शेर आज की युवा पीढ़ी के सिर चढ़कर बोलते है। इनके श्यारी में दर्द भी है, व्यंग भी और दार्शनिकता भी। भाषा इतनी सरल कि हर आम और ख़ास के समझ आ जाएँ। पेश है जॉन एलिया के कुछ चुनिंदा शेर।
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में
बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है
किस लिए देखती हो आईना
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो
कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई
तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
मुस्तक़िल बोलता ही रहता हूँ
कितना ख़ामोश हूँ मैं अंदर से
इलाज ये है कि मजबूर कर दिया जाऊँ
वगरना यूँ तो किसी की नहीं सुनी मैं ने
मुझे अब तुम से डर लगने लगा है
तुम्हें मुझ से मोहब्बत हो गई क्या
उस गली ने ये सुन के सब्र किया
जाने वाले यहाँ के थे ही नहीं
हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे
क्या कहा इश्क़ जावेदानी है!
आख़िरी बार मिल रही हो क्या
और तो क्या था बेचने के लिए
अपनी आँखों के ख़्वाब बेचे हैं
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है
दिल की तकलीफ़ कम नहीं करते
अब कोई शिकवा हम नहीं करते
मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले
अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
ज़िंदगी एक फ़न है लम्हों को
अपने अंदाज़ से गँवाने का
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
मैं रहा उम्र भर जुदा ख़ुद से
याद मैं ख़ुद को उम्र भर आया
अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या
याद उसे इंतिहाई करते हैं
सो हम उस की बुराई करते हैं
अब नहीं कोई बात ख़तरे की
अब सभी को सभी से ख़तरा है
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना
वस्ल से इंतिज़ार अच्छा था
अब तो हर बात याद रहती है
ग़ालिबन मैं किसी को भूल गया
ऐ शख़्स मैं तेरी जुस्तुजू से
बे-ज़ार नहीं हूँ थक गया हूँ
इक अजब हाल है कि अब उस को
याद करना भी बेवफ़ाई है
मुझ को आदत है रूठ जाने की
आप मुझ को मना लिया कीजे
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
काम की बात मैं ने की ही नहीं
ये मिरा तौर-ए-ज़िंदगी ही नहीं
वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे
अपना रिश्ता ज़मीं से ही रक्खो
कुछ नहीं आसमान में रक्खा
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा
मैं जो हूँ 'जौन-एलिया' हूँ जनाब
इस का बेहद लिहाज़ कीजिएगा
एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
आज मुझ को बहुत बुरा कह कर
आप ने नाम तो लिया मेरा
नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम
जुर्म में हम कमी करें भी तो क्यूँ
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर
कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते
गँवाई किस की तमन्ना में ज़िंदगी मैं ने
वो कौन है जिसे देखा नहीं कभी मैं ने
शौक़ है इस दिल-ए-दरिंदा को
आप के होंट काट खाने का
शब जो हम से हुआ मुआफ़ करो
नहीं पी थी बहक गए होंगे
जाते जाते आप इतना काम तो कीजे मिरा
याद का सारा सर-ओ-सामाँ जलाते जाइए
ज़िंदगी क्या है इक कहानी है
ये कहानी नहीं सुनानी है
हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा
फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ
ये बहुत ग़म की बात हो शायद
अब तो ग़म भी गँवा चुका हूँ मैं
अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है
एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई
इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
रोया हूँ तो अपने दोस्तों में
पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूँ तिरी हिमायत में
आज बहुत दिन ब'अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ
हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
जानिए उस से निभेगी किस तरह
वो ख़ुदा है मैं तो बंदा भी नहीं
मुझ से अब लोग कम ही मिलते हैं
यूँ भी मैं हट गया हूँ मंज़र से
अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या
बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या
मुझ को ख़्वाहिश ही ढूँडने की न थी
मुझ में खोया रहा ख़ुदा मेरा
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं
ख़र्च चलेगा अब मिरा किस के हिसाब में भला
सब के लिए बहुत हूँ मैं अपने लिए ज़रा नहीं
तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम
क्या है जो बदल गई है दुनिया
मैं भी तो बहुत बदल गया हूँ
ये वार कर गया है पहलू से कौन मुझ पर
था मैं ही दाएँ बाएँ और मैं ही दरमियाँ था
सब मेरे बग़ैर मुतमइन हैं
मैं सब के बग़ैर जी रहा हूँ
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना पुराने हो गए हैं
कि उस गली में गए अब ज़माने हो गए हैं
अब तुम कभी न आओगे यानी कभी कभी
रुख़्सत करो मुझे कोई वादा किए बग़ैर
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
आख़िरी बात तुम से कहना है
याद रखना न तुम कहा मेरा
आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ
कल का दिन हाए कल का दिन ऐ 'जौन'
काश इस रात हम भी मर जाएँ
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं
चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र
अब वो कपड़े बदल रही होगी
जिस्म में आग लगा दूँ उस के
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को
कौन से शौक़ किस हवस का नहीं
दिल मिरी जान तेरे बस का नहीं
क्या पूछते हो नाम-ओ-निशान-ए-मुसाफ़िराँ
हिन्दोस्ताँ में आए हैं हिन्दोस्तान के थे
ख़ूब है शौक़ का ये पहलू भी
मैं भी बर्बाद हो गया तू भी
हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में
और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम
अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
मैं जुर्म का ए'तिराफ़ कर के
कुछ और है जो छुपा गया हूँ
पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम
मुझे अब होश आता जा रहा है
ख़ुदा तेरी ख़ुदाई जा रही है
मिल कर तपाक से न हमें कीजिए उदास
ख़ातिर न कीजिए कभी हम भी यहाँ के थे
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
भूल जाना नहीं गुनाह उसे
याद करना उसे सवाब नहीं
हम जो अब आदमी हैं पहले कभी
जाम होंगे छलक गए होंगे
तिरी क़ीमत घटाई जा रही है
मुझे फ़ुर्क़त सिखाई जा रही है
अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी
मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या
उस से हर-दम मोआ'मला है मगर
दरमियाँ कोई सिलसिला ही नहीं
फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से
उस ने गोया मुझी को याद रखा
मैं भी गोया उसी को भूल गया
सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था
गो अपने हज़ार नाम रख लूँ
पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ
हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब
पिए जाऊँ मैं ख़ून ही कब तक
मैं बिस्तर-ए-ख़याल पे लेटा हूँ उस के पास
सुब्ह-ए-अज़ल से कोई तक़ाज़ा किए बग़ैर
जम्अ' हम ने किया है ग़म दिल में
इस का अब सूद खाए जाएँगे
हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया
सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो
इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में
जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने
आज कितने नक़ाब बेचे हैं
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
ख़ुदा से ले लिया जन्नत का व'अदे
ये ज़ाहिद तो बड़े ही घाग निकले
अब नहीं मिलेंगे हम कूचा-ए-तमन्ना में
कूचा-ए-तमन्ना में अब नहीं मिलेंगे हम
हमें शिकवा नहीं इक दूसरे से
मनाना चाहिए इस पर ख़ुशी क्या
अपने सभी गिले बजा पर है यही कि दिलरुबा
मेरा तिरा मोआ'मला इश्क़ के बस का था नहीं
याद आते हैं मोजज़े अपने
और उस के बदन का जादू भी
अब ख़ाक उड़ रही है यहाँ इंतिज़ार की
ऐ दिल ये बाम-ओ-दर किसी जान-ए-जहाँ के थे
हम यहाँ ख़ुद आए हैं लाया नहीं कोई हमें
और ख़ुदा का हम ने अपने नाम पर रक्खा है नाम
घर से हम घर तलक गए होंगे
अपने ही आप तक गए होंगे
शाम हुई है यार आए हैं यारों के हमराह चलें
आज वहाँ क़व्वाली होगी 'जौन' चलो दरगाह चलें
हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का
सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो
नई ख़्वाहिश रचाई जा रही है
तिरी फ़ुर्क़त मनाई जा रही है
मैं सहूँ कर्ब-ए-ज़िंदगी कब तक
रहे आख़िर तिरी कमी कब तक
फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन सी बस्ती से लाऊँ मैं
मुझ को ये होश ही न था तू मिरे बाज़ुओं में है
यानी तुझे अभी तलक मैं ने रिहा नहीं किया
अब कि जब जानाना तुम को है सभी पर ए'तिबार
अब तुम्हें जानाना मुझ पर ए'तिबार आया तो क्या
'जौन' दुनिया की चाकरी कर के
तू ने दिल की वो नौकरी क्या की
हम को हरगिज़ नहीं ख़ुदा मंज़ूर
या'नी हम बे-तरह ख़ुदा के हैं
हम अजब हैं कि उस की बाहोँ में
शिकवा-ए-नारसाई करते हैं
मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से
मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से
तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है
इन लबों का लहू न पी जाऊँ
अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है
हुस्न कहता था छेड़ने वाले
छेड़ना ही तो बस नहीं छू भी
एक क़त्ताला चाहिए हम को
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं
किया था अहद जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम
हाए वो उस का मौज-ख़ेज़ बदन
मैं तो प्यासा रहा लब-ए-जू भी
शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है
न रखा हम ने बेश-ओ-कम का ख़याल
शौक़ को बे-हिसाब ही लिक्खा
शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ
मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में
ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से