किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से: गुलज़ार
बस तेरा नाम ही मुकम्ल है ,
इससे बेहतर भी नज़म क्या होगी।
ऐसे शब्दों की जादूगरी सिर्फ गुलज़ार ही कर सकते है। गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1936 को भारत के झेलम जिला पंजाब के दीना गाँव में हुआ, जो अब पाकिस्तान में है। जिसे ये बटवारे के बाद छोर आए। बंटवारे के बाद उनका परिवार अमृतसर में आकर बस गया। वहीं से गुलज़ार साहब मुंबई चले गए। वर्ली के एक गेरेज में वे बतौर मेकेनिक काम करने लगे और खाली समय में कविताएं लिखने लगे। फ़िल्म इंडस्ट्री में उन्होंने बिमल राय, हृषिकेश मुख़र्जी और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम शुरू किया। बिमल राय की फ़िल्म बन्दिनी के लिए गुलज़ार ने अपना पहला गीत लिखा। गुलज़ार एक ऐसे लेखक है जिन्होंने हर पीढ़ी से अपना नाता जोड़ा है। गुलज़ार साहब के हर फ़न ने सभी का दिल जीता है, चाहे वो बड़ा पर्दा हो या छोटा, या फिर मन का असीम पर्दा। हर पर्दे पर इनकी दास्ताँ लोगों के दिलों में घर कर गई। पढ़िए गुलज़ार साहब की एक खास नज़्म.......
किताबें झाँकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा वो शायद अब नही होंगे!!