मीर तक़ी मीर : शायरी का ख़ुदा
मीर तक़ी मीर साहब उर्दू अदब के वो नयाब हीरे थे जिनके बारे में अकबर इलाहाबादी साहब ने कहा था "मैं हूँ क्या चीज़ जो इस तर्ज़ पे जाऊं "अकबर " मसिखो-ज़ौक़ भी चल न सके मीर के साथ।" उर्दू के सर्वकालिक महान शायरों में शुमार मीर तकी मीर इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर चुके है। मीर को शायरी का ख़ुदा कहा जाता है। यह तक की उर्दू के बेताज बादशाह कहे जाने वाले ग़ालिब ने जब एक फकीर से मीर की एक नज्म सुनी तो उनके मुंह से बेसाख्ता निकला, 'रेख्ते के तुम ही नहीं हो उस्ताद ग़ालिब, कहते हैं पिछले ज़माने में कोई मीर भी था।' मीर को उर्दू के उस प्रचलन के लिए याद किया जाता है जिसमें फ़ारसी और हिन्दुस्तानी के शब्दों का अच्छा मिश्रण और सामंजस्य हो। उनके कूछ लाजवाब शेर हम आपके लिए लाए है-
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर'
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए
उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए
दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है